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रंग ठुमरी के : SWARGOSHTHI – 210 : THUMARI




 
स्वरगोष्ठी – 210 में आज

भारतीय संगीत शैलियों का परिचय : 8 : ठुमरी

‘रस के भरे तोरे नैन...’






‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर लघु श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का परिचय’ की एक और नवीन कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। पाठकों और श्रोताओं के अनुरोध पर आरम्भ की गई इस लघु श्रृंखला के अन्तर्गत हम भारतीय संगीत की उन परम्परागत शैलियों का परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं, जो आज भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे बीच उपस्थित हैं। भारतीय संगीत की एक समृद्ध परम्परा है। वैदिक युग से लेकर वर्तमान तक इस संगीत-धारा में अनेकानेक धाराओं का संयोग हुआ। इनमें से भारतीय संगीत के मौलिक सिद्धान्तों के अनुकूल जो धाराएँ थीं उन्हें स्वीकृति मिली और वह आज भी एक संगीत शैली के रूप स्थापित है और उनका उत्तरोत्तर विकास भी हुआ। विपरीत धाराएँ स्वतः नष्ट भी हो गईं। पिछली कड़ी से हमने भारतीय संगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय खयाल शैली के अन्तर्गत ‘चतुरंग’ गायकी का सोदाहरण परिचय प्रस्तुत किया था। आज के अंक से हम उपशास्त्रीय संगीत के अन्तर्गत ‘ठुमरी’ गीतों पर चर्चा करेंगे और भारतीय संगीत जगत की सुप्रसिद्ध गायिकाएँ विदुषी गिरिजा देवी और बेगम अख्तर की गायी ठुमरियाँ प्रस्तुत करेंगे। 


र्तमान में भारतीय संगीत की सर्वाधिक लोकप्रिय शैली ‘ठुमरी’ है। यह शैली कैशिकी वृत्ति की मानी जाती है। यह श्रृंगार रस प्रधान, कोमल भाव से युक्त, ललित रागबद्ध और भावपूर्ण गायकी है। अनेक प्राचीन ग्रन्थों में विभिन्न सामाजिक उत्सवों और मांगलिक अवसरों पर स्त्रियॉं द्वारा गायी जाने वाली कैशिकी वृत्ति के गीतों का उल्लेख मिलता है। भरत के नाट्यशास्त्र में भी यह उल्लेख है कि इस प्रकार के गीतों का प्रयोग नृत्य और नाट्य विधा में भावाभिव्यक्ति के लिए किया जाता था। आज भी कथक नृत्य में भाव प्रदर्शन के लिए ठुमरी गायन का प्रयोग किया जाता है। गीत के जिस प्रकार को आधुनिक ठुमरी के नाम से पहचाना जाता है उसका विकास नवाब वाजिद अली शाह के शासनकाल में हुआ। अवध के नवाब वाजिद अली शाह संगीत, नृत्य के प्रेमी और कला-संरक्षक के रूप में विख्यात थे। नवाब 1847 से 1856 तक अवध के शासक रहे। उनके शासनकाल में ही ठुमरी एक शैली के रूप में विकसित हुई थी। उन्हीं के प्रयासों से कथक नृत्य को एक अलग आयाम मिला और ठुमरी, कथक नृत्य का अभिन्न अंग बनी। नवाब ने 'कैसर' उपनाम से अनेक गद्य और पद्य की रचनाएँ भी की थी। इसके अलावा ‘अख्तर' उपनाम से दादरा, ख़याल, ग़ज़ल और ठुमरियों की भी रचना की थी। 7 फरवरी, 1856 को अंग्रेजों ने जब उन्हें सत्ता से बेदखल किया और बंगाल के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर नज़रबन्द कर दिया तब उनका दर्द ठुमरी भैरवी –‘बाबुल मोरा नैहर छुटो जाए...’ में अभिव्यक्त हुआ। नवाब वाजिद अली शाह की यह ठुमरी इतनी लोकप्रिय हुई कि तत्कालीन और परवर्ती शायद ही कोई शास्त्रीय या उपशास्त्रीय गायक हो जिसने इस ठुमरी को न गाया हो।

उन्नीसवीं शताब्दी से बीसवीं शताब्दी के मध्य तक ठुमरी का विकास नृत्याभिनय और स्वतंत्र गायकी के रूप में हुआ। आरम्भिक काल से ही ठुमरी की दो धाराएँ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। इसमें पहले प्रकार की ठुमरी नृत्य के साथ गायी जाने वाली ठुमरी है, जिसमें हावभाव और आंगिक अभिनय के तत्व प्रबल होते हैं। दूसरे प्राकार की ठुमरियों में बोलों की भावाभिव्यंजना, स्वर सन्निवेश और काकु का समन्वित प्रयोग होता है। इस प्रकार को ‘गानप्रधान ठुमरी’ कहा जा सकता है। गत्यात्मकता और भावावाभिव्यंजना के आधार पर भी ठुमरियों के दो भेद होते है। इन्हें क्रमशः ‘बोलबाँट की ठुमरी’ और ‘बोलबनाव की ठुमरी’ कहा जाता है। बोलबाँट की ठुमरी गतिप्रधान और बोलबनाव की ठुमरी भावप्रधान होती है। इस श्रृंखला में हम ठुमरी के इन प्रकारों पर आगे चल कर विस्तृत चर्चा करेंगे, परन्तु आज सबसे पहले हम आपको पूरब अंग की बोलबनाव की ठुमरी का एक उदाहरण सुनवाते हैं। राग भैरवी की यह ठुमरी दीपचंदी ताल में निबद्ध है और इसे प्रस्तुत कर रही हैं, विश्वविख्यात गायिका विदुषी गिरिजा देवी।



ठुमरी भैरवी : ‘रस के भरे तोरे नैन साँवरिया...’ विदुषी गिरिजा देवी




उनीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लखनऊ में बोलबाँट और बोलबनाव दोनों प्रकार की ठुमरियों का प्रचलन रहा है। परन्तु बोलबाँट ठुमरियों का प्रसार पश्चिमी उत्तर प्रदेश, ब्रज, दिल्ली आदि क्षेत्रों में अधिक हुआ। इसलिए इस प्रकार की ठुमरियों को ‘पछाहीं ठुमरी’ भी कहा जाने लगा। इसी प्रकार लखनऊ से पूर्व दिशा में अर्थात पूर्वी उत्तर प्रदेश, बनारस और बिहार के कुछ क्षेत्रों में ठुमरी की जो शैली विकसित हुई उसे ‘पूरब अंग की ठुमरी’ कहा जाने लगा। 1956 में अँग्रेजों द्वारा बन्दी बनाए जाने के बाद नवाब वाजिद अली शाह को बंगाल के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर नज़रबन्द करने के बाद लखनऊ के कई संगीतज्ञ कोलकाता जाकर बस गए। इन्हीं संगीतज्ञों के माध्यम से बंगाल में भी ठुमरी का प्रचार-प्रसार हुआ।

अब हम आपको एक ऐसी अप्रतिम ठुमरी गायिका की गायी ठुमरी सुनवाते हैं, जिन्होने अपनी अपनी शैली का स्वयं निर्माण किया। उस अप्रतिम गायिका का नाम है, अख्तरी बाई फैजाबादी अर्थात बेगम अख्तर, जिनका जन्म 7 अक्तूबर, 1914 को उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद नामक शहर (तत्कालीन अवध) में एक कट्टर मुस्लिम परिवार में हुआ था। एक बार सुविख्यात सरोदवादक उस्ताद सखावत हुसेन खाँ के कानों में अख्तरी के गुनगुनाने की आवाज़ पड़ी। उन्होने परिवार में ऐलान कर दिया कि आगे चल कर यह नन्ही बच्ची असाधारण गायिका बनेगी, और देश-विदेश में अपना व परिवार का नाम रोशन करेगी। उस्ताद ने अख्तरी के माता-पिता से संगीत की तालीम दिलाने का आग्रह किया। पहले तो परिवार का कोई भी सदस्य इसके लिए राजी नहीं हुआ किन्तु अख्तरी की माँ ने सबको समझा-बुझा कर अन्ततः मना लिया। उस्ताद सखावत हुसेन ने अपने मित्र, पटियाला के प्रसिद्ध गायक उस्ताद अता मुहम्मद खाँ से अख्तरी को तालीम देने का आग्रह किया। वे मान गए और अख्तरी उस्ताद के पास भेज दी गईं। मात्र सात वर्ष की आयु में उन्हें उस्ताद के कठोर अनुशासन में रियाज़ करना पड़ा। तालीम के दिनों में ही उनका पहला रिकार्ड- ‘वह असीरे दम बला हूँ...’ बना और वे अख्तरी बाई फैजाबादी बन गईं। उस्ताद अता मुहम्मद खाँ के बाद उन्हें पटना के उस्ताद अहमद खाँ से रागों की विधिवत शिक्षा मिली। इसके अलावा बेगम अख्तर को उस्ताद अब्दुल वहीद खाँ और हारमोनियम वादन में सिद्ध उस्ताद गुलाम मुहम्मद खाँ का मार्गदर्शन भी प्राप्त हुआ। बेगम अख्तर यद्यपि खयाल गायकी में अत्यंत कुशल थीं किन्तु उन्हें ठुमरी और गज़ल गायन में सर्वाधिक ख्याति मिली। बेगम अख्तर की गायकी में शुचिता थी और श्रोताओं के हृदय को छूने की क्षमता भी थी। अब हम आपके लिए बेगम अख्तर के स्वर में एक होरी ठुमरी प्रस्तुत करते हैं। होली के माहौल में आप यह ठुमरी सुनिए और हमे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।



होरी ठुमरी : ‘कैसी ये धूम मचाई...’ : बेगम अख्तर





संगीत पहेली


‘स्वरगोष्ठी’ के 210वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको एक महान गायक की आवाज़ में कण्ठ संगीत की रचना का एक अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के इस अंक की समाप्ति तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष की पहली श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।


1 – संगीत का यह अंश सुन कर बताइए कि यह रचना किस राग में निबद्ध है?

2 – प्रस्तुति के इस अंश में किस ताल का प्रयोग किया गया है? ताल का नाम बताइए।

3 – इस रचना के गायक को पहचानिए और हमे उनका नाम बताइए।

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर इस प्रकार भेजें कि हमें शनिवार, 21 मार्च, 2015 की मध्यरात्रि से पूर्व तक अवश्य प्राप्त हो जाए। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। इस पहेली के विजेताओं के नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 212वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रकाशित और प्रसारित गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।


पिछली पहेली के विजेता


‘स्वरगोष्ठी’ की 208वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको महान गायक पण्डित जसराज के स्वरों में प्रस्तुत चतुरंग का एक एक अंश सुनवा कर आपसे तीन में से किसी दो प्रश्न के उत्तर पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग श्याम कल्याण, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल द्रुत तीनताल और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है- पण्डित जसराज। इस बार पहेली के तीन में से दो प्रश्नों के सही उत्तर पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया और जबलपुर से क्षिति तिवारी ने और हैदराबाद से डी. हरिना माधवी ने तीनों प्रश्नों के सही उत्तर दिये हैं। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।


अपनी बात



मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ का यह अंक हम पिछले रविवार को कुछ आपरिहार्य कारणों से नहीं प्रकाशित कर सके, जिसके लिए हमें खेद है। हम आपके इस प्रिय साप्ताहिक स्तम्भ का निर्बाध प्रकाशन करने का प्रयास करते हैं, किन्तु कभी-कभी तकनीकी व्यवधान के कारण हम ऐसा नहीं कर पाते। भविष्य में हम स्तम्भ की निरन्तरता का हर सम्भव प्रयास करेंगे। आज के अंक से हम जारी श्रृंखला ‘भारतीय संगीत शैलियों का परिचय’ के अन्तर्गत ठुमरी गायकी पर चर्चा शुरू की है। आपको यह अंक कैसा लगा? हमें अवश्य लिखिएगा। अगले अंक में हम आपका परिचय ठुमरी के कुछ अन्य प्रकार कराएंगे। यदि आप भी संगीत के किसी भी विषय पर हिन्दी में लेखन की इच्छा रखते हैं तो हमसे सम्पर्क करें। हम आपकी प्रतिभा का सदुपयोग करेने। ‘स्वरगोष्ठी’ स्तम्भ के आगामी अंकों में आप क्या पढ़ना और सुनना चाहते हैं, हमे आविलम्ब लिखें। अपनी पसन्द के विषय और गीत-संगीत की फरमाइश अथवा अगली श्रृंखलाओं के लिए आप किसी नए विषय का सुझाव भी दे सकते हैं। आज बस इतना ही, अगले रविवार को एक नए अंक के साथ प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर आप सभी संगीतानुरागियों का हम स्वागत करेंगे।


प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र  

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