Skip to main content

Posts

Showing posts with the label old classics

काली घोड़ी द्वारे खड़ी...काली बाईक का जिक्र और थाट काफ़ी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 747/2011/187 ‘ओ ल्ड इज गोल्ड’ पर जारी भारतीय संगीत के आधुनिक काल में प्रचलित थाटों की श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की आज की कड़ी में हम ‘काफी’ थाट का परिचय प्राप्त करेंगे और इस थाट के आश्रय राग ‘काफी’ पर आधारित एक फिल्मी गीत का आनन्द भी लेंगे। परन्तु उससे पहले प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में की गई थाट विषयक चर्चा की कुछ जानकारी आपसे बाँटेंगे। संगीत की परिभाषा में थाट को संस्कृत ग्रन्थों में मेल अर्थात स्वरों का मिलाना या इकट्ठा करना कहते हैं। इन ग्रन्थों में थाट अथवा मेल के विषय में जो व्याख्या की गई है, उसके अनुसार ‘वह स्वर-समूह थाट कहलाता है, जो राग-निर्मिति में सक्षम हो’। पं॰ सोमनाथ अपने ‘राग-विवोध’ के तीसरे अध्याय में मेलों को परिभाषित करते हुए लिखा है- ‘थाट इति भाषायाम’ अर्थात, मेल को भाषा में थाट कहते हैं। ‘राग-विवोध’ आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व की रचना है। यह ग्रन्थ ‘थाट’ का प्राचीन आधार भी है। आज हम आपसे थाट ‘काफी’ के विषय में कुछ चर्चा करेंगे।काफी थाट के स्वर हैं- सा, रे, ग॒, म, प, ध, नि॒। इस थाट में गान्धार और निषाद कोमल और शेष स्वर शुद्ध प्रयोग कि

पायलिया बांवरी मोरी....सूने महल में नाचती रक्कासा के स्वरों में राग मारवा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 746/2011/186 ‘ओ ल्ड इज़ गोल्ड‘ पर जारी श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के नए सप्ताह में सभी रसिकों का मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर हार्दिक स्वागत करता हूँ। आधुनिक उत्तर भारतीय संगीत में राग-वर्गीकरण के लिए प्रचलित दस थाट प्रणाली पर केन्द्रित इस श्रृंखला में अब तक आप कल्याण, बिलावल, खमाज, भैरव और पूर्वी थाट का परिचय प्राप्त कर चुके हैं। आज की कड़ी में हम ‘मारवा’ थाट पर चर्चा करेंगे। हमारा भारतीय संगीत एक सुदृढ़ और समृद्ध आधार पर विकसित हुआ है। समय-समय पर इसका वैज्ञानिक दृष्टि से मूल्यांकन होता रहा है। यह परिवर्द्धन वर्तमान थाट प्रणाली पर भी लागू है। आधुनिक संगीत में प्राचीन मुर्च्छनाओं के स्थान पर मेल अथवा थाट प्रणाली का उपयोग किया जाता है। सभी छोटे-बड़े अन्तराल, जो रागों के लिए आवश्यक हैं, सप्तक की सीमाओं के अन्तर्गत रखे गए और मुर्च्छना की प्राचीन प्रणाली का परित्याग किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि यह परिवर्तन चार-पाँच सौ वर्ष पूर्व हुआ। आज ऋषभ, गांधार, मध्यम, धैवत और निषाद स्वरों के प्रत्येक स्वर की एक या दो श्रुतियों को ग्रहण कर नवीन थाट का निर्माण करते

करुणा सुनो श्याम मोरी...जब वाणी जयराम बनी मीरा की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 745/2011/185 आ धुनिक भारतीय संगीत में प्रचलित थाट पद्धति पर केन्द्रित श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की पाँचवीं कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत है। इस श्रृंखला में हम पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे द्वारा प्रवर्तित उन दस थाटों की चर्चा कर रहे हैं, जिनके माध्यम से रागों का वर्गीकरण किया जाता है। उत्तर और दक्षिण भारतीय संगीत की दोनों पद्धतियों में संगीत के सात शुद्ध, तीन कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल बारह स्वरों के प्रयोग में समानता है। दक्षिण भारत के ग्रन्थकार पण्डित व्यंकटमखी ने सप्तक में १२ स्वरों को आधार मान कर ७२ थाटों की रचना गणित के सिद्धान्तों पर की थी। भातखण्डे जी ने इन ७२ थाटों में से केवल उतने ही थाट चुन लिये, जिनमें उत्तर भारतीय संगीत के प्रचलित सभी रागों का वर्गीकरण होना सम्भव हो। इस विधि से वर्तमान उत्तर भारतीय संगीत को उन्होने पक्की नींव पर प्रतिस्थापित किया। साथ ही उन सभी विशेषताओं को भी, जिनके आधार पर दक्षिण और उत्तर भारतीय संगीत पद्धति पृथक होती है, उन्होने कायम किया। भातखण्डे जी ने पं॰ व्यंकटमखी के ७२ थाटों में से १० थाट चुन कर प्रचलित सभी रागों

जागो मोहन प्यारे...राग भैरव पर आधारित ये अमर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 744/2011/184 ‘द स थाट, दस राग और दस गीत’ श्रृंखला की चौथी कड़ी में आपका पुनः स्वागत है। आपको मालूम ही है कि इस श्रृंखला में हम भारतीय संगीत के दस थाटों पर चर्चा कर रहे हैं। पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि वर्तमान में प्रचलित थाट पद्यति पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे द्वारा प्रवर्तित है। पं॰ भातखण्डे ने गम्भीर अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि तत्कालीन प्रचलित राग-वर्गीकरण की जितनी भी पद्धतियाँ उत्तर भारतीय संगीत में प्रचार में आईं और उनके काल में अस्तित्व में थीं, उनके रागों का वर्गीकरण आज के रागों पर लागू नहीं हो सकता। गत कुछ शताब्दियों में सभी रागों में परिवर्तन एवं परिवर्द्धन हुए हैं, अतः उनके पुराने और नए स्वरूपों में कोई समानता नहीं है। भातखण्डे जी ने तत्कालीन राग-रागिनी प्रणाली का परित्याग किया और इसके स्थान पर जनक मेल और जन्य प्रणाली को राग वर्गीकरण की अधिक उचित प्रणाली माना। उन्हें इस वर्गीकरण का आधार न केवल दक्षिण में, बल्कि उत्तर में ‘राग-तरंगिणी’, ‘राग-विबोध’, ‘हृदय-कौतुक’, और ‘हृदय-प्रकाश’ जैसे ग्रन्थों में मिला। आज हमारी चर्चा का थाट है

अब क्या मिसाल दूं...वाकई बेमिसाल है ये गीत और इस गीत में रफ़ी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 743/2011/183 शृं खला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की तीसरी कड़ी में, मैं कृष्णमोहन मिश्र सभी संगीत अनुरागियों का स्वागत करता हूँ। इन दिनों हम भारतीय संगीत के दस थाटों पर चर्चा कर रहे हैं। पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि संगीत के रागों के वर्गीकरण के लिए थाट प्रणाली को अपनाया गया। थाट और राग के विषय में कभी-कभी यह भ्रम हो जाता है कि पहले थाट और फिर उससे राग की उत्पत्ति हुई होगी। दरअसल ऐसा है नहीं। रागों की संरचना अत्यन्त प्राचीन है। रागों में प्रयुक्त स्वरों के अनुकूल मिलते स्वर जिस थाट के स्वरों में मौजूद होते हैं, राग को उस थाट विशेष से उत्पन्न माना गया है। मध्य काल में राग-रागिनी पद्यति प्रचलन में थी। बाद में इस पद्यति की अवैज्ञानिकता सिद्ध हो जाने पर थाट-वर्गीकरण के अन्तर्गत समस्त रागों को विभाजित किया गया। हमारे शास्त्रकारों ने थाट के नामकरण के लिए ऐसे रागों का चयन किया, जिसके स्वर थाट के स्वरों से मेल खाते हों। थाट के नामकरण के उपरान्त सम्बन्धित राग को उस थाट का आश्रय राग कहा गया। खमाज थाट के स्वर होते हैं- सा, रे ग, म, प ध, नि॒। इस थाट का आश्रय र

नवकल्पना नव रूप से...हम कर रहे हैं एक नई शृंखला का आरंभ शम्भू सेन के इस गीत से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 741/2011/181 'ओ ल्ड इज गोल्ड’ के समस्त संगीत-प्रेमी पाठकों-श्रोताओं का एक बार पुनः मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक नई श्रृंखला में हार्दिक स्वागत करता हूँ। दोस्तों, अपने देश में संगीत की हजारों वर्ष पुरानी समृद्ध परम्परा है। आज नई पीढ़ी के सामने संगीत के अनेक विकल्प हैं। इस पीढ़ी ने नए विकल्पों को सहर्ष अपनाया है। नवीन विकल्पों को समझने का प्रयास करना अच्छी बात है, परन्तु प्राचीन समृद्ध संगीत परम्परा की उपेक्षा उचित नहीं है। आपने ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’ पर परम्परागत भारतीय संगीत पर आधारित कुछ श्रृंखलाओं का आनन्द लिया है और इन्हें सराहा भी है। ऐसी श्रृंखलाओं को प्रस्तुत करने का हमारा उद्येश्य आपको संगीत का विद्वान बनाना कदापि नहीं है। हमारी अपेक्षा है कि आप संगीत के एक अच्छे श्रोता बनें और उसकी सराहना कर सकें। आज से आरम्भ हो रही श्रृंखला- ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ में भी हमारा यही प्रयास रहेगा कि शास्त्रीय संगीत आपके लिए अनबूझ पहेली बन कर न रह जाय। यह तो आप जानते ही हैं कि भारतीय संगीत के सबसे प्रमुख तत्त्व सात स्वर और इन स्वरों से बनने वाले राग होते हैं। संगीत के प्रचलित,

पी के घर आज प्यारी दुल्हन....एक विदाई गीत शमशाद के स्वरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 738/2011/178 पा र्श्वगायिका शमशाद बेगम पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' की सातवीं कड़ी में आप सब का स्वागत है। नय्यर साहब के दो गीत सुनने के बाद आज एक बार फिर बारी नौशाद साहब की। १९५७ में नौशाद साहब की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही 'मदर इण्डिया'। इस फ़िल्म में शमशाद बेगम के गाये दो एकल गीतों नें फ़िल्म के अन्य गीतों के साथ साथ ख़ूब धूम मचाई। इनमें से एक तो है मशहूर होली गीत "होली आयी रे कन्हाई रंग छलके सुना दे ज़रा बांसुरी", जिसे हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पिछले साल सुनवाया था, और इस साल भी होली के अवसर पर शकील बदायूनी के बेटे जावेद बदायूनी से की गई बातचीत पर केन्द्रित 'शनिवार विशेष' में सुनवाया था। शमशाद जी का गाया 'मदर इण्डिया' का दूसरा गीत था विदाई गीत "पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली, रोये माता पिता उनकी दुनिया चली"। बड़ा ही दिल को छू लेने वाला विदाई गीत है यह। शमशाद बेगम के गाये मस्ती भरे गीतों को हमने ज़्यादा सुना है। लेकिन कुछ गीत उनके ऐसे भी हैं जो सीरियस

रात रंगीली गाये रे....एक अलग भाव का गीत शमशाद का गाया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 736/2011/176 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के एक और नई सप्ताह में आप सभी का मैं, सुजॉय चटर्जी, स्वागत करता हूँ। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम के गाये गीतों से सुसज्जित लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे'। पाँच गीत आपनें सुनें, पाँच गीत अभी और सुनने वाले हैं। पिछले हफ़्ते यह शृंखला आकर रुकी थी नय्यर साहब की धुन पर फ़िल्म 'सी.आइ.डी' के गीत पर। नय्यर साहब के साथ शमशाद जी की पारी इतनी सफल रही है कि केवल एक गीत सुनवाकर हम आगे नहीं बढ़ सकते। इसलिए आज के अंक में भी है धूम नय्यर-शमशाद के जोड़ी की। 'दास्तान-ए-नय्यर' सीरीज़ में जब नय्यर सहाब से शमशाद बेगम के बारे में ये पूछा गया था - कमल शर्मा: शमशाद जी से आप किस तरह से मिले? ओ.पी. नय्यर: शमशाद जी को क्योंकि मैं लाहौर से ही जानता हूँ, रेडियो से। वो मेरे से ४-५ साल बड़ी हैं, तो बच्चा था मैं उनके आगे, और मैं उनको बहुत पहले से, पेशावर में, पश्तो गाने गाया करती थीं। फिर रेडियो लाहौर में आ गईं। बड़ी ख़ुलूस, बहुत प्यार करने वाली ईमोशनल औरत है। कमल शर्मा: क्या ख

कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना...शोखियों में डूबा एक नशीला गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 735/2011/175 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में शमशाद बेगम की खनकती आवाज़ इन दिनों गूंज रही है उन्हीं को समर्पित लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' में। आज हम जिस संगीतकार की रचना सुनवाने जा रहे हैं, उन्होंने भी शमशाद बेगम को एक से एक लाजवाब गीत दिए, और उनकी आवाज़ को 'टेम्पल बेल वॉयस' की उपाधि देने वाले ये संगीतकार थे ओ. पी. नय्यर। नय्यर साहब के अनुसार दो गायिकाएँ जिनकी आवाज़ ऑरिजिनल आवाज़ें हैं, वे हैं गीता दत्त और शमशाद बेगम। दोस्तों, विविध भारती पर नय्यर साहब की एक लम्बी साक्षात्कार प्रसारित हुआ था 'दास्तान-ए-नय्यर' शीर्षक से। उस साक्षात्कार में कई कई बार शमशाद जी का ज़िक्र छिड़ा था। आज और अगली कड़ी में हम उसी साक्षात्कार के चुने हुए अंशों को पेश करेंगे जिनमें नय्यर साहब शमशाद जी के बारे में बताते हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या वो अपना पहला पॉपुलर गीत "प्रीतम आन मिलो" को मानते हैं, तो नय्यर साहब का जवाब था, ""कभी आर कभी पार लागा तीर-ए-नज़र", 'आर-पार' का पहला सुपरहिट गाना शमशाद जी का"। शमशाद बेगम के गाये ग

ना बोल पी पी मोरे अंगना, ओ पंछी जा रे जा...एक अंदाज़ ये भी शमशाद का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 733/2011/173 श मशाद बेगम के गाये गीतों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे' की आज है तीसरी कड़ी। कुछ वर्ष पहले वरिष्ठ उद्‍घोषक कमल शर्मा के नेतृत्व में विविध भारती की टीम पहुँची थी शमशाद जी के पवई के घर में, और उनसे लम्बी बातचीत की थी। उसी बातचीत का पहला अंश कल हमनें पेश किया था, आइए आज उसी जगह से बातचीत के कुछ और अंश पढ़ें। शमशाद जी: मैंने मास्टरजी (ग़ुलाम हैदर) से फिर कहा कि दूसरा गाना गाऊँ? उन्होंने कहा कि नहीं, इतना ठीक है। फिर १२ गानों का ऐग्रीमेण्ट हो गया, हर गाने के लिए १२ रुपये। मास्टरजी नें उन लोगों से कहा कि इस लड़की को वो सब फ़ैसिलिटीज़ दो जो सब बड़े आर्टिस्टों को देते हो। उस ज़माने में ६ महीनों का कॉनट्रैक्ट हुआ करता था, ६ महीने बाद फिर रेकॉर्डिंग् वाले आ जाते थे। सुबह १० से शाम ५ बजे तक हम रिहर्सल किया करते म्युज़िशियन्स के साथ, मास्टरजी भी रहते थे। आप हैरान होंगे कि उन्हीं के गाने गा गा कर मैं आर्टिस्ट बनी हूँ। कमल जी: आप में भी लगन रही होगी? शमशाद जी - मास्टर ग़ुलाम हैदर साहब कहा करते थे कि इस लड़की में ग

सावन के नज़ारे हैं....शमशाद बेगम की पहली फिल्म के एक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 731/2011/171 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत 'वतन के तराने' लघु शृंखला के बाद आज से एक नई शृंखला के साथ, मैं सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ हाज़िर हो गया हूँ। आज से शुरु होने वाली लघु शृंखला समर्पित है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की एक लाजवाब पार्श्वगायिका को। ये वो गायिका हैं दोस्तों जिनकी आवाज़ की तारीफ़ में संगीतकार नौशाद साहब नें कहा था कि इसमें पंजाब की पाँचों दरियाओं की रवानी है। उधर ओ. पी. नय्यर साहब नें इनकी शान में कहा था कि इस आवाज़ को सुन कर ऐसा लगता है जैसे किसी मंदिर में घंटियाँ बज रही हों। इस अज़ीम गुलुकारा नें कभी हमसे अपना नाम बूझने को कहा था, लेकिन हक़ीक़त तो यह है कि आज भी जब हम इनका गाया कोई गीत सुनते हैं तो इनका नाम बूझने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती, क्योंकि इनकी खनकती आवाज़ ही इनकी पहचान है। प्रस्तुत है फ़िल्म जगत की सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका शमशाद बेगम पर केन्द्रित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला 'बूझ मेरा क्या नाव रे'। शमशाद

तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊँगा....नेत्र दान महादान, जिन्दा रखिये अपनी आँखों को सदा के लिए

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 56 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नम्स्कार! दोस्तों, भगवान से इन्सान और पशुओं को जितनी भी अनमोल चीज़ें मिली हैं, उनमें सबसे अनमोल देन है आँखें। आँखें, जिनसे हम दुनिया को देखते हैं, अपने प्रियजनों को देखते हैं। अपने संतान को बड़ा होते देखने में जो सुख है, वह शायद सबसे सुखद अनुभूति है, और यह भी हम अपनी आँखों से ही देखते हैं। पर ज़रा सोचिए उन लोगों के बारे में जिनकी आँखों में रोशनी नहीं है, जो नेत्रहीन हैं। कितनी अन्धेरी, कितनी बेरंग होती होगी उनकी दुनिया, क्या इसका अंदाज़ा आप लगा सकते हैं! पर मैं और आप अपने एक छोटे से प्रयास से कम से कम एक नेत्रहीन को नेत्र ज़रूर प्रदान कर सकते हैं। २५ अगस्त से ४ सितम्बर भारत में 'राष्ट्रीय नेत्रदान सप्ताह' के रूप में पालित किया जाता है। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में इसी पर चर्चा की जाए। चर्चा क्या दोस्तो, आइए आपको एक कहानी सुनाता हूँ जो मुझे इंटरनेट पर ही प्राप्त हुई थी। यह एक सत्य घटना है अनीता टेरेसा अब्राहम के जीवन की। I don't remember my grandfath

अब कोई गुलशन न उजड़े....एक आशावादी गीत आज के इस बदलते भारत की उथल पुथल में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 730/2011/170 शृं खला ‘वतन के तराने’ की समापन कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। दोस्तों, स्वतन्त्रता की 64वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में यह श्रृंखला हमने उन बलिदानियों को समर्पित किया है, जिन्होने देश को विदेशी सत्ता से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इनके बलिदानों के कारण ही 15अगस्त, 1947 को विदेशी शासकों को भारत छोड़ कर जाना पड़ा। आज़ादी के 64वर्षों में हम किसी विदेशी सत्ता के गुलाम तो नहीं रहे, किन्तु स्वयं द्वारा रची गई अनेक विसंगतियों के गुलाम अवश्य हो गए हैं। इस गुलामी से मुक्त होने के लिए हमे अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का स्मरण करते हुए राष्ट्र-निर्माण के लिए नए संकल्प लेने पड़ेंगे। श्रृंखला की इस समापन कड़ी में हम एक ऐसे बलिदानी का परिचय आपके साथ बाँटना चाहेंगे जो महान पराक्रमी, अद्वितीय युद्धविशारद, कुशल वक्ता के साथ-साथ प्रबुद्ध शायर भी था। उस महान बलिदानी का नाम है रामप्रसाद ‘बिस्मिल’। प्रथम विश्वयुद्ध के समय देश को गुलामी से मुक्त कराने का एक प्रयास हुआ था, जिसे ‘मैनपुरी षड्यंत्र काण्ड’ के नाम से जाना गया थ

अपनी आजादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं - शकील ने लिखी दृढ संकल्प की गाथा इस गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 729/2011/169 ‘ओ ल्ड इज गोल्ड’ पर जारी श्रृंखला ‘वतन के तराने’ की नौवीं कड़ी में एक और बलिदानी की अमर गाथा और अपनी आज़ादी की रक्षा का संकल्प लेने वाले एक प्रेरक गीत के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र आपके सम्मुख उपस्थित हूँ। आज के अंक में हम आपको फिल्म जगत के जाने-माने शायर और गीतकार शकील बदायूनी का एक संकल्प गीत सुनवाएँगे और साथ ही स्वतन्त्रता संग्राम के एक ऐसे सिपाही का स्मरण करेंगे जिसे जीते जी अंग्रेज़ गिरफ्तार न कर सके। उस वीर सपूत को हम चन्द्रशेखर आज़ाद के नाम से जानते हैं। लोगों ने आज़ाद को 1921 के असहयोग आन्दोलन से पहचाना। उन दिनों अंग्रेज़ युवराज के बहिष्कार का अभियान चल रहा था। काशी (वाराणसी) में पुलिस आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर रही थी। पुलिस ने एक पन्द्रह वर्षीय किशोर को पकड़ा और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया। कम आयु देख कर मजिस्ट्रेट ने पहले तो चेतावनी देकर छोड़ दिया, किन्तु जब वह किशोर दोबारा पकड़ा गया तो मजिस्ट्रेट ने उसे 15 बेंतों की सजा दी। मजिस्ट्रेट के नाम पूछने पर उस किशोर ने ‘आज़ाद’ और निवास स्थान पूछने पर उसने उत्तर दिया था ‘जेलखाना’। यही किशोर आगे

है प्रीत जहाँ की रीत सदा....इन्दीवर साहब ने लिखा ये राष्ट गौरव गान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 728/2011/168 दे शभक्ति भावों से अभिमंत्रित गीतों की श्रृंखला ‘वतन के तराने’ की आठवीं कड़ी में हम आपका हार्दिक स्वागत करते हैं। आज हम आपसे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के एक ऐसे व्यक्तित्व पर चर्चा करेंगे, जिसने अपने बौद्धिक बल से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये। श्रृंखला की पिछली कड़ी में हमने आपसे चर्चा की थी कि 1951 में पेशवा बाजीराव का निधन हो गया था। उनके बाद अंग्रेजों ने दत्तक पुत्र नाना साहब को उत्तराधिकारी तो मान लिया, किन्तु पेंशन देना स्वीकार नहीं किया। अंग्रेजों की इस अन्यायपूर्ण कार्यवाही के विरुद्ध लार्ड डलहौजी को कई पत्र लिखे गए, किन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। ऐसी स्थिति में उन्होने अपने चतुर वकील अजीमुल्ला खाँ को इंग्लैण्ड भेजा, ताकि वहाँ की अदालत में पेंशन के लिए मुकदमा दायर किया जा सके। आगे चल कर 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में अज़ीमुल्ला खाँ की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गई थी। इंग्लैण्ड की अदालत में अज़ीमुल्ला खाँ, नाना साहब की पेंशन तो बहाल न करा सके, किन्तु इस मुकदमे के बहाने समृद्ध भारतीय परम्परा, बौद्धिक सम्पदा और संस्कृति का पूरे इंग्लैण्ड

झंकारो झंकारो झंकारो अग्निवीणा....कवि प्रदीप के शब्दों से निकलती आग

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 725/2011/165 भा रत नें हमेशा अमन और सदभाव का राह चुनी है। हमनें कभी किसी को नहीं ललकारा। हज़ारों सालों का हमारा इतिहास गवाह है कि हमनें किसी पर पहले वार नहीं किया। जंग लड़ना हमारी फ़ितरत नहीं। ख़ून बहाना हमारा धर्म नहीं। लेकिन जब दुश्मनों नें हमारी इस धरती को अपवित्र करने की कोशिश की है, हम पर ज़ुल्म करने की कोशिश की है, तो हमने भी अपनी मर्यादा और सम्मान की रक्षा की है। न चाहते हुए भी बंसी के बदले बंदूक थामे हैं हम प्रेम-पुजारियों नें। अंग्रेज़ी सरकार नें 200 वर्ष तक इस देश पर राज किया। 1857 से ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ आवाज़ उठनी शुरु हुई थी, और 90 वर्ष की कड़ी तपस्या और असंख्य बलिदानों के बाद 1947 में ब्रिटिश राज से इस देश को मुक्ति मिली। भारत के स्वाधीनता संग्राम के प्रमुख सेनानियों में एक महत्वपूर्ण नाम है नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का। उनके वीरता की कहानियाँ हम जानते हैं, और उन पर एकाधिक फ़िल्में भी बन चुकी हैं। ऐसी ही एक फ़िल्म आई थी 'नेताजी सुभाषचन्द्र बोस' और इस फ़िल्म में एक जोश पैदा कर देने वाला गीत था हेमन्त कुमार, सबिता चौधरी और साथियों की आवाज़ों म

कर चले हम फ़िदा...कैफी आज़मी के इन बोलों ने चीर कर रख दिया था हर हिन्दुस्तानी कलेजा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 724/2011/164 ‘व तन के तराने’ श्रृंखला की चौथी कड़ी में आपका स्वागत है। इस श्रृंखला की पिछली दो कड़ियों मे आप नारी शक्ति की प्रतीक, झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई के त्याग और बलिदान की अमर गाथा के कुछ चुने हुए प्रसंगों के भागीदार हुए हैं। आज के अंक में भी इस गाथा को जारी रखते हुए आगे के कुछ प्रसंग आपके लिए प्रस्तुत करेंगे। इसके साथ ही बलिदानियों द्वारा अपने से आगे की पीढ़ी के लिए दिये गए सन्देश से परिपूर्ण गीत भी आपको सुनवाएँगे। पिछले अंक में आपने पढ़ा कि झाँसी के उत्तराधिकारी की असमय मृत्यु से महाराज गंगाधर राव अवसादग्रस्त होकर राजकीय कार्यों से विमुख हो गए। ऐसी परिस्थिति में लक्ष्मीबाई ने समस्त शासन-सूत्र अपने हाथों में ले लिये। कुछ समय बाद शोकग्रस्त गंगाधर राव का भी निधन हो गया। यह 1853 का वर्ष था। पूरे देश में अंग्रेजों के अत्याचार से जनता त्रस्त थी। उस समय झाँसी में अंग्रेज़ अधिकारी मेजर मालकम तैनात था। उसने दामोदर राव को राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इन्कार कर दिया। धीरे-धीरे संघर्ष की स्थिति बनती जा रही थी। लक्ष्मीबाई तो पहले से ही तैयार थीं। उधर तात्याटोपे