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मजरूह, साहिर जैसे नामी गिरामी शायरों ने भी एक लंबी पारी खेली बतौर गीतकार

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३1 'ओ ल्ड इस गोल्ड रिवाइवल' के अंतरगत आप कुल ४५ गानें सुन रहे हैं इन दिनों एक के बाद एक, और इस शृंखला का दो तिहाई हिस्सा पूरी कर चुके हैं। यानी कि ३० गीत हम सुन चुके हैं और अभी १५ गानें और सुनवाने हैं। हम उम्मीद करते हैं कि ये कवर वर्ज़न्स आप को अच्छे लग रहे होंगे। तो इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आज एक हंगामाख़ेज गीत जिसे राहुल देव बर्मन के पाश्चात्य शैली के गीतों की श्रेणी में सब से उपर रखा जाता है। जी हाँ, फ़िल्म 'कारवाँ' का "पिया तू अब तो आजा"। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस गीत को लिखा था और आशा भोसले के साथ साथ पंचम ने भी "मोनिका ओ माइ डार्लिंग्" की आवाज़ लगाई थी इस गाने में। इस सेन्सुयस गीत का रिवाइव्ड वर्ज़न आज हम सुनने जा रहे हैं, लेकिन उससे पहले आपको यह बता दें कि 'कारवाँ' नासिर हुसैन की फ़िल्म थी। मुझे विकिपीडिया पर मजरूह साहब के जीवनी पर नज़र दौड़ाते हुए यह बात पता चली (वैसे मैं इसकी पुष्टि नहीं कर सकता) कि 'तीसरी मंज़िल' के लिए राहुल देव बर्मन को बतौर संगीतकार नियुक्त करने के निर्णय में मजरूह साहब का बड

आज पिया तोहे प्यार दूं....पॉडकास्टर गिरीश बिल्लोरे की यादों को सहला जाता है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 407/2010/107 प संदीदा गीतों की इस शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हमने एक ऐसे शख़्स का फ़रमाइशी गीत चुना है जो ख़ुद एक कवि हैं, एक मशहूर ब्लॊगर हैं, पॊडकास्ट के क्षेत्र में इनका एक मशहूर ब्लॊग है। इस शख़्स को उभरते गायक आभास जोशी के मार्गदर्शक और गुरु कहा जा सकता है, जिन्होने आभास की पहली ऐल्बम के लिए गीत लिखे हैं। जी हाँ, इस शख़्स का नाम है गिरिश बिल्लोरे। गिरिश जी की पसंद के गीत के बारे में उन्हे के शब्द प्रस्तुत है - " आजा पिया तोहे प्यार दूँ", जो मेरी उस मित्र ने गाया था जिसे पहला प्यार कहा जा सकता है। उस दौर मे सामाजिक अनुशासन के चलते बस मैं खुद प्यार का इज़हार न कर सका। जानते हैं उसने मुझे दिल की बात बेबाक कह देने की नसीहत दी थी। आज वो अपने परिवार मे खुश है। अब बस वो रोमान्टिक एहसास है मेरे पास और अपना प्रतिबंधों के सामने घुटने टेक देने का अहसास। " गिरिश जी, आपके जीवन इन बातों को जानकर हमें अफ़सोस हुआ। हम आपको बस यही मानने की सलाह देंगे कि "तेरा हिज्र ही मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है, मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों, तू कहीं भी हो म

पिया संग खेलूँ होली फागुन आयो रे...मौसम ही ऐसा है क्यों न गूंजें तराने फिर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 361/2010/61 हो ली का रंगीन त्योहार आप सभी ने ख़ूब धूम धाम से और आत्मीयता के साथ मनाया होगा, ऐसी हम उम्मीद करते हैं। दोस्तों, भले ही होली गुज़र चुकी है, लेकिन वातावरण में, प्रकृति में जो रंग घुले हुए हैं, वो बरक़रार है। फागुन का महीना चल रहा है, बसंत ऋतु ने चारों तरफ़ रंग ही रंग बिखेर रखी है। चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिले हैं, जो मंद मंद हवाओं पे सवार होकर जैसे झूला झूल रहे हैं। उन पर मंडराती हुईं तितलियाँ और भँवरे, ठंडी ठंडी हवाओं के झोंके, कुल मिलाकर मौसम इतना सुहावना बन पड़ा है इस मौसम में कि इसके असर से कोई भी बच नहीं सकता। इन सब का मानव मन पर असर होना लाज़मी है। इसी रंगीन वातावरण को और भी ज़्यादा रंगीन, ख़ुशनुमा और सुरीला बनाने के लिए आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु कर रहे हैं दस रंगीन गीतों की एक लघु शृंखला 'गीत रंगीले'। इनमें से कुछ गानें होली गीत हैं, तो कुछ बसंत ऋतु को समर्पित है, किसी में फागुन का ज़िक्र है, तो किसी में है इस मौसम की मस्ती और धूम। दोस्तों, मुझे श्याम 'साहिल' की लिखी हुई एक कविता याद आ रही है, जो कुछ इस तरह से ह

आंसू तो नहीं है आँखों में....तलत के स्वरों में एक और ग़मज़दा नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 352/2010/52 आ 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। तलत महमूद साहब के गाए १० बेमिसाल ग़ज़लों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास पेशकश की दूसरी महफ़िल में आप सभी का स्वागत है। इससे पहले कि आज की ग़ज़ल का ज़िक्र करें, आइए आज तलत महमूद साहब के शुरुआती दिनों का हाल ज़रा आपको बताया जाए। २४ फ़रवरी १९२४ को लखनऊ में मंज़ूर महमूद के घर जन्मे तलत कुंदन लाल सहगल के ज़बरदस्त फ़ैन बने। बदक़िस्मती से उनके घर में संगीत का कोई वातावरण नहीं था, बल्कि उनके पिताजी तो संगीत के पूरी तरह से ख़िलाफ़ थे। उनकी मौसी के अनुरोध पर तलत के पिता ने उन्हे लखनऊ के मॊरिस कॊलेज से एक छोटा सा म्युज़िक का कोर्स करने की अनुमती दे दी। वहीं पर तलत महमूद ने ग़ज़लें गानी शुरु की। १६ वर्ष की आयु में तलत ऑल इंडिया रेडियो के लखनऊ केन्द्र में ग़ालिब, दाग़ और जिगर की ग़ज़लें गाया करते थे। एच. एम. वी ने उनकी आवाज़ सुनी और सन् १९४१ में उनका पहला ग्रामोफ़ोन रिकार्ड जारी किया। उसमे एक गीत था "सब दिन एक समान नहीं था, बन जाउँगा क्या से क्या मैं, इसका तो कुछ ध्यान नहीं था"। दोस्तों, इ

जब दिल ही टूट गया....सहगल की दर्द भरी आवाज़ और मजरूह के बोल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 329/2010/29 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में पिछले तीन दिनो से आप शरद तैलंग जी के पसंद के गाने सुनते आ रहे हैं, जो 'महासवाल प्रतियोगिता' में सब से ज़्यादा सवालों के सही जवाब देकर विजेयता बने थे। आज उनकी पसंद का आख़िरी गीत, और गीत क्या साहब, यह तो ऐसा कल्ट सॊंग् है कि ६५ साल बाद भी लोग इस गीत को भुला नहीं पाए हैं। कुंदन लाल सहगल की आवाज़ में बेहद मक़बूल, बेहद ख़ास, नौशाद साहब की अविस्मरणीय संगीत रचना "जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे"। फ़िल्म 'शाहजहाँ' का यह मशहूर गीत लिखा था मजरूह सुल्तानपुरी साहब ने। दोस्तों, अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आपने सहगल साहब के कुल दो गीत सुन चुके हैं। एक तो हाल ही में उनकी पुण्यतिथि पर फ़िल्म 'ज़िंदगी' की लोरी " सो जा राजकुमारी " सुनवाया था, और एक गीत हमने आपको फ़िल्म 'शाहजहाँ' से ही सुनवाया था " ग़म दिए मुस्तक़िल " अपने ५०-वें एपिसोड को ख़ास बनाते हुए। लेकिन उस दिन हमने इस फ़िल्म की चर्चा नहीं की थी, बल्कि नौशाद साहब की सहगल साहब पर लिखी हुई कविता से रु-ब-रु क

बुझा दिए हैं खुद अपने हाथों से....दर्द की कसक खय्याम के सुरों में...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 327/2010/27 श -रद तैलंग जी के पसंद का अगला गाना है फ़िल्म 'शगुन' से। सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में यह है इस फ़िल्म का एक बड़ा ही मीठा गीत "बुझा दिए हैं ख़ुद अपने हाथों से मोहब्बत के दीये जलाके"। साहिर लुधियानवी की शायरी और ख़य्याम साहब का सुरीला सुकून देनेवाला संगीत। इसी फ़िल्म में सुमन जी ने रफ़ी साहब के साथ "ठहरिए होश में आ लूँ तो चले जाइएगा" और "पर्बतों के पेड़ों पर शाम का बसेरा है" जैसे हिट गीत गाए हैं। आज के प्रस्तुत गीत की बहुत ज़्यादा चर्चा नहीं हुई लेकिन उत्कृष्टता में यह गीत किसी भी दूसरे गीत से कुछ कम नहीं, और यह गीत सुमन कल्याणपुर के गाए बेहतरीन एकल गीतों में से एक है। फ़िल्म 'शगुन' आई थी सन् १९६४ में, जिसका निर्माण हुआ था शाहीन आर्ट के बैनर तले, निर्देशक थे नज़र, और फ़िल्म के कलाकार थे कंवलजीत सिंह, वहीदा रहमान, चांद उस्मानी, नज़िर हुसैन, नीना और अचला सचदेव। दोस्तों, आपको यह बता दें कि यही कंवलजीत असली ज़िंदगी में वहीदा रहमान के पति हैं। 'शगुन' में सुमन कल्याणपुर और मोहम्मद रफ़ी के अलावा जिन गायकों

कहीं बेखयाल होकर यूं ही छू लिया किसीने...और डुबो दिया रफ़ी साहब ने मजरूह की शायरी में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 325/2010/25 इं दु जी के पसंद के गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं उनके चुने हुए पाँचवे और फ़िल्हाल अंतिम गीत पर। पिछले चार गीतों की तरह यह भी एक सदाबहार नग़मा है। इन सभी गीतों में एक समानता यह रही कि इन गीतों का संगीत जितना सुरीला है, इनके बोल भी उतने ही ख़ूबसूरत। आज का गीत है "कहीं बेख़याल होकर युं ही छू लिया किसी ने, कई ख़्वाब देख डाले यहाँ मेरी बेख़ुदी ने"। अब बताइए कि भाव तो बहुत ही साधारण और रोज़ मर्रा की ज़िंदगी वाला है कि बेख़याली में किसी ने छू लिया। लेकिन इस साधारण भाव को लेकर एक असाधारण गीत की रचना कर डाली है मजरूह साहब, दादा बर्मन और रफ़ी साहब की तिकड़ी ने। हालाँकि मजरूह साहब का कहना है कि दरसल इस गीत को कॊम्पोज़ जयदेव जी ने किया था जो उन दिनों दादा के सहायक हुआ करते थे। ख़ैर, हम इस वितर्क में नहीं पड़ना चाहते, बल्कि आज तो सिर्फ़ इस गीत का आनंद ही उठाएँगे। फ़िल्म 'तीन देवियाँ' का यह गीत है जो देव आनंद पर फ़िल्माया गया था जो कश्मीर में किसी महफ़िल में इसे गाते हैं। थोड़ा सुफ़ीयाना अंदाज़ भी झलकता है इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल में, और इसके

आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहें....देखिये आपको भी 'ओल्ड इस गोल्ड' से प्यार हो जायेगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 324/2010/24 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं इंदु जी के पसंद के गीतों को। कुल पाँच में से तीन गानें हम पिछले तीन कड़ियों में सुन चुके हैं। आज है चौथे गीत की बारी। मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले की आवाज़ों में यह है फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' का एक बड़ा ही ज़बरदस्त और सुपरहिट डुएट " आप युं ही अगर हमसे मिलते रहे, देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा"। "मस्त, प्यारा सा खूबसूरत गीत जिस के बिना कोई पिकनिक, कोई प्रोग्राम पूरा नही होता। साधना की मासूमियत भरा सौन्दर्य, प्यार के इजहार का खूबसूरत अंदाज, मधुर संगीत, सब ने मिल कर एक ऐसा गीत दिया है जिसे आप किसी भी कार्यक्रम में गा कर समा बांध सकते हैं और इंदु पुरी का मतलब ही...समा बंध जाना, महफिल की जान। " बहुत सही कहा इंदु जी, आपने। आप के पसंद पर यह गीत आज इस महफ़िल में ऐसा समा बांधेगा कि लोग कह उठेंगे कि भई वाह! क्या पसंद है! साधना और जॊय मुखर्जी पर फ़िल्माया यह गीत कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों में पिक्चराइज़ हुआ था। इस फ़िल्म की चर्चा तो हम पहले कर चुके हैं इस महफ़िल में, तो क्यों ना आ

बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे....चित्रगुप्त का रचा एक और चुलबुला नगमा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 322/2010/22 इं दु जी के पसंद के गीत आजकल ओल्ड इज़ गोल्ड की शान बनें हुए हैं। कल के गीत में रोने रुलाने की बात थी। चलिए आज मूड को ज़रा बदलते हैं और एक ख़ुशनुमा गीत सुनते हैं लता जी की ही आवाज़ में। शास्त्रीय संगीत पर आधारित यह रचना है फ़िल्म 'ओपेरा हाउस' का। मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे और चित्रगुप्त के संगीतबद्ध किए इस गीत के बोल हैं "बलमा माने ना बैरी चुप ना रहे, लगी मन की कहे हाए पा के अकेली मोरी बैयाँ गहे"। इंदु जी कहती हैं कि " बचपन में एक म्युज़िक कॊम्पीटिशन में पहला इनाम जीता था इसे गा कर, बस तभी से पसंद है। जब भी सुनती हूँ जैसे बचपन के वो दिन सामने आ जाते हैं। खूबसूरत गीत तो है ही, बी.सरोजा देवी का नृत्य व हाव भाव मनमोहक है, कमाल है। " इंदु जी, चलिए इसी बहाने हम सब को यह पता चल गया कि आप गाती भी हैं। अगर संभव हो तो अपनी आवाज़ में इस गीत को रिकार्ड कर हमें ज़रूर भेजिएगा। जैसा कि आप बता ही चुकी हैं कि यह गीत फ़िल्माया गया है बी. सरोजा देवी पर, इस फ़िल्म के अन्य कलाकार थे अजीत, के. एन. सिंह, ललिता पवार, और बेला बोस प्रमुख। ए. ए. नड

परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है....लगभग १० मिनट लंबी इस कव्वाली का आनंद लीजिए पंचम के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 306/2010/06 रा हुल देव बर्मन के रचे दस अलग अलग रंगों के, दस अलग अलग जौनर के गीतों का सिलसिला जारी है इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज इसमें सज रही है क़व्वाली की महफ़िल। पंचम के बनाए हुए जब मशहूर क़व्वालियों की बात चलती है तो झट से जो क़व्वालियाँ ज़हन में आती हैं, वो हैं फ़िल्म 'दीवार' में "कोई मर जाए किसी पे ये कहाँ देखा है", फ़िल्म 'कसमें वादे' में "प्यार के रंग से तू दिल को सजाए रखना", फ़िल्म 'आंधी' में "सलाम कीजिए आली जनाब आए हैं", फ़िल्म 'हम किसी से कम नहीं' की शीर्षक क़व्वाली, फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' में "पल दो पल का साथ हमारा", और 'ज़माने को दिखाना है' फ़िल्म की मशहूर क़व्वाली "परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है", जो इस फ़िल्म का शीर्षक ट्रैक भी है। तो इन तमाम सुपरहिट क़व्वालियों में से हम ने यही आख़िरी क़व्वाली चुनी है, आशा है आप सब इस क़व्वाली का लुत्फ़ उठाएँगे। बार बार इस शृंखला में नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़

चुनरी संभाल गोरी उड़ी चली जाए रे...मन्ना डे और लता ने ऐसा समां बाँधा को होश उड़ जाए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 304/2010/04 'हिं द युग्म' और 'आवाज़' की तरफ़ से, और हम अपनी तरफ़ से आज राहुल देव बर्मन यानी कि हमारे चहेते पंचम दा को उनकी पुण्यतिथि पर अर्पित कर रहे हैं अपनी श्रद्धांजली। जैसा कि इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन रहे हैं उन्ही के स्वरब्द्ध किए अलग अलग रंग के, अलग अलग जौनर के गानें। पहली कड़ी में आप ने मन्ना डे और लता मंगेशकर का गाया हुआ एक बड़ा ही मीठा सा शास्त्रीय रंग वाला गाना सुना था फ़िल्म 'जुर्माना' का। आज बारी है लोक रंग की, लेकिन एक बार फिर से वही दो आवाज़ें, यानी कि लता जी और मन्ना दा के। लेकिन यह गाना बिल्कुल अलग है। जहाँ उस गाने में गायकी पर ज़ोर था क्योंकि एक संगीत शिक्षक और एक प्रतिभाशाली गायिका के चरित्रों को निभाना था, वहीं दूसरी तरफ़ आज के गाने में है भरपूर मस्ती, डांस, और छेड़-छाड़, जिसे सुनते हुए आप भी मचलने लग पड़ेंगे। संगीत, बोल और गायकी के द्वारा गाँव का पूरा का पूरा नज़ारा सामने आ जाता है इस गीत में। ग़ज़ब की मस्ती है इस गीत में। यह गीत है नासिर हुसैन की फ़िल्म 'बहारो के सपने' का "चुनरी संभाल

ओ मेरे दिल के चैन....किशोर का अद्भुत रूमानी अंदाज़ और मजरूह-पंचम का कमाल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 303/2010/03 शा स्त्रीय और पाश्चात्य रंगों के बाद 'पंचम के दस रंग' शृंखला की तीसरी कड़ी में आज बारी है रुमानीयत की। यानी कि रोमांटिक गाने की। युं तो आर. डी. बर्मन के संगीत में एक से एक रोमांटिक गानें बने हैं समय समय पर, लेकिन जिस गीत को हमने चुना है वह एक अलग ही मुकाम रखती है इस जौनर में। और वह गीत है १९७२ की फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' का, "ओ मेरे दिल के चैन, चैन आए मेरे दिल को दुआ कीजिए"। ७० का दशक वह दशक था जब पंचम ज़्यादातर तेज़ रफ़्तार वाले और जोशिले गानें लेकर आ रहे थे। लेकिन जब भी सिचुयशन ने डिमाण्ड की किसी सॊफ़्ट एण्ड सेन्सिटिव गाने की, उसमें भी पंचम अपना जादू दिखा गए। फ़िल्म 'मेरे जीवन साथी' में राजेश खन्ना के लिए एक से एक सुपर डुपर हिट गानें बनें जो किशोर दा की आवाज़ पा कर अमर हो गए। वैसे भी राजेश खन्ना की फ़िल्मों की यही खासियत हुआ करती थी कि फ़िल्म चाहे चले ना चले, उनके गानें ज़रूर कामयाब हो जाते थे। इसी फ़िल्म को अगर लें तो प्रस्तुत गीत के अलावा किशोर दा ने जो गानें इसमें गाए वो हैं "दीवाना लेके आया दिल का तराना&qu

ओ हसीना जुल्फों वाली....जब पंचम ने रचा इतिहास तो थिरके कदम खुद-ब-खुद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 302/2010/02 'पं चम के दस रंग' शृंखला की दूसरी कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। कल आपने पहली कड़ी में सुनें थे पंचम के गीत में भारतीय शास्त्रीय संगीत की मधुरता। आज इसके बिल्कुल विपरीत दिशा में जाते हुए आप के लिए हम लेकर आए हैं एक धमाकेदार पाश्चात्य धुनों पर आधारित गीत। फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' राहुल देव बर्मन की पहली सुपरहिट फ़िल्म मानी जाती है, जिसमें कोई संशय नहीं है। इसी फ़िल्म में वो अपने नए अंदाज़ में नज़र आए और जिसकी वजह से उन्हे पाँच क्रांतिकारी संगीतकारों में जगह मिली। (बाक़ी के चार संगीतकार हैं मास्टर ग़ुलाम हैदर, सी. रामचंद्र, ओ. पी. नय्यर, और ए. आर. रहमान)। इन नामों को पढ़कर आप ने यह ज़रूर अंदाज़ा लगा लिया होगा कि इन्हे क्रांतिकारी क्यों कहा गया है। तो फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' पंचम की कामयाबी की पहली मंज़िल थी। इस फ़िल्म से फ़िल्म संगीत जगत में उन्होने जो हंगामा शुरु किया था, वह हंगामा जारी रखा अपने अंतिम समय तक। रफ़ी साहब पर केन्द्रित शृंखला के अन्तर्गत इस फ़िल्म से " दीवाना मुझसा नहीं " गीत हमने सुनवाया था और फ़िल्म की

ए सखी राधिके बावरी हो गई...बर्मन दा के शास्त्रीय अंदाज़ को सलाम के साथ करें नव वर्ष का आगाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 301/2010/01 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी चाहनेवालों को हमारी तरफ़ से नववर्ष की एक बार फिर से हार्दिक शुभकामनाएँ! नया साल २०१० आप सब के लिए मंगलमय हो यही ईश्वर से कामना करते हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला ३०० कड़ियाँ पूरी कर चुका हैं, ७ दिनों के अंतराल के बाद, आज से हम फिर एक बार हाज़िर हैं इस शूंखला के साथ और फिर उसी तरह से हर रोज़ लेकर आएँगे गुज़रे ज़माने का एक अनमोल नग़मा ख़ास आपके लिए। पहेली प्रतियोगिता का स्वरूप भी बदल रहा है आज से, तो जल्द जवाब देने से पहले शर्तों को ठीक तरह से समझ लीजिएगा! तो दोस्तों, नए साल में 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शुरुआत एक धमाकेदार तरीके से होनी चाहिए, क्यों है न? तो फिर हो जाइए तैयार क्योंकि आज से हम शुरु कर रहे हैं क्रांतिकारी संगीतकार राहुल देव बर्मन के स्वरबद्ध किए दस अलग अलग रंगों के गीतों की एक ख़ास लघु शृंखला - पंचम के दस रंग । युं तो पंचम के दस नहीं बल्कि बेशुमार रंग हैं, लेकिन हम ने उनमें से चुन लिए लिए हैं दस रंगों को और इन दस रंगों से आपको अगले दस दिनों तक हम सराबोर करने जा रहे हैं। तो आइए आज इस नए साल की श

चंदा चांदनी में जब चमके...गीता दत्त और गीता बाली का अनूठा संगम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 278 प राग सांकला जी के चुने हुए गीता दत्त के गाए गानें इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास लघु शृंखला 'गीतांजली' के अन्तर्गत। आज के अंक में गीता दत्त गा रहीं हैं गीता बाली के लिए। जी हाँ, वही गीता बाली जिनकी थिरकती हुई आँखें, जिनके चेहरे के अनगिनत भाव, जिनकी नैचरल अदाकारी के चर्चे आज भी लोग करते हैं। और इन सब से परे यह कि वो एक बहुत अच्छी इंसान थीं। गीता बाली का जन्म अविभाजित पंजाब में एक सिख परिवार में हुआ था। उनका असली नाम था हरकीर्तन कौर। देश के बँटवारे के बाद परिवार बम्बई चली आई और गरीबी ने उन्हे घेर लिया। तभी हरकीर्तन कौर बन गईं गीता बाली और अपने परिवार को आर्थिक संकट से उबारा एक के बाद एक फ़िल्म में अभिनय कर। बम्बई आने से पहले उन्होने पंजाब की कुछ फ़िल्मों में नृत्यांगना के छोटे मोटे रोल किए हुए थे। कहा जाता है कि जब किदार शर्मा, जिन्होने गीता बाली को पहला ब्रेक दिया, पहली बार जब वो उनसे मिले तो वो अपने परिवार के साथ किसी के बाथरूम में रहा करती थीं। किदार शर्मा ने पहली बार गीता बाली को मौका दिया १९४८ की फ़िल्म 'सुहाग रात&#

धड़कने लगा दिल नज़र झुक गयी....नूतन की अदाकारी और गीता दत्त से स्वर, दुर्लभ संयोग

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 275 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं पार्श्वगायिका गीता दत्त के गाए हुए कुछ सुरीले सुमधुर गीत जो दस अलग अलग अभिनेत्रियों पर फ़िल्माए गए हैं। इन गीतों को चुनकर और इनके बारे में तमाम जानकारियाँ इकट्ठा कर हमें भेजा है पराग सांकला जी ने और उन्ही की कोशिश का यह नतीजा है कि गुज़रे ज़माने के ये अनमोल नग़में आप तक इस रूप में पहुँच रहे हैं। नरगिस, मीना कुमारी, कल्पना कार्तिक और मधुबाला के बाद आज बारी है अदाकारा नूतन की। नूतन भी हिंदी फ़िल्म जगत की एक नामचीन अदाकारा रहीं हैं जिनके अभिनय का लोहा हर किसी ने माना है। हल्के फुल्के फ़िल्में हों या फिर संजीदे और भावुक फ़िल्में, हर फ़िल्म में वो अपनी अमिट छाप छोड़ जाती थीं। उनके अभिनय से सजी तमाम फ़िल्में आज क्लासिक फ़िल्मों में जगह बना चुकी है। वो एकमात्र ऐसी अभिनेत्री हैं जिन्होने ५ बार फ़िल्मफ़ेयर के तहत सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार जीता। नूतन मधुबाला, नरगिस या मीना कुमरी की तरह बहुत ज़्यादा ख़ूबसूरत या ग्लैमरस नहीं थीं, लेकिन उनकी सादगी के ही लोग दीवाने थे। उनकी ख़ूबसूरती उनके अंदर थी जो उनके स्वभाव

आ मोहब्बत की बस्ती बसाएँगे हम....पहली बार ओल्ड इस गोल्ड पर लता किशोर एक साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 257 दो स्तों, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की २५७ वी कड़ी है। पता नहीं आपने कभी ग़ौर किया होगा या नहीं कि अब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक भी लता-किशोर डुएट नहीं बजा है जब कि युगल गीतों के इतिहास में लता-किशोर की जोड़ी एक बहुत ही महत्वपूर्ण और लोकप्रिय जोड़ी रही है। अगर ऒल-टाइम एवरग्रीन डुएट्स के जोड़ियों का ज़िक्र छेड़ा जाए तो यकीनन लता-किशोर की जोड़ी का नाम प्रथम पाँच में ज़रूर होगी। हमने कई कई बार ऐसे फ़िल्मों के गानें बजाए हैं जिनमें लता-किशोर के युगल गीत रहे हैं, लेकिन हर बार हम उन फ़िल्मो के किसी और ही गीत को बजा बैठे हैं। जैसे कि 'जुवेल थीफ़', 'मिस्टर एक्स इन बॊम्बे', 'गैम्बलर', 'चाचा ज़िंदाबाद', 'हरे रामा हरे कॄष्णा', 'आराधना', 'प्रेम पुजारी', 'जुली', और 'शर्मिली'। इन सभी फ़िल्मों में लोकप्रिय लता-किशोर डुएट्स मौजूद हैं। दरसल सब से ज़्यादा हिट युगल गीत इस जोड़ी की रही है ६० के दशक आख़िर से लेकर ८० के दशक के शुरुआती सालों तक। लेकिन आज हम सुनने जा रहे हैं लता जी और किशोर दा का गाय