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तू मेरा जानूँ है तू मेरा हीरो है.....८० के दशक का एक और सुमधुर युगल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 560/2010/260 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! देखिए, गुज़रे ज़माने के सुमधुर गीतों को सुनते और गुनगुनाते हुए हम आ पहुँचे हैं इस साल २०१० के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की अंतिम कड़ी पर। आज ३० दिसंबर, यानी इस साल का आख़िरी 'ओल्ड इज़ गोल्ड'। जैसा कि इन दिनों आप इस स्तंभ में सुन और पढ़ रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर की कुछ सदाबहार युगल गीतों से सजी लघु शृंखला 'एक मैं और एक तू', आज ८० के दशक के ही एक और लैण्डमार्क डुएट के साथ हम समापन कर रहे हैं इस शृंखला का। यह वह गीत है दोस्तों जिसने लता और आशा के बाद की पीढ़ी के पार्श्वगायिकाओं का द्वार खोल दिया था। इस नयी पीढ़ी से हमारा मतलब है अनुराधा पौड़वाल, अल्का याज्ञ्निक, साधना सरगम और कविता कृष्णमूर्ती। आज हम चुन लाये हैं अनुराधा और मनहर उधास की आवाज़ों में १९८३ की फ़िल्म 'हीरो' का गीत "तू मेरा जानू है... मेरी प्रेम कहानी का तू हीरो है"। युं तो इस गीत से पहले भी अनुराधा ने कुछ गीत गाये थे, लेकिन इस गीत ने उन्हें पहली बार अपार सफलता दी जिसके बाद उन्हें पीछे मुड़कर देखने की

हम बने तुम बनें एक दूजे के लिए....और एक दूजे के लिए ही तो हैं आवाज़ और उसके संगीत प्रेमी श्रोता

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 559/2010/259 फ़ि ल्म संगीत के सुनहरे दौर के चुने हुए युगल गीतों को सुनते हुए आज हम क़दम रख रहे हैं ८० के दशक में। कल के गीत से ही आप ने अंदाज़ा लगाया होगा कि ७० के दशक के मध्य भाग के आते आते युगल गीतों का मिज़ाज किस तरह से बदलने लगा था। उससे पहले फ़िल्म के नायक नायिका की उम्र थोड़ी ज़्यादा दिखाई जाती थी, लेकिन धीरे धीरे फ़िल्मी कहानियाँ स्कूल-कालेजों में भी समाने लगी और इस तरह से कॊलेज स्टुडेण्ट्स के चरित्रों के लिए गीत लिखना ज़रूरी हो गया। नतीजा, वज़नदार शायराना अंदाज़ को छोड़ कर फ़िल्मी गीतकार ज़्यादा से ज़्यादा हल्के फुल्के और आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग करने लगे। कुछ लोगों ने इस पर फ़िल्मी गीतों के स्तर के गिरने का आरोप भी लगाया, लेकिन क्या किया जाए, जैसा समाज, जैसा दौर, फ़िल्म और फ़िल्म संगीत भी उसी मिज़ाज के बनेंगे। ख़ैर, आज हम बात करते हैं ८० के दशक की। इस दशक के शुरुआती दो तीन सालों तक तो अच्छे गानें बनते रहे और लता और आशा सक्रीय रहीं। ८० के इस शुरुआती दौर में जो सब से चर्चित प्रेम कहानी पर बनी फ़िल्म आई, वह थी 'एक दूजे के लिए'। यह फ़िल्म तो जैसे

कांची रे कांची रे.....भाई अब कोई गलती भी तो क्या, गीत तो खूबसूरत है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 519/2010/219 हाँ तो दोस्तों, कैसी लग रही है आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की यह लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले'? अब तक हमने इसमें जिन जिन ग़लतियों पर नज़र डाले हैं, वो हैं गायक का ग़लत जगह पे गा देना, गायक का ग़लत शब्द उच्चारण, गीत में ग़लत शब्द का व्यवहार, फ़िल्मांकन में त्रुटि, और गीत के अंतरे की पंक्तियाँ दो अंतरों के बीच आपस में बदल जाना। इन सब ग़लतियों से शायद आपको लग रहा होगा कि इनमें संगीतकार की तो कोई ग़लती नहीं है। है न? लेकिन आज हम जिस गीत का ज़िक्र करने वाले हैं, उसके लिए तो मेरे ख़याल से संगीतकार ही ज़िम्मेदार हैं। यह है फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' का बेहद लोकप्रिय युगल गीत "कांची रे कांची रे, प्रीत मेरी सांची, रुक जा न जा दिल तोड़ के"। नेपाली लोक धुन को आधार बना कर राहुल देव बर्मन कैसा ख़ूबसूरत कम्पोज़िशन बनाई है इस गीत के लिए। आनंद बक्शी के बोल तथा किशोर कुमार व लता मंगेशकर की युगल आवाज़ें। इस गीत में कोई शाब्दिक ग़लती तो नहीं है, लेकिन कम्पोज़िशन में एक त्रुटि ज़रूर सुनाई देती है। इस त्रुटि पर नज़र डालने से पहले हम आपको य

रोज शाम आती थी, मगर ऐसी न थी.....जब शाम के रंग में हो एल पी के मधुर धुनों की मिठास, तो क्यों न बने हर शाम खास

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 508/2010/208 ल क्ष्मीकांत-प्यारेलाल के धुनों से सजी लघु शंखला 'एक प्यार का नग़मा है' में आज एक और आकर्षक गीत की बारी। लेकिन इस गीत का ज़िक्र करने से पहले आइए आज आपको एल.पी के बतौर स्वतंत्र संगीतकार शुरु शुरु के फ़िल्मों के बारे में बताया जाए। स्वतंत्र रूप से पहली बार 'तुमसे प्यार हो गया', 'पिया लोग क्या कहेंगे', और 'छैला बाबू' में संगीत देने का उन्हें मौका मिला था। 'तुमसे प्यार हो गया' और 'छैला बाबू' दोनों के लिए चार-चार गाने भी रेकॊर्ड हो गये पर 'तुमसे प्यार हो गया' के निर्माता ही भाग निकले और 'छैला बाबू' रुक गई, जो कुछ वर्षों बाद जाकर पूरी हुई। 'सिंदबाद' के लिए भी रेकॊर्डिंग् हुई पर फ़िल्म पूरी न हो सकी। 'तुमसे प्यार हो गया' के लिए उनकी पहली रेकॊर्डिंग् "कल रात एक सपना देखा" (लता, सुबीर सेन) तो आज तक विलुप्त ही है, पर 'पिया लोग क्या कहेंगे' के इसी मुखड़े के लता के गाये शीर्षक गीत की धुन उन्होंने आगे जाकर 'दोस्ती' के "चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे"

खिजां के फूल पे आती कभी बहार नहीं...जब दर्द में डूबी किशोर की आवाज़ को साथ मिला एल पी के सुरों का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 507/2010/207 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के संगीत से सजी फ़िल्मों के गानें उन्ही पर केन्द्रित लघु शृंखला 'एक प्यार का नग़मा है' के अंतर्गत। आज के अंक में आवाज़ किशोर कुमार की। सन् १९६९ में एक हिट फ़िल्म आयी थी 'दो रास्ते', जिसके गीतों ने भी ख़ूब धूम मचाये, और आज भी अक्सर कहीं ना कहीं से सुनाई दे जाते हैं। फ़िल्म के सभी गानें अलग अलग मूड के थे और हर गीत लोकप्रिय हुआ था। लता का गाया "बिंदिया चमकेगी" और "अपनी अपनी बीवी पे सबको ग़ुरूर है", लता-रफ़ी का "दिल ने दिल को पुकारा मुलाक़ात हो गई", रफ़ी का "ये रेश्मी ज़ुल्फ़ें", मुकेश का "दो रंग दुनिया के और दो रास्ते" जैसे गानों के साथ साथ एक ग़मज़दा नग़मा भी था किशोर दा का गाया हुआ। उन दिनों रफ़ी और मुकेश ही पार्श्वगायकों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। लेकिन किशोर कुमार तेज़ी से लोकप्रियता के पायदान चढ़ते जा रहे थे और ७० के दशक में जाकर पूरी तरह से छा गए और लगभग सभी समकालीन ना

राम जी की निकली सवारी....आईये आज दशहरे के दिन श्रीराम महिमा गायें बख्शी साहब और एल पी के सुरों में डूबकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 506/2010/206 'आ वाज़' के सभी दोस्तों को विजयदशमी और दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए हम शुरु कर रह रहे हैं इस सप्ताह के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का सफ़र। यह त्योहार अच्छाई का बुराई पर जीत का प्रतीक है। आज ही के दिन भगवान राम ने रावण का वध कर सीता को मुक्त करवाया था। नवरात्री का समापन और दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन से आज दुर्गा पूजा का भी समापन होता है। नवरात्रों में गली गली राम लीला का आयोजन किया जाता है और ख़ास आज के दिन तो रावण-मेघनाद-कुंभकर्ण के बड़े बड़े पुतले बनाकर उन्हें जलाया जाता है। वही बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक! दोस्तों, आज जब इस वक़्त चारों तरफ़ इस बेहद महत्वपूर्ण त्योहार की धूम मची हुई है, तो ऐसे में 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का भी कर्तव्य हो जाता है कि इसी त्योहार और हर्षोल्लास के वातावरण को ध्यान में रखते हुए कोई सटीक गीत चुनें। जैसा कि इन दिनों आप सुन रहे हैं कि हम सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के स्वरबद्ध गीतों की लघु शृंखला प्रस्तुत कर रहे हैं, तो ऐसे में आज के दिन फ़िल्म 'सरगम' के उस गीत के अलावा और क

फूल अहिस्ता फैको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं....इसे कहते है नाराज़ होने, शिकायत करने का लखनवी शायराना अंदाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 498/2010/198 नौ रसों में कुछ रस वो होते हैं जो अच्छे होते है, और कुछ रस ऐसे हैं जिनका अधिक मात्रा में होना हमारे मन-मस्तिष्क के लिए हानिकारक होता हैं। शृंगार, हास्य, शांत, वीर पहली श्रेणी में आते हैं जबकि करुण, विभत्स और रौद्र रस हमें एक मात्रा के बाद हानी पहुँचाते हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार, 'रस माधुरी' शृंखला में आज बातें रौद्र रस की। जब हमारी आशाएँ पूरी नहीं हो पाती, तब हमें लगता है कि हमें नकारा गया है और यही रौद्र रस का आधार बनता है। यह ज़रूरी नहीं कि ग़ुस्से से हमेशा हानी ही पहुँचती है, कभी कभी रौद्र का इस्तेमाल सकारात्मक कार्य के लिए भी हो सकता है जैसे कि माँ का बच्चे को डाँटना, गुरु का शिष्य को डाँटना, मित्र का अपने मित्र को भलाई के मार्ग पर लाने के लिए डाँटना इत्यादि। लेकिन निरर्थक विषयों पर नाराज़ होना और बात बात पर नाराज़ होकर सीन क्रीएट कर लेना अपने लिए भी और पूरे वातावरण के लिए हानिकारक ही होता है। यह जानना बहुत ज़रूरी है कि ग़ुस्से से कोई भी समस्या का समाधान नहीं होता, बल्कि वह समस्या और विस्तारित होती है। मन अशांत ह

नफरत की दुनिया को छोडकर प्यार की दुनिया में, खुश रहना मेरे यार.... करुण रस और रफ़ी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 495/2010/195 हा स्य रस के बाद आज ठीक विपरीत दिशा में जाते हुए करुण रस की बारी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार। 'रस माधुरी' शृंखला में आज ज़िक्र करुण रस का। करुण रस, यानी कि दुख, सहानुभूति, हमदर्दी, जो उत्पन्न होती है लगाव से, किसी वस्तु या प्राणी के साथ जुड़ाव से। जब यह लगाव हमसे दूर जाने लगता है, बिछड़ने लगता है, तो करुण रस से मन भर जाता है। करुण रस आत्म केन्द्रित होने का भी कभी कभी लक्षण बन जाता है। इसलिए शास्त्र में कहा गया है कि करुण रस को आत्मकेन्द्रित दुख से ज़रूरतमंदों के प्रति हमदर्दी जताने में परिवर्तित कर दिया जाए। किसी तरह के दुख के निवारण के लिए यह जान लेना ज़रूरी है कि दुख अगर आता है तो एक दिन चला भी जाता है। ज़रूरी नहीं कि किसी से जुदाई ही करुण रस को जन्म देती है। एकाकीपन भी करुण रस को जन्म दे सकता है। करुण रस मनुष्य के जीवन के हर पड़ाव में आता है। जवान होते बच्चों में देखा गया है कि जब वो उपेक्षित महसूस करते हैं तो दूसरों से हमदर्दी की चाह रखने लगते हैं। जब इंसान बूढ़ा होने लगता है तो अलग तरह का करुण रस होता है कि जिसमें उसे

बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा....जब इकबाल सिद्धिकी ने सुर छेड़े पंचम के निर्देशन में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 455/2010/155 "से हरा में रात फूलों की", आज इस शृंखला में जो ग़ज़ल गूंज रही है, वह है पंचम, यानी राहुल देव बर्मन का कॊम्पोज़िशन। एक फ़िल्म आई थी १९८८ में 'रामा ओ रामा'। फ़िल्म तो नहीं चली, लेकिन इस फ़िल्म के कम से कम तीन गानें उस समय रेडियो पर ख़ूब बजे थे। एक तो था अमित कुमार और जयश्री श्रीराम का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "रामा ओ रामा, तूने ये कैसी दुनिया बनाई"; दूसरा गीत था मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में "ऐ हसीं नाज़नीं गुलबदन महजवीं"; और तीसरी थी गज़ल इक़बाल सिद्दिक़ी की गायी हुई यह ग़ज़ल "बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा"। बिलकुल ग़ुलाम अली स्टाइल की गायकी को अपनाया गया है इस ग़ज़ल में, जिसके शायर हैं आरिफ़ ख़ान। वैसे इस फ़िल्म के बाक़ी गीतों को आनंद बक्शी ने लिखा था। दोस्तों, अस्सी का यह दौर राहुल देव बर्मन के लिए बहुत अच्छा नहीं रहा। उस समय कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्त्यारेलाल की तरह उनका संगीत भी पिट रहा था, फ़िल्में भी पिट रही थीं। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भले ही व्यावसायिक रूप से उनका यह दौर अस

रिमझिम के गीत सावन गाये....एल पी के संगीत में जब सुर मिले रफ़ी साहब और लता जी के तो सावन का मज़ा दूना हो गया

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 439/2010/139 रि मझिम के तरानों पर सवार होकर हम आज पहुंचे हैं इस भीगी भीगी शृंखला की अंतिम कड़ी पर। 'रिमझिम के तराने' में आज प्रस्तुत है संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की एक बेहतरीन रचना की। एल.पी ने सावन के कई हिट गीत हमें दिए हैं, जैसे कि "आया सावन झूम के", "कुछ कहता है यह सावन", "झिलमिल सितारों का आँगन होगा", और आज का प्रस्तुत गीत "रिमझिम के गीत सावन गाए हाए भीगी भीगी रातों में"। यह १९६९ की फ़िल्म 'अनजाना' का गीत है। बताना ज़रूरी है कि यह वही साल था जिस साल 'आराधना' में "रूप तेरा मस्ताना प्यार मेरा दीवाना" जैसा सेन्सुअस गीत आया था जो एक नया प्रयोग था। उसके बाद से तो जैसे एक ट्रेण्ड सा ही बन गया कि बारिश से बचने के लिए हीरो और हीरोइन किसी सुनसान और खाली पड़े मकान में शरण लेते हैं, और वहाँ पर बारिश को सलाम करते हुए एक रोमांटिक गीत गाते हैं। तो एक तरह से इसे "रूप तेरा मस्ताना" जौनर भी कह सकते हैं। लता-रफ़ी की आवाज़ में फ़िल्म 'अनजाना' का यह गीत बेहद ख़ूबसूरत है हर लि

सावन के महीने में.....जब याद आये मदन मोहन साहब तो दिल गा उठता है...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 438/2010/138 ती न दशक बीत चुके हैं, लेकिन जब भी जुलाई का यह महीना आता है तो कलेण्डर का पन्ना इशारा करती है १४ जुलाई के दिन की तरफ़ जिस दिन एक महान संगीतकार हम से बिछड़े थे। ये वो संगीतकार हैं जो जाते वक़्त हमसे कह गए थे कि "मेरे लिए ना अश्क़ बहा मैं नहीं तो क्या, है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या"। कितनी सच बात है कि उनके गानें हमारे साथ वफ़ा ही तो करती आई है आज तक। कुछ ऐसा जादू है उनके गीतों में कि हम चाह कर भी उन्हे नहीं अपने दिल से मिटा सकते। दोस्तों, जुलाई और सावन का जब जब यह महीना आता है, संगीतकार मदन मोहन की सुरीली यादें भी जैसे छम छम बरसने लग पड़ती हैं। ऐसे में जब हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सावन के फुहारों की इन दिनों बातें कर रहे हैं तो आज के दिन मदन मोहन साहब के संगीत से आपको कैसे वंचित रख सकते हैं! आज हम इस कड़ी में सुनने जा रहे हैं मदन साहब की धुनों से सजी एक रिमझिम फुहारों भरा गीत। वैसे तो "रिमझिम" के साथ अगर मदन मोहन को जोड़ा जाए तो सब से पहले फ़िल्म 'वो कौन थी' का वही मशहूर गीत "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम, पिय

सावन के झूले पड़े...राग पहाड़ी पर आधारित एक मधुर सुमधुर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 437/2010/137 न मस्कार दोस्तों! सावन के महीने की एक और परम्परा है झूलों का लगना। शहरों में तो नहीं दिखते, लेकिन गावों में आज भी लड़कियाँ पेड़ों की शाखों पर झूले डालते हैं और सावन के इन दिनों में ख़ूब झूला झूलते हैं। यह एक परम्परा के तौर पर चली आ रही है। और तभी तो फ़िल्मी गीतों में भी कई कई बार सावन में पड़ने वाले झूलों का ज़िक्र होता आया है। "पड़ गए झूले सावन ऋत आई रे" (बहू बेग़म), "बदरा छाए के झूले पड़ गए हाए" (आया सावन झूम के), "सावन के झूलों ने मुझको बुलाया" (निगाहें), और भी न जाने ऐसे कितने गानें हैं जिनमें सावन के झूलों का उल्लेख है। आज इनमें से हमने जिस गीत को चुना है वह है राहुल देव बर्मन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'जुर्माना' का मधुर गीत "सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ"। कितने सीधे सरल बोल हैं, लेकिन असर इतना कि सावन पर बने तमाम गीतों में यह गीत एक ख़ास मुक़ाम रखता है। आनंद बक्शी के लिखे और लता मंगेशकर के गाए इस गीत में शास्त्रीय संगीत का रंग है। इसी फ़िल्म का एक और शास्त्रीय अंदाज़ वाला गीत "ए सखी राधि

किसी राह में, किसी मोड पर....कहीं छूटे न साथ ओल्ड इस गोल्ड के हमारे हमसफरों का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 429/2010/129 क ल्याणजी-आनंदजी के सुर लहरियों से सजी इस लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर' में आज छा रहा है शास्त्रीय रंग। इसे एक रोचक तथ्य ही माना जाना चाहिए कि तुलनात्मक रूप से कम लोकप्रिय राग चारूकेशी पर कल्याणजी-आनंदजी ने कई गीत कम्पोज़ किए हैं जो बेहद कामयाब सिद्ध हुए हैं। चारूकेशी के सुरों को आधार बनाकर "छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए" (सरस्वतीचन्द्र), "मोहब्बत के सुहाने दिन, जवानी की हसीन रातें" (मर्यादा), "किसी राह में किसी मोड़ पर (मेरे हमसफ़र), "अकेले हैं चले आओ" (राज़), "एक तू ना मिला" (हिमालय की गोद में), "कभी रात दिन हम दूर थे" (आमने सामने), "बेख़ुदी में सनम उठ गए जो क़दम" (हसीना मान जाएगी), "जानेजाना, जब जब तेरी सूरत देखूँ" (जाँबाज़) जैसे गीतों की याद कल्याणजी-आनंदजी के द्वारा इस राग के विविध प्रयोगों के उदाहरण के रूप में फ़िल्म संगीत में जीवित रहेगी। चारूकेशी का इतना व्यापक व विविध इस्तेमाल शायद ही किसी और संगीतकार ने किया होगा! दूसरे संगीतकारों के जो दो चार गानें

ये मेरा दिल यार का दीवाना...जबरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन का उत्कृष्ट नमूना है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 428/2010/128 'दि ल लूटने वाले जादूगर' - कल्याणजी-आनंदजी के धुनों से सजी इस लघु शृंखला में आज हम और थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए पहुँच जाते हैं सन‍ १९७८ में। ७० के दशक के मध्य भाग से हिंदी फ़िल्मों का स्वरूप बदलने लगा था। नर्मोनाज़ुक प्रेम कहानियो से हट कर, ऐंग्री यंग मैन की इमेज हमारे नायकों को दिया जाने लगा। इससे ना केवल कहानियों से मासूमीयत ग़ायब होने लगी, बल्कि इसका प्रभाव फ़िल्म के गीतों पर भी पड़ा। क्योंकि गानें फ़िल्म के किरदार और सिचुयशन को केन्द्र में रखते हुए ही बनाए जाते हैं, ऐसे में गीतकारों और संगीतकारों को भी उसी सांचे में अपने आप को ढालना पड़ा। जो नहीं ढल सके, वो पीछे रह गए। कल्याणजी-आनंदजी एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होने हर बदलते दौर को स्वीकारा और उसी के हिसाब से सगीत तैयार किया। और यही वजह है कि १९५८ में उनके गानें जितने लोकप्रिय हुआ करते थे, ८० के दशक में भी लोगों ने उनके गीतों को वैसे ही हाथों हाथ ग्रहण किया। हाँ, तो हम ज़िक्र कर रहे थे १९७८ के साल की। इस साल अमिताभ बच्चन की मशहूर फ़िल्म आई थी 'डॊन', जिसमें इस जोड़ी का संगीत था। सुपर स्ट

यूहीं तुम मुझसे बात करती हो...इतने जीवंत और मधुर युगल गीत कहाँ बनते हैं रोज रोज

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 426/2010/126 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं। इन दिनों हम आप तक पहुँचा रहे हैं सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी कल्याणजी-आनंदजी के स्वरबद्ध गीतों से सजी लघु शृंखला 'दिल लूटने वाले जादूगर'। इस शृंखला के पहले हिस्से में पिछले हफ़्ते आपने पाँच गीत सुनें, और आज से अगले पाँच दिनों में आप सुनेंगे पाँच और गीत। तो साहब हम आ पहुँचे थे ७० के दशक में, और जैसा कि हमने आपको बताया था कि ७० का दशक कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और आर.डी. बर्मन का दशक था। यह कहा जाता है कि इन तीनों ने रिकार्डिंग् स्टुडियो पर जोड़-तोड़ से ऐडवांस बुकिंग्' करनी शुरु कर दी थी कि और किसी संगीतकार को अपने गीतों की रिकार्डिंग् के लिए स्टुडियो ही नहीं मिल पाता था। 'आराधना' की सफलता के बाद यह ज़माना राजेश खन्ना और किशोर कुमार के सुपर स्टारडम का भी था। कल्याणजी-आनंदजी भी इस लहर में बहे और सन् १९७० में राजेश खन्ना के दो सुपर हिट फ़िल्मों में मुख्यत: किशोर कुमार को ही लिया। ये दो फ़िल्में थीं 'सफ़र' और 'सच्चा झूठा'। 'सफ़र' में &quo