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Showing posts with the label Shankar Jaikishan

अजीब दास्ताँ है ये.....अद्भुत रस में छुपी जीवन की गुथ्थियां जिन्हें सुलझाने में बीत जाती है उम्र सारी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 492/2010/192 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है लघु शृंखला 'रस माधुरी' जिसके अंतर्गत हम चर्चा कर रहे हैं नौ रसों की। कुल नौ कड़ियों की इस शृंखला की हर कड़ी में एक रस की चर्चा होगी और साथ ही उस रस पर आधारित कोई मशहूर फ़िल्मी गीत आपको सुनवाया जाएगा। कल की कड़ी मे शृंगार रस का एक बड़ा ही प्यारा सा मीठा सा गीत आपने सुना था लता जी की आवाज़ में। जैसा कि हमने कल बताया था कि इस शृंखला की पहली तीन कड़ियों में आप लता जी के ही गाए गीत सुनेंगे। तो आज उनका गाया जो गीत हमने चुना है उसमें है अद्भुत रस की झलक। गीत पर हम बाद में आते हैं, पहले आइए चर्चा करें अद्भुत रस की। अद्भुत रस का अर्थ है वह भाव जिसमें समाया हुआ है आश्चर्य, कौतुहल, राज़। सभ्यता जब से शुरु हुई है, तभी से मानव जाति नए नए चीज़ों के बारे में जानने की कोशिश करती आई है और आज भी यह परम्परा जारी है। जब हम यह समझते हैं कि दुनिया में ऐसी बहुत सी चीज़ें हैं जिनके बारे में हमें नहीं मालूम, यही भाव हमारे जीवन को और भी ज़्यादा सुंदर और आकर्षक और रोमांचकर बनाता है। और हमारी यही खोज, अज्ञान को ज्ञान

जब भी ये दिल उदास होता है....जब ओल्ड इस गोल्ड के माध्यम से गायिका शारदा ने शुभकामनाएँ दी गुलज़ार साहब को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 464/2010/164 आ ज १८ अगस्त है। गुलज़ार साहब को हम अपनी तरफ़ से, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की तरफ़ से, आवाज़' परिवार की तरफ़ से, और 'हिंद युग्म' के सभी चाहनेवालों की तरफ़ से जनमदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं, और ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि उन्हें दीर्घायु करें, उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें, और वो इसी तरह से शब्दों के, गीतों के, ग़ज़लों के ताने बाने बुनते रहें और फ़िल्म जगत के ख़ज़ाने को समृद्ध करते रहें। आज उनके जनमदिन पर 'मुसाफ़िर हूँ यारों' शृंखला में हम जिस गीत को चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'सीमा' का। मोहम्मद रफ़ी और शारदा की आवाज़ों में यह गीत है "जब भी ये दिल उदास होता है, जाने कौन आसपास होता है"। वैसे रफ़ी साहब की ही आवाज़ है पूरे गीत में, शारदा की आवाज़ आलापों में सुनाई पड़ती है। यह सन् १९७१ में निर्मित 'सीमा' है जिसका निर्माण सोहनलाल कनवर ने किया था और जिसे सुरेन्द्र मोहन ने निर्देशित किया था। राकेश रोशन, कबीर बेदी, सिमी गरेवाल, पद्मा खन्ना, चाँद उस्मानी, और अभि भट्टाचार्य अभिनीत इस फ़िल्म का संगीत निर्द

आ अब लौट चलें.....धुन विदेशी ही सही पर पुकार एकदम देसी थी दिल से निकली हुई

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 448/2010/148 प राये धुनों को अपने अंदाज़ में ढाल कर हमारे फ़िल्मी संगीतकारों ने कैसे कैसे सुपरहिट गीत हमें दिए हैं, उसी के कुछ नमूने हम इन दिनों पेश कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'गीत अपना धुन पराई' के अंतर्गत, और साथ ही साथ उन मूल विदेशी धुनों से संबंधित थो़ड़ी बहुत जानकारियाँ भी दे रहे हैं जो इंटरनेट में गूगलिंग् के ज़रिए हमने खोज निकाला है। एक और संगीतकार जिन्होने बेशुमार विदेशी धुनें अपने गीतों में अपनाई, वो हैं सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन। आपको एक फ़ेहरिस्त यहाँ दे रहे हैं जिससे आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि एस.जे की जोड़ी ने किन किन गीतों में यह शैली अपनाई। १. दिल उसे दो जो जाँ दे दे (अंदाज़) - 'With a little help from my friends' २. है ना बोलो बोलो (अंदाज़) - 'Papa loves mama' ३. कोई बुलाए और कोई आए (अपने हुए पराए) - 'Old Beirut' ४. ले जा ले जा (ऐन ईवनिंग् इन पैरिस) - The Shadows, "Man of Mystery" ५. जाने भी दे सनम मुझे (अराउण्ड दि वर्ल्ड) - 'I'll get you' by Beatles ६. आज की

बरसात में हम से मिले तुम सजन....बरसती फुहारों में मिलन की मस्ती और संगीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 433/2010/133 तो दोस्तों, कहिए आपके शहर में बारिश शुरु हुई कि नहीं! अगर हाँ, तो भई आप बाहर हो रही बारिश को अपनी खिड़की से झांक झांक कर देखिए, उसका मज़ा लीजिए, और साथ ही 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों चल रही शृंखला 'रिमझिम के तराने' का भी आनंद लीजिए। और अगर अभी तक आपके शहर में, आपके गाँव में बरखा रानी की कृपा अभी तक नहीं हो पायी है, तो फिर आप केवल इन गीतों को ही सुन कर ठंडक की अनुभूति कर सकते हैं। ख़ैर, आज इस शृंखला की तीसरी कड़ी में बरसात के साथ हम मिला रहे हैं मिलन का रंग। पहली कड़ी में हमने ज़िक्र किया था कि बरसात के साथ अक्सर जुदाई के दर्द को जोड़ा जाता है। लेकिन आज जिस गीत को हमने चुना है, वह है मिलन की मस्ती का। लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में सन् १९४९ की राज कपूर की दूसरी निर्मित व निर्देशित फ़िल्म 'बरसात' का शीर्षक गीत "बरसात में तुम से मिले हम सजन हम से मिले तुम"। शैलेन्द्र का गीत और शंकर-जयकिशन का संगीत। हालाँकि शंकर जयकिशन ने विविध रागों का इस्तेमाल अपने गीतों में किया है, लेकिन राग भैरवी का इस्तेमाल जैसे उनका एक ऒ

मैं कहीं कवि न बन जाऊं....ये गीत पसंद है "महफ़िल-ए-गज़ल" प्रस्तुतकर्ता विश्व दीपक तन्हा को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 408/2010/108 आ ज 'पसंद अपनी अपनी' में हम जिन शख़्स के पसंद का गीत सुनने जा रहे हैं, वह इसी हिंद युग्म से जुड़े हुए हैं। आप सभी के अतिपरिचित विश्व दीपक 'तन्हा' जी। 'महफ़िल-ए-ग़ज़ल' शृंखला के लिए वो जो मेहनत करते हैं, वो मेहनत साफ़ झलकती है उनके आलेखों में, ग़ज़लों के चुनाव में। क्योंकि वो ख़ुद भी एक कवि हैं, शायद यही वजह है कि इन्हे यह गीत बहुत पसंद है - "मैं कहीं कवि ना बन जाऊँ तेरे प्यार में ऐ कविता"। रफ़ी साहब की आवाज़ में यह है फ़िल्म 'प्यार ही प्यार' का गीत, हसरत जयपुरी के बोल और शंकर जयकिशन का संगीत। दोस्तों, यह वह दौर था जब शैलेन्द्र जी हमसे बिछड़ चुके थे और केवल हसरत साहब ही शंकर जयकिशन के लिए गानें लिख रहे थे। १९६८-६९ से १९७१-७२ के बीच हसरत साहब, शंकर जयकिशन और रफ़ी साहब ने एक साथ कई फ़िल्मों में काम किया जैसे कि 'यकीन', 'पगला कहीं का', 'प्यार ही प्यार', 'दुनिया', 'तुमसे अच्छा कौन है', 'सच्चाई', 'शिकार', 'धरती', आदि। पहले शैलेन्द्र चले गए, फिर १९७२ म

तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ...कि इस मीठी नोंक झोंक में भी मज़ा बहुत आता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 404/2010/104 दो स्तों, पिछले तीन दिनों से हम आप ही के पसंद के गानें सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। ये तीनों ही गीत कुछ संजीदे या फिर थोड़े दर्द भरे रहे। तो आज मूड को बिल्कुल ही बदलते हुए हम जिस गीत को सुनेंगे उसका ताल्लुख़ है खट्टे मीठे नोंक झोंक से, प्यार भरे तकरारों से, प्यार में रूठने मनाने से। यह गीत है रोहित राजपूत की पसंद का गीत है, रोहित जी ने पहेली प्रतियोगिता के पहले सीज़न में मंज़िल के बहुत करीब तक पहुँच गए थे, लेकिन शायद व्यस्तता की वजह से बाद में वो कुछ ग़ायब से हो गए। लेकिन हमारा अनुमान है कि जब भी उन्हे समय मिल पाता है, वह आवाज़ के मंच को दस्तक ज़रूर देते हैं। तभी तो उन्होने अपनी फ़रमाइश लिख भेजी है हमें। तो उनकी फ़रमाइश है फ़िल्म 'आस का पंछी' से, "तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूँ कि इन अदाओं पे और प्यार आता है"। लता मंगेशकर और मुकेश का गाया यह गीत है जिसे लिखा है हसरत जयपुरी ने और स्वरबद्ध किया है शंकर जयकिशन ने। १९६१ की इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे वैजयंतीमाला, राजेन्द्र कुमार और राज मेहरा। राजेन्द्र सिंह बेदी लिखित इस फ़िल

ये मूह और मसूर की दाल....मुहावरों ने छेड़ी दिल की बात और बना एक और फिमेल डूईट

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 397/2010/97 भा षा की सजावट के लिए पौराणिक समय से जो अलग अलग तरह के माध्यम चले आ रहे हैं, उनमें से एक बेहद लोकप्रिय माध्यम है मुहावरे। मुहावरों की खासियत यह होती है कि इन्हे बोलने के लिए साहित्यिक होने की या फिर शुद्ध भाषा बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ये मुहावरे पीढ़ी दर पीढ़ी ज़बानी आगे बढ़ती चली जाती है। क्या आप ने कभी ग़ौर किया है कि हिंदी फ़िल्मी गीतों में किसी मुहावरे का इस्तेमाल हुआ है या नहीं। हमें तो भई कम से कम एक ऐसा मुहवरा मिला है जो एक नहीं बल्कि दो दो गीतों में मुखड़े के तौर पर इस्तेमाल हुए हैं। इनमें से एक है लता मंगेशकर का गाया १९५७ की फ़िल्म 'बारिश' का गीत "ये मुंह और दाल मसूर की, ज़रा देखो तो सूरत हुज़ूर की"। और दूसरा गीत है फ़िल्म 'अराउंड दि वर्ल्ड' फ़िल्म का "ये मुंह और मसूर की दाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल, हुस्न जो देखा हाल बेहाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल"। जी हाँ, मुहावरा है 'ये मुंह और मसूर की दाल', और 'अराउंड दि वर्ल्ड' के इस गीत को गाया था जो गायिकाओं ने - शारदा और मुबारक़ बेग़म। आज &#

केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूले...दो दिग्गजों की अनूठी जुगलबंदी से बना एक अनमोल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 365/2010/65 भा रतीय शास्त्रीय संगीत के राग ना केवल दिन के अलग अलग प्रहरों से जुड़े हुए हैं, बल्कि कुछ रागों का ऋतुओं, मौसमों से भी निकट का वास्ता है। ऐसा ही एक राग है बहार। और फिर राग बहार से बना है राग बसन्त बहार भी। जब बसंत, फागुन और होली गीतों की यह शृंखला चल रही है, ऐसे में अगर इस राग का उल्लेख ना करें तो शायद रंगीले गीतों की यह शृंखला अधूरी ही रह जाएगी। इसलिए आज जो गीत हमने चुना है वह आधारित है राग बसन्त बहार पर, और फ़िल्म का नाम भी वही है, यानी कि 'बसन्त बहार'। शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की जोड़ी, और इस गीत को दो ऐसे गायकों ने गाए हैं जिनमें से एक तो शास्त्रीय संगीत के आकाश का एक चमकता सितारा हैं, और दूसरे वो जो हैं तो फ़िल्मी पार्श्व गायक, लेकिन शास्त्रीय संगीत में भी उतने ही पारदर्शी जितने कि कोई अन्य शास्त्रीय गायक। ये दो सुर गंधर्व हैं पंडित भीमसेन जोशी और हमारे मन्ना डे साहब। 'गीत रंगीले' में आज इन दो सुर साधकों की जुगलबंदी पेश है, "केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूले"। ऋतुराज बसन्त को समर्पित इससे उत्कृष्ट फ़िल्मी गीत शायद ही किसी

तितली उडी, उड़ जो चली...याद कीजिये कितने संस्करण बनाये थे शारदा के गाये इस गीत के आपने बचपन में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 339/2010/39 फ़ि ल्म जगत के श्रेष्ठतम फ़िल्मकारों में से एक थे राज कपूर, जिनकी फ़िल्मों का संगीत फ़िल्म का एक बहुत ही अहम पक्ष हुआ करती थी। क्योंकि राज कपूर को संगीत का अच्छा ज्ञान था, इसलिए वो अपनी फ़िल्म के संगीत में भी अपना मत ज़ाहिर करना नहीं भूलते थे। राज कपूर कैम्प की अगर पार्श्वगायिका का उल्लेख करें तो कुछ फ़िल्मों में आशा भोसले के गाए गीतों के अलावा उस कैम्प की प्रमुख गायिका लता जी ही हुआ करती थीं। ऐसे मे अगर राज कपूर किसी तीसरी गायिका को नायिका के प्लेबैक के लिए चुनें तो उस गायिका के लिए यह बहुत अहम बात थी। और अगर वो गायिका बिल्कुल नयी नवेली हो तो यह और भी ज़्यादा उल्लेखनीय हो जाती है। जी हाँ, राज साहब ने ऐसा किया था। ६० के दशक में एक बार राज कपूर तेहरान गए थे। वहाँ पर उनके सम्मान में एक पार्टी का आयोजन किया गया था। उन्ही दिनों तेहरान में एक तमिल लड़की थी जो पार्टियों में गानें गाया करती थी। संयोग से राज साहब की उस पार्टी में इस गायिका को गाना गाने क मौका मिला। राज साहब को उस गायिका की आवाज़ इतनी पसंद आई कि उन्होने उसे अपनी फ़िल्म में गवाने का वादा किया

हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है....गणतंत्र दिवस पर एक बार फिर गर्व के साथ गाईये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 326/2010/26 ६१ -वें गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य पर 'आवाज़' की पूरी टीम की तरफ़ से आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ। हमारा देश निरंतर प्रगति के मार्ग पर बढ़ती रहे, समाज में फैले अंधकार दूर हों, यही कामना करते हैं, लेकिन सिर्फ़ कामना करने से ही बात नहीं बनेगी, जब तक हम में से हर कोई अपने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ योगदान इस दिशा में करें। देशभक्ति का अर्थ केवल हाथ में बंदूक उठाकर दुश्मनों से लड़ना ही नहीं है। बल्कि कोई भी काम जो इस देश और देशवासियों के लिए लाभकारी सिद्ध हो, वही देशभक्ति है। इसलिए हर व्यक्ति देशभक्ति का परिचय दे सकता है। ख़ैर, आइए अब रोशन करें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को। दोस्तों, साल २००९ के अंतिम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी, यानी कि ३००-वीं कड़ी में हमने आप से पूछा था एक महापहेली, जिसमें कुल १० सवाल थे। इन दस सवालों में सब से ज़्यादा सही जवाब दिया शरद तैलंग जी ने और बनें इस महासवाल प्रतियोगिता के विजेयता। इसलिए आज से अगले पाँच दिनों में हम शरद जी के पसंद के चार गानें सुनेंगे, जो उन्हे हमारी तरफ़ से इनाम है। तो आज पेश-ए-ख़िदमत है शरद

दिल की नज़र से, नज़रों की दिल से....कुछ बातें लता-मुकेश के स्वरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 296 श रद तैलंग जी के पसंद पर आज एक बड़ा ही ख़ूबसूरत सा रोमांटिक नग़मा। ५० के दशक में राज कपूर की फ़िल्मों में शंकर जयकिशन के संगीत में लता मंगेशकर और मुकेश ने एक से एक बेहतरीन युगल गीत गाए हैं जो शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के कलम से निकले थे। यहाँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर अब तक हमने इस तरह के तीन गानें बजा चुके हैं। ये हैं फ़िल्म 'आह' से " आजा रे अब मेरा दिल पुकारा ", फ़िल्म 'बरसात' का "छोड़ गए बालम" और फ़िल्म 'आशिक़' का " महताब तेरा चेहरा "। इसी फ़ेहरिस्त में एक और गीत का इज़ाफ़ा करते हुए आइए आज शरद की पसंद पर हो जाए फ़िल्म 'अनाड़ी' से "दिल की नज़र से, नज़रों की दिल से, ये बात क्या है, ये राज़ क्या है, कोई हमें बता दे"। दोस्तों, दिल और नज़र का रिश्ता बड़ा पुराना है और इस रिश्ते पर हर दौर में गानें लिखे गए हैं। लेकिन फ़िल्म 'अनाड़ी' का यह गीत इस तरह का पहला मशहूर गीत है जिसने कामयाबी की सारी बुलंदियों को पार कर गया। यही नहीं, आज एक नामचीन टीवी चैनल पर रोमांटिक फ़िल्मी गीतों का एक क

सजनवा बैरी हो गए हमार....शैलेन्द्र का दर्द पी गयी मुकेश की आवाज़, और चेहरा था राज कपूर का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 290 दो स्तों, यह शृंखला जो इन दिनों आप सुन रहे हैं वह है "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी"। यानी कि राज कपूर फ़िल्म्स के बाहर बनी फ़िल्मों में शैलेन्द्र जी के लिखे हुए गानें। लेकिन दोस्तों, जो हक़ीक़त है वह तो हक़ीक़त है, उसे ना हम झुटला सकते हैं और ना ही आप बदल सकते हैं। और हक़ीक़त यही है कि राज कपूर और शैलेन्द्र दो ऐसे नाम हैं जिन्हे एक दूसरे से जुदा नहीं किया जा सकता। सिर्फ़ कर्मक्षेत्र में ही नहीं, बल्कि यह आश्चर्य की ही बात है कि एक की पुण्यतिथि ही दूसरे का जन्म दिवस है। आज १४ दिसंबर, यानी कि शैलेन्द्र जी की पुण्य तिथि। १४ दिसंबर १९६६ के दिन शैलेन्द्र जी इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिए अलविदा कह गए थे, और १४ दिसंबर ही है राज कपूर साहब का जनमदिन। इसलिए आज इस विशेष शृंखला का समापन हम एक ऐसे गीत से कर रहे हैं जो आर.के.फ़िल्म्स की तो नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म के साथ शैलेन्द्र और राज कपूर दोनों ही इस क़दर जुड़े हैं कि आज के दिन के लिए इससे बेहतर गीत नहीं हो सकता। और ख़ास कर इस फ़िल्म के जिस गीत को हमने चुना है वह तो बिल्कुल सटीक है आज के लिए। &qu

सूरज जरा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगें हम...एक अंदाज़ शैलेद्र का ये भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 287 शै लेन्द्र के लिखे गीतों को सुनते हुए आपने हर गीत में ज़रूर अनुभव किया होगा कि इन गीतों में बहुत गहरी और संजीदगी भरी बातें कही गई है, लेकिन या तो बहुत सीधे सरल शब्दों में, या फिर अचम्भे में डाल देने वाली उपमाओं और अन्योक्ति अलंकारों की मदद से। आज "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" की सातवीं कड़ी के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह भी कुछ इसी तरह के अलंकारों से सुसज्जित है। फ़िल्म 'उजाला' का यह गीत है मन्ना डे और साथियों का गाया हुआ - "सूरज ज़रा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएँगे हम, ऐ आसमाँ तू बड़ा महरबाँ आज तुझको भी दावत खिलाएँगे हम"। अब आप ही बताइए कि ऐसे बोलों की हम और क्या चर्चा करें! ये तो बस ख़ुद महसूस करने वाली बातें हैं। भूखे बच्चों को रोटियों का ख़्वाब दिखाता हुआ यह गीत भले ही ख़ुशमिज़ाज हो, लेकिन इसे ग़ौर से सुनते हुए आँखें भर आती हैं जब मन्ना दा बच्चों के साथ गा उठते हैं कि "ठंडा है चूल्हा पड़ा, और पेट में आग है, गरमागरम रोटियाँ कितना हसीं ख़्वाब है"। कॊन्ट्रस्ट और विरोधाभास देखिए इस पंक्ति में कि चूल्हा जिसे

मिटटी से खेलते हो बार बार किसलिए...कुछ सवाल उस उपर वाले से शैलेन्द्र ने पूछे लता के स्वरों के जरिये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 286 "ज़ रा सी धूल को हज़ार रूप नाम दे दिए, ज़रा सी जान सर पे सात आसमान दे दिए, बरबाद ज़िंदगी का ये सिंगार किस लिए?" शैलेन्द्र के ये शब्द वार करती है इस दुनिया के खोखले दिखाओं और खोखले रिवाज़ों पर। ये शब्द हैं फ़िल्म 'पतिता' में लता मंगेशकर के गाए "मिट्टी से खेलते हो बार बार किस लिए" गीत के जो आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। भगवान के द्वारा एक बार नसीब बनाने और एक बार बिगाड़ने के खेल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह गीत। जिस तरह से मिट्टी के पुतलों को बार बार तोड़कर नए सांचे में ढाल कर नए नए रूप दिए जा सकते हैं, वैसे ही इंसान का शरीर भी मिट्टी का ही एक पुतला समान है जिसे उपरवाला जब जी चाहे, जैसे चाहे बिगाड़कर नया रूप दे सकता है। शैलेन्द्र ने इस तरह के गानें बहुत से लिखे हैं जिनमें शाब्दिक अर्थ के पीछे कोई गहरा फ़ल्सफ़ा छुपा होता है। रफ़ी साहब के गाए "दुनिया ना भाए मोहे" गीत की तरह इस गीत का सुर भी कुछ कुछ शिकायती है और भगवान की तरफ़ ही इशारा है। उषा किरण पर फ़िल्माया

तू प्यार का सागर है....शैलेन्द्र की कलम सी निकली इस प्रार्थना में गहरी वेदना भी है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 281 "अ जीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरु कहाँ ख़तम, ये मंज़िलें हैं कौन सी, ना तुम समझ सके ना हम"। "दुनिया बनानेवाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई?" "जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ, जी चाहे जब हमको आवाज़ दो, हम हैं वहीं, हम थे जहाँ"। जीवन दर्शन और ज़िंदगी के फ़ल्सफ़ात लिए हुए इन जैसे अनेकों अमर गीतों को लिखने वाले बस एक ही गीतकार - शैलेन्द्र। वही शैलेन्द्र जो अपने ख़यालों और ज़िंदगी के तजुर्बात को अपने अमर गीतों का रूप देकर ज़माने भर के तरफ़ से माने गए। शैलेन्द्र एक ऐसे शायर, एक ऐसे कवि की हैसीयत रखते हैं जिनकी शायरी और गीतों के मज़बूत कंधों पर हिंदी फ़िल्म संगीत की इमारत आज तक खड़ी है। फ़िल्म जगत को १७ सालों में जो कालजयी गानें शैलेन्द्र साहब ने दिए हैं, वो इतने कम अरसे में शायद ही किसी और ने दिए हों। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है नई शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी", जिसके तहत आप शैलेन्द्र के लिखे ऐसे दस गीत सुनेंगे जिन्हे शैलेन्द्र जी ने आर. के. बैनर के बाहर बनी फ़िल्मो

है न बोलो बोलो....पापा मम्मी की मीठी सुलह भी कराते हैं बच्चे गीत गाकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 268 दो स्तों, बच्चों वाले गीतों की शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हम एक बार फिर से शम्मी कपूर और शंकर जयकिशन के कॊम्बिनेशन का एक गीत लेकर उपस्थित हुए हैं। लेकिन इस बार गीतकार शैलेन्द्र नहीं बल्कि हसरत जयपुरी साहब हैं। यह है १९७१ की फ़िल्म 'अंदाज़' का एक गीत जिसे मोहम्मद रफ़ी, सुमन कल्याणपुर, सुषमा श्रेष्ठ और प्रतिभा ने गाया है। बच्चों वाले गीतों की श्रेणी में यह गीत भी लोकप्रियता की कसौटी पर खरा उतरा था अपने ज़माने में। जी. पी. सिप्पी निर्मित, रमेश सिप्पी निर्देशित, और शम्मी कपूर, राजेश खन्ना व हेमा मालिनी अभिनीत इस फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि राजु (राजेश खन्ना) और शीतल (हेमा मालिनी) एक दूसरे से प्यार करते हैं। राजु अपने पिता की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ एक मंदिर में शीतल से शादी कर लेता है, जिसे राजु का पिता स्वीकार नहीं करता। जल्द ही राजु एक रोड-ऐक्सिडेंट में मर जाता है और उधर शीतल माँ बनने वाली है। वो एक लड़के दीपु (मास्टर अलंकार) को जन्म देती है। शीतल को एक स्कूल टीचर की नौकरी मिल जाती है। उसका एक स्टुडेंट एक छोटी सी प्यारी सी बिन माँ की बच्ची मुन्नी ह