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Showing posts with the label Shailendra

आ अब लौट चलें.....धुन विदेशी ही सही पर पुकार एकदम देसी थी दिल से निकली हुई

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 448/2010/148 प राये धुनों को अपने अंदाज़ में ढाल कर हमारे फ़िल्मी संगीतकारों ने कैसे कैसे सुपरहिट गीत हमें दिए हैं, उसी के कुछ नमूने हम इन दिनों पेश कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'गीत अपना धुन पराई' के अंतर्गत, और साथ ही साथ उन मूल विदेशी धुनों से संबंधित थो़ड़ी बहुत जानकारियाँ भी दे रहे हैं जो इंटरनेट में गूगलिंग् के ज़रिए हमने खोज निकाला है। एक और संगीतकार जिन्होने बेशुमार विदेशी धुनें अपने गीतों में अपनाई, वो हैं सुप्रसिद्ध संगीतकार जोड़ी शंकर जयकिशन। आपको एक फ़ेहरिस्त यहाँ दे रहे हैं जिससे आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि एस.जे की जोड़ी ने किन किन गीतों में यह शैली अपनाई। १. दिल उसे दो जो जाँ दे दे (अंदाज़) - 'With a little help from my friends' २. है ना बोलो बोलो (अंदाज़) - 'Papa loves mama' ३. कोई बुलाए और कोई आए (अपने हुए पराए) - 'Old Beirut' ४. ले जा ले जा (ऐन ईवनिंग् इन पैरिस) - The Shadows, "Man of Mystery" ५. जाने भी दे सनम मुझे (अराउण्ड दि वर्ल्ड) - 'I'll get you' by Beatles ६. आज की

दिल तड़प तड़प के.....सलिल दा की धुन पर मुकेश (जयंती पर विशेष) और लता की आवाजें

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 445/2010/145 'गी त अपना धुन पराई' लघु शृंखला में इन दिनों आप सुन रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के कुछ ऐसे सदाबहार नग़में जो प्रेरित हैं किसी मूल विदेशी धुन या गीत से। ये दस गीत दस अलग अलग संगीतकारों के हमने चुने हैं। पिछले चार कड़ियों में हम सुन चुके हैं स्नेहल भाटकर, अनिल बिस्वास, मुकुल रॊय और राहुल देव बर्मन के स्वरबद्ध गीत; आज बारी है संगीतकार सलिल चौधरी की। सलिल दा और प्रेरीत गीतों का अगर एक साथ ज़िक्र हो रहा हो तो सब से पहले जो गीत याद आता है, वह है फ़िल्म 'छाया' का - "इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा", जो कि मोज़ार्ट की सीम्फ़नी से प्रेरीत था। लेकिन आज हमने आपको सुनवाने के लिए यह गीत नहीं चुना है, बल्कि एक और ख़ूबसूरत गीत जो आधारित है पोलैण्ड के एक लोक गीत पर। फ़िल्म 'मधुमती' का यह सदाबहार गीत है "दिल तड़प तड़प के दे रहा है ये सदा, तू हम से आँख ना चुरा, तुझे क़सम है आ भी जा"। लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज़ों में गीतकार शैलेन्द्र की रचना। मूल पोलैण्ड का लोक गीत कुछ इस तरह से है - "Szła Dzieweczka do Laseczka,

दो चमकती आँखों में कल ख्वाब सुनहरा था जितना.....आईये याद करें गीत दत्त को आज उनकी पुण्यतिथि पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 443/2010/143 "दो चमकती आँखों में कल ख़्वाब सुनहरा था जितना, हाये ज़िंदगी तेरी राहों में आज अंधेरा है उतना"। गीता दत्त के गाए इस गीत को सुनते हुए दिल उदास हो जाता है क्योंकि ऐसा लगता है कि जैसे यह गीत गीता जी की ही दास्ताँ बता रहा है। "हमने सोचा था जीवन में कोई चांद और तारे हैं, क्या ख़बर थी साथ में इनके कांटें और अंगारे हैं, हम पे क़िस्मत हँस रही है, कल हँसे थे हम जितना"। उफ़! जैसे कलेजा निकाल दे! आज २० जुलाई, गीता जी का स्मृति दिवस है। उनकी सुर साधना को 'आवाज़' की तरफ़ से श्रद्धा सुमन! दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है लघु शृंखला 'गीत अपना धुन पराई'। आइए आज गीता जी की याद में उन्ही की आवाज़ में फ़िल्म 'डिटेक्टिव' का यही गीत सुनते हैं जो शायद उनके जीवन के आख़िरी दिनों की कहानी कह जाए! इस फ़िल्म के संगीतकार थे गीता जी के ही भाई मुकुल रॊय और इस गीत को लिखा शैलेन्द्र जी ने। 'डिटेक्टिव' बनी थी सन् १९५८ में। निर्देशक शक्ति सामंत ने तब तक 'इंस्पेक्टर', 'हिल स्टेशन' और 'शेरू

बरसात में हम से मिले तुम सजन....बरसती फुहारों में मिलन की मस्ती और संगीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 433/2010/133 तो दोस्तों, कहिए आपके शहर में बारिश शुरु हुई कि नहीं! अगर हाँ, तो भई आप बाहर हो रही बारिश को अपनी खिड़की से झांक झांक कर देखिए, उसका मज़ा लीजिए, और साथ ही 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों चल रही शृंखला 'रिमझिम के तराने' का भी आनंद लीजिए। और अगर अभी तक आपके शहर में, आपके गाँव में बरखा रानी की कृपा अभी तक नहीं हो पायी है, तो फिर आप केवल इन गीतों को ही सुन कर ठंडक की अनुभूति कर सकते हैं। ख़ैर, आज इस शृंखला की तीसरी कड़ी में बरसात के साथ हम मिला रहे हैं मिलन का रंग। पहली कड़ी में हमने ज़िक्र किया था कि बरसात के साथ अक्सर जुदाई के दर्द को जोड़ा जाता है। लेकिन आज जिस गीत को हमने चुना है, वह है मिलन की मस्ती का। लता मंगेशकर और साथियों की आवाज़ों में सन् १९४९ की राज कपूर की दूसरी निर्मित व निर्देशित फ़िल्म 'बरसात' का शीर्षक गीत "बरसात में तुम से मिले हम सजन हम से मिले तुम"। शैलेन्द्र का गीत और शंकर-जयकिशन का संगीत। हालाँकि शंकर जयकिशन ने विविध रागों का इस्तेमाल अपने गीतों में किया है, लेकिन राग भैरवी का इस्तेमाल जैसे उनका एक ऒ

कविहृदय शैलेन्द्र ने जब फ़िल्मी गीत लिखे तो उनके कलम स्पर्श से सैकड़ों गीत अमरत्व पा गए

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३५ फ़ि ल्म 'तीसरी कसम' से जुड़ी बहुत सी बातें हमने समय समय पर 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में की है। आज इसी फ़िल्म का गीत "सजनवा बैरी हो गए हमार" हम सुनने जा रहे हैं। तो आइए आज शैलेन्द्र के जीवन से जुड़ी कुछ बातें की जाए। हम आप तक फिर एक बार पहुँचा रहे हैं शैलेन्द्र जी की सुपुत्री आमला मजुमदार के उद्‍गार जो उन्होने कहे थे दुबई स्थित १०४.४ आवाज़ एफ़.एम रेडियो पर और जिसका प्रसारण हुआ था ३० अगस्त २००६ के दिन, यानी कि शैलेन्द्र जी के जन्मदिन के अवसर पर। आमला जी कहती हैं, "हम बहुत छोटे थे जब बाबा गुज़र गए और अचानक एक, जैसे overnight एक void सा, एक ख़ालीपन सा जैसे छा गया था हमारी ज़िंदगी के उपर। बाबा के गुज़र जाने के बाद we were determined that not to let that void eat us up और I think it was also in a way we realised that baba never left us. Through his songs, उनके गानों के ज़रिए उन्होने हमें एक राह दिखाई और उस राह पर चलते हम आज यहाँ तक पहुँच गए हैं। और हम बहुत ही proud होके, बहुत ही फक्र के साथ कह सकते हैं कि बाबा ने हमें छोड़ा नहीं, बाबा हमारे

ये मूह और मसूर की दाल....मुहावरों ने छेड़ी दिल की बात और बना एक और फिमेल डूईट

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 397/2010/97 भा षा की सजावट के लिए पौराणिक समय से जो अलग अलग तरह के माध्यम चले आ रहे हैं, उनमें से एक बेहद लोकप्रिय माध्यम है मुहावरे। मुहावरों की खासियत यह होती है कि इन्हे बोलने के लिए साहित्यिक होने की या फिर शुद्ध भाषा बोलने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ये मुहावरे पीढ़ी दर पीढ़ी ज़बानी आगे बढ़ती चली जाती है। क्या आप ने कभी ग़ौर किया है कि हिंदी फ़िल्मी गीतों में किसी मुहावरे का इस्तेमाल हुआ है या नहीं। हमें तो भई कम से कम एक ऐसा मुहवरा मिला है जो एक नहीं बल्कि दो दो गीतों में मुखड़े के तौर पर इस्तेमाल हुए हैं। इनमें से एक है लता मंगेशकर का गाया १९५७ की फ़िल्म 'बारिश' का गीत "ये मुंह और दाल मसूर की, ज़रा देखो तो सूरत हुज़ूर की"। और दूसरा गीत है फ़िल्म 'अराउंड दि वर्ल्ड' फ़िल्म का "ये मुंह और मसूर की दाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल, हुस्न जो देखा हाल बेहाल, वाह रे वाह मेरे बांके लाल"। जी हाँ, मुहावरा है 'ये मुंह और मसूर की दाल', और 'अराउंड दि वर्ल्ड' के इस गीत को गाया था जो गायिकाओं ने - शारदा और मुबारक़ बेग़म। आज &#

न मैं धन चाहूँ, न रतन चहुँ....मन को पावन धारा में बहा ले जाता एक मधुर भजन....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 394/2010/94 दो स्तों, इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुन रहे हैं पार्श्वगायिकाओं के गाए युगल गीतों पर आधारित हमारी लघु शृंखला 'सखी सहेली'। आज इस शृंखला की चौथी कड़ी में प्रस्तुत है गीता दत्त और सुधा मल्होत्रा की आवाज़ों में एक भक्ति रचना - "ना मैं धन चाहूँ ना रतन चाहूँ, तेरे चरणों की धूल मिल जाए"। फ़िल्म 'काला बाज़ार' की इस भजन को लिखा है शैलेन्द्र ने और सगीतबद्ध किया है सचिन देव बर्मन ने। जैसा कि हम पहले भी ज़िक्र कर चुके हैं और सब को मालूम भी है कि गीता जी की आवाज़ में कुछ ऐसी खासियत थी कि जब भी उनके गाए भक्ति गीतों को हम सुनते हैं, ऐसा लगता है कि जैसे भगवान से गिड़गिड़ाकर विनती की जा रही है बहुत ही सच्चाई व इमानदारी के साथ। और ऐसी रचनाओं को सुनते हुए जैसे मन पावन हो जाता है, ईश्वर की आराधना में लीन हो जाता है। फ़िल्म 'काला बाज़ार' के इस भजन में भी वही अंदाज़ गीता जी का रहा है। और साथ में सुधा मल्होत्रा जी की आवाज़ भी क्या ख़ूब प्यारी लगती है। इन दोनों की आवाज़ों से जो कॊन्ट्रस्ट पैदा हुआ है गीत में, वही गीत को और भी

केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूले...दो दिग्गजों की अनूठी जुगलबंदी से बना एक अनमोल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 365/2010/65 भा रतीय शास्त्रीय संगीत के राग ना केवल दिन के अलग अलग प्रहरों से जुड़े हुए हैं, बल्कि कुछ रागों का ऋतुओं, मौसमों से भी निकट का वास्ता है। ऐसा ही एक राग है बहार। और फिर राग बहार से बना है राग बसन्त बहार भी। जब बसंत, फागुन और होली गीतों की यह शृंखला चल रही है, ऐसे में अगर इस राग का उल्लेख ना करें तो शायद रंगीले गीतों की यह शृंखला अधूरी ही रह जाएगी। इसलिए आज जो गीत हमने चुना है वह आधारित है राग बसन्त बहार पर, और फ़िल्म का नाम भी वही है, यानी कि 'बसन्त बहार'। शैलेन्द्र और शंकर जयकिशन की जोड़ी, और इस गीत को दो ऐसे गायकों ने गाए हैं जिनमें से एक तो शास्त्रीय संगीत के आकाश का एक चमकता सितारा हैं, और दूसरे वो जो हैं तो फ़िल्मी पार्श्व गायक, लेकिन शास्त्रीय संगीत में भी उतने ही पारदर्शी जितने कि कोई अन्य शास्त्रीय गायक। ये दो सुर गंधर्व हैं पंडित भीमसेन जोशी और हमारे मन्ना डे साहब। 'गीत रंगीले' में आज इन दो सुर साधकों की जुगलबंदी पेश है, "केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूले"। ऋतुराज बसन्त को समर्पित इससे उत्कृष्ट फ़िल्मी गीत शायद ही किसी

तितली उडी, उड़ जो चली...याद कीजिये कितने संस्करण बनाये थे शारदा के गाये इस गीत के आपने बचपन में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 339/2010/39 फ़ि ल्म जगत के श्रेष्ठतम फ़िल्मकारों में से एक थे राज कपूर, जिनकी फ़िल्मों का संगीत फ़िल्म का एक बहुत ही अहम पक्ष हुआ करती थी। क्योंकि राज कपूर को संगीत का अच्छा ज्ञान था, इसलिए वो अपनी फ़िल्म के संगीत में भी अपना मत ज़ाहिर करना नहीं भूलते थे। राज कपूर कैम्प की अगर पार्श्वगायिका का उल्लेख करें तो कुछ फ़िल्मों में आशा भोसले के गाए गीतों के अलावा उस कैम्प की प्रमुख गायिका लता जी ही हुआ करती थीं। ऐसे मे अगर राज कपूर किसी तीसरी गायिका को नायिका के प्लेबैक के लिए चुनें तो उस गायिका के लिए यह बहुत अहम बात थी। और अगर वो गायिका बिल्कुल नयी नवेली हो तो यह और भी ज़्यादा उल्लेखनीय हो जाती है। जी हाँ, राज साहब ने ऐसा किया था। ६० के दशक में एक बार राज कपूर तेहरान गए थे। वहाँ पर उनके सम्मान में एक पार्टी का आयोजन किया गया था। उन्ही दिनों तेहरान में एक तमिल लड़की थी जो पार्टियों में गानें गाया करती थी। संयोग से राज साहब की उस पार्टी में इस गायिका को गाना गाने क मौका मिला। राज साहब को उस गायिका की आवाज़ इतनी पसंद आई कि उन्होने उसे अपनी फ़िल्म में गवाने का वादा किया

हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है....गणतंत्र दिवस पर एक बार फिर गर्व के साथ गाईये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 326/2010/26 ६१ -वें गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य पर 'आवाज़' की पूरी टीम की तरफ़ से आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ। हमारा देश निरंतर प्रगति के मार्ग पर बढ़ती रहे, समाज में फैले अंधकार दूर हों, यही कामना करते हैं, लेकिन सिर्फ़ कामना करने से ही बात नहीं बनेगी, जब तक हम में से हर कोई अपने अपने स्तर पर कुछ ना कुछ योगदान इस दिशा में करें। देशभक्ति का अर्थ केवल हाथ में बंदूक उठाकर दुश्मनों से लड़ना ही नहीं है। बल्कि कोई भी काम जो इस देश और देशवासियों के लिए लाभकारी सिद्ध हो, वही देशभक्ति है। इसलिए हर व्यक्ति देशभक्ति का परिचय दे सकता है। ख़ैर, आइए अब रोशन करें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल को। दोस्तों, साल २००९ के अंतिम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी, यानी कि ३००-वीं कड़ी में हमने आप से पूछा था एक महापहेली, जिसमें कुल १० सवाल थे। इन दस सवालों में सब से ज़्यादा सही जवाब दिया शरद तैलंग जी ने और बनें इस महासवाल प्रतियोगिता के विजेयता। इसलिए आज से अगले पाँच दिनों में हम शरद जी के पसंद के चार गानें सुनेंगे, जो उन्हे हमारी तरफ़ से इनाम है। तो आज पेश-ए-ख़िदमत है शरद

परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है....लगभग १० मिनट लंबी इस कव्वाली का आनंद लीजिए पंचम के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 306/2010/06 रा हुल देव बर्मन के रचे दस अलग अलग रंगों के, दस अलग अलग जौनर के गीतों का सिलसिला जारी है इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज इसमें सज रही है क़व्वाली की महफ़िल। पंचम के बनाए हुए जब मशहूर क़व्वालियों की बात चलती है तो झट से जो क़व्वालियाँ ज़हन में आती हैं, वो हैं फ़िल्म 'दीवार' में "कोई मर जाए किसी पे ये कहाँ देखा है", फ़िल्म 'कसमें वादे' में "प्यार के रंग से तू दिल को सजाए रखना", फ़िल्म 'आंधी' में "सलाम कीजिए आली जनाब आए हैं", फ़िल्म 'हम किसी से कम नहीं' की शीर्षक क़व्वाली, फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' में "पल दो पल का साथ हमारा", और 'ज़माने को दिखाना है' फ़िल्म की मशहूर क़व्वाली "परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है", जो इस फ़िल्म का शीर्षक ट्रैक भी है। तो इन तमाम सुपरहिट क़व्वालियों में से हम ने यही आख़िरी क़व्वाली चुनी है, आशा है आप सब इस क़व्वाली का लुत्फ़ उठाएँगे। बार बार इस शृंखला में नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़

कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया....पंडित रवि शंकर और शैलेन्द्र की जुगलबंदी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 299 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं शरद तैलंग जी के पसंद के पाँच गानें बिल्कुल बैक टू बैक। आज है उनके चुने हुए चौथे गाने की बारी। फ़िल्म 'अनुराधा' से यह है लता जी का गाया "कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया, पिया जाने ना"। इस फ़िल्म का एक गीत हमने 'दस राग दस रंग' शृंखला के दौरान आपको सुनवाया था। याद है ना आपको राग जनसम्मोहिनी पर आधारित गीत " हाए रे वो दिन क्यों ना आए "? फ़िल्म 'अनुराधा' के संगीतकार थे सुविख्यात सितार वादक पंडित रविशंकर, जिन्होने इस फ़िल्म के सभी गीतों में शास्त्रीय संगीत की वो छटा बिखेरी कि हर गीत लाजवाब है, उत्कृष्ट है। इस फ़िल्म में उन्होने राग मंज खमाज को आधार बनाकर दो गानें बनाए। एक है "जाने कैसे सपनों में खो गई अखियाँ" और दूसरा गीत है "कैसे दिन बीते कैसे बीती रतिया", और यही दूसरा गीत पसंद है शरद जी का। शैलेन्द्र की गीत रचना है और लता जी की सुरीली आवाज़। वैसे हम इस फ़िल्म के बारे में सब कुछ "हाए रे वो दिन..." गीत के वक़्त ही बता चुके हैं। यहाँ तक कि फ

दिल की नज़र से, नज़रों की दिल से....कुछ बातें लता-मुकेश के स्वरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 296 श रद तैलंग जी के पसंद पर आज एक बड़ा ही ख़ूबसूरत सा रोमांटिक नग़मा। ५० के दशक में राज कपूर की फ़िल्मों में शंकर जयकिशन के संगीत में लता मंगेशकर और मुकेश ने एक से एक बेहतरीन युगल गीत गाए हैं जो शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी के कलम से निकले थे। यहाँ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर अब तक हमने इस तरह के तीन गानें बजा चुके हैं। ये हैं फ़िल्म 'आह' से " आजा रे अब मेरा दिल पुकारा ", फ़िल्म 'बरसात' का "छोड़ गए बालम" और फ़िल्म 'आशिक़' का " महताब तेरा चेहरा "। इसी फ़ेहरिस्त में एक और गीत का इज़ाफ़ा करते हुए आइए आज शरद की पसंद पर हो जाए फ़िल्म 'अनाड़ी' से "दिल की नज़र से, नज़रों की दिल से, ये बात क्या है, ये राज़ क्या है, कोई हमें बता दे"। दोस्तों, दिल और नज़र का रिश्ता बड़ा पुराना है और इस रिश्ते पर हर दौर में गानें लिखे गए हैं। लेकिन फ़िल्म 'अनाड़ी' का यह गीत इस तरह का पहला मशहूर गीत है जिसने कामयाबी की सारी बुलंदियों को पार कर गया। यही नहीं, आज एक नामचीन टीवी चैनल पर रोमांटिक फ़िल्मी गीतों का एक क

सजनवा बैरी हो गए हमार....शैलेन्द्र का दर्द पी गयी मुकेश की आवाज़, और चेहरा था राज कपूर का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 290 दो स्तों, यह शृंखला जो इन दिनों आप सुन रहे हैं वह है "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी"। यानी कि राज कपूर फ़िल्म्स के बाहर बनी फ़िल्मों में शैलेन्द्र जी के लिखे हुए गानें। लेकिन दोस्तों, जो हक़ीक़त है वह तो हक़ीक़त है, उसे ना हम झुटला सकते हैं और ना ही आप बदल सकते हैं। और हक़ीक़त यही है कि राज कपूर और शैलेन्द्र दो ऐसे नाम हैं जिन्हे एक दूसरे से जुदा नहीं किया जा सकता। सिर्फ़ कर्मक्षेत्र में ही नहीं, बल्कि यह आश्चर्य की ही बात है कि एक की पुण्यतिथि ही दूसरे का जन्म दिवस है। आज १४ दिसंबर, यानी कि शैलेन्द्र जी की पुण्य तिथि। १४ दिसंबर १९६६ के दिन शैलेन्द्र जी इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिए अलविदा कह गए थे, और १४ दिसंबर ही है राज कपूर साहब का जनमदिन। इसलिए आज इस विशेष शृंखला का समापन हम एक ऐसे गीत से कर रहे हैं जो आर.के.फ़िल्म्स की तो नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म के साथ शैलेन्द्र और राज कपूर दोनों ही इस क़दर जुड़े हैं कि आज के दिन के लिए इससे बेहतर गीत नहीं हो सकता। और ख़ास कर इस फ़िल्म के जिस गीत को हमने चुना है वह तो बिल्कुल सटीक है आज के लिए। &qu

वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जायेगा कहाँ....और "राम राम" कहा गया वो मुसाफिर कवि शैलेन्द्र

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 289 शृं खला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" में आज एक बार फिर से हम रुख़ कर रहे हैं शैलेन्द्र के दार्शनिक पक्ष की ओर। हमने अक्सर यह देखा है कि फ़िल्मी गीतकार मुसाफ़िर का सहारा लेकर अक्सर कुछ ना कुछ जीवन दर्शन की बातें हमें समय समय पर सिखा गये हैं। कुछ गानें याद दिलाएँ आपको? "मंज़िलें अपनी जगह है रास्ते अपनी जगह, जब क़दम ही साथ ना दे तो मुसाफ़िर क्या करे", "कहीं तो मिलेगी मोहब्बत की मंज़िल, कि दिल का मुसाफ़िर चला जा रहा है", "आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है", "मुसाफ़िर हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना", "मुसाफ़िर जानेवाले कभी ना आनेवाले", और इसी तरह के बहुत से दूसरे गानें हैं जिनमें मुसाफ़िर के साथ जीवन के किसी ना किसी फ़ल्सफ़े को जोड़ा गया है। इसी तरह से फ़िल्म 'गाइड' में शैलेन्द्र ने एक कालजयी गीत लिखा था जो बर्मन दा की आवाज़ पा कर ऐसा जीवित हुआ कि बस अमर हो गया। "वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहाँ, दम ले ले घड़ी भर, ये छैयाँ पाएगा कहाँ"। भावार्थ यही है कि ज़िंदगी के सफ़र में

ओ सजना बरखा बहार आई....लता के मधुर स्वरों की फुहार जब बरसी शैलेन्द्र के बोलों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 288 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी"। आज का जो गीत हमने चुना है वह कोई दार्शनिक गीत नहीं है, बल्कि एक बहुत ही नमर-ओ-नाज़ुक गीत है बरखा रानी से जुड़ा हुआ। बारिश की रस भरी फुहार किस तरह से पेड़ पौधों के साथ साथ हमारे दिलों में भी प्रेम रस का संचार करती है, उसी का वर्णन है इस गीत में, जिसे हमने चुना है फ़िल्म 'परख' से। शैलेन्द्र का लिखा यह बेहद लोकप्रिय गीत है लता जी की मधुरतम आवाज़ में, "ओ सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अखियों में प्यार लाई"। मुखड़े में "बरखा" शब्द वाले गीतों में मेरा ख़याल है कि इस गीत को नंबर एक पर रखा जाना चाहिए। और सलिल चौधरी के मीठे धुनों के भी क्या कहने साहब! शास्त्रीय, लोक और पहाड़ी धुनों को मिलाकर उनके बनाए हुए इस तरह के तमाम गानें इतने ज़्यादा मीठे लगते हैं सुनने में कि जब भी हम इन्हे सुनते हैं तो चाहे कितने ही तनाव में हो हम, हमारा मन बिल्कुल प्रसन्न हो जाता है। इसी फ़िल्म में कुछ और गीत हैं लता जी की आवाज़ में जैसे कि "मिला है किसी का झुमका