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Showing posts with the label Madan Mohan

"रस्म-ए-उल्फ़त" के बाद और कोई गाना मत बजाना

एक गीत सौ कहानियाँ - 33   ‘ रस्म-ए-उल्फ़त को निभायें तो निभायें कैसे. ..’ 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कप्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारी ज़िन्दगियों से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह साप्ताहिक स्तंभ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 33वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म 'दिल की राहें' की दिल को छू लेने वाली ग़ज़ल "रस्म-ए-उल्फ़त को निभायें तो निभायें कैसे..." के बारे में. &

प्रयोगधर्मी संगीतज्ञ कुमार गन्धर्व और राग नन्द

स्वरगोष्ठी – ६५ में आज ‘उड़ जाएगा हंस अकेला, जग-दर्शन का मेला...’ कुमार गन्धर्व भारतीय संगीत की एक नई प्रवृत्ति और नई प्रक्रिया के पहले कलासाधक थे। घरानों की पारम्परिक गायकी की अनेक शताब्दी पुरानी जो प्रथा थी उसमें संगीत तो जीवित रहता था, किन्तु संगीतकार के व्यक्तित्व और प्रतिभा का विसर्जन हो जाता था। कुमार गन्धर्व ने पारम्परिक संगीत के कठोर अनुशासन के अन्तर्गत ही कलासाधक की सम्भावना को स्थापित किया। ‘स्व रगोष्ठी’ के मंच पर आपका यह सूत्रधार कृष्णमोहन मिश्र, एक बार पुनः आपके अभिनन्दन हेतु तत्पर है। आज आठ अप्रैल का दिन है। वर्ष १९२४ में आज के ही दिन बेलगाम, कर्नाटक के पास सुलेभवी नामक स्थान में एक संगीत-प्रेमी परिवार में एक बालक का जन्म हुआ था, जिसका माता-पिता का रखा नाम तो था शिवपुत्र सिद्धरामय्या कोमकलीमठ, किन्तु आगे चल कर संगीत-जगत ने उसे कुमार गन्धर्व के नाम से पहचाना। आज के अंक में हम इन्हीं प्रयोगधर्मी संगीत-साधक द्वारा सम्पादित कुछ अनूठे कार्यों का स्मरण करते हुए उनके प्रिय राग- नन्द की चर्चा करेंगे। भारतीय संगीत के बेहद मनमोहक राग- नन्द के सौन्दर्य का आ

बड़ी बेटी संगीता गुप्ता की यादों में पिता संगीतकार मदन मोहन

संगीता गुप्ता  मुझसे मेरे पिता के बारे में कुछ लिखने को कहा गया था। हालाँकि वो मेरे ख़यालों में और मेरे दिल में हमेशा रहते हैं, मैं उस बीते हुए ज़माने को याद करते हुए यादों की उन गलियारों से आज आपको ले चलती हूँ....

दिल ढूँढता है....रोजमर्रा की आपाधापी से भरे शहरी जीवन में सुकून भरा "अवकाश" तलाशती जिंदगी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 713/2011/153 'ए क पल की उम्र लेकर' - सजीव सारथी की कविताओं से सजी इस पुस्तक में से १० चुनिंदा कविताओं पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में प्रस्तुत है कविता 'अवकाश'। सुबह की गलियों में अंधेरा है बहुत अभी आँखों को मूँदे रहो घड़ी का अलार्म जगाये अगर रख उसके होठों पे हाथ चुप करा दो काला सूरज आसमान पर लटक तो गया होगा बाहर शोर सुनता हूँ मैं इंसानों का, मशीनों का, आज खिड़की के परदे मत हटाओ आज पड़े रहने दो, दरवाज़े पर ही, बासी ख़बरों से सने अख़बार को किसे चाहिए ये सुबह, ये सूरज फिर वही धूप, वही साये वही भीड़, वही चेहरे वही सफ़र, वही मंज़िल वही इश्तेहारों से भरा ये शहर वही अंधी दौड़ लगाती फिर भी थमी-ठहरी सी रोज़मर्रा की ये ज़िंदगी नहीं, आज नहीं आज इसी कमरे में पड़े रहने दो मुझे अपनी ही बाहों में 'हम' अतीत की गलियों में घूमेंगे गुज़रे बीते मौसमों का सुराग ढूंढ़ेंगे कुछ रूठे-रूठे उजड़े-बिछड़े सपनों को भी बुलवा लेंगे मुझे यकीन है कुछ तो ज़िंदा होंगे ज़रूर खींच कर कुछ पल को इन मरी हुई सांसों से ज़िंदा कर लूंगा फिर, ज़

"बैयाँ ना धरो.." श्रृंगार का ऐसा रूप जिसमें बाँह पकड़ने की मनाही भी है और आग्रह भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 696/2011/136 श्रृं खला "रस के भरे तोरे नैन" के तीसरे और समापन सप्ताह के प्रवेश द्वार पर खड़ा मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीतानुरागियों का अभिनन्दन करता हूँ| पिछले तीन सप्ताह की 15 कड़ियों में हमने आपको बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से लेकर सातवें दशक तक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों का रसास्वादन कराया है| श्रृंखला के इस समापन सप्ताह की कड़ियों में हम आठवें दशक की फिल्मों से चुनी हुई ठुमरियाँ लेकर उपस्थित हुए हैं| श्रृंखला के पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक भारतीय संगीत शैलियों को समुचित राजाश्रय न मिलने और तवायफों के कोठों पर फलने-फूलने के कारण सुसंस्कृत समाज में यह उपेक्षित रहा| ऐसे कठिन समय में भारतीय संगीत के दो उद्धारकों ने जन्म लिया| आम आदमी को संगीत सुलभ कराने और इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में पं. विष्णु नारायण भातखंडे (1860) तथा पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872) ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया| इन दोनों 'विष्णु' को भारतीय संगीत का उद्धारक मानने में कोई मतभेद नहीं| भातखंडे जी ने पूरे देश

हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे....संगीत प्रेमी ढूँढेगें मजरूह साहब को वो जहाँ भी होंगें

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103 द स अलग अलग संगीतकारों के लिये मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों की इस लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज है २४ मई। आज ही के दिन साल २००० में मजरूह साहब इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिये छोड़ गये थे। नीमोनिआ का दौरा पड़ने पर मजरूह साहब को १६ मई २००० को मुंबई के लीलावती हस्पताल में भर्ती करवाया गया था और वहीं पर उन्होंने अपनी अंतिम सांसें ली। आज मजरूह साहब को गये १२ वर्ष, याने एक युग बीत चुका है, लेकिन जब भी मई का यह महीना आता है, और ख़ास कर आज के दिन, बार बार उनका लिखा और मदन मोहन का स्वरबद्ध किया वही गीत याद आता है कि "हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे, बहारें हमको ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे"। लेखक राजीव विजयकर नें बहुत ही अच्छी तरह से मजरूह साहब की शख्सियत को बयान किया था अपने एक लेख में, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मजरूह साहब एक सिक्के की तरह है जिसके दोनों पहलुओं की एक समान ज़रूरत होती है। अगर आप इस सिक्के से टॉस भी अगर करें तो चित हो या पुट, दोनों में ही आपकी जीत निश्चित

भोर आई गया अँधियारा....गजब की सकात्मकता है मन्ना दा के स्वरों में, जिसे केवल सुनकर ही महसूस किया जा सकता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 650/2010/90 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के चाहनेवालों, आज हम आ पहुँचे हैं, लघु श्रृंखला 'अपने सुरों में मेरे सुरों को बसा लो' की समापन कड़ी पर। पिछली कड़ियों में हम मन्ना डे के व्यक्तित्व और कृतित्व के कुछ थोड़े से रंगों से ही आपका साक्षात्कार कर सके। सच तो यह है कि एक विशाल वटबृक्ष की अनेकानेक शाखाओं की तरह विस्तृत मन्ना डे का कार्य है, जिसे दस कड़ियों में समेटना कठिन है। मन्ना डे नें हिन्दी फिल्मों में संगीतकार और गायक के रूप में गुणवत्तायुक्त कार्य किया। संख्या बढ़ा कर नम्बर एक पर बनना न उन्होंने कभी चाहा न कभी बन सके। उन्हें तो बस स्तरीय संगीत की लालसा रही। यह भी सच है कि फिल्म संगीत के क्षेत्र में जो सम्मान-पुरस्कार मिले वो उन्हें काफी पहले ही मिल जाने चाहिए थे। 1971 की फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के गीत -"ए भाई जरा देख के चलो..." के लिए मन्ना डे को पहली बार फिल्मफेअर पुरस्कार मिला था। एक पत्रकार वार्ता में मन्ना डे ने स्वयं स्वीकार किया कि 'मेरा नाम जोकर' का यह गाना संगीत की दृष्टि से एक सामान्य गाना है, इससे पहले वो कई उल्लेखनीय

नैना बरसे रिमझिम रिमझिम.....मदन मोहन साहब का रूहानी संगीत और लता की दिव्य आवाज़ ...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 577/2010/277 हा लाँकि हमने या आपने कभी भूत नहीं देखा है न महसूस किया है, लेकिन आये दिन अख़बारों में या किसी और सूत्र से सुनाई दे जाती है लोगों के भूत देखने की कहानियाँ। भूत-प्रेत की कहानियाँ सैंकड़ों सालों से चली आ रही है, लेकिन विज्ञान अभी तक इसके अस्तित्व की व्याख्या नहीं कर सका है। कई लोग अपने कैमरों में कुछ ऐसी तस्वीरें क़ैद कर ले आते हैं जिनमें कुछ अजीब बात होती है। वो लाख कोशिश करे उन तस्वीरों को भूत-प्रेत के साथ जोडने की, लेकिन हर बार यह साबित हुआ है कि उन तस्वीरों के साथ छेड़-छाड़ हुई है। अभिषेक अगरवाल एक ऐसे शोधकर्ता हैं जिन्होंने भूत-प्रेत के अस्तित्व संबंधी विषयों पर ना केवल शोध किया है, बल्कि एक पुस्तक भी प्रकाशित की है 'Astral Projection Underground' के शीर्षक से। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस अजीब-ओ-ग़रीब लघु शृंखला में जिसका नाम है 'मानो या ना मानो'। आज के अंक में हम अभिषेक अगरवाल के उसी शोध में से छाँट कर कुछ बातें आपके सम्मुख रखना चाहते हैं। अभिषेक के अनुसार अगर हम 'Law of Thermodynam

ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं.....वीभत्स रस को क्या खूब उभरा है रफ़ी साहब ने इस दर्द भरे नगमें में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 499/2010/199 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! आज है इस स्तंभ की ४९९ वीं कड़ी। नौ रसों की चर्चा में अब बस एक ही रस बाक़ी है और वह है विभत्स रस। जी हाँ, 'रस माधुरी' लघु शृंखला की अंतिम कड़ी में आज ज़िक्र विभत्स रस का। विभत्स रस का अर्थ है अवसाद, या मानसिक अवसाद भी कह सकते हैं इसे। अपने आप से हमदर्दी इस रस का एक लक्षण है। कहा गया है कि विभत्स रस से ज़्यादा क्षतिकारक और व्यर्थ रस और कोई नहीं। विभत्स उस भाव को कहते हैं कि जिसमें है अतृप्ति, अवसाद और घृणा। गाली गलोच और अश्लीलता भी विभत्स रस के ही अलग रूप हैं। विभत्स रस के चलते मन में निराशावादी विचार पनपने लगते हैं और इंसान अपने धर्म और कर्म के मार्ग से दूर होता चला जाता है। शक्ति और आत्मविश्वास टूटने लगता है। यहाँ तक कि आत्महत्या की भी नौबत आ सकती है। अगर इस रस का ज़्यादा संचार हो गया तो आदमी मानसिक तौर पर अस्वस्थ होकर उन्मादी भी बन सकता है। विभत्स रस से बाहर निकलने का सब से अच्छा तरीक़ा है शृंगार रस का सहारा लेना। अच्छे मित्र और अच्छी रुचियाँ इंसान को मानसिक अवसाद से बाहर निकालने में मददगार साब

मैंने रंग ली आज चुनरिया....मदन साहब के संगीत से शुरू हुई ओल्ड इस गोल्ड की परंपरा में एक विराम उन्हीं की एक और संगीत रचना पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 410/2010/110 'प संद अपनी अपनी' शृंखला की आज है अंतिम कड़ी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर युं तो इससे पहले भी पहेली प्रतियोगिता के विजेताओं को हमने अपनी फ़रमाइशी गानें सुनने और सुनवाने का मौका दिया है, लेकिन इस तरह से बिना किसी शर्त या प्रतियोगिता के फ़रमाइशी गीत सुनवाने का सिलसिला पहली बार हमने आयोजित किया है। आज इस पहले आयोजन की आख़िरी कड़ी है और इसमें हम सुनवा रहे हैं रश्मि प्रभा जी की फ़रमाइश पर फ़िल्म 'दुल्हन एक रात की' का लता मंगेशकर का गाया एक बड़ा ही सुंदर गीत "मैंने रंग ली आज चुनरिया सजना तेरे रंग में"। राजा मेहंदी अली ख़ान का गीत और मदन मोहन का संगीत। हमें ख़याल आया कि एक लम्बे समय से हमने 'ओल इज़ गोल्ड' पर मदन मोहन द्वारा स्वरबद्ध गीत नहीं सुनवाया है। तो लीजिए मदन जी के धुनों के शैदाईयों के लिए पेश है आज का यह गीत। युं तो चुनरिया रंगने की बात काफ़ी सारे गीतों में होती रही है, लेकिन इस गीत में जो मिठास है, जो सुरीलापन है, उसकी बात ही कुछ और है। इस फ़िल्म में रफ़ी साहब का गाया "एक हसीन शाम को दिल मेरा खो गया" गीत

रविवार सुबह की कॉफ़ी और कुछ दुर्लभ गीत (२२)

कुछ फ़िल्में अपने गीत-संगीत के लिए हमेशा याद की जाती है. कुछ फ़िल्में अपनी कहानी को ही बेहद काव्यात्मक रूप से पेश करती है, जैसे उस फिल्म से गुजरना एक अनुभव हो किसी कविता से गुजरने जैसा. कैफ़ी साहब (कैफ़ी आज़मी) और फिल्म "नसीम" में उनकी अदाकारी को भला कौन भूल सकता है, ७० के दशक की एक फिल्म याद आती है -"हँसते ज़ख्म", जिसमें एक अनूठी कहानी को बेहद शायराना /काव्यात्मक अंदाज़ में निर्देशक ने पेश किया था. इत्तेफक्कन यहाँ भी फिल्म के गीतकार कैफ़ी आज़मी थे. ये तो हम नहीं जानते कि फिल्म कामियाब हुई थी या नहीं पर फिल्म अभिनेत्री प्रिया राजवंश की संवाद अदायगी, नवीन निश्चल के बागी तेवर और बलराज सहानी के सशक्त अभिनय के लिए आज भी याद की जाती है, पर फिल्म का एक पक्ष ऐसा था जिसके बारे में निसंदेह कहा जा सकता है कि ये उस दौर में भी सफल था और आज तो इसे एक क्लासिक का दर्जा हासिल हो चुका है, जी हाँ हम बात कर रहे हैं मदन मोहन, कैफ़ी साहब, मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर के रचे उस सुरीले संसार की जिसका एक एक मोती सहेज कर रखने लायक है. चलिए इस रविवार इसी फिल्म के संगीत पर एक चर्चा हो जाए. &qu

फिर वही शाम वही गम वही तन्हाई है...तलत की आवाज़ में डूबते शाम को तन्हा दिल से उठती टीस

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 253 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं पहेली प्रतियोगिता के तीसरे विजेयता पूर्वी जी के अनुरोध पर एक के बाद एक कुल पाँच गानें। आज है उनके चुने हुए तीसरे गीत की बारी। कल का गीत था ख़ुशरंग, आज उसके ठीक विपरित, यानी कि एक ग़मज़दा नग़मा। है तो ग़मज़दा लेकिन उतना ही मक़बूल और मशहूर जितना कि कोई भी दूसरा ख़ुशनुमा हिट गीत। आज हम सुनने जा रहे हैं तलत महमूद की मख़मली आवाज़ में फ़िल्म 'जहाँ आरा' का गीत "फिर वही शाम वही ग़म वही तन्हाई है, दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। तलत साहब के गाए सब से ज़्यादा हिट गीतों की फ़ेहरिस्त में शुमार होता है इस गीत का। राजेन्द्र कृष्ण के असरदार बोल और मदन मोहन का अमर संगीत। यह अफ़सोस की ही बात है दोस्तों कि मदन मोहन के संगीत वाली फ़िल्में बॉक्स ऒफ़िस पर ज़्यादा कामयाब नहीं हुआ करती थी। लेकिन उन फ़िल्मों का संगीत कुछ ऐसा रूहानी होता था कि ये फ़िल्में केवल अपने गीत संगीत की वजह से ही लोगों के दिलों में हमेशा के लिए बस जाती थी। 'जहाँ आरा' भी एक ऐसी ही फ़िल्म थी। मैने यह कहीं पढ़ा है, पता नहीं सच है

दुखियारे नैना ढूँढ़े पिया को... इन्दीवर के बोल और लता के स्वर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 217 'मे री आवाज़ ही पहचान है' के तहत इन दिनों आप सुन रहे हैं लता मंगेशकर के गाए कुछ बेहद दुर्लभ और भूले बिसरे गीत जिन्हे चुनकर हमें भेजा है नागपुर निवासी अजय देशपाण्डे ने। अब तक आप ने जिन संगीतकारों की रचनाएँ इस शृंखला में सुने, वे थे खेमचंद प्रकाश, मास्टर ग़ुलाम हैदर, हुस्नलाल भगतराम, पंडित गोबिन्दराम और सी. रामचन्द्र। आज जिस संगीतकार की बारी है, वो एक ऐसे संगीतकार रहे जिनके साथ लता जी का भाई बहन का गहरा रिश्ता बना और इन दोनों ने मिलकर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने को कुछ इस तरह समृद्ध किया कि आज दशकों बाद भी उन तमाम सुरीली मोतियों से रोशन है यह ख़ज़ाना। इन दोनों ने ख़ास कर फ़िल्मी ग़ज़लों की धारा ही बदल दी और उन्हे आम गीतों की तरह लोकप्रिय बनाया। जी हाँ, हम आज संगीतकार मदन मोहन की ही बात कर रहे हैं। अपने मदन भ‍इया के बारे में लता जी ने समय समय पर कई इंटरव्यू में कहे हैं, आज भी हम ऐसी ही एक इंटरव्यू के अंश लेकर उपस्थित हुए हैं। लता जी का यह इंटरव्यू अमीन सायानी ने कुछ साल पहले लिया था। " मदन भ‍इया के बारे में मैं यही कहूँगी कि जब भी रिकार्डिंग होती थी त

हम हैं मता-ए-कूचा ओ बाज़ार की तरह....फ़िल्मी ग़ज़लों में अग्रणी कही जा सकती है ये रचना

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 201 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर आज से छा रहा है फ़रमाइशी रंग एक बार फिर से। शरद तैलंद जी के बाद अब 'ओल्ड इज़ गोल्ड पहेली प्रतियोगिता' के दूसरे विजेयता स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा' जी के पसंद के ५ गीतों को सुनने की बारी आ गई है। आज से अगले ५ दिनों तक आप सुनेंगे अदा जी के चुने हुए वो नग़में जो उनके दिल के बहुत करीब हैं, और हमें पूरा यकीन है कि ये गानें आप सभी को उतने ही पसंद आएँगे जितने कि हमें आए हैं। सच पूछिए तो इन गीतों के बारे में लिखते हुए भी मुझे उतनी ही ख़ुशी का अनुभव हो रहा है। तो अदा जी की पसंद का पहला गाना जो हमने चुना है वह है फ़िल्म 'दस्तक' का। जी हाँ, १९७० की वही फ़िल्म 'दस्तक' जिसके लिए संगीतकार मदन मोहन को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। मदन मोहन के साथ अक्सर ऐसा हुआ है कि उनकी फ़िल्में वाणिज्यिक दृष्टि से ज़्यादा चली नहीं, लेकिन उनके गीत संगीत ने इतिहास रच दिया। यह फ़िल्म भी उन्ही में से एक है। दोस्तों, इस फ़िल्म का एक गीत "माई री मैं का से कहूँ पीर अपने जिया की" हमने आप को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की चौथी कड़