Skip to main content

स्वरगोष्ठी – 508: "चलो झूमते सर से बांधे कफ़न ..." : राग - कोमल ऋषभ आसावरी :: SWARGOSHTHI – 508 : RAG - KOMAL RISHABH ASAVARI

            



स्वरगोष्ठी – 508 में आज 

देशभक्ति गीतों में शास्त्रीय राग – 12 

"चलो झूमते सर से बांधे कफ़न...", कोमल ऋषभ आसावरी के सुरों  के द्वारा सैनिकों का उत्साहवर्धन




“रेडियो प्लेबैक इण्डिया” के साप्ताहिक स्तम्भ "स्वरगोष्ठी" के मंच पर मैं सुजॉय चटर्जी,  साथी सलाहकर शिलाद चटर्जी के साथ, आप सब संगीत प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ।
उन्नीसवीं सदी में देशभक्ति गीतों के लिखने-गाने का रिवाज हमारे देश में काफ़ी ज़ोर पकड़ चुका था। पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा देश गीतों, कविताओं, लेखों के माध्यम से जनता में राष्ट्रीयता की भावना जगाने का काम करने लगा। जहाँ एक तरफ़ कवियों और शाइरों ने देशप्रेम की भावना से ओतप्रोत रचनाएँ लिखे, वहीं उन कविताओं और गीतों को अर्थपूर्ण संगीत में ढाल कर हमारे संगीतकारों ने उन्हें और भी अधिक प्रभावशाली बनाया। ये देशभक्ति की धुनें ऐसी हैं कि जो कभी हमें जोश से भर देती हैं तो कभी इनके करुण स्वर हमारी आँखें नम कर जाते हैं। कभी ये हमारा सर गर्व से ऊँचा कर देते हैं तो कभी इन्हें सुनते हुए हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इन देशभक्ति की रचनाओं में बहुत सी रचनाएँ ऐसी हैं जो शास्त्रीय रागों पर आधारित हैं। और इन्हीं रागाधारित देशभक्ति रचनाओं से सुसज्जित है ’स्वरगोष्ठी’ की वर्तमान श्रृंखला ’देशभक्ति गीतों में शास्त्रीय राग’। अब तक प्रकाशित इस श्रृंखला की दस कड़ियों में राग आसावरी, गुजरी तोड़ी, पहाड़ी, भैरवी, मियाँ की मल्हार, कल्याण (यमन), शुद्ध कल्याण, जोगिया, काफ़ी, भूपाली, दरबारी कान्हड़ा, देश/देस और देस मल्हार पर आधारित देशभक्ति गीतों की चर्चा की गई हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की बारहवीं कड़ी, जिसमें हम सुनवा रहे हैं राग कोमल ऋषभ आसावरी पर आधारित एक फ़िल्मी देशभक्ति गीत। मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा और चित्रगुप्त द्वारा संगीतबद्ध फ़िल्म ’काबली ख़ान' का गीत "चलो झूमते सर से बांधे कफ़न..." की चर्चा के साथ-साथ इसी राग की एक विशुद्ध रचना पंडित वेंकटेश कुमार की आवाज़ में। 


हेलेन
 को हम फ़िल्मों में जिस रूप में और जिन किरदारों में देखने में अभ्यस्त हैं, उस रूप और उन किरदारों से बिलकुल अलग वो नज़र आयीं 1963 की फ़िल्म ’काबली ख़ान’ में। इस फ़िल्म में उन पर एक देशभक्ति गीत फ़िल्माया गया था - "चलो झूमते सर से बांधे कफ़न, लहू माँगती है ज़मीन-ए-वतन"। लता मंगेशकर और साथियों के गाये मजरूह-चित्रगुप्त के रचे इस गीत में सिपाहियों का उत्साहवर्धन किया जा रहा है अपने देश पर मर मिटने के लिए। फ़िल्म में इस गीत का सिचुएशन कुछ ऐसा है कि एक सभा में जमा हुए सिपाहियों का हौसला-अफ़ज़ाई कर रही हैं हेलेन। दृश्य में अभिनेता जयन्त और अजीत भी नज़र आते हैं। तानाशाह जयन्त अपनी जनता पर अत्याचार करते हैं जिस वजह से धीरे-धीरे जनता उनके ख़िलाफ़ विद्रोह करने की ठान लेती है। इस दृश्य में जो सिपाही हैं, वे सब जयन्त के वफ़ादार हैं; बस हेलेन और अजीत ही उनमें विद्रोही हैं, जो भेस बदल कर सेना में घुस गए हैं। गीत के दौरान गीत के बोलों और सिपाहियों के जस्बे को देख कर जयन्त का मन उलझ जाता है, उसे समझ नहीं आता कि आख़िर ये सब क्या चल रहा है! मजरूह सुल्तानपुरी ने बड़े सुन्दर शब्द पिरोये हैं इस गीत में जो सुनने वालों के दिलों में देशभक्ति का जस्बा पैदा कर देता है। जिस प्रकार झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने ग्रेज़ों को ललकारते हुए अपने देशभक्त सैनिकों का उत्साहवर्धन किया था, ऐसा ही कुछ भाव इस गीत में भी है।

संगीतकार चित्रगुप्त ने प्रस्तुत गीत में एक अनोखा प्रयोग किया है। गीत के सुरों में राग कोमल ऋषभ आसावरी की छाया है, पर जो ताल है, वह पश्चिमी वाल्ट्ज़ रिदम की शैली का है। यानी कि सुरों में भारतीय शास्त्रीय संगीत की छाया और ताल में पाश्चात्य रिदम। वैसे वाल्ट्ज़ रिदम का प्रयोग चित्रगुप्त ने कई बार किया है। 1952 की फ़िल्म ’Sindbad The Sailor' में मोहम्मद रफ़ी और शमशाद बेगम का गाया गीत "अदा से झूमते हुए, दिलों को चूमते हुए" और 1968 की फ़िल्म ’वासना’ के प्रसिद्ध गीत "ये पर्बतों के दाएरे, ये शाम का धुआं" में वाल्टज़ का सुन्दर प्रयोग उन्होंने किया था। फ़िल्म ’ऊँचे लोग’ के मशहूर गीत "जाग दिल-ए-दीवाना, रुत जागी वस्ल-ए-यार की" में भी वायलिन पर वाल्ट्ज़ क़िस्म का रिदम उन्होंने डाला था। 1962 की फ़िल्म ’बेज़ुबान’ के "दीवाने तुम दीवाने हम" में तबला और वाल्ट्ज़ का बारी-बारी से कमाल का प्रयोग चित्रगुप्त ने किया। 1959 की फ़िल्म ’डाका’ में रफ़ी साहब और गीता दत्त के गाये हास्य गीत "दिल फाँसे, दे के झाँसे" में भी वाल्ट्ज़ का अद्भुत प्रयोग सुनने को मिलता है। चर्चा कोमल ऋषभ आसावरी राग की करने से पहले आइए फ़िल्म ’काबली ख़ान’ के इस सुन्दर देशभक्ति गीत को सुन लिया जाए।
 



गीत : “चलो झूमते सर से बांधे कफ़न...” , फ़िल्म : काबली ख़ान, गायक: लता मंगेशकर, साथी 


आसावरी थाट का जनक अथवा आश्रय राग आसावरी ही कहलाता है। राग आसावरी के आरोह में पाँच स्वर और अवरोह में सात स्वरों का उपयोग किया जाता है। अर्थात यह औडव-सम्पूर्ण जाति का राग है। इस राग के आरोह में सा, रे, म, प, ध(कोमल), सां तथा अवरोह में; सां,नि(कोमल),ध(कोमल),म, प, ध(कोमल), म, प, ग(कोमल), रे, सा, स्वरों का प्रयोग किया जाता है। जब कोई संगीतज्ञ इस राग में शुद्ध ऋषभ के स्थान पर कोमल ऋषभ प्रयोग करते हैं तो इसे राग कोमल ऋषभ आसावरी कहा जाता है। कोमल ऋषभ आसावरी के आरोह में ग और नि वर्जित होता है, और आरोह और अवरोह में केवल कोमल रे का प्रयोग किया जाता है। मुख्य स्वरों को गाते समय हम जिन अन्य स्वरों को छूते हुए गुज़रते हैं, या जिनको बहुत हल्के से छू कर आगे बढ़ जाते हैं, यानी जब हम आगे अथवा पीछे के स्वर को स्पर्श मात्र करें तो स्पर्श किए गए स्वर को कण स्वर कहते हैं। कोमल ऋषभ आसावरी में कण-स्वर (स्पर्श स्वर) के रूप में आरोह में ’ध’ का कण ’नि’ से एवं अवरोह में ’ग’ का ’रे’ से और ’रे’ का ’ग’ से होता है। इस राग को गाने का उचित समय दिन का प्रथम प्रहर है। इस राग को शुद्ध रूप में अनुभव करने के लिए हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं पंडित वेंकटेश कुमार का गायन। उनके साथ गायन और तानपुरे पर संगत किया है शिवराज पाटिल और रमेश कोलकुण्डा ने। तबले पर संगति की है भरत कामत ने, और हारमोनियम पर हैं अजय जोगलेकर।



ख़याल : प्रभु मेरो... सकल जगत को...”, राग : कोमल ऋषभ आसावरी, गायक : पंडित वेंकटेश कुमार 



अपनी बात

कुछ तकनीकी समस्या के कारण हम अपने फेसबुक के मित्र समूह के साथ “स्वरगोष्ठी” का लिंक साझा नहीं कर पा रहे हैं। सभी संगीत अनुरागियों से अनुरोध है कि हमारी वेबसाइट http://radioplaybackindia.com अथवा http://radioplaybackindia.blogspot.com पर क्लिक करके हमारे सभी साप्ताहिक स्तम्भों का अवलोकन करते रहें। “स्वरगोष्ठी” के वेब पेज के दाहिनी ओर निर्धारित स्थान पर अपना ई-मेल आईडी अंकित कर आप हमारे सभी पोस्ट के लिंक को नियमित रूप से अपने ई-मेल पर प्राप्त कर सकते है। “स्वरगोष्ठी” की पिछली कड़ियों के बारे में हमें अनेक पाठकों की प्रतिक्रिया लगातार मिल रही है। हमें विश्वास है कि हमारे अन्य पाठक भी “स्वरगोष्ठी” के प्रत्येक अंक का अवलोकन करते रहेंगे और अपनी प्रतिक्रिया हमें भेजते रहेंगे। आज के इस अंक अथवा श्रृंखला के बारे में यदि आपको कुछ कहना हो तो हमें अवश्य लिखें। यदि आपका कोई सुझाव या अनुरोध हो तो हमें soojoi_india@yahoo.co.in अथवा sajeevsarathie@gmail.com पर अवश्य लिखिए। अगले अंक में रविवार को प्रातः सात बजे “स्वरगोष्ठी” के इसी मंच पर हम एक बार फिर संगीत के सभी अनुरागियों का स्वागत करेंगे। 


कृष्णमोहन मिश्र जी की पुण्य स्मृति को समर्पित
विशेष सलाहकार : डॉ. हरिणा माधवी और शिलाद चटर्जी
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
रेडियो प्लेबैक इण्डिया 
स्वरगोष्ठी – 508: "चलो झूमते सर से बांधे कफ़न ..." : राग - कोमल ऋषभ आसावरी :: SWARGOSHTHI – 508 : RAG - KOMAL RISHABH ASAVARI



Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की

काफी थाट के राग : SWARGOSHTHI – 220 : KAFI THAAT

स्वरगोष्ठी – 220 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 7 : काफी थाट राग काफी में ‘बाँवरे गम दे गयो री...’  और  बागेश्री में ‘कैसे कटे रजनी अब सजनी...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के रागों का वर्गीकरण करने में समर्थ मेल अथवा थाट व्यवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। भारतीय संगीत में सात शुद्ध, चार कोमल और एक तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग किया जाता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 में से कम से कम पाँच स्वरों की उपस्थिति आवश्यक होती है। भारतीय संगीत में ‘थाट’, रागों के वर्गीकरण करने की एक व्यवस्था है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार सात मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते है। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल का प्रचलन है, जबकि उत्तर भारतीय संगीत में दस थाट का प्रयोग किया जाता है। इन दस थाट