स्वरगोष्ठी – 509 में आज
देशभक्ति गीतों में शास्त्रीय राग – 13
"आत्मा और परमात्मा मिले जहाँ, यही है वो स्थान...", तिलंग के सुरों से होती है "पुरवा सुहानी आयी रे" की शुरुआत
"पुरवा सुहानी आयी रे" गीत के शुरू में मुखड़े से पहले कुछ पंक्तियाँ गायी जाती हैं बिना ताल के।
"कहीं ना ऐसी सुबह देखी जैसे बालक की मुस्कान
लाख दूर कहीं मन्दिर हल्की सी मुरली की तान
गुरुबानी गुरुद्वारे में तो मस्जिद से उठती अज़ान
आत्मा परमात्मा मिले जहाँ, यही है वो स्थान"
उपर्युक्त पंक्तियों के गायन में राग तिलंग की स्पष्ट छाया का अनुभव किया जा सकता है। तिलंग के आरोह और अवरोह में पाँच-पाँच स्वर प्रयोग किये जाते हैं। आरोह में शुद्ध निषाद, किन्तु अवरोह में कोमल निषाद का प्रयोग किया जाता है। राग का वादी स्वर गान्धार और संवादी स्वर निषाद होता है। ये सारी विशेषताएँ प्रस्तुत गीत की इन शुरुआती पंक्तियों में भी मौजूद है। इसके बाद समूह स्वरों में लोक नृत्य आधारित पंक्ति "ढोली ढोल बजाणा, ताल से ताल मिलाना..." गीत के रिदम को सेट करती है और फिर मुखड़ा शुरू होता है "पुरवा सुहानी आयी रे, पुरवा"। इस पंक्ति में राग भैरवी की हल्की छाया मिलती है। विविध भारती के ’उजाले उनकी यादों के’ कार्यक्रम में संगीतकार आनन्दजी से बातचीत के दौरान "पुरवा सुहानी आयी रे" गीत को बजाने से पहले आनन्दजी ने विविध भारती के ’लोक संगीत’ का हवाला देते हुए इस गीत के संगीत से जुड़ी महत्वपूर्ण बात बतायी जो यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं -
"लोक संगीत', इस प्रोग्राम को मैं बहुत सुनता रहा हूँ। यहाँ पे मादल क्यों बज रहा है, यहाँ पे यह क्यों बज रहा है, वो चीज़ें मुझपे बहुत हावी होती रही हैं, क्योंकि शुरू से मेरी यह जिज्ञासा रही है कि यह ऐसा क्यों है? कि यहाँ मादल क्यों बजाई जाती है? हिमाचल में अगर गाना हो रहा है तो फ़ास्ट गाना नहीं होगा क्योंकि ऊपर high altitude पे साँस नहीं मिलती, तो वहाँ पे आपको स्लो ही नंबर देना पड़ेगा। अगर पंजाब है तो वहाँ plateau है तो आप धनधनाके, खुल के डांस कर सकते हैं। सौराष्ट्र में आप जाएँगे तो वहाँ पे कृष्ण, उषा, जो लेके आए थे, वो आपको मिलेगा, वहाँ का डांडिया एक अलग होता है, यहाँ पे ये अलग होता है, तो ये सारी चीज़ें अगर आप सीखते जाएँ, सीखने का आनंद भी आता है, और इन चीज़ों को काम में डालते हैं तो काम आसान भी हो जाता है।"
गीत : “पुरवा सुहानी आयी रे...” , फ़िल्म : पूरब और पश्चिम, गायक: लता मंगेशकर, महेन्द्र कपूर, मनहर, साथी
राग तिलंग को खमाज थाट के अन्तर्गत माना जाता है। इस राग में ऋषभ और धैवत वर्जित होता है। राग की जाति औड़व-औड़व होती है। अर्थात इसके आरोह और अवरोह में पाँच-पाँच स्वर प्रयोग किये जाते हैं। आरोह में शुद्ध निषाद, किन्तु अवरोह में कोमल निषाद का प्रयोग किया जाता है। राग का वादी स्वर गान्धार और संवादी स्वर निषाद होता है। राग तिलंग के गायन-वादन का उपयुक्त समय रात्रि का दूसरा प्रहर माना जाता है। यद्यपि राग तिलंग में ऋषभ स्वर वर्जित होता है, फिर भी राग के सौन्दर्य-वृद्धि के लिए कभी-कभी तार सप्तक के अवरोह में ऋषभ स्वर का प्रयोग कर लिया जाता है। यह श्रृंगार रस प्रधान, चंचल प्रकृति का राग होता है, अतः इसमें छोटा खयाल, ठुमरी और सुगम संगीत की रचनाएँ अधिक मिलती हैं। यह पूर्वांग प्रधान राग होता है। राग तिलंग में अधिकतर ठुमरी गायी जाती है। एक शताब्दी से भी पहले व्यावसायिक गायिकाओं द्वारा गायी गई ठुमरियों का स्वरूप कैसा होता था, इसका अनुभव कराने के लिए अब हम आपको पिछली शताब्दी की गायिका इन्दुबाला देवी के स्वर में राग तिलंग की एक ठुमरी सुनवाते है। भारत में ग्रामोफोन रिकार्ड के निर्माण का आरम्भ 1902 से हुआ था। सबसे पहले ग्रामोफोन रिकार्ड में उस समय की मशहूर गायिका गौहर जान की आवाज़ थी। संगीत की रिकार्डिंग के प्रारम्भिक दौर में ग्रामोफोन कम्पनी को बड़ी कठिनाई से गायिकाएँ उपलब्ध हो पातीं थीं। प्रारम्भ में व्यावसायिक गायिकाएँ ठुमरी, दादरा, कजरी, होरी, चैती आदि रिकार्ड कराती थीं। 1902 से गौहर जान ने जो सिलसिला आरम्भ किया था, 1910 तक लगभग 500 व्यावसायिक गायिकाओं ने अपनी आवाज़ रिकार्ड कराई। इन्हीं में एक गायिका इन्दुबाला देवी भी थीं। आइए अब हम इन्हीं की आवाज़ में राग तिलंग की ठुमरी सुनते हैं। ठुमरी के बोल हैं, -“तुम काहे को नेहा लगाए...”। आप यह ठुमरी सुनिए।
ठुमरी : तुम काहे को नेहा लगाये...”, राग : तिलंग, गायक : इन्दुबाला देवी
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कृष्णमोहन मिश्र जी की पुण्य स्मृति को समर्पित
विशेष सलाहकार : शिलाद चटर्जी
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
स्वरगोष्ठी – 509: "पुरवा सुहानी आयी रे ..." : राग - तिलंग :: SWARGOSHTHI – 509 : RAG - TILANG
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