स्वरगोष्ठी – 349 में आज
फिल्मी गीतों में ठुमरी के तत्व – 6 : श्रृंगार का वियोग पक्ष रेखांकित
रंगमंच पर नृत्य के साथ प्रस्तुत की गई ठुमरी - "कासे कहूँ मन की बात..."
सुधा मल्होत्रा |
“फिल्मी
गीतों में ठुमरी के तत्व” विषयक श्रृंखला में इन दिनों हम ठुमरी शैली के
विकास- क्रम पर चर्चा कर रहे हैं। बनारस में ठुमरी पर चटक लोक-रंग चढ़ा। यह
वह समय था जब अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम विफल
हो गया था और एक-एक कर देशी रियासतें ब्रिटिश शासन के कब्जे में आते जा
रहे थे। कलाकारों से राजाश्रय छिनता जा रहा था। भारतीय कलाविधाओं को
अंग्रेजों ने हमेशा उपेक्षित किया। ऐसे कठिन समय में तवायफों ने, भारतीय
संगीत; विशेष रूप से ठुमरी शैली को जीवित रखने में अमूल्य योगदान किया।
भारतीय फिल्मों के प्रारम्भिक तीन-चार दशकों में अधिकतर ठुमरियाँ तवायफों
के कोठे पर ही प्रस्तुत की गई। पिछले अंक में अवध के जाने-माने संगीतज्ञ
उस्ताद सादिक अली खाँ का जिक्र हुआ था। अवध की सत्ता नवाब वाजिद अली शाह के
हाथ से निकल जाने के बाद सादिक अली ने ही ठुमरी का प्रचार देश के अनेक
भागों में किया था। सादिक अली खाँ के एक परम शिष्य थे भैयासाहब गणपत राव;
जो ठुमरी गायन के साथ-साथ हारमोनियम वादन में दक्ष थे। सादिक अली से
प्रेरित होकर गणपत राव हारमोनियम जैसे विदेशी वाद्य पर ठुमरी और दादरा के
बोल इतनी सफाई से बजाते थे कि श्रोता चकित रह जाते थे। भैयासाहब ने भी
बनारस, गया, कलकत्ता आदि केन्द्रों में ठुमरी का प्रचार-प्रसार किया था।
भैया गणपत राव ग्वालियर के थे और इनकी माँ का नाम चन्द्रभागा बाई था।
महाराजा ग्वालियर की वह प्रेयसी थीं और एक कुशल गायिका भी थीं। भैया जी
अपने समय के संगीतज्ञों में अद्वितीय थे। उनका पालन-पोषण संगीत के प्रमुख
केन्द्र ग्वालियर में हुआ था, परन्तु उनकी स्वाभाविक अभिरुचि लोकप्रिय
संगीत की ओर थी। सादिक अली की ठुमरियों पर दीवाने होकर उन्होंने लखनऊ की
ठुमरी को अपनाया।
उन
दिनों हारमोनियम भारतीय शास्त्रीय संगीत में उपेक्षित था। गायन संगति के
लिए सारंगी का ही प्रयोग मान्य था। यह उचित भी था; क्योंकि सारंगी ही एक
ऐसा वाद्य है जो मानव-कण्ठ के सर्वाधिक निकट है। ऐसे माहौल में गणपत राव ने
हारमोनियम जैसे विदेशी वाद्य को अपनाया और उस साज़ पर वह ठुमरी के बोलों
को इतनी कुशलता से बजाते थे कि बड़े-बड़े सारंगी वादक भी यह कार्य नहीं कर
पाते थे। यह भैया गणपत राव के साहसिक कदम का ही प्रतिफल है कि आज हारमोनियम
केवल ठुमरी में ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संगीत में धड़ल्ले से प्रयोग
हो रहा है। यहाँ तक कि आजादी के बाद तक "आकाशवाणी" में प्रतिबन्धित
हारमोनियम आज स्टूडियो की शोभा बढ़ा रहा है। ठुमरी की विकास-यात्रा में
नये-नये प्रयोग हुए तो कुछ भ्रान्तियाँ और रूढ़ियाँ भी टूटीं। ठीक इसी
प्रकार फिल्मों में भी ठुमरी के कई नए प्रयोग किये गए। राज-दरबारों से लेकर
तवायफ के कोठे तक ठुमरियों का फिल्मांकन हुआ। बीसवीं शताब्दी के
प्रारम्भिक वर्षों में ब्रिटिश रंगमंच की देखा-देखी शेक्सपीयर के नाटकों के
मंचन और ओपेरा आदि के लिए बने रंगमंच पर ठुमरियों और कथक नृत्य की
प्रस्तुतियाँ होने लगी थीं| ठुमरी दरबार की ऊँची दीवार से बाहर तो निकल आई,
लेकिन जनसामान्य से उसकी दूरी अभी भी बनी हुई थी। ऐसे आयोजन विशिष्ट लोगों
के लिए ही होते थे।
आज
जो ठुमरी गीत आपके लिए हम प्रस्तुत करने जा रहें हैं, फिल्म में यह
ब्रिटिश शैली के रंगमंच पर, कुछ ख़ास दर्शकों के बीच प्रस्तुत की गई है।
1959 में प्रदर्शित फिल्म "धूल का फूल" में शामिल इस ठुमरी के बोल हैं "कासे कहूँ मन की बात..."।
गीत में श्रृंगार का वियोग पक्ष ही रेखांकित हुआ है, परन्तु एक अलग
अन्दाज़ में। नायिका अपने प्रेमी के प्रति शिकवे-शिकायत व्यक्त करती है।
गीत का मुखड़ा एक परम्परागत ठुमरी पर आधारित है। थोड़े फेर-बदल के साथ
ठुमरी "कासे कहूँ मन की बात..." के स्थायी की यही पंक्तियाँ कुछ
अन्य फ़िल्मों में भी प्रयोग हुए हैं। 1954 की फिल्म "सुबह का तारा" और
1979 में बनी फिल्म "भलामानुष" में इस ठुमरी की स्थायी पंक्तियाँ प्रयोग की
गई हैं। राग "काफी", तीन ताल और कहरवा में निबद्ध फिल्म “धूल का फूल” की
इस ठुमरी का गायन सुधा मल्होत्रा ने किया है। फिल्मी परदे पर इसे नृत्य की
संगति में गाया गया है। गायिका गायन के साथ-साथ सितार वादन भी करती है। गीत
के प्रारम्भ में सितार पर बेहद आकर्षक आलाप और उसके बाद सरगम प्रस्तुत
किया गया है। फिल्म "धूल का फूल" की इस ठुमरी गीत के प्रसंग में अभिनेता
अशोक कुमार, नन्दा, राजेन्द्र कुमार और माला सिन्हा दर्शक के रूप मौजूद
हैं। फिल्म में गीत साहिर लुधियानवी का और संगीत एन. दत्ता का है। आइए राग
"काफी" में निबद्ध फिल्म "धूल का फूल" की यह ठुमरी सुधा मल्होत्रा की आवाज़
में सुनते हैं।
ठुमरी काफी : “कासे कहूँ मन की बात...” : सुधा मल्होत्रा : फिल्म – धूल का फूल
संगीत पहेली
‘स्वरगोष्ठी’
के 349वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको 1959 में प्रदर्शित एक फिल्म
से एक ठुमरी गीत का अंश सुनवा रहे हैं। गीत के इस अंश को सुन कर आपको
निम्नलिखित तीन में से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। यदि आपको
तीन में से केवल एक ही प्रश्न का उत्तर ज्ञात हो तो भी आप प्रतियोगिता में
भाग ले सकते हैं। इस वर्ष के अन्तिम अंक की ‘स्वरगोष्ठी’ तक जिस प्रतिभागी
के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस वर्ष के पाँचवें सत्र का विजेता घोषित
किया जाएगा। इसके साथ ही पूरे वर्ष के प्राप्तांकों की गणना के बाद
महाविजेताओं की घोषणा भी की जाएगी।
1 – इस गीतांश को सुन कर बताइए कि इसमें किस राग की झलक है?
2 – इस गीत में प्रयोग किये गए ताल का नाम बताइए।
3 – इस गीत में किस सुप्रसिद्ध पार्श्वगायिका की आवाज़ है?
आप उपरोक्त तीन मे से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार, 30 दिसम्बर, 2017 की मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। आपको यदि उपरोक्त तीन में से केवल एक प्रश्न का सही उत्तर ज्ञात हो तो भी आप पहेली प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं। COMMENTS
में दिये गए उत्तर मान्य हो सकते हैं, किन्तु उसका प्रकाशन पहेली का उत्तर
देने की अन्तिम तिथि के बाद किया जाएगा। विजेता का नाम हम उनके शहर,
प्रदेश और देश के नाम के साथ ‘स्वरगोष्ठी’ के 351वें अंक में
प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के
बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना
चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे
दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
की 347वीं कड़ी की पहेली में हमने आपको 1958 में प्रदर्शित फिल्म
“कालापानी” से एक ठुमरी गीत का अंश सुनवा कर आपसे तीन में से किन्हीं दो
प्रश्नों का उत्तर पूछा था। पहले प्रश्न का सही उत्तर है, राग खमाज, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है, ताल – दादरा और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है, स्वर – आशा भोसले।
इस
अंक की पहेली प्रतियोगिता में प्रश्नों के सही उत्तर देने वाले हमारे
प्रतिभागी हैं – एक अन्तराल के बाद चित्तौड़गढ़, राजस्थान से हमारी नियमित
पाठक / श्रोता इन्दु पुरी गोस्वामी ने पहेली प्रतियोगिता में भाग
लिया और तीनों प्रश्नो का सही उत्तर दिया है। अन्य सही उत्तर देने वाले
प्रतिभागी हैं - वोरहीज, न्यूजर्सी से डॉ. किरीट छाया, चेरीहिल न्यूजर्सी से प्रफुल्ल पटेल, जबलपुर, मध्यप्रदेश से क्षिति तिवारी, पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी।
आशा है कि हमारे अन्य पाठक / श्रोता भी नियमित रूप से साप्ताहिक स्तम्भ
‘स्वरगोष्ठी’ का अवलोकन करते रहेंगे और पहेली प्रतियोगिता में भाग लेंगे।
उपरोक्त सभी प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक
बधाई।
अपनी बात
मित्रों,
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी हमारी
नई श्रृंखला “फिल्मी गीतों में ठुमरी के तत्व” की आज की कड़ी में आपने 1959
में प्रदर्शित फिल्म “धूल का फूल” के ठुमरी गीत का रसास्वादन किया। इस
श्रृंखला में हम आपसे कुछ ऐसे फिल्मी गीतों पर चर्चा कर रहे हैं, जिसमें
आपको ठुमरी शैली के दर्शन होंगे। आज आपने जो ठुमरी गीत सुना, वह राग काफी
पर आधारित है। इस श्रृंखला में भी हम आपसे फिल्मी ठुमरियों पर चर्चा कर रहे
हैं और शास्त्रीय और उपशास्त्रीय संगीत और रागों पर चर्चा भी जारी है।
हमारी वर्तमान और आगामी श्रृंखलाओं के लिए विषय, राग, रचना और कलाकार के
बारे में यदि आपकी कोई फरमाइश हो तो हमें swargoshthi@gmail.com पर अवश्य लिखिए। अगले अंक में रविवार को प्रातः 7 बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करेंगे।
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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