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चित्रकथा - 42: फ़िल्मी गीतों में पहेलियाँ

अंक - 42

फ़िल्मी गीतों में पहेलियाँ


"ईचक दाना बीचक दाना दाने उपर दाना..." 



किसी व्यक्ति की बुद्धि या समझ की परीक्षा लेने वाले एक प्रकार के प्रश्न, वाक्य अथवा वर्णन को पहेली (Puzzle) कहते हैं जिसमें किसी वस्तु का लक्षण या गुण घुमा फिराकर भ्रामक रूप में प्रस्तुत किया गया हो और उसे बूझने अथवा उस विशेष वस्तु का ना बताने का प्रस्ताव किया गया हो। इसे 'बुझौवल' भी कहा जाता है। पहेली व्यक्ति के चतुरता को चुनौती देने वाले प्रश्न होते है। जिस तरह से गणित के महत्व को नकारा नहीं जा सकता, उसी तरह से पहेलियों को भी नज़रअन्दाज नहीं किया जा सकता। पहेलियां आदि काल से व्यक्तित्व का हिस्सा रहीं हैं और रहेंगी। वे न केवल मनोरंजन करती हैं पर दिमाग को चुस्त एवं तरो-ताजा भी रखती हैं। हमारे फ़िल्मी गीतों में भी कई बार हमें पहेलियाँ मिली हैं और ये गीत पहेलियों की वजह से यादगार बन गए हैं। आइए आज ’चित्रकथा’ में नज़र डालें कुछ ऐसे ही फ़िल्मी गीतों पर।


हिंदी में पहेलियों का व्यापक प्रचलन रहा है। पहेलियाँ मूलत: दो प्रकार की हैं। कुछ पहेलियाँ ऐसी हैं जिनमें उनकी वर्णित वस्तु को छिपाकर रखा गया है जो तत्काल स्पष्ट नहीं होता। कुछ ऐसी हैं जिनकी बूझ-वस्तु उनमें नहीं दी गई होती। इनमें बिन-बूझ पहेलियाँ ही ज़्यादा लोकप्रिय हुई हैं। 

"एक थाल मोती से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे, मोती उससे एक न गिरे।।"

उपर्युक्त पहेली का उत्तर है आकाश, और मोती से संकेत तारों की ओर है।

हिंदी पहेलियों के संबंध में अब तक जो भी खोज कार्य हुए हैं उनमें पहेलियों का कई प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। इन वर्गीकरणों से स्पष्ट है कि हिंदी में इतने सारे प्रकार की पहेलियों का प्रचलन है। विषयों के अनुसार पहेलियों को सात प्रमुख वर्गों में बाँटा जा सकता है, यथा: खेती-संबंधी (कुआँ, मक्के का भुट्टा), भोजन संबंधी (तरबूज़, लाल मिर्च), घरेलू वस्तु संबंधी (दीया, हुक्का, सुई, खाट), प्राणि संबंधी (खरगोश, ऊँट,) अंग, प्रत्यंग सबंधी (उस्तरा, बंदूक)। हिंदी की अन्य क्षेत्रीय बोलियों जैसे कि भोजपुरी, अवधी, बुंदेलखंडी, मैथिली आदि में भी पर्याप्त मात्रा में पहेलियाँ पाई जाती हैं।

Shanta Apte & Bhatkar
हमारी हिन्दी फ़िल्मी गीतों में भी पहेलियाँ कई बार आई हैं, हालाँकि ऐसे गीतों की संख्या बहुत अधिक नहीं है। लेकिन यह सच है कि जब भी कभी पहेलियों को आधार बना कर किसी गीत की रचना की गई है, वह गीत यादगार बन गया है। पहेलियाँ वाले फ़िल्मी गीतों पर शोध करते हुए जो सबसे पुराना गीत हाथ लगा, वह है साल 1942 की फ़िल्म ’ज़मीनदार’ का गीत "बूझ सको तो बूझो मेरी एक पहेली बूझो"। क़मर जलालाबादी का लिखा और मास्टर ग़ुलाम हैदर द्वारा स्वरबद्ध इस गीत को गाया था भाटकर और शान्ता आप्टे ने। ये वो ही स्नेहल भाटकर हैं जो आगे चल कर संगीतकार बनें। यह गीत अनूठा है क्योंकि गीत को सुनते हुए, पहेलियों को सुनते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे नायक और नायिका एक दूसरे के गुणों का बयाँ कर रहे हैं। लेकिन जब सामने वाला/ वाली जवाब देता या देती है, तब पता चलता है कि पहेली का जवाब तो कुछ और ही है। यही तो पहेली की परिभाषा है कि जिसके एक से ज़्यादा अर्थ निकल सकते हैं। दरसल इस गीत में नायक-नायिका एक दूसरे की टाँग खींच रहे हैं। भाटकर की आवाज़ में नायक की पहेली है - "नाजुक नाजुक उसकी कमरिया, कब से रेंगती है ऐ उसकी चुनरिया, चुपके चुपके रहती है शर्मीली रानी, कोई मुसाफ़िर देख ना ले कहीं मस्त जवानी, देखे जब अंग प्यारे तरसत हैं होंठ हमारे, तन उसका नागन इस तरह बलखाये, कोई देखे उसका दिल ललचाये, कोई तो बूझ बताए"। इसके जवाब में नायिका कहती हैं - "यह तो मैं हूँ"। इस पर नायक का जवाब होता है - "नहीं, ककड़ी।" इसी तरह से गीत के दूसरे हिस्से में पहेली पूछने की बारी है नायिका की। शान्ता आप्टे गाती हैं - "उस प्यारे की हर बात निराली, चेहरे पर लाली, दुख सुख के कांटों में रहने वाला, तूफ़ान की सख़्ती को सहने वाला, इक भोला भाला बनवासी, जब देखो हो दूर हो उदासी, उसके ऐ तन में भरी मिठास, जब चाहो आ जाये पास, दिल भी ख़ुश हो जाए, कोई तो बूझ बताए।" इस पर नायक का जवाब - "यह तो मैं हूँ!" और नायिका कहती हैं - "नहीं नहीं, बेर।"

1955 की फ़िल्म ’श्री 420’ में सर्वाधिक लोकप्रिय पहेली गीत आया "ईचक दाना बीचक दाना दाने उपर दाना, छज्जे उपर लड़की नाचे लड़का है दीवाना" जिसे हर किसी ने सुना है और इस गीत में शामिल पहेलियों के बारे में भी हर किसी को मालूमात है। इस गीत में स्कूल टीचर नर्गिस अपने छात्रों को पहेलियाँ पूछ रही हैं। वहाँ मौजूद राज कपूर भी पहेलियों के जवाबों का अंदाज़ा लगा रहे होते हैं लेकिन हर बार उनका जवाब ग़लत होता है और बच्चे सही जवाब दे जाते हैं। गीत के आख़िर में राज कपूर भी एक पहेली पूछते हैं और अब की बार नर्गिस भी मात खा जाती हैं क्योंकि उस पहेली का इजाद राज कपूर ने उसी वक़्त किया होता है जिसका जवाब सिर्फ़ उन्हीं को पता है। गीतकार हसरत जयपुरी ने किस ख़ूबसूरती के साथ इस गीत को रचा है। गीत में शामिल पहेलियों को सुन कर लगता ही नहीं कि हसरत साहब ने इन्हें बनाया है बल्कि ऐसा लगता है कि जैसे सदियों से ये पहेलियाँ चली आ रही हों। शंकर-जयकिशन के संगीत में इस गीत को लता मंगेशकर, मुकेश और बच्चों ने गाया था। इस गीत के साथ एक रोचक उपाख्यान भी जुड़ा हुआ है। पूर्व क्रिकेटर बी. एस. चन्द्रशेखर गायक मुकेश के ज़बरदस्त फ़ैन थे। 90 के दशक में ज़ी टीवी के मशहूर शो ’अन्ताक्षरी’ के एक सेलिब्रिटी अंक में बी. एस. चन्द्रशेखर भी पधारे थे और वो हर बार किसी भी अक्षर से मुकेश के गाए गीत को पेश कर सभी को चकित कर रहे थे। जब "इ" से गाने की बारी आई तो उन्होंने "इचक दाना..." गाया। लेकिन दूसरी पंक्ति को वो "लड़का उपर लड़की नाचे लड़का है दीवाना" गा गए। मेज़बान अन्नु कपूर ने जैसे ही उन्हें सुधारा, वहाँ मौजूद दर्शकों के ठहाके छूट पड़े।

1961 की फ़िल्म ’ससुराल’ में एक बार फिर शंकर जयकिशन के संगीत में पहेली श्रेणी का एक गीत बना। शैलेन्द्र का लिखा और लता-रफ़ी का गाए इस गीत में एक प्रतियोगिता हो रही है नायक राजेन्द्र कुमार और नायिका बी. सरोजा देवी के बीच में जिसमें पहला एक सवाल पूछता है जिसका जवाब दूसरे को सवाल के रूप में ही देना है। इस तरह से बिल्कुल नए तरीके में लिखा यह गीत फ़िल्म संगीत के इतिहास का एकमात्र ऐसा गीत बना हुआ है। "एक सवाल मैं करूँ, एक सवाल तुम करो, हर सवाल का सवाल ही जवाब हो"। पहला सवाल है - "प्यार की बेला साथ सजन का फिर क्यों दिल घबराये, नईहर से घर जाती दुल्हन क्यों नैना छलकाये?" इसके जवाब में जो सवाल पूछा गया, वह है - "है मालूम कि जाना होगा, दुनियाँ एक सराय, फिर क्यों जाते वक़्त मुसाफ़िर रोये और रुलाये?" सवालों की दूसरी जोड़ी है - "चाँद के माथे दाग है फिर भी चाँद को लाज न आये, उसका घटता बढ़ता चेहरा क्यों सुन्दर कहलाये?"/ "काजल से नैनों की शोभा क्यों दुगुनी हो जाये, गोरे गोरे गाल पे काला तिल क्यों मन को भाये?" और तीसरी व अन्तिम सवालों की जोड़ी है - "उजियारे में जो परछाई पीछे पीछे आये, वही अन्धेरा होने पर क्यों साथ छोड़ छुप जाये?"/ "सुख में क्यों घेरे रहते हैं अपने और पराये, बुरी घड़ी में क्यों हर कोई देख के भी क़तराये?" जीवन की कितनी गहरी सच्चाइयों को शैलेन्द्र ने उजागर किया है इस गीत में, और यही सब इस गीत की सुन्दरता को बढ़ाते हैं। 


1967 की फ़िल्म ’मझली दीदी’ ॠषीकेश मुखर्जी निर्देशित फ़िल्म थी। इसमें एक बड़ा ही अनोखा पहेली भरा गीत था लता मंगेशकर, कमल बारोट और नीलिमा चटर्जी की आवाज़ों में। हेमन्त कुमार के संगीत में इसे कवि नीरज ने लिखा था। गीत में लता जी ने मीना कुमारी का पार्श्वगायन किया और कमल बारोट व नीलिमा चटर्जी ने बेबी सारिका, मास्टर ख़ालिद और बेबी रज़िया का प्लेबैक किया। ज़ाहिर है गीत में माँ (मीना कुमारी) अपने बच्चों से पहेलियाँ पूछ रही हैं। पहली पहेली है "मैं लाल लाल गुजकूँ, तू हाथ डाले मुझकूँ, मैं काट खाऊँ तुझकूँ, तू खाये जाये मुझकूँ, बताओ बताओ बताओ मैं कौन हूँ?" इसका जवाब बच्चे तुरन्त दे देते हैं - "बेर"। माँ दूसरी पहेली पूछती हैं - "एक अचम्भा ऐसा देखा, हाथी खड़ा नहाये, बताओ तो क्या है है?" इस बार बच्चे उलझ जाते हैं और कहते हैं "तुम ही बताओ ना माँ!" इस पर माँ पहेली को और थोड़ा बढ़ाते हुए कहती हैं - "चोंच ना डूबे घड़ा ना डूबे, चिड़िया प्यासी जाये, एक अचम्भा ऐसा देखा, हाथी खड़ा नहाये"। अब बच्चे बोल पड़ते हैं - "ओस!" तीसरी पहेली एक बच्ची पूछती है - "एक कटोरे में है कटोरा, बाप से ज़्यादा बेटा गोरा, पूजा में वह आता काम, कहो तो उसका क्या है नाम?" माँ जवाब देती है "नारियल"। अगली पहेली भी दूसरे बच्चे से आती है - "एक अंगुल के ग़ाज़ी मियाँ, दस अंगुल की पूँछ, चलते जाएँ ग़ाज़ी मियाँ, फँसती जाए पूँछ"। इस पर माँ का हाज़िर जवाब - "सुइ धागा।" अब फिर से माँ की बारी - "एक थाल मोती से भरा, सब के सर पर उल्टा धरा, आंधी आये पानी आये, मोती एक नहीं गिर पाये, बताओ तो क्या है?" इस बार बच्चे सही जवाब "आकाश" दे जाते हैं। गीत के अन्त में जब बच्चे और पहेलियों की ज़िद करते हैं, तब उनकी माँ कहती हैं कि उन्हें अभी बहुत काम है और बच्चों से पढ़ाई-लिखाई करने को कहती हैं और यह भी कहती हैं कि दोपहर में वो उनकी परीक्षा लेंगी। 

1967 की ही एक और फ़िल्म में पहेली भरा गीत है। म्युज़िकल ब्लॉकबस्टर फ़िल्म ’मिलन’ के गीतों को कौन नहीं जानता! भले "सावन का महीना पवन करे सोर" इस फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत रहा है, लेकिन इसी फ़िल्म में एक और लता मंगेशकर, मुकेश और साथियों का गाया हुआ गीत है जिसकी पहेलियों की ख़ास बात यह है कि हर पहेली का जवाब है भगवान शिव जी। इस तरह से इस गीत में भक्ति रस भी प्रवाहित हो रहा है। लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत निर्देशन में आनन्द बक्शी की यह रचना है "बोल गोरी बोल तेरा कौन पिया, कौन है वो तूने जिसे प्यार किया?" इसके जवाब में नायिका पहेली के रूप में जवाब देती है - "तू जाने ना उसका नाम, हर सुबह हर शाम, दुनिया ने उसी का नाम लिया, बोल तू ही बोल मेरा कौन पिया।" इस गीत में मज़ेदार बात यह है कि नायिका जहाँ शिव जी की प्रशंसा कर रही है, वहीं दूसरी तरफ़ नायक शिव जी के दोष धर रहे हैं। पहले अन्तरे में जब मेले के लोग नायिका से पूछते हैं कि "है कौन सारे जग से निराला, कोई निशानी बतलाओ बाला", तब नायिका कहती हैं, "उसकी निशानी वो भोला भाला"। तब नायक मज़ा लेते हुए गाते हैं, "उसके गले में सर्पों की माला, वो कई हैं जिसके रूप, कहीं छाँव कहीं धूप, तेरा साजन है या बहरूपिया?" नायिका इससे विचलित नहीं होती और दूसरे अन्तरे में कहती हैं, "मन उसका मन्दिर प्राण पुजारी"। इस नायक का कटाक्ष, "घोड़ा न हाथी करे बैल सवारी"। नायिका का जवाब - "कैलाश पर्वत का वो तो जोगी"। नायक कहाँ हार मानने वाले - "अच्छा वही दर दर का भिखारी!"। नायिका - "हाँ, वो है भिखारी ठीक, लेके भक्ति की भीख, बदले में जगत को मोक्ष दिया"। अन्तिम अन्तरा नायिका शुरु करती हैं - "मैं जिसको भाऊँ जो मुझको भाये, इक दोष तो कोई उसमें बताये"। नायक का जवाब - "तू जिसपे मरती है हाय हाय, वो जटाओं में है गंगा बसाये"। और नायिका का अन्तिम जवाब है - "दो दिन का है साथ, युग-युग से मेरी बात, मैं हूँ बाती अगर तो वो दीया, बोल तू ही बोल मेरा कौन पिया"। बहुत ही सुन्दर रचना है और सबसे बड़ी बात यह है कि सभी को पहेलियों का जवाब पता है लेकिन इतने सुन्दर शब्दों से शिव जी का वर्णन किया गया है कि जितनी बार भी इस गीत को सुनें, अच्छा ही लगता है।

1967 से 1969 के दरमियाँ कई और गीतों में पहेलियों का समावेश हुआ है। 1968 की फ़िल्म ’आशिर्वाद’ के "रेल गाड़ी", "नानी की नाव चली", "जीवन से लम्बे हैं बंधु" और "झिर झिर बरसे सावनी अखियाँ" गीत हमने कई कई बार सुने हैं। लेकिन इसी फ़िल्म में एक पहेली गीत भी है जिसकी तरफ़ लोगों का कम ही ध्यान गया है। गुलज़ार का लिखा और वसन्त देसाई का स्वरबद्ध किया यह गीत आशा भोसले, हेमलता, अशोक कुमार, हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, मिर्ज़ा साहिब और बिपिन गुप्ता ने गाया है। एक उर्जा समृद्ध लोक शैली का गीत है महाराष्ट्र के लावणी नृत्य शैली में रचा हुआ। 9 मिनट 30 सेकण्ड अवधि के इस गीत में लावणी नर्तकियाँ दर्शकों से पहेलियाँ पूछ रहे हैं। लेकिन अन्त में दर्शकों में बैठे अशोक कुमार एक ऐसी पहेली पूछते हैं जिसका नर्तकी दल जवाब नहीं दे पाते और वो हार मान लेते हैं। नर्तकियों द्वारा पूछी गई पहली पहेली थी - "है एक पहेली बड़ी नवेली, जो बूझे तो बने कलन्दर, और ना बूझे तो बन्दर बन्दर बन्दर। कई बरस तो कभी ना आए, और आए तो कभी ना जाए, काटो, फेंको, फिर आ जाए, बूझे कोई यह बतालाए।" दर्शक इसका जवाब दे देते हैं - "दाढ़ी"। दूसरी पहेली पूछती हैं नर्तकियाँ - "राधा नाम की लड़की थी इक, ऊँचे कद की, तुमको उसकी बात सुनाऊँ, अरे क्या कहती थी, क्या करती थी, गागर में जब अग्नि भर के सर पे रख ली, जमुना पाँव में पड़ के बोली, तड़पे मचले मचले, हो जितनी बार मुझे फूंकोगे आग लगा के, उतनी बार उठेगी तन से धुएँ की बदली बदली, कौन थी राधा, कौन थी जमुना?" इसके जवाब में दर्शकों में बैठे हरिन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय अपनी ही अंदाज़ में हुक्का पीते हुए यह समझा देते हैं कि इस पहेली का जवाब है "हुक्का"। नर्तकी दल तुरन्त तीसरी पहेली पर चली आती हैं - "कान पकड़ कर नाक पे दोनो घुटने टेके, उठकर दो आँखों में आँखें डाल के देखे, क्यों कलन्दर बनोगे बन्दर, चलेगा चुल्लु या लाऊँ समुन्दर?" इस पहेली का जवाब अशोक कुमार देते हैं पहेली वाले अंदाज़ में - "सारी जवानी कोई ना आए आँख मिलाने, आज बुढापे में कोई कैसे पहचाने, कान पकड़ कर नाक पे दोनो घुटने टेके, तब आँखों पर चढ़ के चश्मा आँख को देखे", यानी सही जवाब है "चश्मा"। अब इससे पहली की नर्तकियाँ कोई और पहेली पूछतीं, अशोक कुमार उन्हीं से एक पहेली पूछ बैठे - "अच्छा अब के तुम सब मेरी बात बताओ, और न समझो तुम तो सारे गोबर खाओ, एक दफ़ा एक दोस्त के घर पे सोचा था वो घर पे होगा, जा कर देखा दोस्त नहीं है, उस दोस्त की सुन्दर पत्नी को जिस हाल में पाया, तौबा तौबा देखा और पसीना आया, माँ को भी एक बार यूं ही देखा था लेकिन, बहन को देख के मुश्किल से दिल को समझाया, ऐसी कितनी सुन्दर सुन्दर नारियाँ देखी भैया, लेकिन अपनी पत्नी को उस हाल में देख ना पाया। अब कहो कलन्दर हाल बताओ, वरना लंगड़ी चाल दिखाओ।" जब नर्तकी दल इस पहेली का जवाब नहीं दे पाती, तब अशोक कुमार जवाब देते हैं - "अब सुनो जवाब, माँ को देखा बहन को देखा, देखी भाभी अच्छी, लेकिन अपनी पत्नी को देखा है किस ने विधवा?"

1969 की फ़िल्म ’अनजाना’ में आनन्द बक्शी, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल, लता मंगेशकर और मुकेश ने फिर एक बार लेकर आए एक पहेली गीत। ’श्री 420’ के "ईचक दाना" के बाद जैसे ऐसे गीतों के लिए लता-मुकेश फ़िक्स हो गए हों। ख़ैर, ’अनजाना’ के पहेली गीत में राजेन्द्र कुमार और बबिता एक दूसरे से पहेलियाँ पूछते हैं। इस गीत के पहेलियों की ख़ासियत यह है कि जवाब में सामने वाला/वाली चार-चार जवाब देता/देती है जो सही है, लेकिन पहेली पूछने वाला/वाली का जवाब तो कुछ और ही है। और सुन्दरता यह है कि जवाब देने वाले का जो चौथा जवाब होता है, उसी से तुक मिलाता हुआ जवाब होता है पहेली पूछने वाले/वाली का। मज़ेदार पहेलियों, ख़ूबसूरत कम्पोज़िशन और बेहतरीन गायकी की वजह से यह गीत काफ़ी मक़बूल हुआ था। इस गीत में शामिल पहेलियों और उनके जवाब इस प्रकार हैं।

वो कौन है वो कौन है जो रूठ जाती है, चीज़ वो नाज़ुक बड़ी है टूट जाती है, बोलो बोलो?
प्रीत?
नहीं।
रीत?
नहीं।
नींद?
नहीं।
डोरी?
डोरी नहीं गोरी।


वो कौन है वो कौन है जग जिससे डरटा है, जागता है रात भर और आहें भरता है, बोलो बोलो?
मोर?
नहीं।
चोर?
नहीं।
चकोर?
नहीं।
दिया?
दिया नहीं पिया।


वो कौन है वो कौन है जो ऐसी होती है, दिल तड़पता है उसका और आँख रोती है, बोलो बोलो?
हवा?
नहीं।
घटा?
नहीं।
धुआँ?
नहीं।
याद?
याद नहीं फ़रियाद।

वो कौन है वो कौन है एक उलझन होती है, दोस्त अगर आती है लेकिन दुश्मन होती है, बोलो बोलो?
रात?
नहीं।
घात?
नहीं।
बारात?
नहीं।
निशानी?
निशानी नहीं जवानी।

वो कौन है वो कौन है परदेस जाती है, प्रेमियों के लेके वो संदेस आती है, बोलो बोलो?
लगन?
नहीं।
किरण?
नहीं।
पवन?
नहीं?
मिट्टी?
मिट्टी नहीं चिट्ठी।


वो कौन है वो कौन है सबको समझाता है, रास्ता ख़ुद अपने घर का भूल जाता है, बोलो बोलो?
धरा?
नहीं।
तारा?
नहीं।
इशारा?
नहीं।
दीवाना?
दीवाना नहीं अनजाना।

और इस तरह से फ़िल्म के शीर्षक के साथ यह पहेली गीत सम्पन्न होता है।

70 के दशक में पहेली वाले गीत लगभग ख़त्म हो गए। बस 1972 की फ़िल्म ’मेरा नाम जोकर’ में गीत था "तीतर के दो आगे तीतर, तीतर के दो पीछे तीतर, आगे तीतर, पीछे तीतर, बोलो कितने तीतर?"। आशा भोसले, मुकेश, सिम्मी गरेवाल और बच्चों की आवाज़ों में हसरत जयपुरी का लिखा और शंकर-जयकिशन का स्वरबद्ध यह गीत एक अनोखा गीत है। वैसे सिर्फ़ मुखड़े में ही तीतर वाली पहेली है, बाक़ी गीत के अन्तरों में पहेलियाँ नहीं बल्कि ’स्पूनरिज़्म’ की पंक्तियाँ  हैं (स्पूनरिज़्म का अर्थ है दो या ‍अधिक शब्दों के आरम्भिक अक्षरों का आकस्मिक हेर-फेर या स्थानान्तरण जिससे पंक्ति बोलने में मुश्किल होती है)। 80 के दशक में बस एक पहेली भरा गीत आया 1985 की फ़िल्म ’अर्जुन’ में। जावेद अख़्तर का लिखा, राहुल देव बर्मन का संगीतबद्ध किया और आशा भोसले, डिम्पल, सनी देओल और बच्चों का गाया यह गीत है "मुन्नी पप्पु और चुनमुन, आओ पहेली बूझे हम..."। इस गीत में टीचर बनी डिम्पल कापड़िया छोटे बच्चों को पहेलियाँ पूछती हैं, लेकिन सनी देओल हर पहेली के जवाब में "नौकरी" बोल देते हैं। सनी के इस तरह से "नौकरी" का दोहराव इस फ़िल्म के भाव (बेरोज़गारी) को सुन्दर तरीके से उजागर करता है। मज़े की बात यह भी है कि ’श्री 420’ वाले "ईचक दाना" में भी कुछ कुछ इसी तरह का सिचुएशन है। राहुल रवैल ने शायद उस गीत से प्रेरणा लेकर ’अर्जुन’ के इस गीत की कल्पना की होगी। इस गीत में शामिल पहेलियों पर ग़ौर किया जाए! 

"आए कहाँ से ख़बर नहीं, क्यों क्यों आए नज़र नहीं, जिए न हम वो अगर नहीं, उसकी ज़रूरत हर पल सुबह शाम, बोलो बच्चों क्या है उसका नाम?" 
"नौकरी?" 
"जी नहीं, हवा।"


"उसकी सुबह उसके दिन, उसके कारण ये पलछिन, दुनिया अंधेरी उसके बिन, दूर बहुत है लेकिन उसका धाम, बोलो चुनमुन क्या है उसका नाम?"
"घड़ी?"
"नहीं रे बाबा।"
"नौकरी?"
"मैं बताऊँ, मैं बताऊँ? सूरज।"

"उसका प्यार ज़माने में है आज, सुन्दर और अनूप है, ठंडी मीठी धूप हैं वो, इक देवी का रूप है वो, उसक प्यार ज़माने में है आज, बोलो मुन्नी क्या है उसका नाम?"
"नौकरी?"
"जी नहीं, माँ।"

फ़िल्म ’अर्जुन’ के इस गीत के साथ ही फ़िल्मी गीतों में पहेलियों का सिलसिला हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। लेकिन इन गिने-चुने पहेली गीतों ने फ़िल्म-संगीत के धरोहर में विविधता लाने की कोशिशें की और इसी वजह से ये गीत अलग हट कत सुनाई देते हैं और इन्हें रसिकों ने अपने दिल के क़रीब रखे हुए हैं।


आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!




शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

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‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की