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चित्रकथा - 10: हिन्दी फ़िल्मों में शहीद भगत सिंह का प्रिय देशभक्ति गीत


अंक - 10

हिन्दी फ़िल्मों में शहीद भगत सिंह का प्रिय देशभक्ति गीत

मेरा रंग दे बसंती चोला...



’रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। समूचे विश्व में मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम सिनेमा रहा है और भारत कोई व्यतिक्रम नहीं। बीसवीं सदी के चौथे दशक से सवाक् फ़िल्मों की जो परम्परा शुरु हुई थी, वह आज तक जारी है और इसकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ती ही चली जा रही है। और हमारे यहाँ सिनेमा के साथ-साथ सिने-संगीत भी ताल से ताल मिला कर फलती-फूलती चली आई है। सिनेमा और सिने-संगीत, दोनो ही आज हमारी ज़िन्दगी के अभिन्न अंग बन चुके हैं। ’चित्रकथा’ एक ऐसा स्तंभ है जिसमें बातें होंगी चित्रपट की और चित्रपट-संगीत की। फ़िल्म और फ़िल्म-संगीत से जुड़े विषयों से सुसज्जित इस पाठ्य स्तंभ में आपका हार्दिक स्वागत है। 

23 मार्च का दिन हर भारतीय के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आज ही के दिन सन् 1931 में सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को शहीदी प्राप्त हुई थी। 1919 में जलियाँवाला बाग़ के जघन्य हत्याकांड की दर्दनाक यादें बालपन से भगत सिंह के मन में घर कर गई थी। और 1928 में जब लाला लाजपत राय की ब्रिटिश लाठीचार्ज की वजह से मृत्यु हो गई तब भगत सिंह और उनके साथियों का ख़ून खौल उठा। अपने देशवासियों को न्याय दिलाना उनके जीवन का एकमात्र मक्सद बन गया। जेनरल सौन्डर्स को गोलियों से भून कर इन तीन जवानों ने देश के अपमान का बदला लिया। अमर शहीद हो गए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु। ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ आप तीनों अमर शहीदों को करती है झुक कर सलाम। आज ’चित्रकथा’ में प्रस्तुत है शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह के मनपसन्द देशभक्ति गीत "मेरा रंग दे बसंती चोला" का इतिहास और एक नज़र डालें उन हिन्दी फ़िल्मों पर जिनमें इस गीत को शामिल किया गया है।




स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में 'काकोरी काण्ड' के बारे में तो आपने ज़रूर सुना ही होगा। 9 अगस्त
1925 में पंडित राम प्रसाद बिसमिल और उनके क्रान्तिकारी साथियों ने मिल कर शाहजहानपुर-लखनऊ ट्रेन लूटने की घटना को 'काकोरी काण्ड' के नाम से जाना जाता है। सभी 19 क्रान्तिकारी पकड़े गए, जेल हुई। इसके करीब दो साल बाद की बात है। अर्थात्‍ साल 1927 की बात। बसन्त का मौसम था। लखनऊ के केन्द्रीय कारागार (Lucknow Central Jail) के 11 नंबर बैरक में ये 19 युवा क्रान्तिकारी एक साथ बैठे हुए थे। इनमें से किसी ने पूछा, "पंडित जी, क्यों न हम बसन्त पर कोई गीत बनायें?" और पंडित जी और साथ बैठे सारे जवानों ने मिल कर एक ऐसे गीत की रचना कर डाली जो इस देश के स्वाधीनता संग्राम का एक अभिन्न अंग बन कर रह गया। और वह गीत था "मेरा रंग दे बसन्ती चोला, माये रंग दे", मूल लेखक पंडित राम प्रसाद बिसमिल। सह-लेखक की भूमिका में उनके मित्रगण थे जिनमें प्रमुख नाम हैं अश्फ़ाकुल्लाह ख़ान, ठाकुर रोशन सिंह, सचिन्द्र नाथ बक्शी और राम कृष्ण खत्री। अन्य 14 साथियों के नाम तो उपलब्ध नहीं हैं, पर उनका भी इस गीत की रचना में अमूल्य योगदान अवश्य रहा होगा! इस गीत के मुखड़े का अर्थ है "ऐ माँ, तू हमारे चोले, या पगड़ी को बासन्ती रंग में रंग दे"; इसका भावार्थ यह है कि ऐ धरती माता, तू हम में अपने प्राण न्योछावर करने की क्षमता उत्पन्न कर। बासन्ती रंग समर्पण का रंग है, बलिदान का रंग है। बिसमिल ने कितनी सुन्दरता से बसन्त और बलिदान को एक दूसरे से मिलाकार एकाकार कर दिया है! इस गीत ने आगे चल कर ऐसी राष्ट्रीयता की ज्वाला प्रज्वलित की कि जन-जागरण और कई क्रान्तिकारी गतिविधियों का प्रेरणास्रोत बना। यहाँ तक कि शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह का पसन्दीदा देशभक्ति गीत भी यही गीत था, और 23 मार्च 1931 के दिन फाँसी की बेदी तक पैदल जाते हुए वो इसी गीत को गाते चले जा रहे थे। आश्चर्य की बात है कि वह भी बसन्त का ही महीना था। भले ही इस गीत को राम प्रसाद बिसमिल ने लिखे हों, पर आज इस गीत को सुनते ही सबसे पहले शहीद भगत सिंह का स्मरण हो आता है। 

हिन्दी सवाक्‍ फ़िल्मों का निर्माण भी उसी वर्ष से शुरू हो गया था जिस वर्ष भगत सिंह शहीद हुए थे। पर
ब्रिटिश शासन की पाबन्दियों की वजह से कोई भी फ़िल्मकार भगत सिंह के जीवन पर फ़िल्म नहीं बना सके। देश आज़ाद होने के बाद सन्‍ 1948 में सबसे पहले 'फ़िल्मिस्तान' ने उन पर फ़िल्म बनाई 'शहीद', जिसमें भगत सिंह की भूमिका में नज़र आये दिलीप कुमार। पर इस फ़िल्म में "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" गीत को शामिल नहीं किया गया। फ़िल्म का एकमात्र देश भक्ति गीत था राजा मेहन्दी अली ख़ाँ का लिखा "वतन की राह में वतन के नौजवाँ शहीद हों"। फ़िल्म के अन्य सभी गीत नायिका-प्रधान गीत थे। इसके बाद 1954 में जगदीश गौतम निर्देशित फ़िल्म बनी 'शहीद-ए-आज़म भगत सिंह' जिसमें प्रेम अदीब, जयराज, स्मृति बिस्वास प्रमुख ने काम किया। इस फ़िल्म में भी "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" गीत के शामिल होने की जानकारी नहीं है, हाँ, बिसमिल के लिखे "सरफ़रोशी की तमन्ना..." को ज़रूर इसमें शामिल किया गया था रफ़ी साहब की आवाज़ में। इसके बाद सन्‍ 1963 में बनी के. एन. बनसल निर्देशित 'शहीद भगत सिंह' जिसमें नायक की भूमिका में शम्मी कपूर नज़र आये। फ़िल्म के गीत लिखे क़मर जलालाबादी और ज्ञान चन्द धवन ने तथा संगीत दिया हुस्नलाल भगतराम ने। फ़िल्म के सभी गीत देशभक्ति थे, और बिसमिल के लिखे दो गीत शामिल किये गये - "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" और "मेरा रंग दे बसन्ती चोला"। दोनों गीत मोहम्मद रफ़ी और साथियों की आवाज़ों में थे। इस फ़िल्म को सफलता नहीं मिली, पर इसके ठीक दो साल बाद, 1965 में मनोज कुमार अभिनीत फ़िल्म 'शहीद' ने कमाल कर दिखाया। फ़िल्म ज़बरदस्त कामयाब रही और महेन्द्र कपूर, मुकेश और राजेन्द्र मेहता के गाये "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत बना। इस फ़िल्म को कई राष्ट्रीय पुरसकारों से सम्मानित किया गया, जिनमें शामिल थे 'सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फ़ीचर फ़िल्म', राष्ट्रीय एकता पर बनी सर्वश्रेष्ठ फ़ीचर फ़िल्म का 'नरगिस दत्त पुरस्कार', तथा 13-वीं राष्ट्रीय पुरस्कारों में 'सर्वश्रेष्ठ कहानी' का पुरस्कार। 



नई पीढ़ी के कई फ़िल्मकारों ने भी भगत सिंह पर कई फ़िल्में बनाई। साल 2002 में इक़बाल ढिल्लों 
निर्मित व सुकुमार नायर निर्देशित फ़िल्म आई 'शहीद-ए-आज़म', जिसमें भगत सिंह की भूमिका में नज़र आये सोनू सूद। फ़िल्म को लेकर विवाद का जन्म हुआ और पंजाब-हरियाणा हाइ कोर्ट के निर्देश पर फ़िल्म का प्रदर्शन बन्द किया गया। इस वजह से फ़िल्म को ज़्यादा नहीं देखा गया। फ़िल्म के गीत पंजाबी रंग के थे पर "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" ऐल्बम से ग़ायब था। इसी साल, 2002 में बॉबी देओल नज़र आये भगत सिंह के किरदार में और फ़िल्म का शीर्षक था '23 मार्च 1931: शहीद'। इस फ़िल्म में "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" को आवाज़ दी भुपिन्दर सिंह, वीर राजिन्दर और उदित नारायण ने। संगीत दिया आनन्द राज आनन्द ने तथा फ़िल्म के अन्य गीत लिखे देव कोहली ने। साल 2002 में तो जैसे भगत सिंह के फ़िल्मों की लड़ी ही लग गई। इसी वर्ष एक और फ़िल्म आई 'दि लीजेन्ड ऑफ़ भगत सिंह', जिसमें शहीदे आज़म की भूमिका में नज़र आये अजय देवगन। ए. आर. रहमान के संगीत निर्देशन में सोनू निगम और मनमोहन वारिस का गाया "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" काफ़ी लोकप्रिय हुआ और 1965 में बनी 'शहीद' के उस गीत के बाद इसी संस्करण को लोगों ने हाथोंहाथ ग्रहण किया। एक और बार "मेरा रंग दे..." लेकर आए रूप कुमार राठौड़, हरभजन मान और मोहम्मद सलामत। संगीतकार जयदेव कुमार के संगीत में यह फ़िल्म ’शहीद भगत सिंह’ का गीत है, लेकिन यह फ़िल्म ठीक किस वर्ष प्रदर्शित हुई इसमें संशय है। इन तमाम संस्करणों में इन फ़िल्मों के गीतकारों ने अपनी तरफ़ बोल जोड़े हैं। बिसमिल के मूल मुखड़े को आधार बना कर अन्तरों और शुरुआती पंक्तियों में नए बोल डाले गए हैं। 1965 की फ़िल्म ’शहीद’ के गीत में प्रेम धवन, ’दि लिगेंड ऑफ़ भगत सिंह’ के गीत में समीर, और जयदेव कुमार स्वरबद्ध गीत में नक्श ल्यालपुरी साहब का योगदान है। बिसमिल के मूल गीत के बोल ये रहे...

मेरा रंग दे बसंती चोला, माए रंग दे 
मेरा रंग दे बसंती चोला 

दम निकले इस देश की खातिर बस इतना अरमान है
एक बार इस राह में मरना सौ जन्मों के समान है 
देख के वीरों की क़ुरबानी अपना दिल भी बोला
मेरा रंग दे बसंती चोला ...

जिस चोले को पहन शिवाजी खेले अपनी जान पे
जिसे पहन झाँसी की रानी मिट गई अपनी आन पे 
आज उसी को पहन के निकला हम मस्तों का टोला 
मेरा रंग दे बसंती चोला ...

बड़ा ही गहरा दाग है यारों जिसका देश ग़ुलाम है
वो जीना भी क्या जीना है अपना देश ग़ुलाम है
सीने में जो दिल था यारों आज बना है शोला
मेरा रंग दे बसंती चोला ...


और फिर साल 2006 में आई राकेश ओमप्रकाश मेहरा निर्मित व निर्देशित आमिर ख़ान की फ़िल्म 'रंग दे बसन्ती', जो भगत सिंह के बलिदान का एक नया संस्करण था, आज की युवा पीढ़ी के नज़रिए से। फ़िल्म बेहद कामयाब रही। ए. आर. रहमान के संगीत में फ़िल्म के सभी गीत बेहद मशहूर हुए। जिस तरह से भगत सिंह की कहानी का यह एक नया संस्करण था, ठीक वैसे ही इस फ़िल्म में "मेरा रंग दे बसन्ती चोला" को भी एक नया जामा पहनाया गया। जामा पहनाने वाले गीतकार प्रसून जोशी "थोड़ी सी धूल मेरी, धरती की मेरे वतन की, थोड़ी सी ख़ुशबू बौराई सी मस्त पवन की, थोड़ी से धोंकने वाली धक धक धक साँसे, जिनमें हो जुनूं जुनूं वो बूंदे लाल लहू की, ये सब तू मिला मिला ले, फिर रंग तू खिला खिला ले, और मोहे तू रंग दे बसन्ती यारा, मोहे तू रंग दे बसन्ती"।


आपकी बात

’चित्रकथा’ के पिछले अंक में हमने गीतकार शकील बदायूंनी के लिखे प्रसिद्ध फ़िल्मी होली गीतों की चर्चा की थी। इसके संदर्भ में हमारे पाठक प्रवीण गुप्ता जी ने कहा है, "शकील बदायूंनी तो भारत की आत्मा को पहचानते थे और उसके गुण गाते रहे। ये वो महान गीतकार थे जिन्हें शासन की ओर से उचित प्रतिष्ठा अभी तक नहीं मिली।" प्रवीण जी, आपका बहुत बहुत आभार इस टिप्पणी के लिए। और इस अंक की अब तक की कुल रीडरशिप 140 है, और आप सभी को हमारा धन्यवाद। आगे भी बने रहिए ’चित्रकथा’ के साथ।


आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!





शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Kavya sarita said…
बड़ा ही गहरा दाग है यारों जिसका ग़ुलामी नाम है
उसका जीना भी क्या जीना जिसका देश ग़ुलाम है
सीने में जो दिल था मेरा आज बना है शोला
मेरा रंग दे बसंती चोला ...
Pankaj Mukesh said…
Prastut lekh dwara aaagami shaheed diwas 23 march 2017 par desh ke 3 veer legend ko sachhi shradhaanjali !!! Amar Shaheed !!!

"बड़ा ही गहरा दाग है यारों जिसका देश ग़ुलाम है
वो जीना भी क्या जीना है अपना देश ग़ुलाम है
सीने में जो दिल था यारों आज बना है शोला
मेरा रंग दे बसंती चोला ..."

kya uparokt panktiyaan manoj kumar, prem chopda abhineet film shaheed-1965 ke geet mera rang de basanti chola ke liye record kiya gaya tha ?
kripaya jaaankaari dene ka kasht karein.
Pankaj Mukesh said…
upyukt panktiyaan mahendra kapoor ji ki aawaa mein hi gungunate huwe clip ke roop mein film mein suna ja sakata hai....

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