एक गीत सौ कहानियाँ - 100 (अंतिम कड़ी)
'जब प्यार किया तो डरना क्या...'
रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारी ज़िन्दगियों से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तंभ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 100-वीं कड़ी में आज जानिए 1960 की कालजयी फ़िल्म ’मुग़ल-ए-आज़म’ के मशहूर गीत "प्यार किया तो डरना क्या...” के बारे में जिसे लता मंगेशकर ने गाया था। बोल शिव शक़ील बदायूंनी के और संगीत नौशाद का।
फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी किस्से-कहानियाँ सुनाते हुए आज हम आ पहुँचे हैं ’एक गीत सौ कहानियाँ’ स्तंभ के 100-वें पड़ाव पर। और यहाँ पहुँच कर रुकती है यह कारवाँ। ’एक गीत सौ कहानियाँ’ के इस सीज़न का यही है समापन अंक। आप सभी ने इस सफ़र में हमारा पूरा-पूरा साथ दिया, इस मंज़िल तक हमने साथ-साथ सफ़र तय किया, इसके लिए हम आप सभी पाठकों के आभारी हैं। इस सीज़न के इस अन्तिम अंक को ख़ास बनाने के लिए हम लेकर आए हैं एक बहुत ही ख़ास गीत। यह उस फ़िल्म का गीत है जो हिन्दी फ़िल्म इतिहास के 10 सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में गिना जाता है। और यह वह गीत है जो फ़िल्म-संगीत इतिहास के 10 सर्वश्रेष्ठ रोमान्टिक गीतों में गिना जाता है। यह फ़िल्म है ’मुग़ल-ए-आज़म’ और यह गीत है “प्यार किया तो डरना क्या...”।
‘मुग़ल-ए-आज़म' 1960 की सर्वाधिक चर्चित फ़िल्म। के. आसिफ़ निर्देशित इस महत्वाकांक्षी फ़िल्म की नीव सन् 1944 में रखी गयी थी। दरसल बात ऐसी थी कि आसिफ़ साहब ने एक नाटक पढ़ा। उस नाटक की कहानी शहंशाह अकबर के राजकाल के पार्श्व में लिखी गयी थी। कहानी उन्हें अच्छी लगी और उन्होंने इस पर एक बड़ी फ़िल्म बनाने की सोची। लेकिन उन्हें उस वक़्त यह अन्दाज़ा भी नहीं हुआ होगा कि उनके इस सपने को साकार होते 16 साल लग जायेंगे। 'मुग़ल-ए-आज़म' अपने ज़माने की बेहद महंगी फ़िल्म थी। एक एक गीत के सीक्वेन्स में इतना खर्चा हुआ कि जो उस दौर के किसी पूरी फ़िल्म का खर्च होता था। नौशाद के संगीत निर्देशन में भारतीय शास्त्रीय संगीत व लोक संगीत की छटा लिए इस फ़िल्म में कुल 12 गीत थे जिनमें आवाज़ें दी उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ, लता मंगेशकर, शम्शाद बेग़म और मोहम्मद रफ़ी। हिन्दी फ़िल्म संगीत के इतिहास का यह एक स्वर्णिम अध्याय रहा। यहाँ तक कि इस फ़िल्म के सर्वाधिक लोकप्रिय गीत "प्यार किया तो डरना क्या" को शताब्दी का सबसे रोमांटिक गीत का ख़िताब भी दिया गया था।
नौशाद साहब के ज़बान से 'मुग़ल-ए-आज़म' के साथ जुड़ी उनकी यादों के उजाले पेश हैं, नौशाद साहब की ये
बातें हमें प्राप्त हुईं हैं विविध भारती के 'नौशाद-नामा' कार्यक्रम के ज़रिए - "मुझे एक क़िस्सा याद है, इसी घर में (जहाँ उनका यह 'इंटरव्यू' रिकार्ड हुआ था) छत पर एक कमरा है। एक दिन मैं वहाँ बैठकर अपनी आँखें बंद करके फ़िल्म 'अमर' का एक गाना बना रहा था। ऐसे में के. आसिफ़ वहाँ आये और नोटों की एक गड्डी, जिसमें कुछ 50,000 रुपय थे, उन्होंने मेरी तरफ़ फेंका। यह अगली फ़िल्म के लिए 'अडवांस' था। मेरा सर फिर गया और उन पर चिल्लाया, "यह आपने क्या किया, आपने मेरा सारा काम ख़राब कर दिया, आप अभी ये पैसे उठाकर ले जायो और ऐसे किसी आदमी को दे दो जो पैसों के बग़ैर काम नहीं करता हो।" थोड़ी देर के बाद आसिफ़ साहब कहने लगे कि मैं 'मुग़ल-ए-आज़म' बनाने जा रहा हूँ। मैंने कहा, "कोई भी आज़म बनाइए, मैं आपके साथ हूँ क्युंकि आपका और हमारा उस वक़्त का साथ है जब दादर पर हम इरानी होटल में एक कप चाय आधी आधी पीते थे"। हमने कहा कि "हमारा आपका साथ उस वक़्त का है, क्या आप ये पैसे नहीं देंगे तो मैं काम नहीं करूँगा?" वो नीचे गये और मेरी पत्नी से कहा कि "अरे, वो उपर छत पर नोट फेंक रहे हैं।" वो मेरी पतनी को उपर ले आये और ज़मीन पर फैले नोटों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, "मैनें दिया था उनको 'अडवांस', वो रखे नहीं"। तब मैने कहा, "देखिए, यह आप रखिए पैसे अपने, आप बनाइए, मैं आपके साथ हूँ, ख़ुदा आपको कामयाबी दे"। फिर वह फ़िल्म बनी, और बहुत सारे साल गुज़र गये इस फ़िल्म के बनते बनते। यह वही घर है जहाँ उस फ़िल्म की मीटिंग वगेरह हुआ करती थी। आख़िर में 'मुग़ल-ए-आज़म' बनकर तय्यार हो गयी।"
शकील, लता और नौशाद |
अब ज़रा इस गीत को गानेवालीं सुरकोकिला लता मंगेशकर की भी राय जान लें इस गीत के बनने की कहानी के बारे में। अभी हाल में जब IBN7 TV Channel वालों ने एक मुलाक़ात में लताजी से पूछा:
"60 के दशक की बात करें तो एक फ़िल्म जिसे हम नज़रंदाज़ नहीं कर सकते, 'मुग़ल-ए-आज़म'। वह एक गाना, जो आज भी लोगों को उतना ही 'हौंटिंग फ़ीलिंग' देता है, लोग कहते हैं कि 'रोंगटे खड़े हो जाते हैं उस गाने को सुनकर', 'प्यार किया तो डरना क्या'। गाना बहुत ही 'लीजेन्डरी' है, कहते हैं कि नौशाद साहब ने आपको बाथरूम मे वह गाना गवाया था, बताइए क्या यह सच है?"
सवाल सुनते ही लताजी के साथ साथ सभी दर्शक ज़ोर से हँस पड़े, और फिर लताजी ने जवाब दिया - "नहीं, बाथरूम मे नहीं गवाया था, वह गाना जब हमने रिकार्ड किया, तो 'लास्ट लाइन' उनको 'रिपीट' करनी थी 'इको इफ़ेक्ट' के लिए। पर 'इको इफ़ेक्ट' तब ऐसे नहीं आता था, किसी मशीन से नहीं आता था। तो मुझे उन्होने दूसरे कमरे में खड़ा किया था, और वहाँ से मैने गाया, थोड़ा नज़दीक जाके गाया, मतलब, वही सर्कस ही चलता रहा, यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ, इस तरह से उन्होंने रिकार्ड किया था।"
बाथरूम में नहीं गवाया था?
(हँसते हुए), जी नहीं, बाथरूम में नहीं गवाया था।
“जब प्यार किया तो डरना क्या...” गीत के दो पैरोडी संस्करण भी बने हैं, ऐसा शायद ही किसी और गीत के साथ हुआ हो। पहला गीत है मन्ना डे का गाया हुआ 1967 की फ़िल्म ’राज़’ का गीत “जब प्यार किया तो मरना क्यों, अरे प्यार किया कोई जंग नहीं की, छुरियों से फिर लड़ना क्यों”। यह गीत आइ.एस. जोहर पर फ़िल्माया गया था और हास्य रस में डुबो कर इसे पेश किया गया। गीत के बोलों के लिए कमर जलालाबादी और संगीत के लिए कल्याणजी-आनन्दजी को भले ही क्रेडिट दिया गया है, पर बोल और संगीत, दोनों के लिहाज़ से यह गीत मूल गीत से 90% मिलता-जुलता है। दूसरा पैरोडी बना 1970 में, फ़िल्म थी ’रातों का राजा’। इस फ़िल्म में गीतकार राजेश नाहटा और संगीतकार राहुल देव बर्मन ने शम्शाद बेगम और महेन्द्र कपूर से गवाया था “जब प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई दारु नहीं पी, छुप-छुप प्याले भरना क्या”। यह भी हास्य रस आधारित गीत है जो वैशाली और राजेन्द्र नाथ पर फ़िल्माया गया। इस गीत का संगीत पूर्णत: मूल गीत की धुन पर ही है, पर बोल नए हैं, जिसे सही मायने में पैरोडी कहते हैं।
ख़ैर यह तो रही पैरोडी की बातें, लेकिन आज हम सुनेंगे मूल गीत। आइए सुनते हैं यह कालजयी रचना और ’एक गीत सौ कहानियाँ’ स्तंभ को फ़िलहाल यहीं समाप्त करने की दीजिए मुझे इजाज़त, नमस्कार!
आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र
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