चित्रशाला - 04
फ़िल्म-संगीत में मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें
1931 में 'इम्पीरियल मूवीटोन' नें पहली बोलती फ़िल्म ‘आलम आरा’ का निर्माण कर इतिहास रच दिया था। इसी कम्पनी की 1931 की एक और फ़िल्म थी 'अनंग सेना' जिसमें मास्टर विट्ठल, ज़ोहरा, ज़िल्लो, एलिज़र, हाडी, जगदीश और बमन ईरानी ने काम किया। फ़िल्म में अनंग सेना की भूमिका में ज़ोहरा और सुनन्दन की भूमिका में हाडी ने अभिनय व गायन किया। फ़िल्म में दो ग़ालिब की ग़ज़लें शामिल थीं – “दिले नादां तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है” और “दिल ही तो है न संगो-खिश्त, दर्द से भर न आए क्यूं”। इस तरह से ग़ालिब की ग़ज़लें बोलती फ़िल्मों के पहले साल ही फ़िल्मों में प्रवेश कर गया। हाडी अभिनेता और गायक होने के साथ साथ एक संगीतकार भी थे और ग़ालिब की इन ग़ज़लों को उन्होंने ही कम्पोज़ किया था। १९४३ की 'बसन्त पिक्चर्स' की फ़िल्म ‘हण्टरवाली की बेटी’ में छन्नालाल नाइक का संगीत था, इस फ़िल्म में ख़ान मस्ताना ने ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल “दिले नादां तुझे हुआ क्या है” को गाया जिसे ख़ूब सफलता मिली थी।
Jaddanbai |
Saigal |
A scene from Mirza Ghalib (1954) |
१. आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक (सुरैया)
२. दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है (तलत-सुरैया)
३. है बस कि हर एक उनके इशारे में निशां और करते हैं मुहब्बत (रफ़ी)
४. इश्क़ मुझको न सही वहशत ही सही (तलत)
५. नुक्ताचीं है ग़म-ए-दिल (सुरैया)
६. फिर मुझे दीद-ए-तर याद आया (तलत)
७. रहिए अब ऐसी जगह चलकर (सुरैया)
८. ये न थी हमारी क़िस्मत (सुरैया)
Gulzar |
ग़ालिब की एक बेहद मशहूर शेर है "इश्क़ पर ज़ोर नहीं, है यह वह आतिश ग़ालिब, कि लगाये ना लगे और बुझाये ना बने"। इस शेर का सहारा समय-समय पर फ़िल्मी गीतकारों ने लिय अपने गीतों को सजाने-सँवारने के लिए। उदाहरण स्वरूप, 1981 की फ़िल्म ’एक दूजे के लिए’ के मज़ेदार गीत "हम बने तुम बने एक दूजे के लिए" में एक पंक्ति है "इश्क़ पर ज़ोर नहीं ग़ालिब ने कहा है इसीलिए, उसको क़सम लगे जो बिछड़ के एक पल भी जिये..."। इसके गीतकार थे आनन्द बक्शी। वैसे बक्शी साहब ने इस गीत से 10 साल पहले, 1970 में, फ़िल्म ’इश्क़ पर ज़ोर नहीं’ के शीर्षक गीत में भी इस जुमले का इस्तमाल किया और ख़ूबसूरत गीत बना "सच कहती है दुनिया इसक पे जोर नहीं, यह पक्का धागा है यह कच्ची डोर नहीं, कह दे कोई और है तू मेरा चितचोर नहीं, जो थम जाए वो ये घटा घनघोर नहीं, इस रोग की दुनिया में दवा कुछ और नहीं..."। 1995 की फ़िल्म ’तीन मोती’ में नवाब आरज़ू के कलम से निकले "इश्क़ पे कोई ज़ोर चले ना ना कोई मनमानी, फँस गई मैं तो प्रेम भँवर में अब क्या होगा जानी"। इस तरह से ग़ालिब की ग़ज़लें हर दौर में फ़िल्मों में आती रही हैं। कुछ तो है इन ग़ज़लों में कि इतने पुराने होते हुए भी आज की पीढ़ी को पसन्द आते हैं। दरसल ये कालजयी रचनाएँ हैं जिन पर उम्र का कोई असर नहीं। ग़ालिब नें जैसे लिखा था कि "आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक", ठीक वैसे ही इन ग़ज़लों का असर सदियों तक यूंही बना रहेगा।
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