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"करोगे याद तो हर बात याद आएगी..." - आज यादें बशर नवाज़ के इस ग़ज़ल की

सभी पाठकों और श्रोताओं को ईद मुबारक



एक गीत सौ कहानियाँ - 63
 

'करोगे याद तो हर बात याद आएगी...' 




रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 64-वीं कड़ी में आज श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं जानेमाने शायर बशर नवाज़ को उनकी लिखी ग़ज़ल "करोगे याद तो हर बात याद आएगी..." के ज़रिए। बशर नवाज़ का हाल ही में निधन हो गया है। 

त 9 जुलाई 2015 को उर्दू के जानेमाने शायर बशर नवाज़ का महाराष्ट्र के औरंगाबाद में इन्तकाल हो गया है। फ़िल्मे संगीत की दुनिया में 79 वर्षीय बशर नवाज़ को 1982 की फ़िल्म ’बाज़ार’ के लिए लिखी उनकी ग़ज़ल "करोगे याद तो हर बात याद आएगी..." के लिए याद किया जाता रहेगा। इसके अलावा ’लोरी’, ’जाने वफ़ा’ और ’तेरे शार में’ जैसी फ़िल्मों के लिए भी उन्होंने गाने लिखे और उनकी गीतों व ग़ज़लों को आवाज़ देनेवाली आवाज़ों में शामिल हैं लता मंगेशकर, आशा भोसले, मोहम्मद रफ़ी, ग़ुलाम अली, भूपेन्द्र और तलत अज़ीज़। बशर नवाज़ ने कई रेडियो नाटक लिखे और दूरदर्शन के मशहूर धारावाहिक ’अमीर ख़ुसरो' की पटकथा भी लिखी। फ़िल्म और टेलीविज़न की दुनिया के बाहर बशर नवाज़ एक उम्दा शायर और आलोचक भी थे। समकालीन शायर निदा फ़ाज़ली का कहना है कि बशर नवाज़ हमेशा उनके समकालीन शायरों की रचनात्मक आलोचना के लिए जाने जाएँगे। 18 अगस्त 1935 को जन्मे बशर नवाज़ ने अपनी 80 साल की ज़िन्दगी में उर्दू साहित्य को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके इस योगदान के लिए उन्हें पुलोत्सव सम्मान से समानित किया गया है। साल 2010 में फ़िल्मकार जयप्रसाद देसाई ने ’ख़्वाब ज़िन्दगी और मैं’ शीर्षक से बशर नवाज़ की जीवनी पर एक फ़िल्म का निर्माण किया था। देसाई साहब का कहना है कि "बशर" शब्द का अर्थ है आम आदमी, और बशर नवाज़ वाक़ई आम आदमी के शायर थे जिनकी शयरी में आम आदमी की ज़िन्दगी का संघर्ष झलकता है। बशर नवाज़ बहुत ही नम्र स्वभाव के थे। एक बार तो गेटवे ऑफ़ इण्डिया पर एक कार्यक्रम के दौरान एक अशिक्षित ने उन्हें न पहचानते हुए उनसे उनकी पहचान पूछ ली, जबकि वो उस कार्यक्रम के केन्द्रबिन्दु थे।


और अब यादें "करोगे याद तो..." ग़ज़ल की। फ़िल्म ’बाज़ार’ में संगीतकार थे ख़य्याम। मुस्लिम सब्जेक्ट पर बनने वाली इस फ़िल्म के लिए यह तय हुआ कि इसके गीतों को फ़िल्मी गीतकारों से नहीं बल्कि उर्दू साहित्य के शायरों से लिखवाए जाएँगे। ख़य्याम साहब के शब्दों में, "वो हमारी फ़िल्म आपको याद होगी, बाज़ार! तो उसमें सागर सरहदी साहब हमारे मित्र हैं, दोस्त हैं, तो ऐसा सोचा सागर साहब ने कि ख़य्याम साहब, आजकल का जो संगीत है, उस वक़्त भी, बाज़ार के वक़्त भी, हल्के फुल्के गीत चलते थे। तो उन्होंने कहा कि कुछ अच्छा आला काम किया जाए, अनोखी बात की जाए! तो सोचा गया कि बड़े शायरों का कलाम इस्तेमाल किया जाए फ़िल्म संगीत में। तो मैं दाद दूँगा कि प्रोड्युसर-डिरेक्टर चाहते हैं कि ऊँचा काम, शायद लोगों की समझ में ना आए। लेकिन उन्होंने कहा कि आपने बिल्कुल ठीक सोचा है। तो जैसे मैं आपको बताऊँ कि मीर तक़ी मीर साहब, बहुत बड़े शायर, इतने बड़े कि मिर्ज़ा ग़ालिब साहब ने अपने कलाम में उनका ज़िक्र किया है कि वो बहुत बड़े शायर हैं। तो उनका कलाम हमने इस्तेमाल किया, "दिखाई दिए यूं..."। फिर मिर्ज़ा शौक़, एक मसनबी है ज़हर-ए-इश्क़, बहुत बड़ी है, एक किताब की शक्ल में, तो उसमें से एक गीत की शक्ल में, ज़हर-ए-इश्क़, "देख लो आज हमको जी भर के..."। फिर मख़्दुम मोहिउद्दीन, "फिर छिड़ी रात बात फूलों की...", यह उनकी बहुत मशहूर ग़ज़ल है।" मीर तक़ी मीर और मिर्ज़ा शौक़ 18 और 19 वीं सदी के शायर थे तो मख़्दुम मोहिउद्दीन भी 20-वीं सदी के शुरुआती सालों से ताल्लुक रखते थे। इन शायरों की ग़ज़लों के साथ अगर आज के दौर के किसी शायर की ग़ज़ल का शुमार किया जाए तो मानना पड़ेगा कि इस शायर में ज़रूर कोई बात होगी। फ़िल्म ’बाज़ार’ के चौथे शायर के रूप में चुना गया बशर नवाज़ को और उनकी ग़ज़ल "करोगे याद तो हर बात याद आएगी..." को फ़िल्म के एक सिचुएशन पर ढाल दिया गया। ख़य्याम साहब के शब्दों में, "बहुत मशहूर ग़ज़ल है बशर नवाज़ साहब की, और बहुत अच्छे शायर हैं, आज के शायर हैं, और भूपेन्द्र ने बहुत अच्छे अंदाज़ में गाया है इसे"। फ़िल्म ’बाज़ार’ के रिलीज़ के 13 साल बाद इस ग़ज़ल को एक बार फिर से ’सादगी’ नामक ऐल्बम में शामिल किया गया, जिसमें ख़य्याम साहब के साथ-साथ अन्य कई कम्पोज़र्स की ग़ज़लें शामिल हैं। आज बशर नवाज़ इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर चले गए हैं, पर उनकी याद हमें दिलाती रहेगी यह दिल को छू लेने वाली ग़ज़ल। उनकी कमी उर्दू साहित्य जगत को खलती रहेगी। "गली के मोड़ पे सूना सा कोई दरवाज़ा, तरसती आँखों से रास्ता किसी का देखेगा, निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी..."। बशर नवाज़ को श्रद्धासुमन। लीजिए यही ग़ज़ल आप भी सुनिए। 

फिल्म - बाज़ार : 'करोगे याद तो हर बात याद आएगी...' : भूपेन्द्र : संगीत - खय्याम : शायर - बशर नवाज़ 



अब आप भी 'एक गीत सौ कहानियाँ' स्तंभ के वाहक बन सकते हैं। अगर आपके पास भी किसी गीत से जुड़ी दिलचस्प बातें हैं, उनके बनने की कहानियाँ उपलब्ध हैं, तो आप हमें भेज सकते हैं। यह ज़रूरी नहीं कि आप आलेख के रूप में ही भेजें, आप जिस रूप में चाहे उस रूप में जानकारी हम तक पहुँचा सकते हैं। हम उसे आलेख के रूप में आप ही के नाम के साथ इसी स्तम्भ में प्रकाशित करेंगे। आप हमें ईमेल भेजें soojoi_india@yahoo.co.in के पते पर। 


खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग: कृष्णमोहन मिश्र 




Comments

Anita said…
सुमधुर गजल..
nayee dunia said…
meri pansdeeda gazal hai
वाकई...हर बात याद आ गई.....बहुत खूब..!

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