बातों बातों में - 02
फिल्म संगीतकार व वायलिनिस्ट जुगल किशोर से सुजॉय चटर्जी की बातचीत
"जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा..."
नमस्कार दोस्तों। हम रोज़ फ़िल्म के परदे पर नायक-नायिकाओं को देखते हैं, रेडियो-टेलीविज़न पर गीतकारों के लिखे गीत गायक-गायिकाओं की आवाज़ों में सुनते हैं, संगीतकारों की रचनाओं का आनन्द उठाते हैं। इनमें से कुछ कलाकारों के हम फ़ैन बन जाते हैं और मन में इच्छा जागृत होती है कि काश इन चहेते कलाकारों को थोड़ा क़रीब से जान पाते। काश, इनकी ज़िन्दगी के बारे में कुछ मालूमात हो जाती। काश, इनके फ़िल्मी सफ़र की दास्ताँ के हम भी हमसफ़र हो जाते। ऐसी ही इच्छाओं को पूरा करने के लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ने बीड़ा उठाया है फ़िल्मी कलाकारों से साक्षात्कार करने का। फ़िल्मी अभिनेताओं, गीतकारों, संगीतकारों और गायकों के साक्षात्कारों पर आधारित यह श्रॄंखला है 'बातों बातों में', जो प्रस्तुत होता है हर महीने के चौथे शनिवार के दिन। आज नवम्बर, माह के चौथे शनिवार के दिन प्रस्तुत है संगीतकार जुगल किशोर से सुजॉय चटर्जी के लम्बी बातचीत के सम्पादित अंश। जी हाँ, ये वही जुगल किशोर हैं जिन्होंने अपने भाई तिलक राज के साथ मिल कर हमे फ़िल्म 'भीगी पलकें' के वो दो अमर गीत दिए हैं - "जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा..." और "जब तक मैंने समझा जीवन क्या है, जीवन बीत गया..."। तो आइए स्वागत करते हैं संगीतकार जुगल किशोर का।
जुगल किशोर जी, नमस्कार और बहुत बहुत स्वागत है आपका 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के मंच पर।
नमस्कार और आपका बहुत बहुत शुक्रिया मुझे आमंत्रित करने का।
मैं बड़ा ही रोमांचित हो रहा हूँ यह सोच कर कि वह गीत जिसे बचपन से न जाने कितनी बार रेडियो पर सुना है, "जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा...", आज उसी गीत के संगीतकार से बातचीत कर रहा हूँ। बहुत ही ख़ुशी हो रही है।
बहुत बहुत शुक्रिया, मुझे भी उतनी ही ख़ुशी है कि आपने मुझे बोलने का मौका दिया और आज के इस दौर में भी मुझे याद रखा।
जुगल किशोर जी, बातचीत का सिलसिला मैं शुरू करना चाहूँगा इस सवाल से कि क्या संगीत आपको विरासत में ही मिला था?
जी हाँ, हमारा पूरा परिवार ही संगीत से जुड़ा हुआ रहा है। मेरे दादाजी थे मास्टर तुलसीदास, जो कि 'कलकत्ता थिएट्रिकल कम्पनी में एक संगीतकार के हैसियत से काम करते थे। वहाँ उन्होंने कई नाटकों में संगीत दिया जैसे कि 'राजा हरिशचन्द्र', 'कृष्ण सुदामा', 'दिल की प्यास', 'देवर-भाभी' इत्यादि। उसके बाद उन्होंने प्राइवेट म्यूज़िक कम्पनी 'Durgadas & Sons Records Company' में राजस्थानी गीतों के कई रेकॉर्ड्स बनाए। एक संगीतकार होने के साथ-साथ वो एक शास्त्रीय गायक भी थे। जोधपुर में उनके बहुत से शिष्य थे।
वाह, अच्छा, आपके पिताजी भी संगीत जगत में आए?
जी हाँ, पिताजी ने मेरे दादाजी से ही संगीत की तालिम ली और उन्हीं के संगीत निर्देशन में 'Durgadas & Sons Records Company' में गाने गाये जिनके ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स बने। उसके बाद वो भी उसी रेकॉर्ड कम्पनी में संगीतकार भी बने, दादाजी की तरह।
आपने अपने पिताजी का नाम नहीं बताया।
पण्डित शिवराम।
वही पण्डित शिवराम कृष्ण, जिन्होंने बहुत सारी हिन्दी फ़िल्मों में भी संगीत दिया है?
जी हाँ, जैसे कि 'तीन बत्ती चार रास्ता', 'सती अनुसूया', 'रंगीला राजा', 'सती नारी', 'दूर्गा पूजा', 'ऊँची हवेली', 'कण कण में भगवान', 'श्रवण कुमार', 'वीर बजरंग', 'श्री राम-भरत मिलाप', 'गौरी शंकर', 'सुरंग', 'बद्रीनाथ यात्रा', 'महासती बेहुला', 'रफ़्तार', 'सम्पूर्ण तीर्थयात्रा', 'जय अम्बे', 'माया कादम', 'फूल और कलियाँ', 'काले गोरे', वगेरह। माइथोलोजिकल फ़िल्मों में ख़ास तौर से उन्होंने संगीत दिया और उनकी ख़ास पहचान बन गई थी। राजस्थानी फ़िल्म 'बाबा रामदेव' में उनका दिया संगीत ख़ूब चला था, ख़ास कर महेन्द्र कपूर का गाया "खम्मा खम्मा ओ धनिया...", जिसकी धुन का उन्होंने फिर एक बार 'कण कण में भगवान' फ़िल्म में इस्तेमाल किया सुमन कल्याणपुर की आवाज़ में "अपने पिया की मैं तो बनी रे जोगनिया..."। उनकी अन्य राजस्थानी फ़िल्मों में उल्लेखनीय हैं 'बाबासा री लाडली', 'धनी लुगाई', 'नानीबाई को माइरो', 'गणगौर', 'गोगाजी पीर', 'गोपीचन्द भारथरी'।
बहुत खूब, जुगल किशोर जी, यह तो थी आपके दादाजी और पिताजी का परिचय। यह बताइए कि आपकी पैदाइश कहाँ की है?
मेरा जन्मस्थान है जोधपुर, राजस्थान और मेरा जन्म हुआ था 28 अगस्त 1947 की रात।
यानी देश के स्वाधीन होने के ठीक 13 दिन बाद?
जी हाँ, बिल्कुल, आज़ाद भारत में मेरा जन्म हुआ। आज़ादी से पहले मेरे पिताजी लाहौर में रहते थे।
अच्छा, फिर तो बँटवारे का वह ख़ौफ़नाक मंज़र उन्होंने भी देखा होगा?
जी, वैसे उनका जन्म जोधपुर में ही हुआ था। 16 वर्ष की आयु में उनकी संगीत यात्रा उस समय शुरू हुई जब जोधपुर के राजकुमार उमेद सिंह के दरबार में उन्हें संगीतकार की नौकरी मिली। उसके बाद वो लाहौर चले गए थे और वहाँ पर पण्डित अमरनाथ और मास्टर ग़ुलाम हैदर जैसे दिग्गज संगीतकारों की छत्र-छाया में काम करने लगे। देश विभाजन के बाद वो भारत वापस चले आए और लखनऊ में HMV के लिए काम करने लगे। यह बात है सन् 1948 से 1950 के बीच की। 1950 में वो बम्बई चले आए एक स्वतंत्र संगीतकार बनने की चाह लिए। वी. शान्ताराम जी ने उन्हें दो फ़िल्मों में संगीत देने का मौका दे दिया, ये फ़िल्में थीं 'तीन बत्ती चार रास्ता' और 'सुरंग'। दोनों ही फ़िल्में हिट हुई और सिल्वर जुबिली मनाई। 1953 में उनकी पहली फ़िल्म 'तीन बत्ती चार रास्ता' जब रिलीज़ हुई तब हम सब, यानी हमारा परिवार, बम्बई आ गया और हम सब बम्बई में सेटल हो गए। उस वक़्त मैं पाँच साल का था।
इसका मतलब आप बम्बई (अब मुम्बई) में ही पले बढ़े?
जी हाँ, मुम्बई में पला-बढ़ा, शिक्षा, सब कुछ। संगीत की शिक्षा भी यहीं पर, पहले पिताजी से, फिर वायलिन सीखा गुरू बाबा रामप्रसादजी शर्मा से, महान संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल के प्यारेलाल जी के पिता थे।
जी हाँ, और कहा जाता है कि वो बिल्कुल फ़्री में सबको वायलिन सिखाते थे। क्या यह सच है?
बिल्कुल सच बात है!
अच्छा जुगल किशोर जी, आपने बताया कि पाँच वर्ष की आयु में आप मुम्बई आए और फिर अपने पिताजी से संगीत सीखा। पर संगीत का पहला पाठ आपने कब और किनसे सीखा था?
अपने दादीमाँ से। उनका नाम है श्रीमती हरियन देवी से। वो मुझे रोज़ हारमोनियम और गायन सिखाती थी जब मैं तीन साल का था। वहीं से मेरा संगीत से साथ नाता बना।
दादाजी, दादीमाँ और पिताजी, इन तीनों का आपकी संगीत यात्रा में हाथ रहा है। अपनी माताजी के बारे में भी कुछ बताइए। क्या योगदान रहा है उनका आपके जीवन में, आपके करीयर में?
मेरी माताजी श्रीमती सीतादेवी शिवराम एक गृहवधु थीं और उन्हें संगीत सुनने का शौक था। उन्हीं की वजह से हम लोग मुम्बई में सेटल हो सके हैं। उन्होंने ही पिताजी को कहा था कि वापस जोधपुर न जाकर मुम्बई में ही हमें रहना चाहिए, अगर रोज़ी-रोटी ना भी मिले तो भी हम यहीं रह कर संघर्ष करेंगे। उनका यह अटल विश्वास, उनकी इस तपस्या और बलिदान की वजह से ही हमारा परिवार फला-फूला।
जुगल किशोर जी, प्रोफ़ेशनली आपका करीयर कब और कहाँ से शुरू हुआ?
14 साल की उम्र में, जैसा कि मैंने शुरू शुरू में बताया कि मैं अपने पिताजी के साथ काम करता था, तो शुरू में उनके फ़िल्मी गानों में रिदम प्लेअर और साइड रिदम जैसे कि मँजीरा, कब्बास, कांगो आदि बजाया करता था। उसके बाद मैं ऑरकेस्ट्रा में वायलिन बजाने लगा। साल 1964 में मैंने 'बॉलीवूड सिने म्युज़िशियन्स ऐसोसिएशन' में शामिल हो गया। मेरी पहली रेकॉर्डिंग संगीतकार उषा खन्ना जी के लिए था।
वह कौन सा गीत था कुछ याद है आपको?
दरसल मैं उस समय सिर्फ़ 17 साल का था, और अब बस इतना ही याद है कि वह रेकॉर्डिंग तारदेव रेकॉर्डिंग सेन्टर में हुई थी। उस पहले गीत की रेकॉर्डिंग के वक़्त मैं 50 म्युज़िशियन के बीच बैठ कर बेहद नर्वस हो गया था। पर दूसरे ही गीत से मैं कॉनफ़िडेन्ट हो गया था कि मैं एक बड़े ऑरकेस्ट्रा में वायलिन बजा सकता हूँ।
कौन सा था वह दूसरा गीत?
दूसरी रेकॉर्डिंग थी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के साथ, गाना था फ़िल्म 'दिल्लगी' का, लता मंगेशकर का गाया हुआ, "क्या कहूँ आज क्या बात है..."। फिर तीसरा मेरे पिता पण्डित शिवराम के साथ, फ़िल्म 'महासती बेहुला', गायक महेन्द्र कपूर। और उसके बाद तो उस दौर के सभी नामी संगीतकारों के साथ काम किया जैसे कि शंकर जयकिशन, सी. रामचन्द्र, मदन मोहन, नौशाद, एस. डी. बर्मन, आर. डी. बर्मन, और यहाँ तक कि आज के दौर के संगीतकारों के लिए भी वायलिन वादक का काम कर रहा हूँ।
बहुत ख़ूब, यह तो रही बात एक साज़िन्दे की, एक वायलिन वादक की। यह वायलिन वादक एक फ़िल्म संगीतकार कब और कैसे बना?
यह सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ गीतकार एम. जी. हशमत के ज़रिए। फ़िल्म थी 'भीगी पलकें'। हशमत जी ने हमें ओड़िसा के प्रोड्युसर के. के. आर्या और निर्देशक शिशिर मिश्र से मिलवाया, जो अपनी फ़िल्म के लिए एक नए संगीतकार की तलाश कर रहे थे। मैंने और तिलकराज ने उन्हें अपने म्युज़िक रूम में आमन्त्रित किया और जितने भी कम्पोज़िशन्स हमने बनाए हुए थे, एक एक कर सब उन्हें सुनाया। इन कम्पोज़िशन्स में "जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा" की धुन भी शामिल थी। जैसे ही यह धुन हमने गा कर सुनाई, तो सबने हमें वहाँ रोका और कहा कि हमें यह धुन पसन्द आई और यह हम इसे अपनी फ़िल्म में रखेंगे। प्रोड्युसर साहब ने हमसे पूछा कि क्या आप लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी को इस गीत को गाने के लिए राज़ी करवा सकते हैं, तो मैंने और हशमत जी ने कहा कि जी हाँ। फिर हशमत जी ने गीत के बोल लिखे और फ़िल्म का थीम सांग भी लिखा "जब तक मैंने समझा जीवन क्या है..."। इस गीत को मैंने एक ही दिन में कम्पोज़ कर लिया था। 10 दिसम्बर 1979 के दिन 'मेहबूब स्टुडियो' में इस गीत की रेकॉर्डिंग हुई थी, मुझे यह अब तक याद है।
'भीगी पलकें' के ये दोनों गीत सदाबहार है इसमें कोई संदेह नहीं है, और एक तरह से जुगल किशोर - तिलक राज की पहचान भी है। अच्छा तिलक राज जी के बारे में बताइए। इनके साथ जोड़ी कैसे बनी?
तिलक राज तो मेरा ही छोटा भाई है। बचपन से ही हम दोनों साथ में संगीत की चर्चा भी करते थे और साथ ही में बजाते भी थे। अपने स्कूल के वार्षिक दिवस के कार्यक्रम के लिए दोनों साथ में मिल कर नए गाने कम्पोज़ करते थे और स्टेज पर साथ में गाते थे। हमने अपना ऑरकेस्ट्रा भी बनाया था 'जयश्री ऑरकेस्ट्रा' के नाम से। जयश्री मेरी छोटी बहन है। आपने जयश्री शिवराम का नाम सुना होगा जो एक प्लेबैक सिंगर रही है।
जी बिल्कुल सुना है। 'रामा ओ रामा' फ़िल्म का शीर्षक गीत मुझे याद है उन्होंने ही गाया था। अच्छा आप कितने भाई बहन हैं?
हम लोग आठ भाई बहन हैं और सभी के सभी फ़िल्म इंडट्री से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं। मैं वायलिनिस्ट, कम्पोज़र और सिंगर, तिलक राज कम्पोज़र और सिंगर, मुकेश शिवराम एक सिंगर है, भगवान शिवराम एक रिदम प्लेयर, पूर्णिमा परिहार एक सिंगर, नवीन शिवराम एक कीबोर्ड प्लेयर तथा जयश्री शिवराम व निशा चौहान सिंगर्स हैं। इस तरह से तीन पीढ़ियों से हमारा परिवार संगीत की सेवा में लगा हुआ है।
वाकई संगीत जगत में उल्लेखनीय योगदान है आपने परिवार का। जुगल किशोर जी, बात चली थी फ़िल्म 'भीगी पलकें' की, उसके ये दो यादगार गीतों की। तो हम और ज़रा डिटेल में जानना चाहेंगे इन दोनों गीतों के बारे में। तो पहले गीत "जनम जनम का साथ है..." की रेकॉर्डिंग से जुड़ी कोई बात हो, कोई यादगार घटना हो तो हमें बताइए?
बात ऐसी थी कि मुझे इस फ़िल्म के सभी गीतों को 1979 के दिसम्बर के महीने में रेकॉर्ड कर लेने का निर्देश मिला हुआ था। पर लता दीदी ने कहा कि उस समय तो वो लन्दन के शो में बिज़ी रहेंगी। इस वजह से हमें 10 अप्रैल 1980 तक रुकना पड़ा। लता जी वापस आईं और तब जाकर गाना रेकॉर्ड हुआ। उधर रफ़ी साहब इतने प्यारे थे कि उन्होंने हमें बता रखा था कि लता जी जैसे ही मेहबूब स्टुडियो पहुँचे, मुझे फ़ोन कर देना, मैं बाकी सब काम छोड़ कर वहाँ तुरन्त पहुँच जाऊँगा। और उन्होंने वैसा ही किया। वो मेरी रेकॉर्डिंग को 1 बजे पूरा करके ही आर. डी. बर्मन के रेकॉर्डिंग पर गए।
लता जी और रफ़ी साहब से अपनी पहली ही फ़िल्म में गाना गवा रहे थे आप। आपको डर नहीं लगा, नर्वस नहीं हुए?
मैं नर्वस तो नहीं था पर टेन्स ज़रूर था क्योंकि एक ही सेशन में मुझे दो दो गाने रेकॉर्ड करने थे। एक हैप्पी और एक सैड वर्ज़न जो लता दीदी का सोलो था "जनम जनम का साथ है तुम्हारा हमारा, जीवन साथी बन कर तूने हमसे किया किनारा..."। जैसा कि मैंने बताया दोपहर 1 बजे तक लता-रफ़ी डुएट रेकॉर्ड हो गया था, और लता जी का यह सैड वर्ज़न 1 से 2 बजे की बीच में ही रेकॉर्ड कर लिया गया। सब सही सही हो गया। और जहाँ तक लता दीदी या रफ़ी साहब से डरने वाली बात है तो ऐसा बिल्कुल नहीं था क्योंकि बहुत छोटे उम्र से ही मैं अपने पिताजी के साथ रिहर्सल्स पर जाया करता था जहाँ मुझे लता जी और रफ़ी साहब बैठे मिलते थे। मैं उनके घरों में भी गया, और वो मुझे पहचानते थे शिवराम जी के बेटे के रूप में। इसलिए जब मैं म्युज़िक डिरेक्टर बना तो दोनों ने मेरी मदद की और हौसला बढ़ाया, आशीर्वाद दिया।
अच्छा! अब किशोर दा वाले गीत के बारे में भी कुछ बताइए?
किशोर दा को गीत "जब तक मैं यह समझा जीवन क्या है..." की धुन इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने कहा कि सिंगिंग केबिन की सारी लाइट्स ऑफ़ कर दी जाए और सिर्फ़ एक डिम लाइट ही ऑन रखी जाए ताकि वो गीत के बोलों को पढ़ सके। उनका यह अनुरोध मुझे कुछ अजीब सा लगा, इसलिए मैं उनसे पूछ ही बैठा कि किशोर दा, आपने यह अँधेरा क्यों करवा दिया स्टुडियो में? तो उन्होंने कहा कि यह जो गीत है "जब तक मैंने समझा जीवन क्या है, जीवन बीत गया..." इसका माहौल बनाने के लिए यह अँधेरा करवाया है। और उन्होंने उस अँधेरे में खड़े हो कर पूरा गीत रेकॉर्ड किया मेहबूब स्टुडियो में। रेकॉर्डिंग हो जाने के बाद किशोर दा ने हमें बहुत आशीर्वाद दिया, उन्हें यह गीत बहुत ही अच्छा लगा और उनके दिल को छू लिया था।
वाह! और क्या मास्टरपीस बना! अच्छा जुगल किशोर जी, 'भीगी पलकें' के बाद आपके संगीत से सजी कौन कौन सी फ़िल्में आईं?
'समय की धारा', 'तेरे बिना क्या जीना', 'सुलगते अरमान', 'लाखा', 'बिरजू', 'हम दहेज लाए हैं', 'ननद भौजाई', 'करमाबाई', 'गौरी', 'बिननी वोट देने चली', 'मेहन्दी रच्या हाथ', 'म्हारी अक्खा तीज', 'लाडलो'। ये सब हिन्दी और राजस्थानी फ़िल्में थीं। फिर एक ओड़िया फ़िल्म 'बस्त्राहरण' में भी मैंने संगीत दिया। कुछ ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम्स भी किए जैसे कि 'जय श्री राम' और 'मैया का दरबार'। और आजकल अमिताभ बच्चन के जीवन पर आधारित एक ऐल्बम बना रहे हैं जिसका शीर्षक है 'कभी हम जुदा न होंगे'। 'समय की धारा' में मैंने अपनी बहन जयश्री शिवराम को गवाया था किशोर दा के साथ।
जी, और इस फ़िल्म में आशा जी का गाया एक गीत था "प्यार तो किया प्यार की प्यास रह गई, टूटे दिल में क्यों मिलन की आस रह गई...", यह गीत मुझे बहुत पसन्द है, बहुत ही सुन्दर बोल हैं और कम्पोज़िशन भी बहुत ही सुन्दर है।
शुक्रिया! इस फ़िल्म के गाने भी एम. जी. हशमत जी के ही लिखे हुए हैं।
"प्यार तो किया प्यार की प्यास रह गई, टूटे दिल में क्यों मिलन की आस रह गई...", क्या आपके दिल में भी यह ख़याल आया कि आपने फ़िल्मों में अच्छा संगीत तो दिया पर बड़ी कामयाबी की आस रह गई? मेरा मतलब है कि 'भीगी पलकें' और 'समय की धारा' में इतना अच्छा संगीत देने के बावजूद आपको कभी बड़े बैनर की फ़िल्म नहीं मिली, और न ही संगीत निर्देशन के क्षेत्र में बड़ी सफलता मिली। इसके पीछे आप कौन सा कारण देखते हैं?
हमें कोई शिकायत नहीं है किसी से भी। पॉपुलर गाने देने के बाद भी इण्डस्ट्री में ऐज़ मुज़िक डिरेक्टर हमें ज़्यादा काम नहीं मिला, इसका हमें कोई ग़म नहीं है। मैं यही कहना चाहूँगा कि बॉलीवुड में कलाकारों का कोई आत्म-सम्मान नहीं है, उन्हें प्रोड्युसरों के इर्द-गिर्द घूमना पड़ना है काम पाने के लिए जो कि हमें करना नहीं था क्योंकि हम अपना काम बहुत अच्छी तरह जानते थे। यह हमारे उसूलों के ख़िलाफ़ था कि किसी के सामने जाकर काम माँगे। संगीत निर्देशन हमारे लिए बहुत ज़रूरी नहीं था क्योंकि वायलिन बजाकर हम अपनी रोज़ी-रोटी बहुत अच्छी तरह से और आत्म-सम्मान के साथ कमा सकते थे, और आज तक कमा रहे हैं। हम बहुत ख़ुश हैं हमें जितना भी मिला है, जो भी मिला है, कोई शिकवा नहीं किसी से, कोई गिला नहीं।
बहुत अच्छा लगा यह जानकर, और शायद यही जीवन में ख़ुश रहने का मूलमंत्र है। अच्छा फ़िल्म संगीतकार के रूप में ना सही पर एक वायलिनिस्ट के रूप में आप ने एक लम्बी पारी खेली है। तो कुछ ऐसे गीतों के बारे में बताइए जिनमें आपने वायलिन बजाया है?
इस लिस्ट का कोई अन्त नहीं है। बस यही कह सकता हूँ कि मैंने लता जी, आशा जी, रफ़ी साहब, किशोर दा, मुकेश जी, महेन्द्र कपूर जी, अलका याज्ञ्निक, कविता कृष्णमूर्ति, कुमार सानू, सुरेश वाडकर, जेसुदास जैसे कलाकारों के साथ बजाया है।
फिर भी कम से कम कोई एक गीत तो बताइए जो बहुत हिट हुआ हो और जिसमें आपका बजाया हुआ वायलिन बहुत ही प्रॉमिनेन्स के साथ सुनाई देता हो?
फ़िल्म 'शोर' का गीत "एक प्यार का नग़मा है"।
क्या बात है, क्या बात है साहब!!! अच्छा जुगल किशोर जी, हमने यह जाना कि तीन पीढ़ियों से आपका परिवार संगीत की सेवा करता चला आ रहा है। क्या आपकी अगली पीढ़ी भी इसी राह पर है?
जी हाँ, मेरा बेटा प्रभात किशोर बॉलीवुड में वायलिन बजाता है और वो Symphony Orchestra of India से भी जुड़ा हुआ है। उसने मास्को, लन्दन, दुबई, श्रीलंका और भारत के तमाम शहरों में पर्फ़ार्म किया है, और कई बड़े-बड़े उस्तादों के साथ संगत किया है जैसे कि उस्ताद ज़ाकिर हुसैन, पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया। अनुष्का शंकर के साथ उसने लन्दन के Royal Albert Hall में बजाया है। इसी 14 नवम्बर को मैं और प्रभात मुम्बई के शनमुखानन्द हॉल में लीजेन्ड प्यारेलाल जी के साथ कॉनसर्ट में बजाने वाले है जो गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को श्रद्धांजलि स्वरूप एक कार्यक्रम है। मेरे भाई के बेटे कपिल कुमार और अमित कुमार गायक हैं जो दुनिया भर में शोज़ कर रहे हैं। मेरे भाई भगवान के बेटे दिव्य कुमार ने कई हिन्दी फ़िल्मों में गीत गाए हैं जैसे कि 'इशकज़ादे', 'काई पोचे', 'भाग मिलखा भाग'। "हवन कुण्ड में बैठ के क्या करेंगे, हवन करेंगे...", यह गीत जो काफ़ी लोकप्रिय हुआ, यह उसी का गाया हुआ है।
वाह, क्या बात है! अच्छा जुगल किशोर जी, अब एक आख़िरी सवाल आपसे पूछना चाहूँगा, क्योंकि आप वायलिन के मास्टर हैं, तो क्या आप हमारे उन पाठकों को जो अपने बच्चों को वायलिन सिखाना चाहते हैं, उन्हें कुछ टिप्स देना चाहेंगे?
बच्चों के लिए मेरा सुझाव यही है कि अगर रुचि है तो आप ज़रूर सीख सकते हैं लेकिन 5 से 8 वर्ष की आयु से, इससे पहले नहीं। वायलिन एक बहुत ही कठिन साज़ है जिसमें महारथ हासिल करने के लिए दिन में कम से कम 2 घंटे रियाज़ करने पड़ेंगे कम से कम 5 वर्षों तक। और जो लोग इसे करीयर के रूप में लेना चाहते हैं, उनसे मैं यह कह दूँ कि ऐसी कोई गारंटी नहीं है कि हर वायलिन सीखने वाला ही कलाकार बन जाएगा, सब कुछ क़िस्मत पर और आपकी साधना पर डिपेण्ड करेगा।
बहुत बहुत धन्यवाद जुगल किशोर जी, आपने हमारा यह निमंत्रण स्वीकार किया और इतना समय हमें दिया, अपने बारे में बताया, मैं अपनी तरफ़ से, 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' की तरफ़ से, और हमारे तमाम पाठकों की तरफ़ से आपको बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ, और ईश्वर से आपके उत्तर स्वास्थ्य के साथ दीर्घायु होने की कामना करता हूँ।
आपको और सभी पाठकों को बहुत बहुत धन्यवाद।
नमस्कार और आपका बहुत बहुत शुक्रिया मुझे आमंत्रित करने का।
मैं बड़ा ही रोमांचित हो रहा हूँ यह सोच कर कि वह गीत जिसे बचपन से न जाने कितनी बार रेडियो पर सुना है, "जनम जनम का साथ है हमारा तुम्हारा...", आज उसी गीत के संगीतकार से बातचीत कर रहा हूँ। बहुत ही ख़ुशी हो रही है।
बहुत बहुत शुक्रिया, मुझे भी उतनी ही ख़ुशी है कि आपने मुझे बोलने का मौका दिया और आज के इस दौर में भी मुझे याद रखा।
जुगल किशोर जी, बातचीत का सिलसिला मैं शुरू करना चाहूँगा इस सवाल से कि क्या संगीत आपको विरासत में ही मिला था?
जी हाँ, हमारा पूरा परिवार ही संगीत से जुड़ा हुआ रहा है। मेरे दादाजी थे मास्टर तुलसीदास, जो कि 'कलकत्ता थिएट्रिकल कम्पनी में एक संगीतकार के हैसियत से काम करते थे। वहाँ उन्होंने कई नाटकों में संगीत दिया जैसे कि 'राजा हरिशचन्द्र', 'कृष्ण सुदामा', 'दिल की प्यास', 'देवर-भाभी' इत्यादि। उसके बाद उन्होंने प्राइवेट म्यूज़िक कम्पनी 'Durgadas & Sons Records Company' में राजस्थानी गीतों के कई रेकॉर्ड्स बनाए। एक संगीतकार होने के साथ-साथ वो एक शास्त्रीय गायक भी थे। जोधपुर में उनके बहुत से शिष्य थे।
वाह, अच्छा, आपके पिताजी भी संगीत जगत में आए?
जी हाँ, पिताजी ने मेरे दादाजी से ही संगीत की तालिम ली और उन्हीं के संगीत निर्देशन में 'Durgadas & Sons Records Company' में गाने गाये जिनके ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड्स बने। उसके बाद वो भी उसी रेकॉर्ड कम्पनी में संगीतकार भी बने, दादाजी की तरह।
पं शिवराम, तिलकराज, मो. रफ़ी, जुगल किशोर |
आपने अपने पिताजी का नाम नहीं बताया।
पण्डित शिवराम।
वही पण्डित शिवराम कृष्ण, जिन्होंने बहुत सारी हिन्दी फ़िल्मों में भी संगीत दिया है?
बहुत खूब, जुगल किशोर जी, यह तो थी आपके दादाजी और पिताजी का परिचय। यह बताइए कि आपकी पैदाइश कहाँ की है?
मेरा जन्मस्थान है जोधपुर, राजस्थान और मेरा जन्म हुआ था 28 अगस्त 1947 की रात।
यानी देश के स्वाधीन होने के ठीक 13 दिन बाद?
जी हाँ, बिल्कुल, आज़ाद भारत में मेरा जन्म हुआ। आज़ादी से पहले मेरे पिताजी लाहौर में रहते थे।
अच्छा, फिर तो बँटवारे का वह ख़ौफ़नाक मंज़र उन्होंने भी देखा होगा?
जी, वैसे उनका जन्म जोधपुर में ही हुआ था। 16 वर्ष की आयु में उनकी संगीत यात्रा उस समय शुरू हुई जब जोधपुर के राजकुमार उमेद सिंह के दरबार में उन्हें संगीतकार की नौकरी मिली। उसके बाद वो लाहौर चले गए थे और वहाँ पर पण्डित अमरनाथ और मास्टर ग़ुलाम हैदर जैसे दिग्गज संगीतकारों की छत्र-छाया में काम करने लगे। देश विभाजन के बाद वो भारत वापस चले आए और लखनऊ में HMV के लिए काम करने लगे। यह बात है सन् 1948 से 1950 के बीच की। 1950 में वो बम्बई चले आए एक स्वतंत्र संगीतकार बनने की चाह लिए। वी. शान्ताराम जी ने उन्हें दो फ़िल्मों में संगीत देने का मौका दे दिया, ये फ़िल्में थीं 'तीन बत्ती चार रास्ता' और 'सुरंग'। दोनों ही फ़िल्में हिट हुई और सिल्वर जुबिली मनाई। 1953 में उनकी पहली फ़िल्म 'तीन बत्ती चार रास्ता' जब रिलीज़ हुई तब हम सब, यानी हमारा परिवार, बम्बई आ गया और हम सब बम्बई में सेटल हो गए। उस वक़्त मैं पाँच साल का था।
इसका मतलब आप बम्बई (अब मुम्बई) में ही पले बढ़े?
जी हाँ, मुम्बई में पला-बढ़ा, शिक्षा, सब कुछ। संगीत की शिक्षा भी यहीं पर, पहले पिताजी से, फिर वायलिन सीखा गुरू बाबा रामप्रसादजी शर्मा से, महान संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल के प्यारेलाल जी के पिता थे।
जी हाँ, और कहा जाता है कि वो बिल्कुल फ़्री में सबको वायलिन सिखाते थे। क्या यह सच है?
बिल्कुल सच बात है!
अच्छा जुगल किशोर जी, आपने बताया कि पाँच वर्ष की आयु में आप मुम्बई आए और फिर अपने पिताजी से संगीत सीखा। पर संगीत का पहला पाठ आपने कब और किनसे सीखा था?
अपने दादीमाँ से। उनका नाम है श्रीमती हरियन देवी से। वो मुझे रोज़ हारमोनियम और गायन सिखाती थी जब मैं तीन साल का था। वहीं से मेरा संगीत से साथ नाता बना।
दादाजी, दादीमाँ और पिताजी, इन तीनों का आपकी संगीत यात्रा में हाथ रहा है। अपनी माताजी के बारे में भी कुछ बताइए। क्या योगदान रहा है उनका आपके जीवन में, आपके करीयर में?
मेरी माताजी श्रीमती सीतादेवी शिवराम एक गृहवधु थीं और उन्हें संगीत सुनने का शौक था। उन्हीं की वजह से हम लोग मुम्बई में सेटल हो सके हैं। उन्होंने ही पिताजी को कहा था कि वापस जोधपुर न जाकर मुम्बई में ही हमें रहना चाहिए, अगर रोज़ी-रोटी ना भी मिले तो भी हम यहीं रह कर संघर्ष करेंगे। उनका यह अटल विश्वास, उनकी इस तपस्या और बलिदान की वजह से ही हमारा परिवार फला-फूला।
जुगल किशोर जी, प्रोफ़ेशनली आपका करीयर कब और कहाँ से शुरू हुआ?
14 साल की उम्र में, जैसा कि मैंने शुरू शुरू में बताया कि मैं अपने पिताजी के साथ काम करता था, तो शुरू में उनके फ़िल्मी गानों में रिदम प्लेअर और साइड रिदम जैसे कि मँजीरा, कब्बास, कांगो आदि बजाया करता था। उसके बाद मैं ऑरकेस्ट्रा में वायलिन बजाने लगा। साल 1964 में मैंने 'बॉलीवूड सिने म्युज़िशियन्स ऐसोसिएशन' में शामिल हो गया। मेरी पहली रेकॉर्डिंग संगीतकार उषा खन्ना जी के लिए था।
वह कौन सा गीत था कुछ याद है आपको?
दरसल मैं उस समय सिर्फ़ 17 साल का था, और अब बस इतना ही याद है कि वह रेकॉर्डिंग तारदेव रेकॉर्डिंग सेन्टर में हुई थी। उस पहले गीत की रेकॉर्डिंग के वक़्त मैं 50 म्युज़िशियन के बीच बैठ कर बेहद नर्वस हो गया था। पर दूसरे ही गीत से मैं कॉनफ़िडेन्ट हो गया था कि मैं एक बड़े ऑरकेस्ट्रा में वायलिन बजा सकता हूँ।
कौन सा था वह दूसरा गीत?
दूसरी रेकॉर्डिंग थी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के साथ, गाना था फ़िल्म 'दिल्लगी' का, लता मंगेशकर का गाया हुआ, "क्या कहूँ आज क्या बात है..."। फिर तीसरा मेरे पिता पण्डित शिवराम के साथ, फ़िल्म 'महासती बेहुला', गायक महेन्द्र कपूर। और उसके बाद तो उस दौर के सभी नामी संगीतकारों के साथ काम किया जैसे कि शंकर जयकिशन, सी. रामचन्द्र, मदन मोहन, नौशाद, एस. डी. बर्मन, आर. डी. बर्मन, और यहाँ तक कि आज के दौर के संगीतकारों के लिए भी वायलिन वादक का काम कर रहा हूँ।
बहुत ख़ूब, यह तो रही बात एक साज़िन्दे की, एक वायलिन वादक की। यह वायलिन वादक एक फ़िल्म संगीतकार कब और कैसे बना?
तिलक राज के साथ |
'भीगी पलकें' के ये दोनों गीत सदाबहार है इसमें कोई संदेह नहीं है, और एक तरह से जुगल किशोर - तिलक राज की पहचान भी है। अच्छा तिलक राज जी के बारे में बताइए। इनके साथ जोड़ी कैसे बनी?
तिलक राज तो मेरा ही छोटा भाई है। बचपन से ही हम दोनों साथ में संगीत की चर्चा भी करते थे और साथ ही में बजाते भी थे। अपने स्कूल के वार्षिक दिवस के कार्यक्रम के लिए दोनों साथ में मिल कर नए गाने कम्पोज़ करते थे और स्टेज पर साथ में गाते थे। हमने अपना ऑरकेस्ट्रा भी बनाया था 'जयश्री ऑरकेस्ट्रा' के नाम से। जयश्री मेरी छोटी बहन है। आपने जयश्री शिवराम का नाम सुना होगा जो एक प्लेबैक सिंगर रही है।
जी बिल्कुल सुना है। 'रामा ओ रामा' फ़िल्म का शीर्षक गीत मुझे याद है उन्होंने ही गाया था। अच्छा आप कितने भाई बहन हैं?
हम लोग आठ भाई बहन हैं और सभी के सभी फ़िल्म इंडट्री से किसी न किसी रूप में जुड़े हुए हैं। मैं वायलिनिस्ट, कम्पोज़र और सिंगर, तिलक राज कम्पोज़र और सिंगर, मुकेश शिवराम एक सिंगर है, भगवान शिवराम एक रिदम प्लेयर, पूर्णिमा परिहार एक सिंगर, नवीन शिवराम एक कीबोर्ड प्लेयर तथा जयश्री शिवराम व निशा चौहान सिंगर्स हैं। इस तरह से तीन पीढ़ियों से हमारा परिवार संगीत की सेवा में लगा हुआ है।
वाकई संगीत जगत में उल्लेखनीय योगदान है आपने परिवार का। जुगल किशोर जी, बात चली थी फ़िल्म 'भीगी पलकें' की, उसके ये दो यादगार गीतों की। तो हम और ज़रा डिटेल में जानना चाहेंगे इन दोनों गीतों के बारे में। तो पहले गीत "जनम जनम का साथ है..." की रेकॉर्डिंग से जुड़ी कोई बात हो, कोई यादगार घटना हो तो हमें बताइए?
बात ऐसी थी कि मुझे इस फ़िल्म के सभी गीतों को 1979 के दिसम्बर के महीने में रेकॉर्ड कर लेने का निर्देश मिला हुआ था। पर लता दीदी ने कहा कि उस समय तो वो लन्दन के शो में बिज़ी रहेंगी। इस वजह से हमें 10 अप्रैल 1980 तक रुकना पड़ा। लता जी वापस आईं और तब जाकर गाना रेकॉर्ड हुआ। उधर रफ़ी साहब इतने प्यारे थे कि उन्होंने हमें बता रखा था कि लता जी जैसे ही मेहबूब स्टुडियो पहुँचे, मुझे फ़ोन कर देना, मैं बाकी सब काम छोड़ कर वहाँ तुरन्त पहुँच जाऊँगा। और उन्होंने वैसा ही किया। वो मेरी रेकॉर्डिंग को 1 बजे पूरा करके ही आर. डी. बर्मन के रेकॉर्डिंग पर गए।
तिलक राज और लता जी |
लता जी और रफ़ी साहब से अपनी पहली ही फ़िल्म में गाना गवा रहे थे आप। आपको डर नहीं लगा, नर्वस नहीं हुए?
मैं नर्वस तो नहीं था पर टेन्स ज़रूर था क्योंकि एक ही सेशन में मुझे दो दो गाने रेकॉर्ड करने थे। एक हैप्पी और एक सैड वर्ज़न जो लता दीदी का सोलो था "जनम जनम का साथ है तुम्हारा हमारा, जीवन साथी बन कर तूने हमसे किया किनारा..."। जैसा कि मैंने बताया दोपहर 1 बजे तक लता-रफ़ी डुएट रेकॉर्ड हो गया था, और लता जी का यह सैड वर्ज़न 1 से 2 बजे की बीच में ही रेकॉर्ड कर लिया गया। सब सही सही हो गया। और जहाँ तक लता दीदी या रफ़ी साहब से डरने वाली बात है तो ऐसा बिल्कुल नहीं था क्योंकि बहुत छोटे उम्र से ही मैं अपने पिताजी के साथ रिहर्सल्स पर जाया करता था जहाँ मुझे लता जी और रफ़ी साहब बैठे मिलते थे। मैं उनके घरों में भी गया, और वो मुझे पहचानते थे शिवराम जी के बेटे के रूप में। इसलिए जब मैं म्युज़िक डिरेक्टर बना तो दोनों ने मेरी मदद की और हौसला बढ़ाया, आशीर्वाद दिया।
अच्छा! अब किशोर दा वाले गीत के बारे में भी कुछ बताइए?
किशोर दा को गीत "जब तक मैं यह समझा जीवन क्या है..." की धुन इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने कहा कि सिंगिंग केबिन की सारी लाइट्स ऑफ़ कर दी जाए और सिर्फ़ एक डिम लाइट ही ऑन रखी जाए ताकि वो गीत के बोलों को पढ़ सके। उनका यह अनुरोध मुझे कुछ अजीब सा लगा, इसलिए मैं उनसे पूछ ही बैठा कि किशोर दा, आपने यह अँधेरा क्यों करवा दिया स्टुडियो में? तो उन्होंने कहा कि यह जो गीत है "जब तक मैंने समझा जीवन क्या है, जीवन बीत गया..." इसका माहौल बनाने के लिए यह अँधेरा करवाया है। और उन्होंने उस अँधेरे में खड़े हो कर पूरा गीत रेकॉर्ड किया मेहबूब स्टुडियो में। रेकॉर्डिंग हो जाने के बाद किशोर दा ने हमें बहुत आशीर्वाद दिया, उन्हें यह गीत बहुत ही अच्छा लगा और उनके दिल को छू लिया था।
वाह! और क्या मास्टरपीस बना! अच्छा जुगल किशोर जी, 'भीगी पलकें' के बाद आपके संगीत से सजी कौन कौन सी फ़िल्में आईं?
'समय की धारा', 'तेरे बिना क्या जीना', 'सुलगते अरमान', 'लाखा', 'बिरजू', 'हम दहेज लाए हैं', 'ननद भौजाई', 'करमाबाई', 'गौरी', 'बिननी वोट देने चली', 'मेहन्दी रच्या हाथ', 'म्हारी अक्खा तीज', 'लाडलो'। ये सब हिन्दी और राजस्थानी फ़िल्में थीं। फिर एक ओड़िया फ़िल्म 'बस्त्राहरण' में भी मैंने संगीत दिया। कुछ ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम्स भी किए जैसे कि 'जय श्री राम' और 'मैया का दरबार'। और आजकल अमिताभ बच्चन के जीवन पर आधारित एक ऐल्बम बना रहे हैं जिसका शीर्षक है 'कभी हम जुदा न होंगे'। 'समय की धारा' में मैंने अपनी बहन जयश्री शिवराम को गवाया था किशोर दा के साथ।
जी, और इस फ़िल्म में आशा जी का गाया एक गीत था "प्यार तो किया प्यार की प्यास रह गई, टूटे दिल में क्यों मिलन की आस रह गई...", यह गीत मुझे बहुत पसन्द है, बहुत ही सुन्दर बोल हैं और कम्पोज़िशन भी बहुत ही सुन्दर है।
शुक्रिया! इस फ़िल्म के गाने भी एम. जी. हशमत जी के ही लिखे हुए हैं।
"प्यार तो किया प्यार की प्यास रह गई, टूटे दिल में क्यों मिलन की आस रह गई...", क्या आपके दिल में भी यह ख़याल आया कि आपने फ़िल्मों में अच्छा संगीत तो दिया पर बड़ी कामयाबी की आस रह गई? मेरा मतलब है कि 'भीगी पलकें' और 'समय की धारा' में इतना अच्छा संगीत देने के बावजूद आपको कभी बड़े बैनर की फ़िल्म नहीं मिली, और न ही संगीत निर्देशन के क्षेत्र में बड़ी सफलता मिली। इसके पीछे आप कौन सा कारण देखते हैं?
हमें कोई शिकायत नहीं है किसी से भी। पॉपुलर गाने देने के बाद भी इण्डस्ट्री में ऐज़ मुज़िक डिरेक्टर हमें ज़्यादा काम नहीं मिला, इसका हमें कोई ग़म नहीं है। मैं यही कहना चाहूँगा कि बॉलीवुड में कलाकारों का कोई आत्म-सम्मान नहीं है, उन्हें प्रोड्युसरों के इर्द-गिर्द घूमना पड़ना है काम पाने के लिए जो कि हमें करना नहीं था क्योंकि हम अपना काम बहुत अच्छी तरह जानते थे। यह हमारे उसूलों के ख़िलाफ़ था कि किसी के सामने जाकर काम माँगे। संगीत निर्देशन हमारे लिए बहुत ज़रूरी नहीं था क्योंकि वायलिन बजाकर हम अपनी रोज़ी-रोटी बहुत अच्छी तरह से और आत्म-सम्मान के साथ कमा सकते थे, और आज तक कमा रहे हैं। हम बहुत ख़ुश हैं हमें जितना भी मिला है, जो भी मिला है, कोई शिकवा नहीं किसी से, कोई गिला नहीं।
बहुत अच्छा लगा यह जानकर, और शायद यही जीवन में ख़ुश रहने का मूलमंत्र है। अच्छा फ़िल्म संगीतकार के रूप में ना सही पर एक वायलिनिस्ट के रूप में आप ने एक लम्बी पारी खेली है। तो कुछ ऐसे गीतों के बारे में बताइए जिनमें आपने वायलिन बजाया है?
इस लिस्ट का कोई अन्त नहीं है। बस यही कह सकता हूँ कि मैंने लता जी, आशा जी, रफ़ी साहब, किशोर दा, मुकेश जी, महेन्द्र कपूर जी, अलका याज्ञ्निक, कविता कृष्णमूर्ति, कुमार सानू, सुरेश वाडकर, जेसुदास जैसे कलाकारों के साथ बजाया है।
फिर भी कम से कम कोई एक गीत तो बताइए जो बहुत हिट हुआ हो और जिसमें आपका बजाया हुआ वायलिन बहुत ही प्रॉमिनेन्स के साथ सुनाई देता हो?
फ़िल्म 'शोर' का गीत "एक प्यार का नग़मा है"।
क्या बात है, क्या बात है साहब!!! अच्छा जुगल किशोर जी, हमने यह जाना कि तीन पीढ़ियों से आपका परिवार संगीत की सेवा करता चला आ रहा है। क्या आपकी अगली पीढ़ी भी इसी राह पर है?
जी हाँ, मेरा बेटा प्रभात किशोर बॉलीवुड में वायलिन बजाता है और वो Symphony Orchestra of India से भी जुड़ा हुआ है। उसने मास्को, लन्दन, दुबई, श्रीलंका और भारत के तमाम शहरों में पर्फ़ार्म किया है, और कई बड़े-बड़े उस्तादों के साथ संगत किया है जैसे कि उस्ताद ज़ाकिर हुसैन, पण्डित हरिप्रसाद चौरसिया। अनुष्का शंकर के साथ उसने लन्दन के Royal Albert Hall में बजाया है। इसी 14 नवम्बर को मैं और प्रभात मुम्बई के शनमुखानन्द हॉल में लीजेन्ड प्यारेलाल जी के साथ कॉनसर्ट में बजाने वाले है जो गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को श्रद्धांजलि स्वरूप एक कार्यक्रम है। मेरे भाई के बेटे कपिल कुमार और अमित कुमार गायक हैं जो दुनिया भर में शोज़ कर रहे हैं। मेरे भाई भगवान के बेटे दिव्य कुमार ने कई हिन्दी फ़िल्मों में गीत गाए हैं जैसे कि 'इशकज़ादे', 'काई पोचे', 'भाग मिलखा भाग'। "हवन कुण्ड में बैठ के क्या करेंगे, हवन करेंगे...", यह गीत जो काफ़ी लोकप्रिय हुआ, यह उसी का गाया हुआ है।
वाह, क्या बात है! अच्छा जुगल किशोर जी, अब एक आख़िरी सवाल आपसे पूछना चाहूँगा, क्योंकि आप वायलिन के मास्टर हैं, तो क्या आप हमारे उन पाठकों को जो अपने बच्चों को वायलिन सिखाना चाहते हैं, उन्हें कुछ टिप्स देना चाहेंगे?
बच्चों के लिए मेरा सुझाव यही है कि अगर रुचि है तो आप ज़रूर सीख सकते हैं लेकिन 5 से 8 वर्ष की आयु से, इससे पहले नहीं। वायलिन एक बहुत ही कठिन साज़ है जिसमें महारथ हासिल करने के लिए दिन में कम से कम 2 घंटे रियाज़ करने पड़ेंगे कम से कम 5 वर्षों तक। और जो लोग इसे करीयर के रूप में लेना चाहते हैं, उनसे मैं यह कह दूँ कि ऐसी कोई गारंटी नहीं है कि हर वायलिन सीखने वाला ही कलाकार बन जाएगा, सब कुछ क़िस्मत पर और आपकी साधना पर डिपेण्ड करेगा।
बहुत बहुत धन्यवाद जुगल किशोर जी, आपने हमारा यह निमंत्रण स्वीकार किया और इतना समय हमें दिया, अपने बारे में बताया, मैं अपनी तरफ़ से, 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' की तरफ़ से, और हमारे तमाम पाठकों की तरफ़ से आपको बहुत बहुत धन्यवाद देता हूँ, और ईश्वर से आपके उत्तर स्वास्थ्य के साथ दीर्घायु होने की कामना करता हूँ।
आपको और सभी पाठकों को बहुत बहुत धन्यवाद।
आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमे अवश्य बताइएगा। आप अपने सुझाव और
फरमाइशें ई-मेल आईडी cine.paheli@yahoo.com पर भेज सकते है। अगले माह के चौथे शनिवार को हम एक
ऐसे ही भूले-विसरे फिल्म कलाकार के साक्षात्कार के साथ उपस्थित होंगे। अब
हमें आज्ञा दीजिए।
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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