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इसकी टोपी उसके सर - प्रसिद्ध ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड कलेक्टर वी. एस. दत्ता बता रहे हैं पुराने ज़माने के कुछ इन्स्पायर्ड गीतों के बारे में




स्मृतियों के स्वर - 12

प्रसिद्ध ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड कलेक्टर वी. एस. दत्ता बता रहे हैं पुराने ज़माने के कुछ इन्स्पायर्ड गीतों के बारे में

इसकी टोपी उसके सर





'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, एक ज़माना था जब घर बैठे प्राप्त होने वाले मनोरंजन का एकमात्र साधन रेडियो हुआ करता था। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ बहुत से कार्यक्रम ऐसे हुआ करते थे जिनमें कलाकारों से साक्षात्कार करवाये जाते थे और जिनके ज़रिये फ़िल्म और संगीत जगत के इन हस्तियों की ज़िन्दगी से जुड़ी बहुत सी बातें जानने को मिलती थी। गुज़रे ज़माने के इन अमर फ़नकारों की आवाज़ें आज केवल आकाशवाणी और दूरदर्शन के संग्रहालय में ही सुरक्षित हैं। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि शौकिया तौर पर मैंने पिछले बीस वर्षों में बहुत से ऐसे कार्यक्रमों को लिपिबद्ध कर अपने पास एक ख़ज़ाने के रूप में समेट रखा है। 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' पर, महीने के हर दूसरे और चौथे शनिवार को इसी ख़ज़ाने में से मैं निकाल लाता हूँ कुछ अनमोल मोतियाँ हमारे इस स्तम्भ में, जिसका शीर्षक है - स्मृतियों के स्वर। इस स्तम्भ के अन्तर्गत हम और आप साथ मिल कर गुज़रते हैं स्मृतियों के इन हसीन गलियारों से। आज हम आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं प्रसिद्ध ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड कलेक्टर वी. एस. दत्ता से। दत्ता साहब बता रहे हैं गुज़रे ज़माने के कुछ ऐसे मशहूर गीतों के बारे में जो प्रेरित थे अन्य फ़िल्मी गीतों से ही। यानी कि इसकी टोपी उसके सर। आनन्द लीजिये, ऐसे गीतों के साथ।





सूत्र: जुबिली झंकार, विविध भारती, 3 सितंबर 2008


1. "लेके पहला पहला प्यार, भरके आँखों में ख़ुमार..." (सी.आई.डी. 1956)

देखिये, यह तो नौशाद साहब ने आपको 'विविध भारती' में ही बताया था कि वो जो गाना है "जादू नगरी से आया है कोई जादूगर", उसकी ट्यून मेरे गीत से नकल की हुई है। वह जो एक उनकी फ़िल्म आयी थी 'नमस्ते', शायद 1943 में, उसमें एक गाना था "दिल ना लगे मोरा, जिया ना लगे, मन ना लगे, नेक-टाई वाले बाबू को बुलाते कोई रे..."। इस गीत की धुन हू-ब-हू "जादू नगरी से आया है कोई जादूगर" जैसा है। तो यह 'नमस्ते' फ़िल्म आई थी 1942-43 में, और 'CID' आयी थी 1956 में, यानी इसके 13 साल बाद। तो नय्यर साहब ने नौशाद की धुन को उठा लिया। लीजिए, पहले आप फिल्म सी. आई. डी. का और फिर फिल्म 'नमस्ते' का गाना सुनिए। 


फिल्म - सी. आई. डी. : 'लेके पहला पहला प्यार भरके आँखों में खुमार...' : शमशाद बेगम और मोहम्मद रफी : संगीत - ओ. पी. नैयर




फिल्म - नमस्ते : 'दिल न लगे मोरा जिया न लगे...' : संगीत - नौशाद : गीत - दीनानाथ मधोक




2. "आये भी अकेला जाये भी अकेला" (दोस्त, 1954)

तलत महमूद साहब का फ़िल्म 'दोस्त' का गीत "आये भी अकेला जाये भी अकेला, दो दिन की ज़िन्दगी है दो दिन का मेला" एक बहुत मशहूर गीत है, आपने सुना होगा। हंसराज बहल का संगीत था। इसका जो है पंजाबी फ़िल्म 'लच्छी' (1949) से लिफ़्ट किया गया था। सिर्फ़ धुन ही नहीं बल्कि बोल भी। और 'लच्छी' में जो है इसको मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाया था, और बेहतरीन गाना था, "जगवाला मेला यारों थोड़ी देर दा, हँस दे या रात लंगी पता नहीं सवेर दा..."। यह गाना पीछे रह गया और वह गाना आगे निकल गया। यह संगीतकार शार्दूल क्वात्रा के करीयर का शुरुआती गीत था; उस समय वो हंसराज बहल साहब के सहायक हुआ करते थे। मतलब बहल साहब ने अपने सहायक की धुन को बाद में इस्तेमाल किया अपने गीत में। कहा जाता है कि एक बार हंसराज बहल बम्बई से बाहर गये थे, तब गीतकार नाज़िम पानीपती ने क्वात्रा को एक गीत की धुन बनाने को कहा, और तभी उन्होंने इस गीत की धुन बनाई थी। अब आप इन इन दोनों गीतों को सुनिए।


फिल्म - दोस्त : 'आए भी अकेला जाए भी अकेला...' : तलत महमूद : संगीत - हंसराज बहल




फिल्म - लच्छी (पंजाबी) : 'जगवाला मेला यारों थोड़ी देर दा...' : मोहम्मद रफी : संगीत शार्दूल क्वात्रा 


 
3. "ख़ुशी का ज़माना गया रोने से अब काम है" (छोटी भाभी, 1950)

इसी तरह से और भी गाने थे जो पंजाबी में थे। एक गाना था जिसे नूरजहाँ ने गाया था, "हूक मेरी क़िस्मत सो गई जागो हुज़ूर रे...", इसे फिर फ़िल्म 'छोटी भाभी' में हुस्नलाल-भगतराम ने लिफ़्ट किया और बना दिया "ख़ुशी का ज़माना गया रोने से अब काम है, प्यार इसका नाम था जुदाई इसका नाम है..." जिसे रफ़ी साहब और लता जी ने गाया। तो ऐसे लोग धुन एक दूसरे की लिफ़्ट करते आये हैं और यह परम्परा आज भी जारी है। नूरजहाँ का गाया गीत उपलब्ध नहीं पाया है, फ़िल्म 'छोटी भाभी' का गीत अब आप सुनें।


फिल्म - छोटी भाभी : 'खुशी का जमाना गया रोने से अब काम है...' : मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर : संगीत - हुस्नलाल भगतराम 



4. "तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा" (आख़िरी दाव, 1958)

आज इसको लेकर काफ़ी चर्चा होती है, कानून तक में जाने की भी बात भी होती रहती है, लेकिन उस वक़्त तो कितना अनायास होता था और इस बात को लेकर कोई किसी से कुछ कहता तक नहीं था। पर एक गाना था जिसके लिफ़्ट करने पर सज्जाद हुसैन काफ़ी बिगड गये थे मदन मोहन पर। तलत महमूद का जो गाना था ना "ये हवा ये रात ये चांदनी", फ़िल्म 'संगदिल' का, इसके आधार पर मदन मोहन साहब ने गाना बना दिया "तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा...", इसमें क्या हुआ कि सज्जाद साहब जिन्होंने "ये हवा ये रात" बनाया था, वो बिगड़ गये थे मदन मोहन पे, "तुमने कैसे मेरे गाने से लिफ़्ट किया?" मदन मोहन ने कहा कि हुज़ूर, मैंने सोचा कि उसी धुन को थोड़ा सा बदलकर देखें तो कैसा लगेगा। पर उसके बाद मदन मोहन ने कहा कि मैंने ऐसी गुस्ताख़ी फिर कभी नहीं की।


फिल्म - आखिरी दाव : 'तुझे क्या सुनाऊँ मैं दिलरुबा...' मोहम्मद रफी : संगीत - मदन मोहन : गीत मजरूह सुल्तानपुरी




फिल्म - संगदिल : 'ये हवा ये रात ये चाँदनी...' : तलत महमूद : संगीत - सज्जाद हुसैन



5. "हमारी गली आना" (मेमसाहिब, 1956)

एक 'शुक्रिया' फ़िल्म आयी थी, जिसमें एक गाना था "हमारी गली आना अच्छा जी, हमें ना भुलाना अच्छा जी...", जिसे बाद में 'मेमसाहिब' फ़िल्म में तलत महमूद और आशा भोसले ने गाया। इसको 'मेमसाहिब' में बिल्कुल सेम टू सेम लिफ़्ट किया गया है संगीतकार मदन मोहन ने। लेकिन ऑरिजिनल 'शुक्रिया' फ़िल्म का गाना था, पुराना, 1944 की फ़िल्म, जिसमें रमोला हीरोइन थीं, पर वह वाला गाना हिट नहीं हो पाया। इसके संगीतकार थे जी. ए. चिश्ती। इन दोनों गीतों को आप सुनिए और अन्तर खोजिए।


फिल्म - मेमसाहिब : 'हमारी गली आना अच्छा जी...' : तलत महमूद और आशा भोसले : संगीत - मदन मोहन 




फिल्म - शुक्रिया : 'हमारी गली आना अच्छा जी...' : नसीम अख्तर और अमर : संगीत - जी.ए. चिश्ती 




कॉपीराइट: विविध भारती



तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।


प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 





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