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‘केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूले...’ : SWARGOSHTHI – 194 : RAG BASANT BAHAR



स्वरगोष्ठी – 194 में आज

शास्त्रीय संगीतज्ञों के फिल्मी गीत – 3 : राग बसन्त बहार

पार्श्वगायक मन्ना डे ने जब पण्डित भीमसेन जोशी को राज-दरबार में पराजित किया 




‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर इन दिनो हमारी नई लघु श्रृंखला, ‘शास्त्रीय संगीतज्ञों के फिल्मी गीत’ जारी है। फिल्म संगीत के क्षेत्र में चौथे से लेकर आठवें दशक के बीच शास्त्रीय संगीत के कई विद्वानों और विदुषियों ने अपना योगदान किया है। इस श्रृंखला में हमने कुछ ऐसे ही फिल्मी गीतों का चुनाव किया है, जिन्हें रागदारी संगीत के प्रयोक्ताओं और विशेषज्ञों ने रचा है। इन रचनाओं में राग के स्पष्ट स्वरूप की उपस्थिति मिलती है। श्रृंखला के तीसरे अंक में आज हम आपसे 1956 में प्रदर्शित फिल्म ‘बसन्त बहार’ के एक गीत- ‘केतकी गुलाब जूही चम्पक बन फूलें...’ पर चर्चा करेंगे। फिल्म के इस गीत में राग ‘बसन्त बहार’ के स्वरों का उपयोग किया गया है। विश्वविख्यात संगीतज्ञ पण्डित भीमसेन जोशी ने इस गीत को स्वर दिया था और संगीत रचने में भी अपना योगदान किया था। इस युगल गीत में पण्डित जी के साथ जाने-माने पार्श्वगायक मन्ना डे ने भी अपना स्वर दिया है। इसके साथ ही राग ‘बसन्त बहार’ के यथार्थ स्वरूप को अनुभव करने के लिए हम आपके लिए सुविख्यात संगीतज्ञ डॉ. लालमणि मिश्र का विचित्र वीणा पर बजाया राग ‘बसन्त बहार’ की एक रचना भी प्रस्तुत करेंगे।
 


मन्ना डे : रेखांकन - सुवायु नंदी
भीमसेन जोशी : रेखांकन - उदय देव
फिल्म-संगीत-जगत में समय-समय पर कुछ ऐसे गीतों की रचना हुई है, जो आज हमारे लिए अनमोल धरोहर बन गए हैं। एक ऐसा ही गीत 1956 में प्रदर्शित फिल्म 'बसन्त बहार' में रचा गया था। यूँ तो इस फिल्म के सभी गीत अपने समय में हिट हुए थे, किन्तु फिल्म का एक गीत- 'केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूलें...' कई कारणों से फिल्म-संगीत-इतिहास के पृष्ठों में दर्ज़ हुआ। इस गीत की मुख्य विशेषता यह है कि पहली बार किसी वरिष्ठ शास्त्रीय गायक (पण्डित भीमसेन जोशी) और फिल्मी पार्श्वगायक (मन्ना डे) ने मिल कर एक ऐसा युगल गीत गाया, जो राग बसन्त बहार के स्वरों में ढला हुआ था। यही नहीं, फिल्म के प्रसंग के अनुसार राज-दरबार में आयोजित प्रतियोगिता में नायक गोपाल (भारतभूषण) को गायन में दरबारी गायक के मुक़ाबले में विजयी होना था। आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि दरबारी गायक के लिए भीमसेन जी ने और नायक के लिए मन्ना डे ने पार्श्वगायन किया था। फिल्म से जुड़ा तीसरा रेखांकन योग्य तथ्य यह है कि फिल्म की संगीत-रचना में सुप्रसिद्ध सारंगी वादक पण्डित रामनारायण का उल्लेखनीय योगदान था।

1949 की फिल्म 'बरसात' से अपनी हलकी-फुलकी और आसानी से गुनगुनाये जाने वाली सरल धुनों के बल पर सफलता के झण्डे गाड़ने वाले शंकर-जयकिशन को जब फिल्म 'बसन्त बहार' का प्रस्ताव मिला तो उन्होने इस शर्त के साथ इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया कि फिल्म के राग आधारित गीतों के गायक मन्ना डे ही होंगे। जबकि फिल्म के नायक भारतभूषण के भाई शशिभूषण सभी गीत मोहम्मद रफी से गवाना चाहते थे। मन्ना डे की प्रतिभा से यह संगीतकार जोड़ी, विशेष रूप से शंकर, बहुत प्रभावित थे। शंकर-जयकिशन ने फिल्म 'बसन्त बहार' में मन्ना डे के स्थान पर किसी और पार्श्वगायक को लेने से साफ मना कर दिया। फिल्म के निर्देशक राजा नवाथे मुकेश की आवाज़ को पसन्द करते थे, परन्तु वो इस विवाद में तटस्थ बने रहे। निर्माता आर. चन्द्रा भी पशोपेश में थे। मन्ना डे को हटाने का दबाव जब अधिक हो गया तब अन्ततः शंकर-जयकिशन को फिल्म छोड़ देने की धमकी देनी पड़ी। अन्ततः मन्ना डे के नाम पर सहमति बनी।

फिल्म 'बसन्त बहार' में शंकर-जयकिशन ने 9 गीत शामिल किए थे, जिनमें से दो गीत- 'बड़ी देर भई...' और 'दुनिया न भाए मोहे...' मोहम्मद रफी के एकल स्वर में गवा कर उन्होने शशिभूषण की बात भी रख ली। इसके अलावा उन्होने मन्ना डे से चार गीत गवाए। राग मियाँ की मल्हार पर आधारित 'भयभंजना वन्दना सुन हमारी...' (एकल), राग पीलू पर आधारित 'सुर ना सजे...' (एकल), लता मंगेशकर के साथ युगल गीत 'नैन मिले चैन कहाँ...' और इन सब गीतों के साथ शामिल था राग बसन्त बहार के स्वरों में पिरोया वह ऐतिहासिक गीत- 'केतकी गुलाब जूही...', जिसे मन्ना डे ने पण्डित भीमसेन जोशी के साथ जुगलबन्दी के रूप में गाया है। इस आलेख की आरम्भिक पंक्तियों में हम फिल्म के उस प्रसंग की चर्चा कर चुके हैं, जिसमें यह गीत फिल्माया गया था। आइए, अब कुछ चर्चा इस गीत की रचना-प्रक्रिया के बारे में करते हैं। संगीतकार शंकर-जयकिशन फिल्म के इस प्रसंग के लिए एक ऐतिहासिक गीत रचना चाहते थे। उन्होने सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायक पण्डित भीमसेन जोशी और सारंगी वादक पण्डित रामनारायण को आमंत्रित किया और यह दायित्व उन्हें सौंप दिया। इसके आगे की कहानी आप स्वयं पण्डित भीमसेन जोशी की जुबानी सुनिए, इस रिकार्डिंग के माध्यम से। पण्डित भीमसेन जोशी पर निर्मित वृत्तचित्र का यह एक अंश है, जिसमें गीतकार गुलज़ार, पण्डित जी से सवाल कर रहे हैं।


पण्डित भीमसेन जोशी से की गई गीतकार गुलज़ार की बातचीत का एक अंश



 पण्डित जी ने बातचीत के दौरान जिस 'गीत लिखने वाले' की ओर संकेत किया है, वो कोई और नहीं, बल्कि गीतकार शैलेन्द्र थे। दूसरी ओर शंकर-जयकिशन ने जब इस जुगलबन्दी की बात मन्ना डे को बताई तो वे एकदम भौचक्के से हो गए। मन्ना डे ने यद्यपि कोलकाता में उस्ताद दबीर खाँ और मुम्बई आकर उस्ताद अमान अली खाँ और उस्ताद अब्दुल रहमान खाँ से संगीत का प्रशिक्षण प्राप्त किया था, किन्तु पण्डित जी के साथ जुगलबन्दी गाने का प्रस्ताव सुन कर उनकी हिम्मत जवाब दे गई। मन्ना डे की उस समय की मनोदशा को समझने के लिए लीजिए, प्रस्तुत है- उनके एक साक्षात्कार का अंश-


मन्ना डे के एक साक्षात्कार का अंश



इस गीत को गाने से बचने के लिए मन्ना डे चुपचाप पुणे चले जाने का निश्चय कर चुके थे, लेकिन पत्नी के समझाने पर उन्होने इस प्रकार पलायन स्थगित कर दिया। पंकज राग द्वारा लिखित पुस्तक 'धुनों की यात्रा' में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए लिखा गया है कि- मन्ना डे अपने संगीत-गुरु उस्ताद अब्दुल रहमान खाँ के पास मार्गदर्शन के लिए भी गए थे। इसके अलावा मन्ना डे के गाये हिस्से में राग बसन्त के साथ राग बहार का स्पर्श दिया गया और लय भी थोड़ी धीमी की गई थी। पण्डित रामनारायण ने मन्ना डे को कुछ ऐसी तानें सीखा दी, जिससे फिल्म का नायक विजयी होता हुआ नज़र आए। साक्षात्कार में मन्ना डे ने स्वीकार किया है कि उनके साथ गाते समय पण्डित जी ने अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग नहीं किया था। अन्ततः पण्डित भीमसेन जोशी, पण्डित रामनारायण, मन्ना डे और शैलेन्द्र के प्रयत्नों से फिल्म 'बसन्त बहार' का ऐतिहासिक गीत- 'केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूलें...' की रचना हुई और फिल्म संगीत के इतिहास में यह गीत सुनहरे पृष्ठों में दर्ज़ हुआ। लीजिए, अब आप पूरा गीत सुनिए।


फिल्म – बसन्त बहार : ‘केतकी गुलाब जूही चम्पक वन फूलें...’ : पण्डित भीमसेन जोशी और सुर गन्धर्व मन्ना डे



बसन्त ऋतु का अत्यन्त मोहक राग ‘बसन्त बहार’ दो रागों के मेल से बना है। कुछ विद्वान इसे ‘छायालग राग’ कहते हैं। आम तौर पर इस राग के आरोह में बहार और अवरोह में बसन्त के स्वरों का प्रयोग किया जाता है। यदि आरोह में बसन्त के स्वरों का प्रयोग किया जाए तो इसे पूर्वांग प्रधान रूप देना आवश्यक है। राग बसन्त और बहार में मुख्य अन्तर यह है कि बहार में कोमल गान्धार और दोनों निषाद तथा बसन्त में कोमल ऋषभ व कोमल धैवत के साथ शुद्ध गान्धार का प्रयोग होता है। राग ‘बसन्त बहार’ दो प्रकार से प्रचलन में है। यदि बसन्त को प्रमुखता देनी हो तो इसे पूर्वी थाट के अन्तर्गत लेना चाहिए। ऐसे में वादी स्वर षडज और संवादी पंचम हो जाता है। काफी थाट के अन्तर्गत लेने पर राग बहार प्रमुख हो जाता है और वादी मध्यम और संवादी षडज हो जाता है। अन्य ऋतुओं में इस राग का गायन-वादन रात्रि के तीसरे प्रहर में किए जाने की परम्परा है, किन्तु बसन्त ऋतु में इसका प्रयोग किसी भी समय किया जा सकता है।

डॉ. लालमणि मिश्र 
अब हम आपको एक प्राचीन और लुप्तप्राय तंत्रवाद्य विचित्रवीणा पर राग ‘बसन्त बहार’ सुनवाते हैं। इसे प्रस्तुत किया है, बहुआयामी प्रतिभा के धनी कलासाधक, शिक्षक और शोधकर्त्ता डॉ. लालमणि मिश्र ने। कृतित्व से पूर्व इस महान कलासाधक के व्यक्तित्व पर एक दृष्टिपात करते चलें।

डॉ. लालमणि मिश्र का जन्म 11 अगस्त, 1924 को कानपुर के कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पाँच वर्ष की आयु में उन्हें स्कूल भेजा गया किन्तु 1930 में कानपुर के भीषण दंगों के कारण न केवल इनकी पढ़ाई छूटी बल्कि इनके पिता का व्यवसाय भी बर्बाद हो गया। परिवार को सुरक्षित बचाकर इनके पिता कलकत्ता (अब कोलकाता) आ गए। कोलकाता में बालक लालमणि की माँ को संगीत की शिक्षा प्रदान करने वाले कथावाचक पण्डित गोवर्द्धन लाल घर आया करते थे। एक बार माँ को सिखाए गए 15 दिन के पाठ को यथावत सुना कर उन्होने पण्डित जी को चकित कर दिया। उसी दिन से लालमणि की विधिवत संगीत शिक्षा आरम्भ हो गई। पण्डित गोवर्द्धन लाल से उन्हें ध्रुवपद और भजन का ज्ञान मिला तो हारमोनियम वादक और शिक्षक विश्वनाथप्रसाद गुप्त से हारमोनियम बजाना सीखा। ध्रुवपद-धमार की विधिवत शिक्षा पण्डित कालिका प्रसाद से, खयाल की शिक्षा रामपुर सेनिया घराने के उस्ताद वज़ीर खाँ के शिष्य मेंहदी हुसेन खाँ से मिली। बिहार के मलिक घराने के शिष्य पण्डित शुकदेव राय से सितार वादन की तालीम मिली। मात्र 16 वर्ष की आयु में मुंगेर, बिहार के एक रईस परिवार के बच्चों के संगीत-शिक्षक बन गए। 1944 में कानपुर के कान्यकुब्ज कालेज में संगीत-शिक्षक नियुक्त हुए। इसी वर्ष सुप्रसिद्ध विचित्र वीणा वादक उस्ताद अब्दुल अज़ीज खाँ (पटियाला) के वाद्य विचित्र वीणा से प्रभावित होकर उन्हीं से शिक्षा ग्रहण की और 1950 में लखनऊ के भातखण्डे जयन्ती समारोह में इस वाद्य को बजा कर विद्वानो की प्रशंसा अर्जित की। लालमणि जी 1951 में उदयशंकर के दल में बतौर संगीत निर्देशक नियुक्त हुए और 1954 तक देश-विदेश का भ्रमण किया। 1951 में कानपुर के गाँधी संगीत महाविद्यालय के प्रधानाचार्य बने। 1958 में पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के आग्रह पर वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत संकाय में वाद्य विभाग के रीडर पद पर सुशोभित हुए और यहीं डीन और विभागाध्यक्ष भी हुए। संगीत की हर विधा में पारंगत पण्डित लालमणि मिश्र ने अपनी साधना और शोध के बल पर अपनी एक अलग शैली विकसित की जिसे ‘मिश्रवाणी’ के नाम से स्वीकार किया गया। 17 जुलाई, 1979 को मात्र 55 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ था। आइए अब पण्डित लालमणि मिश्र से सुनते हैं, राग बसन्त बहार।


राग – बसन्त बहार : विचित्र वीणा पर एक ताल में निबद्ध रचना : डॉ. लालमणि मिश्र 



आज की पहेली


‘स्वरगोष्ठी’ के 194वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको एक बार फिर लगभग छः दशक पुरानी एक फिल्म के गीत का अंश सुनवा रहे हैं। इसे सुन कर आपको निम्नलिखित दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के 200वें अंक की समाप्ति तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला का विजेता घोषित किया जाएगा तथा वर्ष 2014 में सर्वाधिक अंक अर्जित करने वाले प्रतिभागी को वार्षिक विजेता घोषित किया जाएगा।


1 – गीत का यह अंश सुन कर बताइए कि इस अंश में आपको किस राग की झलक मिलती है?

2 – यह गीत किस ताल में निबद्ध किया गया है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर इस प्रकार भेजें कि हमें शनिवार 22 नवम्बर, 2014 की मध्यरात्रि से पूर्व तक प्राप्त हो जाए। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 196वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रकाशित और प्रसारित गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।

पिछली पहेली के विजेता


‘स्वरगोष्ठी’ की 192वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको सुविख्यात गायक पण्डित दत्तात्रेय विष्णु पलुस्कर और उस्ताद अमीर खाँ के युगल स्वरों में गाये, फिल्म बैजू बावरा के गीत का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न का सही उत्तर है- राग देसी अथवा देसी तोड़ी और पहेली के दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- ताल विलम्बित तीनताल। पहेली के दोनों प्रश्नो के सही उत्तर हैदराबाद की डी. हरिणा माधवी, जबलपुर से क्षिति तिवारी और पेंसिलवानिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया ने दिया है। तीनों प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।

अपनी बात


मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘शास्त्रीय संगीतज्ञों के फिल्मों गीत’ के माध्यम से हम भारतीय संगीत जगत के मूर्धन्य कलासाधकों के द्वारा उनके फिल्म संगीत के योगदान को रेखांकित कर रहे हैं। इस श्रृंखला के बारे में आपके सुझाव सादर आमंत्रित हैं। नए वर्ष से ‘स्वरगोष्ठी’ स्तम्भ के अन्तर्गत आप क्या पढ़ना और सुनना चाहते हैं, हमे आविलम्ब लिखें। अपनी पसन्द के विषय और गीत-संगीत की फरमाइश अथवा अगली श्रृंखलाओं के लिए आप किसी नए विषय का सुझाव भी दे सकते हैं। अगले रविवार को एक नए अंक के साथ प्रातः 9 बजे ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर सभी संगीतानुरागियों का हम स्वागत करेंगे।

प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र 

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