स्वरगोष्ठी – 166 में आज
संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला – 4
'नक्कारखाने में तूती की आवाज़'- अब तो इस मुहावरे का अर्थ ही बदल चुका है
'तूती के शोर में गुम हुआ नक्कारा'
'तूती के शोर में गुम हुआ नक्कारा'
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी
‘संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला’ की चौथी कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र,
सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, इस लघु श्रृंखला
में हम आपसे भारतीय संगीत के कुछ कम प्रचलित, लुप्तप्राय अथवा अनूठे
वाद्यों की चर्चा कर रहे हैं। वर्तमान में प्रचलित अनेक वाद्य हैं जो
प्राचीन वैदिक परम्परा से जुड़े हैं और समय के साथ क्रमशः विकसित होकर हमारे
सम्मुख आज भी उपस्थित हैं। कुछ ऐसे भी वाद्य हैं जिनकी उपयोगिता तो है
किन्तु धीरे-धीरे अब ये लुप्तप्राय हो रहे हैं। इस श्रृंखला में हम कुछ
लुप्तप्राय और कुछ प्राचीन वाद्यों के परिवर्तित व संशोधित स्वरूप में
प्रचलित वाद्यों का उल्लेख करेंगे। श्रृंखला की आज की कड़ी में हम आपसे एक
ऐसे तालवाद्य की चर्चा करेंगे जिसका लोकसंगीत और लोकनाट्य में सर्वाधिक
प्रयोग किया जाता रहा है। नक्कारा अथवा नगाड़ा नामक यह वाद्य अपनी ऊँची आवाज़
और विशिष्ट वादन शैली के कारण पिछली शताब्दी का सर्वाधिक लोकप्रिय
तालवाद्य रहा है। आज भी कभी-कभी नक्कारा का उपयोग नज़र आ जाता है, परन्तु
धीरे-धीरे यह लुप्तप्राय होता जा रहा है।
आज के अंक में हम आपके साथ एक ऐसे लोक ताल वाद्य के बारे में चर्चा कर रहे हैं जो भारतीय ताल वाद्यों में सबसे प्राचीन है, किन्तु आज इस वाद्य के अस्तित्व पर ही संकट के बादल मँडरा रहे हैं। एक मुहावरा है- ‘नक्कारखाने में तूती की आवाज़’, जिसे हम बचपन से सुनते आ रहे हैं और समय-समय पर इसका प्रयोग भी करते रहते हैं। ऐसे माहौल में जहाँ अपनी कोई सुनवाई न हो या बहुत अधिक शोर-गुल में अपनी आवाज़ दब जाए, वहाँ हम इसी मुहावरे का प्रयोग करते हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आने वाले समय में यह मुहावरा ही अर्थहीन हो जाएगा, क्योंकि ऊँचे सुर वाला तालवाद्य नक्कारा या नगाड़ा ही नहीं बचेगा तो तूती (एक छोटे आकार और ऊँचे स्वरों वाला सुषिर वाद्य) की आवाज़ भला क्यों दबेगी?
नाथूलाल सोलंकी |
'नक्कारा' अथवा 'नगाड़ा' अतिप्राचीन घन वाद्य है। प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख 'दुन्दुभी' नाम से किया गया है। देवालयों में इस घन वाद्य का प्रयोग ‘नौबत’ के अन्तर्गत प्राचीन काल से ही किया जा रहा है। नौबतखाना में नौ वाद्यों का समूह होता है, जिसमें अन्य वाद्यों- दमामा, कर्णा, सुरना, नफीरी, श्रृंगी, शंख, घण्टा और झाँझ के साथ नक्कारा का प्रयोग भी किया जाता है। परन्तु मन्दिरों में नक्कारा की भूमिका ताल वाद्य के रूप में नहीं, बल्कि प्रातःकाल मन्दिर के कपाट दर्शनार्थ खुलने की अथवा सांध्य आरती आदि की सूचना भक्तों अथवा दर्शनार्थियों को देने के रूप में होती रही है। अधिकांश मन्दिरों में यह परम्परा आज भी कायम है। मन्दिरों के अलावा नक्कारे का प्रयोग प्रचीनकाल में युद्धभूमि में भी किया जाता था| परन्तु यहाँ भी नक्कारा तालवाद्य नहीं, बल्कि सैनिकों के उत्साहवर्धन के लिए प्रयोग किया जाने वाला वाद्य ही था। ताल वाद्य के रूप में नक्कारा अथवा नगाड़ा लोक संगीत और लोक नाट्य का अभिन्न अंग रहा है। हिमांचल प्रदेश से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक के विस्तृत क्षेत्र के लोक संगीत में इस ताल वाद्य का प्रयोग किया जाता रहा है। अब हम प्रस्तुत कर रहे है, स्वतंत्र नक्कारा वादन। वादक है, राजस्थान के चर्चित लोक कलाकार नाथूलाल सोलंकी। यह प्रस्तुति आठ मात्रा के कहरवा ताल में की गई है।
स्वतंत्र नक्कारा वादन : आठ मात्रा कहरवा ताल : वादक – नाथूलाल सोलंकी
मुबारक बेगम |
कव्वाली गायक शंकर और शम्भू |
पौराणिक काल में दो भिन्न ध्वनियों वाले अवनद्ध वाद्य का उल्लेख मिलता है, जिसे ‘सम्बल’ नाम से जाना जाता था। वर्तमान नक्कारा अथवा नगाड़ा इसी वाद्य का विकसित रूप है। यह धातु अथवा लकड़ी के दो खोखले अर्द्धगोलाकार आकृति पर चर्म मढ़ कर बनाया जाता है। नक्कारा के बड़े हिस्से अर्थात बाएँ हिस्से का व्यास 75 से लेकर 120 सेंटीमीटर तक होता है। यह निचले स्वरों की उत्पत्ति करता है। वादन के दौरान वादक प्रायः पानी से भीगे कपड़े इसके सतह पर फेरते रहते हैं। इस क्रिया से इसकी ध्वनि ऊँची नहीं होती और इसकी गूँज बनी रहती है। नक्कारा के दाएँ हिस्से को ‘झील’ या ‘डुग्गी’ कहा जाता है। इसका व्यास 25 से लेकर 40 सेंटीमीटर तक होता है। इसका स्वर काफी ऊँचा होता है। वादक प्रायः इस हिस्से पर मढ़े चमड़े को आग से सेंक कर बजाते हैं। इससे टंकार उत्पन्न होता है। यह वाद्य लकड़ी के दो चोब के प्रहार से बजाया जाता है। जब कुशल वादक नक्कारा वादन करते हैं तो बिना माइक्रोफोन के इसकी आवाज़ दूर-दूर तक पहुँचती है। लोकगीतों के साथ तालवाद्य के रूप में आमतौर पर ढोलक और नक्कारा का प्रयोग होता रहा है। शहनाई या सुन्दरी वाद्य के साथ नक्कारा की संगति बेहद कर्णप्रिय होती है। अठारहवीं शताब्दी से हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में अत्यन्त लोकप्रिय लोकनाट्य शैली ‘नौटंकी’ का तो यह अनिवार्य संगति वाद्य होता है। लोकनाट्य शैली नौटंकी को विभिन्न क्षेत्रों में सांगीत, स्वांग, रहस, भगत आदि नामों से भी पुकारा जाता है। नौटंकी संगीत प्रधान नाट्य शैली है जिसका कथानक पौराणिक, ऐतिहासिक अथवा लोकगाथाओं पर आधारित होता है। अधिकतर संवाद गेय और छन्दबद्ध होते हैं। नौटंकी के छन्द दोहा, चौबोला, दौड़, बहरेतबील, लावनी आदि के रूप में होते हैं। नौटंकी का ढाँचा पूरी तरह छन्दबद्ध होता है और इसके कलाकार काफी ऊँचे स्वर में गायन करते हैं, इसीलिए ऊँचे स्वर वाला नक्कारा ही इन छन्दों के लिए अनुकूल संगति वाद्य है। आइए अब हम आपको प्रसिद्ध नौटंकी ‘लैला मजनूँ’ के कुछ छंदों का रसास्वादन कराते है। इन अंशों में नक्कारे की आकर्षक संगति की गई है। इन प्रसंगों को हमने 1966 की फिल्म ‘तीसरी कसम’ से लिया है। चर्चित गीतकार शैलेन्द्र की यह महत्वाकांक्षी फिल्म थी जिसमें संगीतकार शंकर जयकिशन ने लोकगीतों की मौलिकता को बरक़रार रखा। इसी फिल्म के एक प्रसंग में ग्रामीण मंच पर नौटंकी ‘लैला मजनूँ’ का मंचन हो रहा है। अभिनेत्री वहीदा रहमान नौटंकी की नायिका हैं। नौटंकी के दोहा, चौबोला, दौड़ और बहरेतबील छंदों के उदाहरण इस अंश में उपस्थित है। अपने समय के चर्चित कव्वाली गायक शंकर व शम्भू तथा पार्श्वगायिका मुबारक बेगम ने इन अंशों में अपने स्वर दिये हैं। नौटंकी लोकनाट्य में नक्कारा एक संगति वाद्य के रूप में कितना महत्त्वपूर्ण है, इसका स्पष्ट अनुभव आपको यह संगीत अंश सुन कर सहज ही होगा। आप इन छंदों का रसास्वादन कीजिए और मुझे आज के इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।
नक्कारा संगति: नौटंकी – लैला मजनूँ : फिल्म – तीसरी कसम : स्वर – शंकर, शम्भू और मुबारक बेगम : संगीत – शंकर जयकिशन
आज की पहेली
‘स्वरगोष्ठी’ के 166वें अंक की पहेली में आज हम आपको एक कम प्रचलित वाद्य पर राग रचना का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। 170वें अंक की पहेली के सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।
1 – संगीत रचना के इस अंश को सुन कर पहचानिए कि इस रचना में किस राग की झलक है?
2 – यह रचना किस ताल में निबद्ध है?
आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 168वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’ की 164वीं कड़ी की पहेली में हमने आपको परदे वाले अप्रचलित गज-तंत्र वाद्य मयूर वीणा के वादन का अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। इस जाति के वाद्य- इसराज, दिलरुबा, तार शहनाई, ताऊस और मयूर वीणा की बनावट और इनके स्वर निकास में काफी समानता होती है। पहले प्रश्न के रूप में हमने वाद्ययंत्र का नाम पूछा था, जिसका सही उत्तर है- मयूर वीणा। परन्तु जिन प्रतिभागियों ने इसके समान वाद्यों का उल्लेख किया है, उनके उत्तर को भी हमने सही माना है। पहेली के दूसरे दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- राग मारू बिहाग। इस अंक के दोनों प्रश्नो के सही उत्तर जबलपुर से क्षिति तिवारी (इसराज), हैदराबाद की डी. हरिणा माधवी (तार शहनाई/दिलरुबा) तथा हमारी एक नई संगीतसाधिका पेंसिलवानिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया ने (दिलरुबा) दिया है। चण्डीगढ़ के हरकीरत सिंह ने और जौनपुर के डॉ. पी.के. त्रिपाठी ने केवल दूसरे प्रश्न का सही उत्तर दिया है। सभी पाँच प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।
अपनी बात
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
Comments
Thank you for your comments for the last questionary . You are full of information about different instruments not yet known to the general public as well as the knowledgable musicians. Nakkara or Nagara are well known at the village weddings, Arati in the temples and war. I remember going to the concerts of shahanai By Ustad Bismilla Khan and party where they used Nagara for Taal. so the sound is familiar.
Regards,
Vijaya Rajkotia