एक गीत सौ कहानियाँ - 32
‘हरि दिन तो बीता, शाम हुई ...’
1977 की यादगार फ़िल्म 'किताब' आपने ज़रूर देखी होगी। बहुत ही सुन्दर फ़िल्म, किरदार ऐसे कि जैसे हमारी-आपकी ज़िन्दगी के किरदार हों। फ़िल्म की मूल कहानी विख्यात बांग्ला लेखक समरेश बसु की कहानी 'पथिक' थी जिसे गुलज़ार साहब ने 'किताब' के रूप में हिन्दी दर्शकों के लिए प्रस्तुत किया। बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद कार्य में भूषण बनमाली और देबब्रत सेनगुप्ता ने गुलज़ार की मदद की। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे उत्तम कुमार, विद्या सिन्हा, दीना पाठक, मास्टर राजू और मास्टर टिटो प्रमुख। फ़िल्म की हर बात अनोखी थी, और उतने ही अनोखे थे इस फ़िल्म के सभी गानें। गुलज़ार और पंचम की जोड़ी हर बार कुछ न कुछ कमाल कर जाते। पर इस फ़िल्म में तो इनकी जोड़ी ने वह कमाल किया है कि इसके जैसे गानें फिर किसी अन्य फ़िल्म में सुनाई नहीं दिये। फ़िल्म में कुल चार गीत थे - पंचम का गाया "धन्नो की आँखों में रात का सुरमा", पद्मिनी और शिवांगी की आवाज़ों में "मास्टरजी की आ गई चिट्ठी", सपन चक्रवर्ती का गाया "मेरे साथ चले ना साया" और राजकुमारी की आवाज़ में लोरी "हरि दिन तो बीता शाम हुई रात पार करा दे"। पहला और दूसरा गीत जितना मशहूर हुआ उसकी तुलना में बाकी दो गीत ज़्यादा सुनाई नहीं दिये और आज तो इन्हें दुनिया लगभग भुला ही चुकी है। इन चारों गीतों की एक ख़ास बात यह थी कि इन्हें उस दौर के लोकप्रिय गायकों से नहीं बल्कि कमचर्चित या कमसुने गायकों से गवाये गये। एक गीत तो पंचम ने ख़ुद गाया, एक गीत अपने सहयोगी सपन चक्रवर्ती से गवाया; पद्मिनी और शिवांगी को भी पंचम पहले से ही जानते थे, फ़िल्म 'यादों की बारात' से जिसमें इन दोनों ने लता मंगेशकर के साथ फ़िल्म का शीर्षक गीत गाया था।
तीन गीतों के गायक कलाकार फ़ाइनल हो गये, पर चौथे गीत की गायिका का चयन अभी बाक़ी था। पंचम और गुलज़ार, दोनों को समझ नहीं आ रहा था कि आख़िर किससे यह गीत गवाया जाए! यह गीत एक लोरी थी जो दीना पाठक पर फ़िल्माया जाना था। इसलिए किसी कम उम्र की आवाज़ या किसी जानी-पहचानी आवाज़ से गवाना उन्हें उचित नहीं लग रहा था। जब दोनों की यह बातचीत चल रही थी तब वहाँ गुलज़ार साहब के ऐसिस्टैण्ट प्रदीप दुबे भी बैठे थे। जानते हैं ये प्रदीप दुबे कौन हैं? गायिका राजकुमारी जी के बेटे। राजकुमारी गुमनामी के अन्धेरे में चली गईं थीं। 40 के दशक के अन्त तक राजकुमारी ने पार्श्वगायन जगत में राज किया, पर लता, आशा, गीता आदि नये दौर की गायिकाओं के आने पर धीरे धीरे पिछड़ती गईं और धीरे धीरे दुनिया उन्हें भुलाती चली गई, और उनकी माली हालत भी गिरती चली गई। घर चलाने के लिए कल की मशहूर गायिका अब कोरस में नज़रे चुरा कर गातीं। 1972 की फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' के बैकग्राउण्ड स्कोर की जब रेकॉर्डिंग हो रही थी, तब नौशाद साहब ने अचानक कोरस में खड़ीं राजकुमारी को पहचान लिया। वो चौंक गये। नौशाद साहब को राजकुमारी की यह अवस्था देख कर बहुत बुरा लगा। संगीतकार बनने से पहले जिस गायिका के गानें सुना करते थे, जिनकी वो इतनी इज़्ज़त करते थे, वही गायिका दो वक़्त की रोटी जुटाने के लिए अब उन्हीं के कोरस में गा रही है, यह सोच कर उनकी आँखें नम हो गईं। उन्होंने फ़ौरन फ़िल्म 'पाक़ीज़ा' के लिए एक गीत तैयार किया और राजकुमारी की एकल आवाज़ में रेकॉर्ड किया। यह गीत था "नजरिया की मारी"। लेकिन इस गीत के बाद भी किसी और संगीतकार ने उनकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया। अब वापस आते हैं उनके बेटे प्रदीप दुबे पर जो गुलज़ार और पंचम के यहाँ बैठे थे। प्रदीप को देख कर गुलज़ार साहब को अचानक ख़याल आया कि क्यों न यह लोरी राजकुमारी जी से गवाया जाये। पंचम को भी आइडिया अच्छा लगा। दोनों के कहने पर प्रदीप ने पंचम और राजकुमारी की मुलाक़ात फ़िक्स कर दी। राजकुमारी उन दिनों मुंबई के किसी चाल में रहती थीं और अपनी गरीबी से जूझ रही थीं। तो उनसे मिलने पंचम ख़ुद उस चाल में गये। गुलज़ार-पंचम के बनाये गीत को गाने का ऑफ़र सुन कर राजकुमारी चौंक गईं और डर भी गईं कि क्या वो गा पायेंगी, क्या वो गीत के साथ न्याय कर पायेंगी! पंचम के समझाने पर वो मान गईं और इस तरह से रेकॉर्ड हुआ यह नायाब गीत जिसकी तुलना किसी अन्य गीत से नहीं की जा सकती। इस गीत को राजकुमारी जी का गाया अन्तिम फ़िल्मी गीत माना जाता है। पर कुछ लोगों का कहना है कि इसके बाद भी पंचम ने एक और गीत उनकी आवाज़ में रेकॉर्ड किया था, पर उसकी जानकारी उपलब्ध नहीं हो सकी।
पंचम और सपन चक्रवर्ती |
"हरि दिन तो बीता शाम हुई" दरअसल एक बांग्ला गीत का हिन्दी संस्करण है। केवल धुन ही नहीं बल्कि गीत के बोल भी बांग्ला गीत के बोलों का ही लगभग अनुवाद है। मूल गीत एक बांग्ला लोकगीत है जिसके बोल हैं "होरि दिन तो गेलो शोन्धा होलो, पार कोरो आमारे" जिसका हिन्दी अनुवाद है "हरि, दिन तो बीता शाम हुई, मुझे पार करा दे", जिसका भाव यह है कि ज़िन्दगी तो बीत चुकी है, अब उस पार पहुँचा दे भगवान। पर 'किताब' के हिन्दी गीत में भाव को थोड़ा सा बदल कर उस पार पहुँचाने के स्थान पर रात पार कराने अर्थात दुखद या मुश्किल की घड़ियों को पार कराने की बात कही गई है। किस चतुराई से एक दार्शनिक भजन को लोरी में परिवर्तित किया है पंचम और गुलज़ार ने। वैसे कहा जाता है कि इस धुन की तरफ़ पंचम का ध्यान सपन चक्रवर्ती ने ही दिलाया था। एक और बात यह कि इस बांग्ला लोकगीत को सत्यजीत रे ने अपनी 1955 की माइलस्टोन फ़िल्म 'पौथेर पाँचाली' में चुनीबाला देवी से गवाया था। 2006 में बांग्ला फ़िल्म 'कृष्ण आमार प्राण' फ़िल्म में शिल्पि पाल ने इस भजन को गाया था। 2012 की बांग्ला फ़िल्म 'इडियट' में इस गीत के मुखड़े को लेकर नये अंदाज़ में एक गीत ज़ुबीन ने गाया था। ऐसी बात नहीं कि हिन्दी फ़िल्मों में इस धुन का इस्तेमाल केवल 'किताब' के इस गीत में ही हुआ है। राजेश रोशन एक ऐसे संगीतकार रहे जिन्होंने एक बार नहीं, दो बार नहीं, बल्कि कई कई बार रबीन्द्रसंगीत और अन्य बांग्ला धुनों का प्रयोग अपने गीतों में किया है। इस धुन का इस्तेमाल उन्होंने 1998 की फ़िल्म 'युगपुरुष' के गीत "चले हम दो जन सैर को चले संग चली हरियाली" में किया था जिसे कुमार सानु और रवीन्द्र साठे ने गाया था।
रेडियो ब्रॉडकास्टर अमीन सायानी ने जब एक इंटरव्यू में राजकुमारी जी से पूछा कि इतने अच्छे गाने गाने के बाद भी फ़िल्मों में गाना क्यों छोड़ा, तो राजकुमारी जी ने जवाब दिया - "मैंने फ़िल्मों के लिए गाना कब छोड़ा, मैंने छोड़ा नहीं, मैंने कुछ छोड़ा नहीं, वैसे लोगों ने बुलाना बन्द कर दिया। अब यह मैं नहीं बता पायूंगी कि क्यों बुलाना बन्द कर दिया"। कितना कष्ट हुआ होगा उन्हें ये शब्द कहते हुए इसका अन्दाज़ा लगाना कठिन नहीं। संयोग की बात देखिये कि उनके गाये इस अन्तिम गीत के बोल कैसे उन्हीं पर लागू हुए। हरि दिन तो बीता शाम हुई, रात पार करा दे। और एक दिन सचमुच युं लगा मानो मायूसी के अन्धेरों में घिरी हुई उस लम्बी काली रात का अन्त हो गया हो। जैसे निराशा के थपेड़ों में घिरी उस कश्ती को किनारा मिल गया हो। साल 2000 में गरीबी में घिरी राजकुमारी जी सदा के लिए शान्त हो गईं, भगवान ने उनकी रात पार करा दी। बस इतनी सी थी आज की कहानी।
फिल्म - किताब : 'हरि दिन तो बीता, शाम हुई...' : गायिका - राजकुमारी : संगीत - राहुलदेव बर्मन : गीत - गुलजार
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खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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Akhil