स्मृतियों के स्वर - 02
"मेरी यादों में साहिर लुधियानवी" - हसन कमाल
सूत्र: विविध भारती, मुंबई
कार्य्रक्रम: "मेरी यादों में साहिर लुधियानवी" - हसन कमाल
प्रसारण वर्ष: 1999
पुन: प्रसारण तिथि: 1 मार्च 2008 ('स्वर्ण स्मृति' के अन्तर्गत)
पुन: प्रसारण तिथि: 1 मार्च 2008 ('स्वर्ण स्मृति' के अन्तर्गत)
साहिर लुधियानवी साहब से मेरी पहली मुलाक़ात लखनऊ में हुई थी, जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी का स्टुडेण्ट था, और वो यूनिवर्सिटी के एक मुशायरे में पहली बार लखनऊ आ रहे थे। यह वह ज़माना था जब साहिर लुधियानवी का वह क्रेज़ था कि लोग कहते थे कि अगर कोई साहिर लुधियानवी का नाम नहीं जानता, तो या तो वो शायरी के बारे में कुछ नहीं जानता, या फिर वो नौजवाँ नहीं, क्योंकि साहिर लुधियानवी उस ज़माने में नौजवानों के महबूबतरीन शायर हुआ करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं उन्हें रिसीव करने के लिए दूसरे स्टुडेण्ट्स के साथ चारबाग़ पहुँचा, तो मेरी ख़ुशी का यह हाल था कि जैसे न जाने यह मेरी ज़िन्दगी का कौन सा दिन है और इस हस्ती के दीदार के बग़ैर हमें यह लग रहा था कि ज़िन्दगी अधूरी रहेगी। वो तशरीफ़ लाये, हम लोग उन्हें वहाँ से रिसीव करके लाये, और उन्हें एक होटल में ठहराया गया, और मेरा उनसे तार्रूफ़ यह कह कर करवाया गया कि 'साहिर लुधियानवी साहब, ये हसन कमाल हैं, हमारे बहुत ही तेज़ और तर्रार क़िस्म के तालीबिल्मों में, स्टुडेण्ट्स में, और इनकी सबसे बड़ी ख़ुसूसियत यह है कि इन्हें आप की नज़्म 'परछाइयाँ', जो 19 पन्नों की लम्बी नज़्म थी, ज़बानी याद है'। साहिर साहब बहुत ख़ुश हुए, और शाम को जब हम उन्हें लेने गये तो वक़्त से कुछ पहले पहुँच गये थे, तो उन्होंने बात करते करते अचानक कहा कि 'भाई, किसी ने मुझे बताया कि तुम्हे 'परछाइयाँ' पूरी याद है?' मैंने अर्ज़ किया कि 'जी हाँ'। कहने लगे कि 'अच्छा, तो सुनाओ'। और मैंने पूरी 'परछाइयाँ' नज़्म उनको एक ही नशिश्ट में पढ़ कर सुना दी। और वो सुनते रहे। और जब नज़्म ख़त्म हुई तो उनका कमेण्ट यह था कि 'भई ऐसा है कि मैं पंजाबी हूँ, और शेर बहुत बुरा पढ़ता हूँ, और आज जब तुमको अपनी नज़्म पढ़ते सुना, तो मुझे यह महसूस हो रहा है कि आज के मुशायरे में मेरे बजाय मेरी शायरी तुम ही सुनाना'।
यह वह ज़माना था जब उनके गीत भी अपना रंग जमा चुके थे, और फ़िल्म 'नौजवान' में उनका गाना "ठण्डी हवायें, लहराके आयें", 'टैक्सी ड्राइवर' में उनका गाना "जायें तो जायें कहाँ", ये सब चारों तरफ़ मुल्क भर में गूंज रहे थे, और मैं समझता हूँ उसी दौर में उनका एक नज़्म 'धूल का फूल' भी रिलीज़ हुई थी। तो मैंने उनसे शिकायत की कि 'धूल का फूल' के गाने मैंने सुने हैं साहिर साहब, गाने बहुत अच्छे हैं, मगर महेन्द्र कपूर साहब ने दो एक तलफ़्फ़ुज़ में ग़लती की है। कहने लगे 'कहाँ?', मैंने कहा मिसाल के तौर पर उसमें एक गाना है कि "बेक़रारों की दुनिया", "सम्भल जायें हम बेक़रारों की दुनिया", उन्होंने "बेकरारों की दुनिया" गाया है, ना कि "बेक़रारों की दुनिया"। तो उन्होंने कहा कि तलफ़्फ़ुज़ की ग़लती उनसे (महेन्द्र कपूर से) हुई। फिर कहने लगे कि "तलफ़्फ़ुज़ की ग़लती तो मुझसे भी होती है, मैं भी पंजाबी हूँ"। और वो मेरी ज़िन्दगी का यादगार दिन था क्योंकि साहिर उस वक़्त महबूबतरीन शायर थे।
फिर मैं बम्बई आया, तो उनसे मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हुआ। और वो मुझे बहुत अज़ीज़ लगते थे, और अक्सर उनके यहाँ जब पार्टी वगेरह होती थी, मुझे बुलाते थे और नौजवान कह कर बुलाते थे। और कहते थे कि 'यह ख़िदमत तुम्हारे सुपूर्त है'। और यह सिलसिला काफ़ी अरसे तक चलता रहा। उनके इन्तकाल की ख़बर मैंने कनाडा में सुनी। हम लोग एक मुशायरे में वहाँ गये हुए थे जब यह मालूम हुआ कि साहिर साहब इस दुनिया में नहीं रहे और मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं कमरा बन्द करके बहुत देर तक रोया किया था।
साहिर की नज़्मों ने मोटिवेट किया नौजवानों को। साहिर की नज़्मों ने एक प्रोग्रेसिव रुमानियत का तसव्वुर दिया, और साहिर की नज़्मों ने एक आग सी लगा दी थी उस वक़्त के माहौल में। आप यकीन करें कि मैंने आज तक इतना महबूब शायर नहीं देखा। उनके कलाम के बारे में लोगों के मुख़्तलीफ़ रायें हैं, क्रिटिक्स के कुछ हैं, सुनने वालों की कुछ हैं, पढ़ने वालों की कुछ हैं, लेकिन मुझे यह अच्छी तरह से मालूम है कि उनके जो मजमूयें हैं, कलाम हैं 'तल्ख़ियाँ', आज तक 'तल्ख़ियाँ' के जितने एडिशन्स छपे हैं, किसी दूसरी शायरी के, मजमूयें के नहीं छपे। यह मैं आज के दौर की बात कर रहा हूँ, ग़ालिब वगेरह की तो ख़ैर बात अलग है, लेकिन जो आज़ादी के बाद, जिन शायरों के नाम हमारे सामने आते हैं, उनमें साहिर लुधियानवी वाहिद नाम है जिसकी किताब के 21 एडिशन उस वक़्त छप चुके थे जिस वक़्त वो ज़िन्दा थे। और आज तक यह सिलसिला जारी है। एक ख़ुसूसी बात जो मैंने उनमें नोट की थी वह यह कि वो अपनी मक़बूलियत को पहचानते हुए भी और जानते हुए भी कभी यह नहीं भूले कि उनकी अपनी जड़ें कहाँ हैं। यानी वो जब भी तन्हा होते थे, तो एक बात यह कहते थे कि 'मैंने जो शायरी की है, उसकी जड़ें फ़ैज़ और मजाज़ के यहान हैं'। और उन्होंने मजाज़ को बहुत दिनों तक अपने यहाँ महमान भी रखा। मजाज़ के वो बे-इन्तहा कायल थे, मजाज़ से बे-इन्तहा मोहब्बत करते थे।
साहिर लुधियानवी के मौत के बाद मुशायरों की दुनिया में कोई ऐसा मकबूक शायर नज़र नहीं आया कि जिसको हम आम ज़बान में क्राउड-पुलर कह सके। साहिर का नाम लेते ही जैसे लड़कों और लड़कियों के ठक लग जाते थे। मुझे मालूम है कि जब वो लुधियाना बुलाये गये एक बार, यहाँ वो कभी स्टुडेण्ट रहा करते थे, तो उस वक़्त लुधियाना में जब यह मालूम हुआ कि साहिर लुधियानवी आ गये हैं, तो कोई भी नौजवान पढ़ा लिखा, मर्द, औरत, लड़का और लड़की ऐसा नहीं था जो उस कॉलेज में मौजूद न हो जहाँ वो अपना कलाम सुना रहे थे, मुझे उनका ज़िक्र हुआ तो मीर का शेर याद आया जो उन पर बहुत सादिक़ाता है कि "पैदा कहाँ है कि ऐसे परागन्दातबा लोग, अफ़सोस तुमको मीर से सोहोबत नहीं रही"। मेरी ख़ुशनसीबी है कि मेरी साहिर साहब से सोहोबत रही और ख़ूब रही, मोहब्बतें रही, लड़ाइयाँ रही, प्यार रहा, और ये सब मेरी ज़िन्दगी की बहुत ख़ूबसूरत निशानियाँ हैं।
हसन कमाल |
फिर मैं बम्बई आया, तो उनसे मुलाक़ातों का सिलसिला शुरू हुआ। और वो मुझे बहुत अज़ीज़ लगते थे, और अक्सर उनके यहाँ जब पार्टी वगेरह होती थी, मुझे बुलाते थे और नौजवान कह कर बुलाते थे। और कहते थे कि 'यह ख़िदमत तुम्हारे सुपूर्त है'। और यह सिलसिला काफ़ी अरसे तक चलता रहा। उनके इन्तकाल की ख़बर मैंने कनाडा में सुनी। हम लोग एक मुशायरे में वहाँ गये हुए थे जब यह मालूम हुआ कि साहिर साहब इस दुनिया में नहीं रहे और मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं कमरा बन्द करके बहुत देर तक रोया किया था।
युवा साहिर |
साहिर लुधियानवी के मौत के बाद मुशायरों की दुनिया में कोई ऐसा मकबूक शायर नज़र नहीं आया कि जिसको हम आम ज़बान में क्राउड-पुलर कह सके। साहिर का नाम लेते ही जैसे लड़कों और लड़कियों के ठक लग जाते थे। मुझे मालूम है कि जब वो लुधियाना बुलाये गये एक बार, यहाँ वो कभी स्टुडेण्ट रहा करते थे, तो उस वक़्त लुधियाना में जब यह मालूम हुआ कि साहिर लुधियानवी आ गये हैं, तो कोई भी नौजवान पढ़ा लिखा, मर्द, औरत, लड़का और लड़की ऐसा नहीं था जो उस कॉलेज में मौजूद न हो जहाँ वो अपना कलाम सुना रहे थे, मुझे उनका ज़िक्र हुआ तो मीर का शेर याद आया जो उन पर बहुत सादिक़ाता है कि "पैदा कहाँ है कि ऐसे परागन्दातबा लोग, अफ़सोस तुमको मीर से सोहोबत नहीं रही"। मेरी ख़ुशनसीबी है कि मेरी साहिर साहब से सोहोबत रही और ख़ूब रही, मोहब्बतें रही, लड़ाइयाँ रही, प्यार रहा, और ये सब मेरी ज़िन्दगी की बहुत ख़ूबसूरत निशानियाँ हैं।
************************************************************
ज़रूरी सूचना:: उपर्युक्त लेख 'विविध भारती' के कार्यक्रम का अंश है। इसके सभी अधिकार विविध भारती के पास सुरक्षित हैं। किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा इस प्रस्तुति का इस्तमाल व्यावसायिक रूप में करना कॉपीराइट कानून के ख़िलाफ़ होगा, जिसके लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ज़िम्मेदार नहीं होगा।
तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
Comments