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एक गीत सौ अफ़साने || एपिसोड 03 || दुनिया में जब प्यार बरसे

एक गीत सौ अफ़साने की तीसरी कड़ी में आज चर्चा फिल्म "दिल्ली बेली" के लाजवाब गीत "दुनिया में जब प्यार बरसे" की  Ek Geet Sau Afsane explores the interesting unknown and unheard back stories of a Song. Every song has its own journey, and every new episode of this program is an attempt to understand the process behind making a song. with program head Sangya Tandon, her dedicated team of podcasters are here to tell these insightful stories that went behind in the process of making a song, enjoy. आप हमारे इस पॉडकास्ट को इन पॉडकास्ट साईटस पर भी सुन सकते हैं  Spotify Amazon music   Google Podcasts Apple Podcasts Gaana JioSaavn हम से जुड़ सकते हैं - facebook  instagram  YouTube  Hope you like this initiative, give us your feedback on radioplaybackdotin@gmail.com

फिल्मों के आँगन में ठुमकती पारम्परिक ठुमरी – ७

स्वरगोष्ठी – ९६ में आज लौकिक और आध्यात्मिक भाव का बोध कराती ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’ चौथे से लेकर छठें दशक तक की हिन्दी फिल्मों के संगीतकारों ने राग आधारित गीतों का प्रयोग कुछ अधिक किया था। उन दिनों शास्त्रीय मंचों पर या ग्रामोफोन रेकार्ड के माध्यम से जो बन्दिशें, ठुमरी, दादरा आदि बेहद लोकप्रिय होती थीं, उन्हें फिल्मों में कभी-कभी यथावत और कभी अन्तरे बदल कर प्रयोग किये जाते रहे। चौथे दशक के कुछ संगीतकारों ने फिल्मों में परम्परागत ठुमरियों का बड़ा स्वाभाविक प्रयोग किया था। फिल्मों में आवाज़ के आगमन के इस पहले दौर में राग आधारित गीतों के गायन के लिए सर्वाधिक यश यदि किसी गायक को प्राप्त हुआ, तो वह कुन्दनलाल (के.एल.) सहगल ही थे। उन्होने १९३८ में प्रदर्शित ‘न्यू थियेटर’ की फिल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ में शामिल पारम्परिक ठुमरी- ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय...’ गाकर उसे कालजयी बना दिया। ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक में आप संगीत-प्रेमियों के बीच, मैं कृष्णमोहन मिश्र, भैरवी की इसी ठुमरी से जुड़े कुछ तथ्यों पर चर्चा करूँगा। अ वध के नवाब वाजिद अली शाह संगीत-नृत

स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 17

भूली-बिसरी यादें भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला ‘स्मृतियों के झरोखे से’ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने साथी सुजॉय चटर्जी के साथ आपके बीच उपस्थित हुआ हूँ। आज मास का पहला गुरुवार है और पहले व तीसरे गुरुवार को हम आपके लिए मूक और सवाक फिल्मों की कुछ रोचक दास्तान लेकर आते हैं। तो आइए पलटते हैं, भारतीय फिल्म-इतिहास के कुछ सुनहरे पृष्ठों को। यादें मूक फिल्मों के युग की : नवयुवक सालुंके बने थे तारामती अन्ततः 3मई, 1913 को मुम्बई के कोरोनेशन सिनेमा में दादा साहब फालके द्वारा निर्मित प्रथम मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन हुआ। विदेशी उपकरणों की सहायता से किन्तु भारतीय कथानक पर भारतीय कलाकारों द्वारा इस फिल्म का निर्माण हुआ था। ढुंडिराज गोविन्द फालके, उपाख्य दादा साहब फालके भारतीय फिल्म जगत के पहले निर्माता-निर्देशक ही नहीं बल्कि पहले पटकथा लेखक, कैमरामैन, मेकअप मैन, कला निर्देशक, सम्पादक आदि भी थे। फिल्म का एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि भारत की इस पहली फिल्म के नायक दत्तात्रेय दामोदर दबके थे जबकि नायि

"बाबुल मोरा नैहर छूट ही जाए" - कुंदनलाल सहगल की जयन्ती पर इस ठुमरी से संबंधित कुछ रोचक तथ्य

कई बार कुछ उक्तियाँ लोककंठ में इस प्रकार समा जाते हैं कि कभी-कभी तो उनका आगा-पीछा ही समझ में नहीं आता, कभी उसके अर्थ का अनर्थ होता रहता है और पीढी-दर-पीढी हम उस भ्रान्ति को ढोते रहते हैं। "देहरी भई बिदेस" भी ऐसा ही उदाहरण है जो कभी था नहीं, किन्तु कुन्दनलाल सहगल द्वारा गाई गई कालजयी ठुमरी में भ्रमवश इस प्रकार गा दिये जाने के कारण ऐसा फैला कि इसे गलत बतलाने वाला पागल समझे जाने के खतरे से शायद ही बच पाये। आज, ११ अप्रैल, सहगल साहब की जयन्ती पर इसी विषय पर चर्चा 'एक गीत सौ कहानियाँ' की १५-वीं कड़ी में सुजॉय चटर्जी के साथ... एक गीत सौ कहानियाँ # 15 १९३८ में 'न्यू थिएटर्स' की फ़िल्म ‘स्ट्रीट सिंगर’ ने एक बार फिर से १९३७ की फ़िल्म ‘विद्यापति’ जैसी विजयगाथा दोहराई। दोनों ही फ़िल्मों में रायचन्द बोराल का संगीत था। 'स्ट्रीट सिंगर' में कुंदनलाल सहगल और कानन देवी की जोड़ी पहली बार पर्दे पर नज़र आई और फ़िल्म सुपर-डुपर हिट हुई। बतौर निर्देशक यह फणि मजुमदार की भी पहली फ़िल्म थी। ‘स्ट्रीट सिंगर’ की कहानी दो बाल्यकाल के मित्रों – भुलवा (सहगल) और मंजू (कानन

"सैगल ब्लूज़" - सहगल साहब की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजली एक नए अंदाज़ में

कुंदनलाल सहगल को इस दुनिया से गए आज ६५ वर्ष हो चुके हैं, पर उनकी आवाज़ आज भी सर चढ़ के बोल रहा है। फ़िल्म 'डेल्ही बेली' में राम सम्पत और चेतन शशितल नें सहगल साहब को श्रद्धांजली स्वरूप जिस गीत की रचना की है, उसी की चर्चा सुजॉय चटर्जी के साथ, 'एक गीत सौ कहानियाँ' की तीसरी कड़ी में... एक गीत सौ कहानियाँ # 3 हिन्दी सिनेमा के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार के रूप में कुंदनलाल सहगल के नाम से हम सभी भली-भाँति वाक़िफ़ हैं। फ़िल्म-संगीत की जब शुरुआत हुई थी, तब वह पूर्णत: शास्त्रीय, उप-शास्त्रीय और नाट्य संगीत से प्रभावित थी। कुंदनलाल सहगल और न्यु थिएटर्स के संगीतकारों नें फ़िल्म-संगीत को अपनी अलग पहचान दी, और जनसाधारण में अत्यन्त लोकप्रिय बनाया। जब भी कभी फ़िल्म-संगीत का इतिहास लिखा जाएगा, सहगल साहब का नाम सबसे उपर स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। सहगल साहब की आवाज़ और गायकी का ३० और ४० के दशकों में कुछ ऐसा क्रेज़ था कि अगली पीढ़ी के नवोदित गायक उन्हीं की शैली को अनुकरण कर संगीत के मैदान में उतरते थे। तलत महमूद, मुकेश और किशोर कुमार तीन ऐसे बड़े नाम हैं जिन्होंने अपनी शुरुआत सहगल

भैरवी के सुरों में श्रृंगार, वैराग्य और आध्यात्म का अनूठा संगम -"बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए.."

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 685/2011/125 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की पाँचवी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका स्वागत करता हूँ| दोस्तों; संगीत के मंच की एक परम्परा है कि गायक या वादक अपनी प्रस्तुतियों का समापन राग भैरवी के गायन-वादन से करते हैं| आज की यह सप्ताहान्त प्रस्तुति है, अतः आज हमने आपके लिए जो ठुमरी चुनी है वह राग भैरवी में निबद्ध है| राग भैरवी को "सदा सुहागन राग" कहा गया है| संगीत के अन्य रागों को समय (प्रहर) या ऋतुओं में ही गाने-बजाने की परम्परा है, किन्तु "भैरवी" हर मौसम और हर समय कर्णप्रिय लगता है| राग "भैरवी की एक विशेषता यह भी होती है कि इस राग के बाद दूसरा कोई भी राग सुनने में अच्छा नहीं लगता, इसीलिए हर कलाकार द्वारा प्रस्तुति के अन्त में "भैरवी" का गायन-वादन किया जाता है| सभी कोमल स्वरों वाला यह राग उपशास्त्रीय और सुगम संगीत की रचनाओं के लिए सबसे उपयुक्त राग है| इसीलिए फिल्म संगीत में राग आधारित गीतों में सर्वाधिक संख्या भैरवी आधारित गीतों की ही है| श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हमने अवध

पिया बिन नाहीं आवत चैन: राग झिंझोटी के सुरों में उभरी देवदास की बेचैनी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 681/2011/121 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का नमस्कार! सजीव सारथी के निर्देशन में इस सुरीले कारवाँ को लेकर आगे बढ़ते हुए हम बहुत जल्द पहुँचने वाले हैं अपने ७००-वे पड़ाव पर। इस ख़ास मंज़िल को छू पाना हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि है। इसलिए हमें लगा कि जिस शृंखला के ज़रिये हम इस ७००-वे अंक तक पहुँचेंगे, वह शृंखला बेहद ख़ास होनी चाहिए। इस मनोकामना को साकार करने के लिए हम एक बार फिर से आमंत्रित कर रहे हैं हमारे अतिथि स्तंभकार और वरिष्ठ कला-समीक्षक व पत्रकार श्री कृष्णमोहन मिश्र को। आइए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अगले तीस अंकों (६८१ से ७१०) का हम आनंद लें कृष्णमोहन जी के साथ। ************************************************************************ 'ओल्ड इज गोल्ड' के संगीत प्रेमी पाठकों/श्रोताओं का आज से शुरू हो रही हमारी नई श्रृंखला 'रस के भरे तोरे नैन...' में कृष्णमोहन मिश्र की ओर से हार्दिक स्वागत है| आपको शीर्षक से ही यह अनुमान हो ही गया होगा कि इस श्रृंखला का विषय फिल्मों में शामिल उपशास्त्रीय गायन शैली "ठुमरी

एक राजे का बेटा लेकर उड़ने वाला घोड़ा....सुनिए एक कहानी सहगल साहब की जुबानी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 671/2011/111 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह के साथ मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ आप सब की ख़िदमत में हाज़िर हूँ। दोस्तों, बचपन में हम सभी नें अपने दादा-दादी, नाना-नानी और माँ-बाप से बहुत सारी किस्से कहानियाँ सुनी हैं, है न? उस उम्र में ये कहानियाँ हमें कभी परियों के साम्राज्य में ले जाते थे तो कभी राजा-रानी की रूप-कथाओं में। कभी भूत-प्रेत की कहानियाँ सुन कर रात को बाथरूम जाने में डर भी लगा होगा आपको। और हम जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं, हमारी कहानियाँ भी उम्र और रुचि के साथ साथ बदलती चली जाती है। कहानी-वाचन भी एक तरह की कला है। एक अच्छा कहानी-वाचक सुनने वालों को बाकी सब कुछ भूला कर कहानी में मग्न कर देता है, और कहानी के साथ जैसे वो बहता चला जाता है। हमारी फ़िल्में भी कहानी कहने का एक ज़रिया है। और फ़िल्मों के गीत भी ज़्यादातर समय फ़िल्म की कहानी को ही आगे बढ़ाते हैं। लेकिन कई बार ऐसा भी हुआ है कि कोई फ़िल्मी गीत भी अपने आप में कोई कहानी कहता है। कुछ ऐसे ही गीतों को लेकर, जिनमें छुपी है कोई कहानी, हम आज से एक नई शृंखला की शुरुआत कर

मोहब्बत में कभी ऐसी भी हालत पायी जाती है.....और मोहब्बत के भेद बताते बताते यूं हीं एक दिन अचानक सहगल साहब अलविदा कह गए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 630/2010/330 सु र-सम्राट कुंदन लाल सहगल को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की अंतिम कड़ी में आप सभी का स्वागत है। कल हमारी बातचीत १९४६ की यादगार फ़िल्म 'शाहजहाँ' पर आकर रुकी थी। इसी साल लाल मोहम्मद के संगीत में मुरारी पिक्चर्स की फ़िल्म आयी 'ओमर ख़ैयाम', जिसमें सहगल साहब एक बार फिर सुरैया के साथ नज़र आये। और फिर आया भारत के इतिहास का सुनहरा वर्ष १९४७। हालाँकि यह सुनहरा दिन १५ अगस्त को आया, इस साल की शुरुआत एक ऐसी क्षति से हुई जिसकी फिर कभी भरपाई नहीं हो सकी। १८ जनवरी को सहगल साहब चल बसे। पूरा देश ग़म के सागर में डूब गया। एक युग जैसे समाप्त हो गया। आपको शायद पता होगा कि उस दौरान लता मंगेशकर संघर्ष कर रही थीं और फ़िल्मों में अभिनय किया करती थीं अपने परिवार को चलाने के लिए। लता ने अपनी कमाई में से कुछ पैसे बचाकर एक रेडिओ ख़रीदा और घर लौट कर उसे 'ऒन' किया और आराम से बिस्तर पर लेट गईं। और तभी रेडियो पर सहगल साहब के इंतकाल की ख़बर आई। लता इतनी हताश हुईं कि उस रेडियो को जाकर वापस कर आईं। लता के उस व

चाह बरबाद करेगी हमें मालूम न था....एक गीत जो वास्तव में बेहद करीब था सहगल के जीवन के भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 629/2010/329 फ़ि ल्म जगत के प्रथम सिंगिंग् सुपरस्टार कुंदन लाल सहगल को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की नौवीं कड़ी में आप सब का एक बार फिर बहुत बहुत स्वागत है। १९४२ में 'भक्त सूरदास' और १९४३ में 'तानसेन' में अभिनय व गायन करने के बाद १९४४ में सहगल साहब और रणजीत मूवीटोन के संगम से बनीं एक और लाजवाब म्युज़िकल फ़िल्म 'भँवरा'। लेकिन इस फ़िल्म को वो बुलंदी नहीं मिली जो 'भक्त सूरदास' और 'तानसेन' को मिली थी। आपको शायद याद होगा इस फ़िल्म का अमीरबाई के साथ उनका गाया गीत " क्या हमने बिगाड़ा है, क्यों हमको सताते हो " हमनें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'गीत गड़बड़ी वाले' में सुनवाया था और बताया कि किस तरह से सहगल साहब नें इस गाने में गड़बड़ी की थी। ख़ैर, इसी साल १९४४ में सहगल साहब वापस कलकत्ता गये और उसी न्यु थिएटर्स के लिए एक फ़िल्म में अभिनय/गायन किया जिस न्यु थिएटर्स से वो शोहरत की बुलंदियों तक पहुँचे थे। यह फ़िल्म थी 'माइ सिस्टर'। पंडित भूषण के लिख

दीया जलाओ, जगमग जगमग....बैजू बावरा की आवाज़ बने थे सहगल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 628/2010/328 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में कुंदन लाल सहगल साहब के संगीत यात्रा की चर्चा करते हुए कल की कड़ी में हम आ पहुँचे थे वर्ष १९४२ में जब कलकत्ते के न्यु थिएटर्स को छोड़ सहगल साहब बम्बई के रणजीत मूवीटोन से जुड़ गये और यहाँ उनकी पहली फ़िल्म आयी 'भक्त सूरदास'। आइए आगे बढ़ते हैं और आज इस शृंखला की आठवीं कड़ी में चर्चा करते हैं रणजीत की ही एक और बेहद चर्चित फ़िल्म 'तानसेन' की जो बनी थी वर्ष १९४३ में। ज्ञान दत्त के जगह आ गये संगीतकार खेमचंद प्रकाश, जिन्होंने इस फ़िल्म के ज़रिये फ़िल्म संगीत जगत में हलचल पैदा कर दी। सहगल और ख़ुर्शीद अभिनीत इस फ़िल्म के गीत-संगीत नें न केवल खेमचंद प्रकाश की प्रतिभा का लोहा मनवाया, बल्कि संगीत सम्राट तानसेन के चरित्र को साकार करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। खेमचंद साहब नें ध्रुपद गायकी और राजस्थानी लोक संगीत, इन दोनों का ही इस्तेमाल कर और राग रागिनियों के प्रयोग से इस फ़िल्म के गीतों का ऐसा समा बांधा कि इस फ़िल्म के गीत फ़िल्म-संगीत धरोहर के अनमोल नगीने बन गये। शंकरा, मेघ मल्हार, दीपक, सारंग, दरबारी, तिलक कामोद और

मधुकर श्याम हमारे चोर.....आज उनकी जयंती पर हम याद कर रहे हैं हिंदी सिनेमा के पहले सिंगिंग स्टार के एल सहगल को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 627/2010/327 आ ज है ४ अप्रैल २०११। आज ही के दिन १०७ साल पहले जन्म हुआ था सुर-गंधर्व कुंदन लाल सहगल का। उन्हीं को समर्पित लघु शृंखला 'मधुकर श्याम हमारे चोर' की सातवीं कड़ी में आज हम उनकी जयंती पर उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करते हुए उनकी संगीत सफ़र की दास्तान को आगे बढ़ाते हैं। आज की कड़ी में हम क़दम रख रहे हैं ४० के दशक में। १९४० में सहगल साहब के अभिनय और गायन से सजी फ़िल्म आयी 'ज़िंदगी', जिसके गीतों नें एक बार फिर सिद्ध किया कि इस नये दशक के सरताज भी सहगल साहब ही हैं। "सो जा राजकुमारी सो जा", 'ज़िंदगी' की इस कालजयी लोरी को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर 'प्योर गोल्ड' शृंखला में हम सुनवा चुके हैं। १९४० में न्यु थिएटर्स में भीषण आग लगी जिससे इस स्टुडिओ को माली नुकसान पहुँचा। लेकिन अपने आप को संभालते हुए १९४१ में इस कंपनी ने दो फ़िल्में प्रदर्शित कीं - 'लगन' और 'डॊक्टर'। 'लगन' में कानन देवी और सहगल साहब की जोड़ी थी जबकि 'डॊक्टर' में कानन देवी का साथ दिया पंकज मल्लिक नें। आरज़ू लखनवी के लिखे और आर