Skip to main content

तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 08: आशा भोसले


तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी - 08
 
आशा भोसले 

यंत्रणा इतनी बढ़ गई कि दोनों बच्चों और गर्भ में पल रहे तीसरे सन्तान को लेकर आशा ने अपना ससुराल हमेशा के लिए छोड़ दिया


’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार। दोस्तों, किसी ने सच ही कहा है कि यह ज़िन्दगी एक पहेली है जिसे समझ पाना नामुमकिन है। कब किसकी ज़िन्दगी में क्या घट जाए कोई नहीं कह सकता। लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के जीवन में ऐसी दुर्घटना घट जाती है या कोई ऐसी विपदा आन पड़ती है कि एक पल के लिए ऐसा लगता है कि जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। पर निरन्तर चलते रहना ही जीवन-धर्म का निचोड़ है। और जिसने इस बात को समझ लिया, उसी ने ज़िन्दगी का सही अर्थ समझा, और उसी के लिए ज़िन्दगी ख़ुद कहती है कि 'तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी'। इसी शीर्षक के अन्तर्गत इस नई श्रृंखला में हम ज़िक्र करेंगे उन फ़नकारों का जिन्होंने ज़िन्दगी के क्रूर प्रहारों को झेलते हुए जीवन में सफलता प्राप्त किये हैं, और हर किसी के लिए मिसाल बन गए हैं। आज का यह अंक केन्द्रित है फ़िल्म जगत सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका आशा भोसले पर।
  

आशा भोसले एक ऐसा नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं। उनकी अपार सफलता और लोकप्रियता का आलम यह है कि आज अपने आठवें दशक में भी वो बच्चों, युवाओं और बड़ों, सभी में समान रूप से प्रिय हैं। हर दौर के श्रोताओं को अब तक वो अपनी आवाज़ और गीतों की ओर आकृष्ट कर रखी हैं, ऐसे मिसाल कम ही देखने को मिलते हैं। आज आशा भोसले की अपार सफलता को देख कर शायद लोग उनके शुरुआती जीवन और संघर्ष को अक्सर भूल जाते हैं। आज की पीढ़ी को तो शायद पता भी नहीं होगा कि आशा भोसले किन अंगारों पर चल कर आशा भोसले बनी हैं। आज वही दास्तान पेश है। आशा का जन्म 8 सितंबर 1933 को हुआ था, यानी कि वो बड़ी बहन लता से चार वर्ष छोटी हैं। घर पर अपने पिता (दीनानाथ मंगेशकर) से ही संगीत से आशा का परिचय हुआ। पर पिता-पुत्री का साथ बहुत दिनों तक नहीं चल सका। आशा केवल 8 वर्ष की थीं जब पिता ने इस संसार को अलविदा कह दिया। परिवार में अकेला कमाने वाले पिता के आकस्मिक चले जाने पर पाँच भाई-बहनों और माँ समेत छह लोगों के उस मंगेशकर परिवार की आर्थिक दुर्दशा हो गई। ऐसे में सबसे बड़ी सन्तान लता को कमर कस रोज़गार के क्षेत्र में उतरना पड़ा। ना चाहते हुए भी मेक-अप लगा कर वो फ़िल्मों में अभिनय करतीं, गीत गातीं, और इस तरह से परिवार के सदस्यों को दो वक़्त की रोटी नसीब होती रही। कुछ ही समय के पश्चात आशा ने भी अपनी बड़ी बहन की राह पर चलने लगी और वो भी अभिनय और गायन से थोड़ा बहुत कमाने लगीं। उनका गाया पहला गीत था 1943 की मराठी फ़िल्म ’माझा बाल’ का जिसके बोल थे "चला चला नव बाला..."। इसके बाद छोटे-मोटे रोल और गायन करते रहने के बाद 1948 में उन्हे अपनी पहली हिन्दी फ़िल्म ’चुनरिया’ में गीत गाने का अवसर मिला। यहाँ से फिर एक नई यात्रा उनकी शुरू हुई, पर अभी उनके और दुर्दिन आने ही वाले थे।


1949 के आते-आते बड़ी बहन लता स्थापित हो चुकी थीं ’महल’, ’लाहौर’, ’ज़िद्दी’, ’बरसात’ आदि फ़िल्मों में सुपरहिट गीत गा कर। अब वो ऐसी स्थिति में थीं कि अपना पर्सोनल सेक्रेटरी रख सकती थीं। लता ने गणपतराव भोसले नामक सज्जन को अपना पर्सोनल सेक्रेटरी बनाया। और यहीं पर एक गड़बड़ हो गई। बहन आशा और गणपतराव एक दूसरे से प्रेम करने लगे। जैसे ही लता को उनके प्रेम-संबंध का पता चला तो उन्हे अच्छा नहीं लगा। आशा के गणपतराव से विवाह करने के प्रस्ताव को मंगेशकर परिवार ने विरोध किया और विवाह की अनुमति नहीं दी। ऐसे में आशा घर छोड़ कर गणपतराव से विवाह कर लिया और ससुराल चली गईं। पति और नए परिवार के साथ नए जीवन की शुरुआत हुई। आशा जी बताती हैं कि विवाह के बाद 100 रुपये की अपनी पहली कमाई को दोनों ने फ़ूटपाथ पर लगे बटाटा वडा खा कर मनाया था। आशा ने काम करना बन्द नहीं किया। बोरीवली में उनका ससुराल था; सुबह-सुबह लोकल ट्रेन से काम पर जातीं और शाम को घर लौटतीं। दिन गुज़रते गए, पर आशा को केवल या तो छोटी बजट की फ़िल्मों में या फिर खलनायिका के चरित्र पर फ़िल्माये जाने वाले गीत गाने के ही अवसर मिलने लगे। कारण, बड़ी बहन लता की अलौकिक आवाज़ जो फ़िल्मी नायिका पर बिल्कुल फ़िट बैठती थी। ऐसे में किसी अन्य नई आवाज़ का टिक पाना संभव नहीं था। आशा एक हिट गीत के लिए तरसती रहीं। दिन, महीने, साल गुज़रने लगे, पर आशा को कोई बड़ी फ़िल्म नसीब नहीं हुई। उधर अब आशा दो बच्चों की माँ भी बन चुकी थीं। एक तरफ़ बड़ी गायिका बनने की चाह, दूसरी तरफ़ घर-परिवार-बच्चे, और जो सबसे ख़तरनाक बात थी वह यह कि अब आशा के ससुराल वाले उन्हें परेशान करने लगे थे। आशा पर ससुराल में ज़ुल्म होने लगी। धीरे-धीरे यंत्रणा इतनी बढ़ गई कि दोनों बच्चों और गर्भ में पल रहे तीसरे सन्तान को लेकर आशा ने अपना ससुराल हमेशा के लिए छोड़ दिया और अपनी माँ के पास वापस आ गईं। लेकिन रिश्तों की जो दीवार आशा और मंगेशकर परिवार के बीच खड़ी हो गई थी, वह कभी पूरी तरीक़े से ढह नहीं पायी। एक तरफ़ बड़ी बहन एक के बाद एक सुपरहिट गीत गाती चली जा रही थीं, और दूसरी तरह आशा एक के बाद एक फ़्लॉप फ़िल्मों में गीत गा कर अपना और अपने बच्चों का पेट पाल रही थीं। आशा का जो संघर्ष 1943 में शुरू हुआ था, वह संघर्ष पूरे 13 वर्षों तक चला। और फिर 1957 में उनकी नई सुबह हुई जब फ़िल्म ’तुमसा नहीं देखा’ और ’नया दौर’ में उनके गाये गीतों ने बेशुमार लोकप्रियता प्राप्त की। फिर इसके बाद आशा भोसले को ज़िन्दगी में कभी पीछे मुड़ कर देखने की आवश्यक्ता नहीं पड़ी। और बाक़ी इतिहास है! ज़िन्दगी ने आशा भोसले से शुरुआती 13 सालों में कठिन परीक्षा ली, और अन्त में उन्हे गले लगा कर कहा कि आशा, तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी!


आपको हमारी यह प्रस्तुति कैसी लगी, हमे अवश्य लिखिए। हमारा यह स्तम्भ प्रत्येक माह के दूसरे शनिवार को प्रकाशित होता है। यदि आपके पास भी इस प्रकार की किसी घटना की जानकारी हो तो हमें पर अपने पूरे परिचय के साथ cine.paheli@yahoo.com मेल कर दें। हम उसे आपके नाम के साथ प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। आप अपने सुझाव भी ऊपर दिये गए ई-मेल पर भेज सकते हैं। आज बस इतना ही। अगले शनिवार को फिर आपसे भेंट होगी। तब तक के लिए नमस्कार। 


खोज, आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी  



Comments

Popular posts from this blog

सुर संगम में आज -भारतीय संगीताकाश का एक जगमगाता नक्षत्र अस्त हुआ -पंडित भीमसेन जोशी को आवाज़ की श्रद्धांजली

सुर संगम - 05 भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चेरी बनाकर अपने कंठ में नचाते रहे। भा रतीय संगीत-नभ के जगमगाते नक्षत्र, नादब्रह्म के अनन्य उपासक पण्डित भीमसेन गुरुराज जोशी का पार्थिव शरीर पञ्चतत्त्व में विलीन हो गया. अब उन्हें प्रत्यक्ष तो सुना नहीं जा सकता, हाँ, उनके स्वर सदियों तक अन्तरिक्ष में गूँजते रहेंगे. जिन्होंने पण्डित जी को प्रत्यक्ष सुना, उन्हें नादब्रह्म के प्रभाव का दिव्य अनुभव हुआ. भारतीय संगीत की विविध विधाओं - ध्रुवपद, ख़याल, तराना, भजन, अभंग आदि प्रस्तुतियों के माध्यम से सात दशकों तक उन्होंने संगीत प्रेमियों को स्वर-सम्मोहन में बाँधे रखा. भीमसेन जोशी की खरज भरी आवाज का वैशिष्ट्य जादुई रहा है। बन्दिश को वे जिस माधुर्य के साथ बदल देते थे, वह अनुभव करने की चीज है। 'तान' को वे अपनी चे

कल्याण थाट के राग : SWARGOSHTHI – 214 : KALYAN THAAT

स्वरगोष्ठी – 214 में आज दस थाट, दस राग और दस गीत – 1 : कल्याण थाट राग यमन की बन्दिश- ‘ऐसो सुघर सुघरवा बालम...’  ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर आज से आरम्भ एक नई लघु श्रृंखला ‘दस थाट, दस राग और दस गीत’ के प्रथम अंक में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज से हम एक नई लघु श्रृंखला आरम्भ कर रहे हैं। भारतीय संगीत के अन्तर्गत आने वाले रागों का वर्गीकरण करने के लिए मेल अथवा थाट व्यवस्था है। भारतीय संगीत में 7 शुद्ध, 4 कोमल और 1 तीव्र, अर्थात कुल 12 स्वरों का प्रयोग होता है। एक राग की रचना के लिए उपरोक्त 12 स्वरों में से कम से कम 5 स्वरों का होना आवश्यक है। संगीत में थाट रागों के वर्गीकरण की पद्धति है। सप्तक के 12 स्वरों में से क्रमानुसार 7 मुख्य स्वरों के समुदाय को थाट कहते हैं। थाट को मेल भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति में 72 मेल प्रचलित हैं, जबकि उत्तर भारतीय संगीत पद्धति में 10 थाट का प्रयोग किया जाता है। इसका प्रचलन पण्डित विष्णु नारायण भातखण्डे जी ने प्रारम्भ किया

‘बरसन लागी बदरिया रूमझूम के...’ : SWARGOSHTHI – 180 : KAJARI

स्वरगोष्ठी – 180 में आज वर्षा ऋतु के राग और रंग – 6 : कजरी गीतों का उपशास्त्रीय रूप   उपशास्त्रीय रंग में रँगी कजरी - ‘घिर आई है कारी बदरिया, राधे बिन लागे न मोरा जिया...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी लघु श्रृंखला ‘वर्षा ऋतु के राग और रंग’ की छठी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आप सभी संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत और अभिनन्दन करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम वर्षा ऋतु के राग, रस और गन्ध से पगे गीत-संगीत का आनन्द प्राप्त कर रहे हैं। हम आपसे वर्षा ऋतु में गाये-बजाए जाने वाले गीत, संगीत, रागों और उनमें निबद्ध कुछ चुनी हुई रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। इसके साथ ही सम्बन्धित राग और धुन के आधार पर रचे गए फिल्मी गीत भी सुन रहे हैं। पावस ऋतु के परिवेश की सार्थक अनुभूति कराने में जहाँ मल्हार अंग के राग समर्थ हैं, वहीं लोक संगीत की रसपूर्ण विधा कजरी अथवा कजली भी पूर्ण समर्थ होती है। इस श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हम आपसे मल्हार अंग के कुछ रागों पर चर्चा कर चुके हैं। आज के अंक से हम वर्षा ऋतु की