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पंखों को हवा जरा सी लगने दो....जयदीप सहानी जगाते हैं एक उम्मीद अपनी हर फिल्म, हर रचना से

ताजा सुर ताल TST (39) दोस्तो, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर" TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक- पिछले एपिसोड में,वैसे तो आज की कड़ी में भी ३ सवाल हैं आपके जेहन की कसरत के लिए. पर फैसला तो आ ही चुका है. सीमा जी अपने सबसे नजदीकी प्रतिद्वंदी से भी कोसों आगे हैं, बहुत बहुत बधाई आपको...आपके

वहां कौन है तेरा, मुसाफिर जायेगा कहाँ....और "राम राम" कहा गया वो मुसाफिर कवि शैलेन्द्र

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 289 शृं खला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" में आज एक बार फिर से हम रुख़ कर रहे हैं शैलेन्द्र के दार्शनिक पक्ष की ओर। हमने अक्सर यह देखा है कि फ़िल्मी गीतकार मुसाफ़िर का सहारा लेकर अक्सर कुछ ना कुछ जीवन दर्शन की बातें हमें समय समय पर सिखा गये हैं। कुछ गानें याद दिलाएँ आपको? "मंज़िलें अपनी जगह है रास्ते अपनी जगह, जब क़दम ही साथ ना दे तो मुसाफ़िर क्या करे", "कहीं तो मिलेगी मोहब्बत की मंज़िल, कि दिल का मुसाफ़िर चला जा रहा है", "आदमी मुसाफ़िर है, आता है जाता है", "मुसाफ़िर हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना", "मुसाफ़िर जानेवाले कभी ना आनेवाले", और इसी तरह के बहुत से दूसरे गानें हैं जिनमें मुसाफ़िर के साथ जीवन के किसी ना किसी फ़ल्सफ़े को जोड़ा गया है। इसी तरह से फ़िल्म 'गाइड' में शैलेन्द्र ने एक कालजयी गीत लिखा था जो बर्मन दा की आवाज़ पा कर ऐसा जीवित हुआ कि बस अमर हो गया। "वहाँ कौन है तेरा, मुसाफ़िर जाएगा कहाँ, दम ले ले घड़ी भर, ये छैयाँ पाएगा कहाँ"। भावार्थ यही है कि ज़िंदगी के सफ़र में

ओ सजना बरखा बहार आई....लता के मधुर स्वरों की फुहार जब बरसी शैलेन्द्र के बोलों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 288 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी"। आज का जो गीत हमने चुना है वह कोई दार्शनिक गीत नहीं है, बल्कि एक बहुत ही नमर-ओ-नाज़ुक गीत है बरखा रानी से जुड़ा हुआ। बारिश की रस भरी फुहार किस तरह से पेड़ पौधों के साथ साथ हमारे दिलों में भी प्रेम रस का संचार करती है, उसी का वर्णन है इस गीत में, जिसे हमने चुना है फ़िल्म 'परख' से। शैलेन्द्र का लिखा यह बेहद लोकप्रिय गीत है लता जी की मधुरतम आवाज़ में, "ओ सजना बरखा बहार आई, रस की फुहार लाई, अखियों में प्यार लाई"। मुखड़े में "बरखा" शब्द वाले गीतों में मेरा ख़याल है कि इस गीत को नंबर एक पर रखा जाना चाहिए। और सलिल चौधरी के मीठे धुनों के भी क्या कहने साहब! शास्त्रीय, लोक और पहाड़ी धुनों को मिलाकर उनके बनाए हुए इस तरह के तमाम गानें इतने ज़्यादा मीठे लगते हैं सुनने में कि जब भी हम इन्हे सुनते हैं तो चाहे कितने ही तनाव में हो हम, हमारा मन बिल्कुल प्रसन्न हो जाता है। इसी फ़िल्म में कुछ और गीत हैं लता जी की आवाज़ में जैसे कि "मिला है किसी का झुमका

सुनो कहानी: मुंशी प्रेमचन्द की "नमक का दरोगा"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य " खेती " का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं मुंशी प्रेमचंद की कहानी "नमक का दरोगा" , जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय मात्र 21 मिनट 31 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं। ( प्रेमचंद की "नमक का दारोगा" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क

सूरज जरा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएंगें हम...एक अंदाज़ शैलेद्र का ये भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 287 शै लेन्द्र के लिखे गीतों को सुनते हुए आपने हर गीत में ज़रूर अनुभव किया होगा कि इन गीतों में बहुत गहरी और संजीदगी भरी बातें कही गई है, लेकिन या तो बहुत सीधे सरल शब्दों में, या फिर अचम्भे में डाल देने वाली उपमाओं और अन्योक्ति अलंकारों की मदद से। आज "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" की सातवीं कड़ी के लिए हमने जिस गीत को चुना है वह भी कुछ इसी तरह के अलंकारों से सुसज्जित है। फ़िल्म 'उजाला' का यह गीत है मन्ना डे और साथियों का गाया हुआ - "सूरज ज़रा आ पास आ, आज सपनों की रोटी पकाएँगे हम, ऐ आसमाँ तू बड़ा महरबाँ आज तुझको भी दावत खिलाएँगे हम"। अब आप ही बताइए कि ऐसे बोलों की हम और क्या चर्चा करें! ये तो बस ख़ुद महसूस करने वाली बातें हैं। भूखे बच्चों को रोटियों का ख़्वाब दिखाता हुआ यह गीत भले ही ख़ुशमिज़ाज हो, लेकिन इसे ग़ौर से सुनते हुए आँखें भर आती हैं जब मन्ना दा बच्चों के साथ गा उठते हैं कि "ठंडा है चूल्हा पड़ा, और पेट में आग है, गरमागरम रोटियाँ कितना हसीं ख़्वाब है"। कॊन्ट्रस्ट और विरोधाभास देखिए इस पंक्ति में कि चूल्हा जिसे

मिटटी से खेलते हो बार बार किसलिए...कुछ सवाल उस उपर वाले से शैलेन्द्र ने पूछे लता के स्वरों के जरिये

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 286 "ज़ रा सी धूल को हज़ार रूप नाम दे दिए, ज़रा सी जान सर पे सात आसमान दे दिए, बरबाद ज़िंदगी का ये सिंगार किस लिए?" शैलेन्द्र के ये शब्द वार करती है इस दुनिया के खोखले दिखाओं और खोखले रिवाज़ों पर। ये शब्द हैं फ़िल्म 'पतिता' में लता मंगेशकर के गाए "मिट्टी से खेलते हो बार बार किस लिए" गीत के जो आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। भगवान के द्वारा एक बार नसीब बनाने और एक बार बिगाड़ने के खेल के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है यह गीत। जिस तरह से मिट्टी के पुतलों को बार बार तोड़कर नए सांचे में ढाल कर नए नए रूप दिए जा सकते हैं, वैसे ही इंसान का शरीर भी मिट्टी का ही एक पुतला समान है जिसे उपरवाला जब जी चाहे, जैसे चाहे बिगाड़कर नया रूप दे सकता है। शैलेन्द्र ने इस तरह के गानें बहुत से लिखे हैं जिनमें शाब्दिक अर्थ के पीछे कोई गहरा फ़ल्सफ़ा छुपा होता है। रफ़ी साहब के गाए "दुनिया ना भाए मोहे" गीत की तरह इस गीत का सुर भी कुछ कुछ शिकायती है और भगवान की तरफ़ ही इशारा है। उषा किरण पर फ़िल्माया

मुन्ना बड़ा प्यारा, अम्मी का दुलारा...जब किशोर ने स्वर दिए शैलेन्द्र के शब्दों को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 285 रा ज कपूर के आर.के.फ़िल्म्स के बैनर के बाहर की फ़िल्मों में लिखे हुए गीतकार शैलेन्द्र के गीतों का करवाँ इन दिनों बढ़ा जा रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" के अंतर्गत। मन्ना डे, लता मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी और मुकेश के बाद आज बारी है हमारे किशोर दा की। इससे पहले हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शैलेन्द्र, सलिल चौधरी और किशोर कुमार की तिकड़ी का केवल गीत बजाया है फ़िल्म 'नौकरी' से "छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में" । आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं इसी तिकड़ी का बनाया हुआ १९५७ की फ़िल्म 'मुसाफ़िर' का एक बड़ा ही प्यारा सा बच्चों वाला गीत - "मुन्ना बड़ा प्यारा अम्मी का दुलारा, कोई कहे चाँद कोई आँख का तारा"। 'फ़िल्म ग्रूप' के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को निर्देशित किया ॠषीकेश मुखर्जी ने। फ़िल्म की कहानी काफ़ी दिलचस्प थी। कहानी एक मकान और उसमें रहने वाले किराएदारों के इर्द-गिर्द घूमती है। हर किराएदार कुछ दिनों के लिए रहता है, दर्शकों के दिलों में जगह बनाता है

अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें...सज्जाद अली ने कुछ यूँ उम्मीद जगाई, साथ हैं फ़राज़ के शब्द

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६१ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शामिख जी की पसंद की पहली गज़ल लेकर। आज की गज़ल की बात करें, उससे पहले मैं दो सप्ताह की अपनी गैर-हाज़िरी के लिए आप सबसे माफ़ी माँगना चाहूँगा। कुछ ऐसी वज़ह हीं आन पड़ी थी कि मुझे गज़लों की इस शानदार और जानदार महफ़िल को कुछ दिनों के लिए बंद करना पड़ा। लेकिन कोई बात नहीं, गज़लों की रूकी हुई यह गाड़ी दो सप्ताह के बाद फिर से पटरी पर आ गई है और निकट भविष्य में इसकी गति कम होने की मुझे कोई संभावना नज़र नहीं आ रही। तो चलिए आज की महफ़िल की शुरूआत कर हीं देते हैं। तो आज जो गज़ल हम आपको सुनवाने जा रहे हैं वह यूँ तो मेहदी हसन साहब की आवाज़ में भी उपलब्ध थी, लेकिन हमने जान-बूझकर एक कम-चर्चित गायक की गाई हुई गज़ल को चुना। वैसे इस गायक को कम-चर्चित भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि पाकिस्तानी फिल्मों में इन्होंने बहुत सारे गाने गाए हैं। इस फ़नकार के अब्बाजान साजन(वास्तविक नाम: शफ़क़त हुसैन) नाम से मलयालम फिल्में निर्देशित किया करते हैं। ७० के दशक से अबतक उन्होंने लगभग ३० फिल्में निर्देशित की हैं। मज़े की बात यह है कि खुद तो वे हिन्दुस्तान में रह गए लेकिन उन

बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आँचल ही न समाये तो क्या कीजै...कह तो दिया सब कुछ शैलेन्द्र ने और हम क्या कहें...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 284 फ़ि ल्म संगीत के ख़ज़ाने में ऐसे अनगिनत लोकप्रिय गानें हैं जिन्होने बहुत जल्द लोकप्रियता तो हासिल कर ली, लेकिन एक समय के पश्चात कहीं अंधेरे में खो से गए। लेकिन समय समय पर कुछ ऐसे भी गानें बनें हैं जो जीवन की मह्त्वपूर्ण पहलुओं से हमें अवगत करवाते है। जीवन दर्शन और हमारे अस्तित्व के पीछे जो छुपे राज़ और फ़लसफ़ा हैं, उन्हे उजागर किया गया है ऐसे गीतों के माध्यम से। और इस तरह के गीत कभी भी अंधेरे में गुम नहीं हो सकते, बल्कि ये तो हमेशा हमारे साथ चलते हैं हमारे मार्गदर्शक बनकर। ये गीत किसी स्थान काल या पात्र के लिए नहीं होते, बल्कि हर युग में हर इंसान के लिए उतने ही सार्थक और लाभदायक होते हैं। गीतकार शैलेन्द्र एक ऐसे गीतकार रहे हैं जिन्होने इस तरह के दार्शनिक गीतों में जैसे जान डाल दी है। उनके लिखे सीधे सरल और हल्के फुल्के गीतों में भी ग़ौर करें तो कोई ना कोई दर्शन सामने आ ही जाता है। और कुछ गानें तो हैं ही पूरी तरह से दार्शनिक। आज हमने एक ऐसा ही गाना चुना है जिसे सुनकर हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हमारे पास जो कुछ भी है उनसे हम क्यों नहीं संतुष्ट रहते? क्यो

मुंजल और रूमानी की प्रेम कहानी, मधुर गीतों की जुबानी- वेब रेडियो की ताज़ा पेशकश

गुनगुनाते लम्हे- 3 गुनगुनाते लम्हें, यानी इन्टरनेट पर वेब रेडियो की नयी पहल, आवाज़ की इस पेशकश से अब तक आप सब श्रोता बखूबी परिचित हो चुके हैं. एक बार फिर आया माह का पहला मंगलवार और एक नयी गीतों भरी कहानी लेकर हाज़िर है हमारी टीम, गुनगुनाते लम्हें की तीसरी कड़ी में. मुंजल और रूमानी के प्रेम की ये दास्ताँ सुनिए कुछ बेहद कर्णप्रिय गीतों के संग, आवाज़ है एक बार फिर अपराजिता कल्याणी की और तकनीकी संचालन है खुशबू का. इस बार कि कहानी श्री अभय कुमार सिन्हा ने लिखी है. प्रसारण का कुल समय है १९.०१. उम्मीद है हमारी ये पेशकश आपकी सुबह को नयी उर्जा से भर देगी, तो बस प्ले पर क्लिक कीजिये और हमारी इस प्रस्तुति का आनंद लीजिये. 'गुनगुनाते लम्हे' टीम आवाज़/एंकरिंग कहानी तकनीक अपराजिता कल्याणी अभय कुमार सिन्हा खुश्बू

दुनिया न भाये मोहे अब तो बुला ले...निराशावादी स्वरों में भी शैलेन्द्र अपना "क्लास" नहीं छोड़ते

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 283 "मे रे गीत मेरे संग सहारे, कोई ना मेरा संसार में, दिल के ये टुकड़े कैसे बेच दूँ दुनिया के बाज़ार में, मन के ये मोती रखियो तू संभाले, चरणों में तेरे"। शैलेन्द्र के लिखे ये शब्द जैसे उन्ही के दिल का आइना है। गीत लेखन शैलेन्द्र का पेशा ज़रूर था, पर सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए नहीं। फ़िल्मी गीतों का स्तर उन्होने ऊँचाई तक ही नहीं पहुँचाया बल्कि उन्हे गरीमा भी प्रदान की। और यही वजह है कि उनके जाने के ४० वर्ष बाद भी आज उनके लिखे गानें ऐसे चाव से सुने जाते हैं जैसे कल ही बनकर बाहर आए हों। "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" शृंखला की तीसरी कड़ी में आज प्रस्तुत है मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में फ़िल्म 'बसंत बहार' से एक भक्ति रचना, शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में। "दुनिया ना भाए मोहे अब तो बुला ले, चरणों में तेरे"। राग तोड़ी पर आधारित यह भजन फ़िल्म-संगीत के धरोहर का एक अनमोल नगीना है। इसी तरह के गीतों से ही तो फ़िल्म संगीत का स्तर हमेशा उपर रखा है शैलेन्द्र जैसे गीतकारों ने। 'बसंत बहार' फ़िल्म का एक गीत आप सुन चुके हैं &

तू सलामत रहे...अपनी नयी एल्बम के गीत के माध्यम से ज़ाती जिंदगी के कुछ राज़ खोल रहे हैं शायद अदनान सामी

ताजा सुर ताल TST (38) दोस्तो, ताजा सुर ताल यानी TST पर आपके लिए है एक ख़ास मौका और एक नयी चुनौती भी. TST के हर एपिसोड में आपके लिए होंगें तीन नए गीत. और हर गीत के बाद हम आपको देंगें एक ट्रिविया यानी हर एपिसोड में होंगें ३ ट्रिविया, हर ट्रिविया के सही जवाब देने वाले हर पहले श्रोता की मिलेंगें २ अंक. ये प्रतियोगिता दिसम्बर माह के दूसरे सप्ताह तक चलेगी, यानी 5 अक्टूबर से १४ दिसम्बर तक, यानी TST के ४० वें एपिसोड तक. जिसके समापन पर जिस श्रोता के होंगें सबसे अधिक अंक, वो चुनेगा आवाज़ की वार्षिक गीतमाला के 60 गीतों में से पहली 10 पायदानों पर बजने वाले गीत. इसके अलावा आवाज़ पर उस विजेता का एक ख़ास इंटरव्यू भी होगा जिसमें उनके संगीत और उनकी पसंद आदि पर विस्तार से चर्चा होगी. तो दोस्तों कमर कस लीजिये खेलने के लिए ये नया खेल- "कौन बनेगा TST ट्रिविया का सिकंदर" TST ट्रिविया प्रतियोगिता में अब तक- पिछले एपिसोड में,सीमा जी दो सही जवाब आपने दिया और अंतिम सवाल का सही जवाब आपके एक मात्र प्रतिद्वंदी तनहा जी ने दिया. खैर आज हमारी अंतिम ट्रिविया है, आज तो अगर आप जवाब नहीं भी देंगीं तब भी आप

आजा रे परदेसी, मैं तो कब से खडी इस पार....लता के स्वरों में गूंजी शैलेन्द्र की पीड़ा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 282 "शै लेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी" शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। इस शृंखला में हम ना केवल राज कपूर निर्मित फ़िल्मों के बाहर शैलेन्द्र के लिखे गीत सुनवा रहे हैं, बल्कि ये सभी गानें अपने आप में एक एक मास्टरपीस हैं और एक दूसरे से बिल्कुल जुदा है, अलग है, अनूठा है। आज जिस गीत को हमने चुना है वह एक हौंटिंग् नंबर है लता जी का गाया हुआ। ५० और ६० के दशकों में एक ट्रेंड चला था सस्पेन्स फ़िल्मों का और हर ऐसी फ़िल्म में लता जी का गाया हुआ एक हौंटिंग् गीत होता था। १९४९ में फ़िल्म 'महल' के बाद १९५८ में अगली इस तरह की सुपरहिट सस्पेन्स फ़िल्म आई 'मधुमती' जो पुनर्जनम की कहानी पर आधारित थी। इस फ़िल्म में शैलेन्द्र ने एक ऐसा गीत लिखा जिसे गा कर लता जी को अपने जीवन का पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। जी हाँ, "मैं तो कब से खड़ी इस पार, ये अखियाँ थक गईं पंथ निहार, आजा रे परदेसी"। सलिल चौधरी के मीठे धुनों से सजी इस फ़िल्म के सभी के सभी गानें ख़ूब ख़ूब सुने गये और आज भी उनकी चमक उतनी ही बरकरार है, और रेडियो पर इस फ़िल्म के गानें त

तू प्यार का सागर है....शैलेन्द्र की कलम सी निकली इस प्रार्थना में गहरी वेदना भी है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 281 "अ जीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरु कहाँ ख़तम, ये मंज़िलें हैं कौन सी, ना तुम समझ सके ना हम"। "दुनिया बनानेवाले, क्या तेरे मन में समाई, काहे को दुनिया बनाई?" "जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ, जी चाहे जब हमको आवाज़ दो, हम हैं वहीं, हम थे जहाँ"। जीवन दर्शन और ज़िंदगी के फ़ल्सफ़ात लिए हुए इन जैसे अनेकों अमर गीतों को लिखने वाले बस एक ही गीतकार - शैलेन्द्र। वही शैलेन्द्र जो अपने ख़यालों और ज़िंदगी के तजुर्बात को अपने अमर गीतों का रूप देकर ज़माने भर के तरफ़ से माने गए। शैलेन्द्र एक ऐसे शायर, एक ऐसे कवि की हैसीयत रखते हैं जिनकी शायरी और गीतों के मज़बूत कंधों पर हिंदी फ़िल्म संगीत की इमारत आज तक खड़ी है। फ़िल्म जगत को १७ सालों में जो कालजयी गानें शैलेन्द्र साहब ने दिए हैं, वो इतने कम अरसे में शायद ही किसी और ने दिए हों। आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है नई शृंखला "शैलेन्द्र- आर.के.फ़िल्म्स के इतर भी", जिसके तहत आप शैलेन्द्र के लिखे ऐसे दस गीत सुनेंगे जिन्हे शैलेन्द्र जी ने आर. के. बैनर के बाहर बनी फ़िल्मो

सुनो कहानी: हरिशंकर परसाई का व्यंग्य "खेती

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की कहानी " ह्त्या की राजनीति " का पॉडकास्ट उन्हीं की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं हरिशंकर परसाई का लघु व्यंग्य " खेती ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय मात्र 2 मिनट 24 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी हुज़ूर, हम किसानों को आप ज़मीन, पानी और बीज दिला दीजिये और अपने अफसरों से हमारी रक्षा कीजिये। ( हरिशंकर परसाई के व्यंग्य "खेती" से एक अंश ) नीचे के प्लेयर से सुनें. (प्लेयर पर एक बार क

मेरा दिल जो मेरा होता....गीता जी की आवाज़ और गुलज़ार के शब्द, जैसे कविता में घुल जाए अमृत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 280 गी ता दत्त जी के गाए गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं इस ख़ास लघु शृंखला 'गीतांजली' की अंतिम कड़ी पर। पराग सांकला जी के सहयोग से इस पूरे शृंखला में आप ने ना केवल गीता जी के गाए अलग अलग अभिनेत्रियों पर फ़िल्माए हुए गीत सुनें, बल्कि उन अभिनेत्रियों और उन गीतों से संबंधित तमाम जानकारियों से भी अवगत हो सके। अब तक प्रसारित सभी गीत ५० के दशक के थे, लेकिन आज इस शृंखला का समापन हो रहा है ७० के दशक के उस फ़िल्म के गीत से जिसमें गीता जी की आवाज़ आख़िरी बार सुनाई दी थी। यह गीत है १९७१ की फ़िल्म 'अनुभव' का, "मेरा दिल जो मेरा होता"। और यह गीत फ़िल्माया गया था तनुजा पर। इस फ़िल्म के गीतों पर और चर्चा आगे बढ़ाने से पहले आइए कुछ बातें तनुजा जी की हो जाए! तनुजा का जन्म बम्बई के एक मराठी परिवार में हुआ था। उनके पिता कुमारसेन समर्थ एक कवि थे और माँ शोभना समर्थ ३० और ४० के दशकों की एक मशहूर फ़िल्म अभिनेत्री। जहाँ शोभना जी ने अपनी बेटी नूतन को लौंच किया १९५० की फ़िल्म 'हमारी बेटी' में, ठीक वैसे ही उन्होने अपनी छोटी बेटी तनुजा को बतौर बाल क