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रूठ के हमसे कभी जब चले जाओगे तुम....हर किसी के जीवन को कभी न कभी छुआ होगा मजरूह के इस गीत ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 670/2011/110 "मे रे पीछे ये तो मोहाल है कि ज़माना गर्म-ए-सफ़र न हो, कि नहीं मेरा कोई नक़्श-ए-पाँव जो चिराग़-ए-राह-गुज़र न हो", मजरूह साहब के लेखनी की विविधता ऐसी है कि आने वाली तमाम पीढ़ियाँ उनके लेखनी से प्रभावित होती रहेंगी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों का जो कारवाँ चला जा रहा था, वह कारवाँ आज की कड़ी में जाकर कुछ समय के लिये पड़ाव डाल रहा है। '...और कारवाँ बनता गया' शृंखला की आज है दसवीं और अंतिम कड़ी। १९४६ में 'शाहजहाँ' से जो कारवाँ चल पड़ा था, वह आकर रुका था १९९९ में फ़िल्म 'जानम समझा करो' पे आकर। राहुल देव बर्मन वाले अंक में हमनें ज़िक्र किया था उन फ़िल्मों का जिनमें नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़ी का संगम था। पंचम को अलग रखें तो नासिर साहब के साथ मजरूह साहब नें पंचम के आने से पहले 'फिर वही दिल लाया हूँ' तथा पंचम के बाद आनंद-मिलिंद के साथ 'क़यामत से क़यामत तक', जतीन-ललित के साथ 'जो जीता वही सिकंदर' और अनु मलिक के साथ 'अकेले हम अकेले

आओ मनाये जश्ने मोहब्बत, जाम उठाये गीतकार मजरूह साहब के नाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 669/2011/109 म जरूह सुल्तानपुरी एक ऐसे गीतकार रहे हैं जिनका करीयर ४० के दशक में शुरु हो कर ९० के दशक के अंत तक निरंतर चलता रहा और हर दशक में उन्होंने अपना लोहा मनवाया। कल हमनें १९७३ की फ़िल्म 'अभिमान' का गीत सुना था। आज भी इसी दशक में विचरण करते हुए हमनें जिस संगीतकार की रचना चुनी है, वो हैं राजेश रोशन। वैसे तो राजेश रोशन के पिता रोशन के साथ भी मजरूह साहब नें अच्छा काम किया, फ़िल्म 'ममता' का संगीत उसका मिसाल है; लेकिन क्योंकि हमें १०-कड़ियों की इस छोटी सी शृंखला में अलग अलग दौर के संगीतकारों को शामिल करना था, इसलिए रोशन साहब को हम शामिल नहीं कर सके, लेकिन इस कमी को हमन उनके बेटे राजेश रोशन को शामिल कर पूरा कर रहे हैं। एक बड़ा ही लाजवाब गीत हमनें सुना है मजरूह-राजेश कम्बिनेशन का, १९७७ की फ़िल्म 'दूसरा आदमी' से। "आओ मनायें जश्न-ए-मोहब्बत जाम उठायें जाम के बाद, शाम से पहले कौन ये सोचे क्या होना है शाम के बाद"। हज़ारों गीतों के रचैता मजरूह सुल्तानपुरी के फ़न की जितनी तारीफ़ की जाये कम है। ज़िक्र चाहे दोस्त के दोस्ती की हो या फिर महब

तेरी बिंदिया रे....शब्द और सुरों का सुन्दर मिलन है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 668/2011/108 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया'। इसके तहत हम दस अलग अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध मजरूह साहब के लिखे गीत सुनवा रहे हैं जो बने हैं अलग अलग दौर में। ४०, ५० और ६० के बाद आज हम क़दम रख रहे हैं ७० के दशक में। ५० के दशक में नौशाद, अनिल बिस्वास, ओ.पी. नय्यर, मदन मोहन, के अलावा एक और नाम है जिनका उल्लेख किये बग़ैर यह शृंखला अधूरी ही रह जायेगी। और वह नाम है सचिन देव बर्मन का। अब आप सोच रहे होंगे कि ५० के दशक के संगीतकारों के साथ हमनें उन्हें क्यों नहीं शामिल किया। दरअसल बात ऐसी है कि हम बर्मन दादा द्वारा स्वरबद्ध जिस गीत को सुनवाना चाहते हैं, वह गीत है ७० के दशक का। इससे पहले कि हम इस गीत का ज़िक्र करें, हम वापस ४०-५० के दशक में जाना चाहेंगे। मेरा मतलब है मजरूह साहब के कहे कुछ शब्द जिनका ताल्लुख़ उस ज़माने से है। विविध भारती के किसी कार्यक्रम में उन्होंने ये शब्द कहे थे - " १९४५ से १९५२ के दरमियाँ की बात है। उस समय मैंने तरक्की-पसंद अशार की शुरुआत की थी। मेरे उम्र

क्या जानूँ सजन होती है क्या गम की शाम....जब जल उठे हों मजरूह के गीतों के दिए तो गम कैसा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 667/2011/107 फ़ि ल्म-संगीत इतिहास के सुप्रसिद्ध गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की सातवीं कड़ी में एक ऐसे संगीतकार की रचना लेकर आज हम उपस्थित हुए हैं जिस संगीतकार के साथ भी मजरूह साहब नें एक सफल और बहुत लम्बी पारी खेली है। आप हैं राहुल देव बर्मन। इन दोनों के साथ की बात बताने से पहले यह बताना ज़रूरी है कि इस जोड़ी को मिलवाने में फ़िल्मकार नासिर हुसैन की मुख्य भूमिका रही है। वैसे कहीं कहीं यह भी सुनने/पढ़ने में आता है कि मजरूह साहब नें पंचम की मुलाक़ात नासिर साहब से करवाई। उधर ऐसा भी कहा जाता है कि साहिर लुधियानवी नें नासिर साहब की आलोचना की थी उनकी व्यावसायिक फ़िल्में बनाने के अंदाज़ की। नासिर साहब नाराज़ होकर साहिर साहब से यह कह कर मुंह मोड़ लिया कि साहिर साहब चाहते हैं कि हर निर्देशक गुरु दत्त बनें। नासिर हुसैन को अपना स्टाइल पसंद था, जिसमें वो कामयाब भी थे, तो फिर किसी और फ़िल्मकार के नक्श-ए-क़दम पर क्यों चलना! और इस तरह से मजरूह बन गये नासिर हुसैन की पहली पसंद और उन्होंने मजरूह साहब से

मुझे दर्दे दिल क पता न था....मजरूह साहब की शिकायत रफ़ी साहब की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 666/2011/106 "म जरूह साहब का ताल्लुख़ अदब से है। वो ऐसे शायर हैं जो फ़िल्म इंडस्ट्री में आकर मशहूर नहीं हुए, बल्कि वो उससे पहले ही अपनी तारीफ़ करवा चुके थे। उन्होंने बहुत ज़्यादा गानें लिखे हैं, जिनमें कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे भी हैं। आदमी के देहान्त के बाद उसकी अच्छाइयों के बारे में ही कहना चाहिए। वो एक बहुत अच्छे ग़ज़लगो थे। वो आज हम सब से इतनी दूर जा चुके हैं कि उनकी अच्छाइयों के साथ साथ उनकी बुराइयाँ भी हमें अज़ीज़ है। आर. डी. बर्मन साहब की लफ़्ज़ों में मजरूह साहब का ट्युन पे लिखने का अभ्यास बहुत ज़्यादा था। मजरूह साहब नें बेशुमार गानें लिखे हैं जिस वजह से साहित्य और अदब में कुछ ज़्यादा नहीं कर पाये। उन्हें जब दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया, तब उन्होंने यह कहा था कि अगर यह पुरस्कार उन्हें साहित्य के लिये मिलता तो उसकी अहमियत बहुत ज़्यादा होती। "उन्होंने कुछ ऐसे गानें लिखे हैं जिन्हें कोई पढ़ा लिखा आदमी, भाषा के अच्छे ज्ञान के साथ ही, हमारे कम्पोज़िट कल्चर के लिये लिख सकता है।" - निदा फ़ाज़ली। ६० के दशक का पहला गीत इस शृंखला का हमनें कल

जा जा जा रे बेवफा...मजरूह साहब ने इस गीत के जरिये दर्शाये जीवन के मुक्तलिफ़ रूप

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103 '...औ र कारवाँ बनता गया', गीतकार व शायर मजरूह सुल्तानपुरी को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की चौथी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर से स्वागत है। मजरूह साहब पर एक किताब प्रकाशित हुई है जिसे उनके दो चाहनेवालों नें लिखे हैं। ये दो शख़्स हैं अमेरीका निवासी भारतीय मूल के बैदर बख़्त और उनकी अमरीकी सहयोगी मारीएन एर्की। इन दो मजरूह प्रशंसकों नें उनकी ग़ज़लों को संकलित कर एक किताब के रूप में प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'Never Mind Your Chains'। यह शीर्षक मजरूह साहब के ही लिखे एक शेर से आया है - "देख ज़िदान के परे, रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार, रक्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख"। अर्थात् चमन खिला हुआ है पिंजरे के ठीक उस पार, अगर नाच उठना है तो फिर पांव की बेड़ियों की तरफ़ न देख, never mind your chains। थोड़ा और क़रीब से देखा जाये तो उनकी यह ख़ूबसूरत ग़ज़ल उनके करीयर पर भी लागू होती है। उनका कभी न रुकने, कभी न हार स्वीकारने की अदा, लाख पाबंदियों के बावजूद उन्हें न रोक सकी, और आज उन्होंने एक अमर शायर व गीतकार के

छेड़ी मौत नें शहनाई, आजा आनेवाले....लिखा मजरूह साहब ने ये गीत अनिल दा के लिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 662/2011/102 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार व उर्दू के जानेमाने शायर मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की दूसरी कड़ी में आप सब का हार्दिक स्वागत है। मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम था असरार उल हसन ख़ान, और उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर नामक स्थान पर १९१९ या १९२० में हुआ था। कहीं कहीं पे १९२२ भी कहा गया है। 'लिस्नर्स बुलेटिन' में उनकी जन्म तारीख़ १ अक्तुबर १९१९ दी गई है। उनके पिता एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर थे। पिता का आय इतना नहीं था कि अपने बेटे को अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िल करवा पाते। इसलिए मजरूह को अरबी और फ़ारसी में सात साल 'दर्स-ए-निज़ामी' की तालीम मिली, और उसके बाद आलिम की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद मजरूह नें लखनऊ के तकमील-उत-तिब कॉलेज में यूनानी चिकित्सा की तालीम ली। इसमें उन्होंने पारदर्शिता हासिल की और एक नामचीन हकीम के रूप में नाम कमाया। सुल्तानपुर में मुशायरे में भाग लेते समय वो एक स्थापित हकीम भी थे। लेकिन लोगों नें उनकी शायरी को इतना पसंद किया

मेरे जीवन साथी, प्यार किये जा.....एक अनूठा गीत जिसे लिखना वाकई बेहद मुश्किल रहा होगा आनंद बख्शी साहब के लिए भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 658/2011/98 लि फ़्ट के अंदर का सीन है। नायक और नायिका अंदर हैं। बीच राह पर ही नायक लिफ़्ट की बटन दबा कर लिफ़्ट रोक देता है। नायिका कहती है कि उसे हिंदी की कक्षा में जाना है, हिंदी की क्लास है। लेकिन नायक कहता है कि हिंदी की क्लास वो ख़ुद लेगा और वो ही उसे हिंदी सिखायेगा। लेकिन मज़े की बात तो यह है कि नायक दक्षिण भारतीय है जिसे हिंदी बिल्कुल भी नहीं आती। तो साहब यह था सीन और इसमे एक गीत लिखना था गीतकार आनंद बख्शी साहब को। अब आप ही बताइए कि इस सिचुएशन पर किस तरह का गीत लिखे कोई? नायक को हिंदी नही आती और उसे हिंदी में ही गीत गाना है। इस मज़ेदार सिचुएशन पर बख्शी साहब नें एक कमाल का गाना लिखा है जिसे सुनते हुए आप भी मुस्कुरा उठेंगे, और गीत में नायिका तो हँस हँस कर लोट पोट हो रही हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, आज 'गान और मुस्कान' की आठवीं कड़ी में प्रस्तुत है कमाल हासन और रति अग्निहोत्री पर फ़िल्माये १९८१ की फ़िल्म 'एक दूजे के लिए' से एस. पी. बालसुब्रह्मण्यम और अनुराधा पौडवाल का गाया "मेरे जीवन साथी प्यार किये जा"। जी हाँ, बक्शी साहब नें केव

अलबेला मौसम कहता है स्वागतम....ताकि आप रहें खुश और तंदरुस्त

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 657/2011/97 फ़ि ल्म संगीत में हँसी मज़ाक की बात हो, और किशोर कुमार का नाम ही न आये, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। इन दिनों इसमें जारी है शृंखला 'गान और मुस्कान' और जैसा कि आपको पता है इसमें हम ऐसे गानें शामिल कर रहे हैं जिनमें गायक गायिका की हँसी सुनाई देती है। किशोर कुमार नें बेहिसाब मज़ाइया और हास्य रस के गीत गाये हैं। उनके गाये हास्य गीतों को सुनते हुए कई बार हम हँसते हँसते पेट पकड़ लेते हैं। लेकिन अगर आपसे यह पूछें कि उनकी हँसी किस गीत में सुनाई पड़ी है, तो शायद आपको कुछ समय लग जाये याद करने में। सबसे पहले जो गीत ज़हन में आता है वह है फ़िल्म 'पड़ोसन' का " एक चतुर नार ", जिसे हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजा चुके हैं। आज के अंक के लिए हमने किशोर दा का जो गीत चुना है, वह कोई हास्य गीत नहीं है, बल्कि यह एक फ़मिली सॉंग् है, एक पारिवारिक गीत। एक आदर्श छोटा परिवार, जिसमें है माँ-बाप और एक छोटा सा प्यारा सा बच्चा। कुछ इसी पार्श्व पर ८० के दशक का एक गीत है किशोर

बोलिए सुरीली बोलियाँ...और पिरोते रहिये हँसी की लड़ियाँ हर पल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 656/2011/96 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! आज रविवार, यानी छुट्टी का दिन, आप सभी नें अपने अपने परिवार के साथ हँसी-ख़ुशी बिताया होगा। हँसी-ख़ुशी से याद आया कि इन दिनों इस स्तंभ में जारी है लघु शृंखला 'गान और मुस्कान', जिसमें हम कुछ ऐसे गीत सुनवा रहे हैं जिनमें गायक/गायिका की हँसी सुनाई देती है। आज आप सुनेंगे गायिका-अभिनेत्री सुलक्षणा पंडित की हँसी। सिंगिंग् सुपरस्टार्स की श्रेणी में सुलक्षणा पंडित और सलमा आग़ा दो ऐसे नाम हैं जिनके बाद इस श्रेणी को पूर्णविराम सा लग गया है। ख़ैर, आज जिस गीत को लेकर हम उपस्थित हुए हैं वह है फ़िल्म 'गृहप्रवेश' का - "बोलिये सुरीली बोलियाँ"। भूपेन्द्र और सुलक्षणा पंडित की आवाज़ों में यह शास्त्रीय संगीत पर आधारित रचना है राग बिहाग पर आधारित, लेकिन इसमें हास्य का भी पुट है। अब जिस गीत के मुखड़े के ही बोल हैं "नमकीन आँखों की रसीली गोलियाँ", उसमें हास्य तो होगा ही न! और "नमकीन आँखों की रसीली गोलियाँ" कहने वाले गीतकार गुलज़ार साहब के अलावा भला और कौन हो सकता है! बासु भट्टाचार्य नि

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - (41) बेटे राकेश बख्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बख्शी - भाग २

इस बातचीत का पहला भाग यहाँ पढ़ें ((भाग-2)) नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले हफ़्ते से हमनें इस विशेषांक में शुरु की है एक लघु शृंखला 'बेटे राकेश बख्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बख्शी'। पिछले हफ़्ते अगर आपनें इसका पहला भाग नहीं पढ़ा था तो यहाँ क्लिक कर उसे अवश्य पढ़ें। आइए आज प्रस्तुत है बक्शी साहब के बेटे राकेश बख्शी से हमारी बातचीत का दूसरा भाग। सुजॉय - राकेश जी, नमस्कार और एक बार फिर स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में। राकेश जी - नमस्कार! सुजॉय - पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी 'माँ' पर। आपनें बताया कि किस तरह से बक्शी साहब नें आप सब को माँ की अहमियत बतायी। आज बातचीत का सिलसिला वहीं से आगे बढ़ाते हैं। आज हम आपकी माँ से चर्चा शुरु करना चाहेंगे, क्योंकि हमारा ख़याल है कि उनके सहयोग के बिना आनन्द बक्शी साहब शायद यह मुकाम हासिल न कर पाते। किसी की सफलता के पीछे उसके जीवन-संगिनी का बड़ा हाथ होता है। तो बताइए न बक्शी साहब की जीवन-संगिनी, यानी आपकी माताजी के बारे में। राकेश जी - शादी के बाद पिताज

चेहरे से जरा आँचल जो आपने सरकाया....एक प्रेम गीत जिसमें हँसी भी है और अदा भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 655/2011/95 'गा न और मुस्कान' शृंखला में इन दिनों आप सुन रहे हैं कुछ ऐसी फ़िल्मी रचनाएँ जिनमें गायक की हँसी सुनाई पड़ती है। गायिका आशा भोसले के गायकी के कई आयाम हैं, हर तरह के गीत गाने में वो सक्षम हैं, गायन की कोई ऐसी विधि नहीं जिसको उन्होंने आज़माया न हो। शास्त्रीय, पाश्चात्य, भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली, देशभक्ति, मुजरा, शरारती, सेन्सुअस, लोक-संगीत आधारित, हर वर्ग में उन्होंने शीर्ष पर अपने आप को पहुँचाया है। उनकी आवाज़ में जो लोच है, जो खनक है, जो शोख़ी है, वही उनको दूसरी गायिकाओं से अलग करती हैं। गायन तो गायन, उनकी हँसी भी कातिलाना है। आशा जी नें भी बहुत से गीतों में अपनी हँसी बिखेरी है, जिनमें से कुछ गीत छेड़-छाड़ वाले हैं, तो कुछ हल्के फुल्के रोमांटिक कॉमेडी वाले, कुछ सेन्सुअस या मादक, और कुछ गीत ऐसे भी हैं जिनमें वो खुले दिल से हँसती हैं, और ऐसी हँसी हैं कि सुनने वाला भी कुछ देर के लिए अपने सारे ग़म भूल जाये! ऐसा ही एक गीत है १९७२ की फ़िल्म 'एक बार मुस्कुरा दो' का, जिसमें उनसे अनुरोध तो किया जा रहा है मुस्कुराने की, पर वो हँसती हैं, पूरे खुले दि

इतनी बड़ी ये दुनिया जहाँ इतना बड़ा मेला....पर कोई है अकेला दिल, जिसकी फ़रियाद में एक हँसी भी है उपहास की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 654/2011/94 गा न और मुस्कान', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है यह लघु शृंखला जिसमें हम कुछ ऐसे गीत सुनवा रहे हैं जिनमें गायक-गायिकाओं की हँसी या मुस्कुराहट सुनाई या महसूस की जा सकती है। पिछले गीतों में नायिका की चुलबुली अंदाज़, शोख़ी और रूमानीयत से भरी अदायगी, और साथ ही उनकी मुस्कुराहटें, उनकी हँसी आपनें सुनी। लेकिन जैसा कि पहले अंक में हमनें कहा था कि ज़रूरी नहीं कि हँसी हास्य से ही उत्पन्न हो, कभी कभार ग़म में भी हंसी छूटती है, और वह होती है अफ़सोस की हँसी, धिक्कार की हँसी। यहाँ हास्य रस नहीं बल्कि विभत्स रस का संचार होता है। जी हाँ, कई बार जब दुख तकलीफ़ें किसी का पीछा ही नहीं छोड़ती, तब एक समय के बाद जाकर वह आदमी दुख-तकलीफ़ों से ज़्यादा घबराता नहीं, बल्कि दुखों पर ही हँस पड़ता है, अपनी किस्मत पर हँस पड़ता है। आज के अंक के लिए हम एक ऐसा ही गीत लेकर आये हैं रफ़ी साहब की आवाज़ में। जी हाँ रफ़ी साहब की आवाज़ में अफ़सोस की हँसी। दोस्तों, वैसे तो इस गीत को मैंने बहुत साल पहले एक बार सुना था, लेकिन मेरे दिमाग से यह गीत निकल ही चुका था। और जब मैं रफ़ी

एक बात कहूँ गर मानो तुम.....हमेशा हँसते हंसाते रहिये इसी तरह

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 653/2011/93 गा यक गायिकाओं की हँसी इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'गान और मुस्कान' के अंतर्गत। आज बारी लता मंगेशकर की हँसी सुनने की। कल का जो गीत था उसमें चुपके से सपने में आने की बात कही गई थी और आज जो गीत लेकर हम आये हैं, उसका भी भाव कुछ कुछ इसी तरह का है। नायिका शिकायत कर रही है कि नायक उनके सपनों में आते हैं जिस वजह से कभी वो नींद में उठकर चलती है तो कभी सोफ़े से गिर पड़ती है, तो कभी नायक का हाथ समझ कर सोफ़े का पाया ही पकड़ लेती है। जी हाँ, फ़िल्म 'गोलमाल' का यह गीत है "एक बात कहूँ गर मानो तुम, सपनों में न आना जानो तुम, मैं नींद में उठके चलती हूँ, जब देखती हूँ सच मानो तुम"। गुलज़ार और पंचम की जोड़ी का कमाल। वैसे इस गीत की तरफ़ लोगों का ध्यान ज़रा कम कम ही रहा है। 'गोलमाल' के नाम से लोग ज़्यादा "आने वाला पल जाने वाला है" को ही याद करते हैं। लेकिन गुणवत्ता में यह गीत भी कुछ कम नहीं है। इसमें गुलज़ार साहब नें बड़े ही सीधे बोलचाल जैसी भाषा का इस्तमाल करते हुए हास्य रस में डूबो डूबो कर