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रोज अकेली आये, चाँद कटोरा लिए भिखारिन रात.....गुलज़ार साहब की अद्भुत कल्पना और सलिल दा के सुर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 469/2010/169 'मु साफ़िर हूँ यारों', गुलज़ार साहब के लिखे गीतों के इस लघु शृंखला की आज नवी कड़ी है। अब तक इसमें आपने गुलज़ार साहब के साथ जिन संगीतकारों के गीत सुनें, वो हैं राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, शंकर-जयकिशन, वसंत देसाई, इलैयाराजा और कल्याणजी-आनंदजी। आज बारी है संगीतकार सलिल चौधरी की। गुलज़ार साहब और सलिल दा के कम्बिनेशन का कौन सा गीत हमने चुना है, उस पर हम अभी आते हैं, उससे पहले गुलज़ार साहब की शान में कुछ कहने को जी चाहता है। गुलज़ार साहब ने अपने अनोखे अंदाज़ में पुराने शब्दों को भी जैसे नए पहचान दिए हों। उनके ख़ूबसूरत रूपक और उपमाएँ सचमुच हमें हैरत में डाल देते हैं और यह सोचने पर मजबूर कर देते हैं कि ऐसा भी कोई सोच सकता है! उनके गीतों में कभी तारे ज़मीं पर चलते हैं तो कभी सर से आसमान उड़ जाता है। धूप, मिट्टी, रात, बारिश, ज़मीन, आसमान और बूंदों को नए नए रूप में हमारे सामने लाते रहे हैं गुलज़ार साहब। अब रात और चांद जैसे शब्दों को ही ले लीजिए। न जाने कितने असंख्य गीत बनें हैं "चाँद" और "रात" पर। लेकिन जब गुलज़ार साहब न

राह में रहते हैं, यादों में बसर करते हैं.....मुसाफिर गुलज़ार के यायावर दिल की बयानी है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 465/2010/165 "मु साफ़िर हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना"। दोस्तों, गुलज़ार साहब के इसी गीत के बोलों को लेकर हमने इस शृंखला का नाम रखा है 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। अब देखिए ना, कुछ कुछ इसी भाव से मिलता जुलता गुलज़ार साहब ने एक और गीत भी तो लिखा था फ़िल्म 'नमकीन' में! याद आया? "राह पे रहते है, यादों पे बसर करते हैं, ख़ुश रहो अहले वतन, हम तो सफ़र करते हैं"। किसी ट्रक ड्राइवर के किरदार के लिए इस गीत से बेहतर गीत शायद उसके बाद फिर कभी नहीं बन पाया है। किशोर कुमार की आवाज़ में राहुल देव बर्मन के संगीत से सँवरे इस गीत को आज हम पेश कर रहे हैं। 'नमकीन' गुलज़ार साहब के फ़िल्मी करीयर की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही। यह १९८२ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन भी गुलज़ार साहब ने ही किया था। शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार, वहीदा रहमान, शबाना आज़मी और किरण वैराले फ़िल्म के मुख्य किरदार निभाये। यह समरेश बासु की कहानी पर बनी फ़िल्म थी जिनकी कहानी पर गुलज़ार साहब ने उससे पहले १९७७ में फ़िल्म 'किताब' का निर्माण क

ये साये हैं....ये दुनिया है....जो दिखता है उस पर्दे के पीछे की तस्वीर इतने सरल शब्दों में कौन बयां कर सकता है गुलज़ार साहब के अलावा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 462/2010/162 मु साफ़िर हूँ यारों' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज हम इसमें सुनने जा रहे हैं गुलज़ार साहब की लिखे बड़े शहर के तन्हाई भरी ज़िंदगी का चित्रण एक बेहद ख़ूबसूरत गीत में। यह गीत है १९८० की फ़िल्म 'सितारा' का जिसे राहुल देव बर्मन के संगीत में आशा भोसले ने गाया है - "ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की"। अगर युं कहें कि इस गीत के ज़रिये फ़िल्म की कहानी का सार कहा गया है तो शायद ग़लत ना होगा। 'सितारा' कहानी है एक लड़की के फ़िल्मी सितारा बनने की। फ़िल्मी दुनिया की रौनक को रुसवाइयों की रौनक कहते हैं गुलज़ार साहब इस गीत में। वहीं "बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की" में तो अर्थ सीधा सीधा समझ में आ जाता है। मल्लिकारुजुन राव एम. निर्मित इस फ़िल्म के निर्देशक थे मेरज, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मिथुन चक्रबर्ती, ज़रीना वहाब, कन्हैयालाल, आग़ा, दिनेश ठाकुर और पेण्टल। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और भूपेन्द्र का गाया हुआ "थोड़ी सी ज़मीन, थोड़ा आसमाँ, तिनकों का बस एक आशियाँ" गीत भी बेहद मक़बूल हुआ था।

सूलियों पे चढ़ के चूमें आफ़ताब को....तन मन में देश भक्ति का रंग चढ़ाता गुलज़ार साहब का ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 461/2010/161 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह और एक नई शृंखला के साथ हम हाज़िर हैं। आज रविवार है, यानी कि छुट्टी का दिन। लेकिन यह रविवार दूसरे रविवारों से बहुत ज़्यादा ख़ास बन गया है, क्योंकि आज हम सभी भारतवासियों के लिए है साल का सब से महत्वपूर्ण दिन - १५ अगस्त। जी हाँ, इस देश की मिट्टी को प्रणाम करते हुए हम आप सभी को दे रहे हैं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज दिन भर आपने विभिन्न रेडियो व टीवी चैनलों में ढेर सारे देशभक्ति के गीत सुनें होंगे जो हर साल आप १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन सुना करते हैं, और सोच रहे होंगे कि शायद उन्ही में से एक हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजाने वाले हैं। यह बात ज़रूर सही है कि आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर देश भक्ति का रंग ही चढ़ा रहेगा, लेकिन यह गीत उन अतिपरिचित और सुपरहिट देश भक्ति गीतों में शामिल नहीं होता, बल्कि इस गीत को बहुत ही कम सुना गया है, और बहुतों को तो इसके बारे में मालूम ही नहीं है कि ऐसा भी कोई फ़िल्मी देशभक्ति गीत है। इससे पहले कि इस गीत की चर्चा आगे बढ़ाएँ, आपको बता दें कि आज से 'ओल्ड इज़ ग

बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा....जब इकबाल सिद्धिकी ने सुर छेड़े पंचम के निर्देशन में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 455/2010/155 "से हरा में रात फूलों की", आज इस शृंखला में जो ग़ज़ल गूंज रही है, वह है पंचम, यानी राहुल देव बर्मन का कॊम्पोज़िशन। एक फ़िल्म आई थी १९८८ में 'रामा ओ रामा'। फ़िल्म तो नहीं चली, लेकिन इस फ़िल्म के कम से कम तीन गानें उस समय रेडियो पर ख़ूब बजे थे। एक तो था अमित कुमार और जयश्री श्रीराम का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "रामा ओ रामा, तूने ये कैसी दुनिया बनाई"; दूसरा गीत था मोहम्मद अज़ीज़ की आवाज़ में "ऐ हसीं नाज़नीं गुलबदन महजवीं"; और तीसरी थी गज़ल इक़बाल सिद्दिक़ी की गायी हुई यह ग़ज़ल "बरसों के बाद देखा महबूब दिलरुबा सा"। बिलकुल ग़ुलाम अली स्टाइल की गायकी को अपनाया गया है इस ग़ज़ल में, जिसके शायर हैं आरिफ़ ख़ान। वैसे इस फ़िल्म के बाक़ी गीतों को आनंद बक्शी ने लिखा था। दोस्तों, अस्सी का यह दौर राहुल देव बर्मन के लिए बहुत अच्छा नहीं रहा। उस समय कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्त्यारेलाल की तरह उनका संगीत भी पिट रहा था, फ़िल्में भी पिट रही थीं। पर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भले ही व्यावसायिक रूप से उनका यह दौर अस

वो एक दोस्त मुझको खुदा सा लगता है.....सुनेंगे इस गज़ल को तो और भी याद आयेंगें किशोर दा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 454/2010/154 मो हम्मद रफ़ी, आशा भोसले, और लता मंगेशकर के बाद आज बारी है किशोर दा, यानी किशोर कुमार की। और क्यों ना हो, आज ४ अगस्त जो है। ४ अगस्त यानी किशोर दा का जन्मदिन। पिछले साल आज ही के दिन से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आपको सुनवाया था किशोर दा के गाए दस अलग अलग मूड के गीतों पर आधारित शृंखला 'दस रूप ज़िंदगी के और एक आवाज़ - किशोर कुमार'। और इस साल, यानी कि आज के दिन जब ८० के दशक के कुछ बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़लों की शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की' चल ही रही है, तो क्यों ना किशोर दा की गाई एक बहुत ही कम सुनी लेकिन बेहद सुंदर ग़ज़ल को याद किया जाए। यह फ़िल्म थी 'सुर्ख़ियाँ' जो आयी थी सन् १९८५ में। यह एक समानांतर फ़िल्म थी जिसका निर्माण अनिल नागरथ ने किया था और निर्देशक थे अशोक त्यागी। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नसीरुद्दिन शाह, मुनमुन सेन, सुरेश ओबेरॊय, रामेश्वरी, अरुण बक्शी, ब्रह्म भारद्वाज, कृष्ण धवन, गुलशन ग्रोवर, एक. के. हंगल, पद्मिनी कपिला, भरत कपूर, पिंचू कपूर, कुलभूषण खरबंदा, विनोद पाण्डेय, सुधीर पाण्डेय, आशा शर्मा और दिनेश ठाकुर।

कैसा तेरा प्यार कैसा गुस्सा है सनम...कभी आता है प्यार तो कभी गुस्सा विदेशी धुनों से प्रेरित गीतों को सुनकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 444/2010/144 कि सी विदेशी मूल धुन से प्रेरित होकर हिंदी फ़िल्मी गीत बनाने वाले संगीतकारों की अगर चर्चा हो, और उसमें संगीतकार राहुल देव बर्मन का ज़िक्र ना करें तो चर्चा अधूरी ही रह जाएगी। दोस्तों, पिछली तीन कड़ियों में हमने क्रम से १९६०, १९५७ और १९५८ के तीन गीत आपको सुनवाए, यानी कि ५० के दशक के आख़िर के सालों के गानें। आज हम एक छलांग मार कर सीधे पहुँच रहे हैं ८० के दशक में और सुनवाएँगे एक ऐसा गीत जिसकी धुन का राहुल देव बर्मन ने एक विदेशी गीत से सहारा लिया था। अब आप यह कहेंगे कि ५० के दशक से यकायक ८० के दशक में क्यों! दरअसल आज २१ जुलाई, गीतकार आनंद बक्शी साहब का जन्मदिवस। इसलिए हमने सोचा कि उन्हे याद करते हुए क्यों ना उनका लिखा एक ऐसा गीत सुनवा दिया जाए जिसकी धुन विदेशी मूल धुन से प्रेरित हो! तभी हमें ख़याल आया कि आर. डी. बर्मन के साथ उन्होने कई इस तरह के गीत किए हैं। हमने जिस गीत को चुना है वह है १९८३ की फ़िल्म 'लव स्टोरी' का "कैसा तेरा प्यार कैसा गु़स्सा है तेरा, तौबा सनम तौबा सनम"। लता मंगेशकर और अमित कुमार ने इस गीत को गाया था और अपने ज़माने

सावन के झूले पड़े...राग पहाड़ी पर आधारित एक मधुर सुमधुर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 437/2010/137 न मस्कार दोस्तों! सावन के महीने की एक और परम्परा है झूलों का लगना। शहरों में तो नहीं दिखते, लेकिन गावों में आज भी लड़कियाँ पेड़ों की शाखों पर झूले डालते हैं और सावन के इन दिनों में ख़ूब झूला झूलते हैं। यह एक परम्परा के तौर पर चली आ रही है। और तभी तो फ़िल्मी गीतों में भी कई कई बार सावन में पड़ने वाले झूलों का ज़िक्र होता आया है। "पड़ गए झूले सावन ऋत आई रे" (बहू बेग़म), "बदरा छाए के झूले पड़ गए हाए" (आया सावन झूम के), "सावन के झूलों ने मुझको बुलाया" (निगाहें), और भी न जाने ऐसे कितने गानें हैं जिनमें सावन के झूलों का उल्लेख है। आज इनमें से हमने जिस गीत को चुना है वह है राहुल देव बर्मन के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'जुर्माना' का मधुर गीत "सावन के झूले पड़े, तुम चले आओ"। कितने सीधे सरल बोल हैं, लेकिन असर इतना कि सावन पर बने तमाम गीतों में यह गीत एक ख़ास मुक़ाम रखता है। आनंद बक्शी के लिखे और लता मंगेशकर के गाए इस गीत में शास्त्रीय संगीत का रंग है। इसी फ़िल्म का एक और शास्त्रीय अंदाज़ वाला गीत "ए सखी राधि

पार्श्वगायकों और अभिनेताओं की भी जोडियाँ बनी इंडस्ट्री में, जो अभिनय और आवाज़ में एकरूप हो गए

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३७ मो हम्मद रफ़ी शम्मी कपूर की आवाज़ हुआ करते थे। इस जोड़ी ने ६० के दशक में फ़िल्म जगत में वो हंगामा किया कि अब वो इतिहास बन चुका है। आज पेश है रफ़ी और शम्मी साहब की जोड़ी का एक सदाबहार गीत फ़िल्म 'तीसरी मंज़िल' से। पंचम की धुन पर मजरूह साहब के बोल। लेकिन गीत सुनवाने से पहले आज शम्मी कपूर के कुछ शब्द रफ़ी साहब के बारे में। सौजन्य विविध भारती पर प्रसारित रफ़ी साहब को समर्पित 'विशेष मनचाहे गीत' कार्यक्रम जो प्रसारित हुआ था ३१ जुलाई २००५ को। शम्मी जी कहते हैं, "रफ़ी साहब का 'रेंज' बहुत बढ़िया और 'वास्ट' था। अलग अलग 'हीरोज़' के लिए अलग अलग 'स्टाइल' में गाते थे। मेरे लिए भी एक अलग 'स्टाइल' था। मेरी उनसे पहली मुलाक़ात हुई 'तुमसा नहीं देखा' के एक गाने की 'रिकार्डिंग्' पर। वो मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मैं पहुँचा तो मुझसे पूछने लगे कि गाने में कैसी हरकत करनी है?' मैं उनसे कहता था कि 'यहाँ पे मैं ऐसा हरकत करूँगा, अगर आप इस जगह ऐसा गायेंगे तो अच्छा रहेगा', और वो वैसा ही कर देते। एक गान

मजरूह, साहिर जैसे नामी गिरामी शायरों ने भी एक लंबी पारी खेली बतौर गीतकार

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३1 'ओ ल्ड इस गोल्ड रिवाइवल' के अंतरगत आप कुल ४५ गानें सुन रहे हैं इन दिनों एक के बाद एक, और इस शृंखला का दो तिहाई हिस्सा पूरी कर चुके हैं। यानी कि ३० गीत हम सुन चुके हैं और अभी १५ गानें और सुनवाने हैं। हम उम्मीद करते हैं कि ये कवर वर्ज़न्स आप को अच्छे लग रहे होंगे। तो इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आज एक हंगामाख़ेज गीत जिसे राहुल देव बर्मन के पाश्चात्य शैली के गीतों की श्रेणी में सब से उपर रखा जाता है। जी हाँ, फ़िल्म 'कारवाँ' का "पिया तू अब तो आजा"। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस गीत को लिखा था और आशा भोसले के साथ साथ पंचम ने भी "मोनिका ओ माइ डार्लिंग्" की आवाज़ लगाई थी इस गाने में। इस सेन्सुयस गीत का रिवाइव्ड वर्ज़न आज हम सुनने जा रहे हैं, लेकिन उससे पहले आपको यह बता दें कि 'कारवाँ' नासिर हुसैन की फ़िल्म थी। मुझे विकिपीडिया पर मजरूह साहब के जीवनी पर नज़र दौड़ाते हुए यह बात पता चली (वैसे मैं इसकी पुष्टि नहीं कर सकता) कि 'तीसरी मंज़िल' के लिए राहुल देव बर्मन को बतौर संगीतकार नियुक्त करने के निर्णय में मजरूह साहब का बड

गुलज़ार के महकते शब्दों पर "पंचम" सुरों की शबनम यानी कुछ ऐसे गीत जो जेहन में ताज़ा मिले, खिले फूलों से

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २२ 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की २२-वें कड़ी में आप सभी का एक बार फिर हार्दिक स्वागत है। आज पेश है गुलज़ार और पंचम की सदाबहार जोड़ी का एक नायाब नग़मा फ़िल्म 'घर' का। इस फ़िल्म से किशोर कुमार का गाया " फिर वही रात है " आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन चुके हैं आज इस फ़िल्म से जिस गीत का कवर वर्ज़न हम आप तक पहुँचा रहे हैं, वह है "आपकी आँखों में कुछ महके हुए से राज़ हैं, आप से भी ख़ूबसूरत आप के अंदाज़ हैं"। लता-किशोर का गाया ये युगल गीत आज भी अक्सर रेडियो पर सुनने को मिल जाता है। दोस्तों, पंचम दा के निधन के बाद गुलज़ार साहब ने अपने इस अज़ीज़ दोस्त को याद करते हुए काफ़ी कुछ कहे हैं समय समय पर। यहाँ पे हम उन्ही में से कुछ अंश पेश कर रहे हैं। इन्हे विविध भारती पर प्रसारित किया गया था विशेष कार्यक्रम 'पंचम के बनाए गुलज़ार के मन चाहे गीत' के अन्तर्गत। "याद है बारिशो के वो दिन थे पंचम? पहाड़ियों के नीचे वादियों में धुंध से झाँक कर रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं, और हम दोनों रेल की पटरियों पर बैठे, जैसे धुंध में दो पौधें हों

आज पिया तोहे प्यार दूं....पॉडकास्टर गिरीश बिल्लोरे की यादों को सहला जाता है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 407/2010/107 प संदीदा गीतों की इस शृंखला को आगे बढ़ाते हुए आज हमने एक ऐसे शख़्स का फ़रमाइशी गीत चुना है जो ख़ुद एक कवि हैं, एक मशहूर ब्लॊगर हैं, पॊडकास्ट के क्षेत्र में इनका एक मशहूर ब्लॊग है। इस शख़्स को उभरते गायक आभास जोशी के मार्गदर्शक और गुरु कहा जा सकता है, जिन्होने आभास की पहली ऐल्बम के लिए गीत लिखे हैं। जी हाँ, इस शख़्स का नाम है गिरिश बिल्लोरे। गिरिश जी की पसंद के गीत के बारे में उन्हे के शब्द प्रस्तुत है - " आजा पिया तोहे प्यार दूँ", जो मेरी उस मित्र ने गाया था जिसे पहला प्यार कहा जा सकता है। उस दौर मे सामाजिक अनुशासन के चलते बस मैं खुद प्यार का इज़हार न कर सका। जानते हैं उसने मुझे दिल की बात बेबाक कह देने की नसीहत दी थी। आज वो अपने परिवार मे खुश है। अब बस वो रोमान्टिक एहसास है मेरे पास और अपना प्रतिबंधों के सामने घुटने टेक देने का अहसास। " गिरिश जी, आपके जीवन इन बातों को जानकर हमें अफ़सोस हुआ। हम आपको बस यही मानने की सलाह देंगे कि "तेरा हिज्र ही मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है, मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों, तू कहीं भी हो म

गलियों में घूमो, सड़कों पे झूमो, दुनिया की खूब करो सैर....आशा और उषा का है ये सुरीला पैगाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 398/2010/98 'स खी सहेली' शृंखला की आज की कड़ी में एक ज़बरदस्त हंगामा होने जा रहा है, क्योंकि आज के अंक के लिए हमने दो ऐसी गायिकाओं को चुना है जो अपनी हंगामाख़ेज़ आवाज़ के लिए जानी जाती रहीं हैं। इनमें से एक तो और कोई नहीं बल्कि आशा भोसले हैं, जो हर तरह के गीत गा सकने में माहिर हैं, और दूसरी आवाज़ है उषा अय्यर की। जी हाँ, वही उषा अय्यर, जो बाद में उषा उथुप के नाम से मशहूर हुईं। उषा जी पाश्चात्य और डिस्को शैली के गीतों के लिए जानी जाती हैं और उनका स्टेज परफ़ॊर्मैन्स इतना ज़रबदस्त होता है कि श्रोतागण सब कुछ भूल कर उनके साथ थिरक उठते हैं, मचल उठते हैं। तो ज़रा सोचिए, अगर आशा जी की मज़बूत लेकिन पतली आवाज़ और उषा जी मज़बूत और वज़नदार आवाज़ एक साथ मिल जाएँ एक ही गीत में तो किस तरह का हंगामा पैदा हो जाए! इसी प्रयोग को आज़माया था राहुल देव बर्मन ने १९७० की फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' के दो गीतों में। वैसे पहले गीत "दम मारो दम" में आशा जी की ही आवाज़ मुख्य रूप से सुनाई देती है, लेकिन जो दूसरा गीत है उसमें दोनों गायिकाओं को एक दूसरे के साथ बराबर

कुछ तो लोग कहेंगें...बख्शी साहब के मिजाज़ को भी बखूबी उभारता है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 383/2010/83 आ नंद बक्शी साहब के लिखे गीतों पर आधारित इस लघु शृंखला 'मैं शायर तो नहीं' को आगे बढ़ाते हुए हम आ पहुँचे थे १९६७ की फ़िल्म 'मिलन' पर। इसके दो साल बाद, यानी कि १९६९ में जब शक्ति सामंत ने एक बड़ी ही नई क़िस्म की फ़िल्म 'आराधना' बनाने की सोची तो उसमें उन्होने हर पक्ष के लिए नए नए प्रतिभाओं को लेना चाहा। बतौर नायक राजेश खन्ना और बतौर नायिका शर्मीला टैगोर को चुना गया। अब हुआ युं कि शुरुआत में यह तय हुआ था कि रफ़ी साहब बनेंगे राजेश खन्ना की आवाज़। लेकिन उन दिनों रफ़ी साहब एक लम्बी विदेश यात्रा पर गए हुए थे। इसलिए शक्तिदा ने किशोर कुमार का नाम सुझाया। उन दिनो किशोर देव आनंद के लिए गाया करते थे, इसलिए सचिनदा पूरी तरह से शंका-मुक्त नहीं थे कि किशोर गाने के लिए राज़ी हो जाएंगे। शक्ति दा ने किशोर को फ़ोन किया, जो उन दिनों उनके दोस्त बन चुके थे बड़े भाई अशोक कुमार के ज़रिए। किशोर ने जब गाने से इनकार कर दिया तो शक्तिदा ने कहा, "नखरे क्युँ कर रहा है, हो सकता है कि यह तुम्हारे लिए कुछ अच्छा हो जाए "। आख़िर में किशोर राज़ी हो गए। शु

फिर वही रात है ख्वाब की....किशोर की जादुई आवाज़ में ढला एक काव्यात्मक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 371/2010/71 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' की ३७१-वीं कड़ी में हम सभी श्रोताओं व पाठकों का हार्दिक स्वागत करते हैं। मित्रों, हमारी मुख्य धारा की हिंदी फ़िल्मों की आत्मा लगभग एक ही तरह की होती है, जिसे हम आम भाषा में फ़ॊरमुला फ़िल्में भी कहते हैं। नायक, नायिका, और खलनायक के इर्द-गिर्द घूमने वाली फ़िल्में ही संख्या में सब से ज़्यादा हैं, और इस तरह का आधार व्यावसायिक तौर पर फ़िल्म की सफलता की चाबी का काम करता है। लेकिन समय समय पर हमारे प्रतिभाशाली फ़िल्मकारों ने बहुत सी ऐसी फ़िल्में भी बनाई हैं जिनकी कहानी, जिनका पार्श्व, बिल्कुल अलग है, लीग से बिल्कुल हट के है। ये फ़िल्में हो सकता है कि बॊक्स ऒफ़िस पर अपना छाप न छोड़ सकी हो, लेकिन अच्छे फ़िल्मों के क़द्रदान इन फ़िल्मों को याद रखा करते हैं। इन फ़िल्मों को समानांतर सिनेमा या आम भाषा में पैरलेल सिनेमा कहा जाता है। इनमें से कई फ़िल्में ऐसी हैं जिनके गीत संगीत में भी अनूठापन है, जो साधारण फ़िल्मी गीतों से अलग सुनाई देते हैं। फ़िल्म के ना चलने से इनमें से कुछ गीतों की तरफ़ लोगों का कम ही ध्यान गया, लेकिन कुछ गानें ऐसे भी हु

महबूबा महबूबा....याद कीजिये पंचम का वो मदमस्त अंदाज़ जिस पर थिरका था कभी पूरा देश

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 310/2010/10 दो स्तों, 'पंचम के दस रंग' लघु शृंखला को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं दसवीं कड़ी, यानी इस शृंखला की अंतिम कड़ी पर। आज का रंग है 'आइटम सॊंग्‍'। आइटम सॊंग्स की परम्परा नई नहीं है। बहुत पहले से ही हमारी फ़िल्मों में आइटम सॊंग्स बनते आए हैं। हाँ, इतना ज़रूर बदलाव आया है कि पहले ऐसे गानें फ़िल्म की कहानी से जुड़े हुए लगते थे, शालीनता भी हुआ करती थी, लेकिन आज के दौर के आइटम सॊंग्स केवल सस्ती पब्लिसिटी और अंग प्रदर्शन के लिए ही इस्तेमाल में लाए जाते हैं। साहब, आइटम सॊंग किसे कहते हैं पंचम दा ने दुनिया को दिखाया था १९७५ की ब्लॊकबस्टर फ़िल्म 'शोले' में "महबूबा महबूबा" गीत को बना कर और ख़ुद उसे गा कर। जलाल आग़ा और हेलेन पर फ़िल्माया हुआ यह गीत उतना ही अमर है जितना कि फ़िल्म 'शोले'। आज के इस अंतिम कड़ी के लिए पंचम दा की आवाज़ में इस गीत से बेहतर भला और कौन सा गीत हो सकता था! फ़िल्म 'शोले' की हम और क्या बातें करें, इसके हर पहलु तो बच्चा बच्चा वाक़िफ़ है, इसलिए आइए आज इस गीत की थोड़ी चर्चा की जाए। "महबूबा मह