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रफ़ी साहब का सुरीला सफर - भाग २

इन दिनों हम आप को सुनवा रहे हैं एफ एम् गोल्ड से प्रसारित गा मेरे मन गा  कार्यक्रम की झलकियाँ, जिसमें मशहूर रेडियो प्रेसेंटर और नाटक लेखक दानिश इकबाल साक्षात्कार में हैं लेखक और पत्रकार विनोद विप्लव के साथ. विनोद जी ने रफ़ी साहब की जीवनी को अपनी पुस्तक ' मेरी आवाज़ सुनो ' के माध्यम से पहली बार हिंदी के पाठकों तक पहुँचाया था. इस लंबे साक्षात्कार में रफ़ी साहब के जीवन और उनके गीतों पर लंबी चर्चा हुई है, पेश है इस कार्यक्रम की दूसरी कड़ी -  पहली कड़ी को यहाँ सुने

रफ़ी साहब के सुरीले जीवन की सुरीली कहानी, विनोद विप्लव की जुबानी - 01

सदाबहार गीतों के प्रमुख एफ रेडियो चैनल आल् इंडिया रेडियो के एफएम गोल्ड ने मोहम्मद रफी की याद में एक धारावाहिक कार्यक्रम पेश किया। एफ एम गोल्ड के लोकप्रिय कार्यक्रम ''गा मेरे मन गा'' के तहत आठ किस्तों में प्रसारित यह कार्यक्रम लेखक एवं पत्रकार विनोद विप्लव के साथ बातीचत के आधार पर तैयार किया गया। विनोद विप्लव से यह बातचीत प्रसिद्ध रेडियो प्रजेंटर एवं नाटक लेखक दानिश इकबाल ने की थी।    गौरतलब है कि यूनीवार्ता में मुख्य संवाददाता के रूप में कार्यरत विनोद विप्लव को मोहम्मद रफी की पहली जीवनी लिखने का श्रेय प्राप्त है। ''मेरी आवाज सुनो'' के नाम से यह जीवनी 1997 में प्रकाशित हुयी थी और उस समय किसी भी भाषा में उपलब्ध मोहम्मद रफी की एकमात्र जीवनी थी। हालांकि अब मोहम्मद रफी पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। विनोद विप्लव लिखित जीवनी का उर्दू संस्करण भी शीघ्र बाजार में आने वाला है।

इस तरह मोहम्मद रफी का पार्श्वगायन के क्षेत्र में प्रवेश हुआ

  भारतीय सिनेमा के सौ साल – 37 कारवाँ सिने-संगीत का   ‘एक बार उन्हें मिला दे, फिर मेरी तौबा मौला...’ भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का चौथा गुरुवार है और मा ह के दूसरे और चौथे गुरुवार को हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में हम भारतीय फिल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक मोहम्मद रफी के प्रारम्भिक दौर का ज़िक्र करेंगे।  1944 में रफ़ी ने बम्बई का रुख़ किया जहाँ श्यामसुन्दर ने ही उन्हें ‘विलेज गर्ल’ (उर्फ़ ‘गाँव की गोरी’) में गाने का मौका दिया। पर यह फ़िल्म १९४५ में प्रदर्शित हुई। इससे पहले १९४४ में ‘पहले आप’ प्रदर्शित हो गई जिसमें नौशाद ने रफ़ी से कुछ गीत गवाए थे। नौशाद से रफ़ी को मिलवाने का श्रेय हमीद भाई को जाता है। उन्होंने ही लखनऊ जाकर नौश

तेरे पास आके मेरा वक्त गुजर जाता है ...."लम्स तुम्हारा" यूं मुझमें ठहर जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 716/2011/156 आ ज रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं, नमस्कार! पिछले हफ़्ते आपनें सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुन कर पाँच कविताओं पर आधारित पाँच फ़िल्मी गीत सुनें, इस हफ़्ते पाँच और कविताओं तथा पाँच और गीतों को लेकर हम तैयार हैं। तो स्वागत है आप सभी का, लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की छठी कड़ी में। इस कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता ' लम्स तुम्हारा '। उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा दुनिया सँवर जाती है मेरे आस-पास धूप छूकर गुज़रती है किनारों से और जिस्म भर जाता है एक सुरीला उजास बादल सर पर छाँव बन कर आता है और नदी धो जाती है पैरों का गर्द सारा हवा उड़ा ले जाती है पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा खरे सोने सा, जैसा गया था रचा उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा कितना कुछ बदल जाता है मेरे आस-पास। हमारी ज़िंदगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मिल कर अच्छा लगता है, जिनके साथ हम दिल की बातें शेयर कर सकते हैं। और ऐसे लोगों में एक ख़ास इंसान ऐसा होता है

कभी रात दिन हम दूर थे.....प्यार बदल देता है जीने के मायने और बदल देता है दूरियों को "मिलन" में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 714/2011/154 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुनी हुई १० कविताओं पर आधारित शृंखला की आज चौथी कड़ी में हमनें जिस कविता को चुना है, उसका शीर्षक है ' मिलन '। हम मिलते रहे रोज़ मिलते रहे तुमने अपने चेहरे के दाग पर्दों में छुपा रखे थे मैंने भी सब ज़ख्म अपने बड़ी सफ़ाई से ढाँप रखे थे मगर हम मिलते रहे - रोज़ नए चेहरे लेकर रोज़ नए जिस्म लेकर आज, तुम्हारे चेहरे पर पर्दा नहीं आज, हम और तुम हैं, जैसे दो अजनबी दरअसल हम मिले ही नहीं थे अब तक देखा ही नहीं था कभी एक-दूसरे का सच आज मगर कितना सुन्दर है - मिलन आज, जब मैंने चूम लिए हैं तुम्हारे चेहरे के दाग और तुमने भी तो रख दी है मेरे ज़ख्मों पर - अपने होठों की मरहम। मिलन की परिभाषा कई तरह की हो सकती है। कभी कभी हज़ारों मील दूर रहकर भी दो दिल आपस में ऐसे जुड़े होते हैं कि शारीरिक दूरी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। और कभी कभी ऐसा भी होता है कि वर्षों तक साथ रहते हुए भी दो शख्स एक दूजे के लिए अजनबी ही रह जाते हैं। और कभी कभी मिलन की आस लिए द

दिन ढल जाए हाय रात न जाए....सरफिरे वक्त को वापस बुलाती रफ़ी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 711/2011/151 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत दो बेहद सुंदर शृंखलाओं के बाद मैं, सुजॉय चटर्जी वापस हाज़िर हूँ इस नियमित स्तंभ के साथ। इस स्तंभ की हर लघु शृंखला की तरह आज से शुरु होने वाली शृंखला भी बहुत ख़ास है, और साथ ही अनोखा और ज़रा हटके भी। दोस्तों, आप में से बहुत से श्रोता-पाठकों को मालूम होगा कि 'आवाज़' के मुख्य सम्पादक सजीव सारथी की लिखी कविताओं का पहला संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है, और इस पुस्तक का शीर्षक है ' एक पल की उम्र लेकर '। जब सजीव जी नें मुझसे अपनी इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी चाही, तब मैं ज़रा दुविधा मे पड़ गया क्योंकि कविताओं की समीक्षा करना मेरे बस की बात नहीं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न इस पुस्तक में शामिल कुल ११० कविताओं में से दस कविताएँ छाँट कर और उन्हें आधार बनाकर फ़िल्मी गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला पेश करूँ? फ़िल्मी गीत जीवन के किसी भी पहलु से अंजान नहीं रहा है, इसलिए इन १० कविताओं से मिलते जुलत

रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजली एक चित्र-प्रदर्शनी के ज़रिये, चित्रकार हैं श्रीमती मधुछंदा चटर्जी

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 52 ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ७०० अंक पूरे कर चुका है, और अब देखते ही देखते 'शनिवार विशेषांक' भी आज अपना एक साल पूरा कर रहा है। पिछले साल ३१ जुलाई की शाम हमनें इस साप्ताहिक स्तंभ की शुरुआत की थी 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' के रूप में, और उस पहले अंक में हमनें गुड्डो दादी का ईमेल शामिल किया था जो समर्पित था गायिका सुरिंदर कौर को। आज ३० जुलाई 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक' की ५२ वी कड़ी में हम नमन कर रहे हैं गायकी के बादशाह मोहम्मद रफ़ी साहब को, जिनकी कल ३१ जुलाई को पुण्यतिथि है। लेकिन उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करने का ज़रिया जो हमने चुना है, वह ज़रा अलग हट के है। हम न उन पर कोई आलेख प्रस्तुत करने जा रहे हैं और न ही उन पर केन्द्रित कोई साक्षात्कार लेकर आये हैं। बल्कि हम प्रस्तुत कर रहे हैं एक चित्र-प्रदर्शनी। यह रफ़ी साहब के चित्रों की प्रदर्शनी ज़रूर है, लेकिन यह प्रदर्शनी खींची हुई तस्वीरो

मुझे दर्दे दिल क पता न था....मजरूह साहब की शिकायत रफ़ी साहब की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 666/2011/106 "म जरूह साहब का ताल्लुख़ अदब से है। वो ऐसे शायर हैं जो फ़िल्म इंडस्ट्री में आकर मशहूर नहीं हुए, बल्कि वो उससे पहले ही अपनी तारीफ़ करवा चुके थे। उन्होंने बहुत ज़्यादा गानें लिखे हैं, जिनमें कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे भी हैं। आदमी के देहान्त के बाद उसकी अच्छाइयों के बारे में ही कहना चाहिए। वो एक बहुत अच्छे ग़ज़लगो थे। वो आज हम सब से इतनी दूर जा चुके हैं कि उनकी अच्छाइयों के साथ साथ उनकी बुराइयाँ भी हमें अज़ीज़ है। आर. डी. बर्मन साहब की लफ़्ज़ों में मजरूह साहब का ट्युन पे लिखने का अभ्यास बहुत ज़्यादा था। मजरूह साहब नें बेशुमार गानें लिखे हैं जिस वजह से साहित्य और अदब में कुछ ज़्यादा नहीं कर पाये। उन्हें जब दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया, तब उन्होंने यह कहा था कि अगर यह पुरस्कार उन्हें साहित्य के लिये मिलता तो उसकी अहमियत बहुत ज़्यादा होती। "उन्होंने कुछ ऐसे गानें लिखे हैं जिन्हें कोई पढ़ा लिखा आदमी, भाषा के अच्छे ज्ञान के साथ ही, हमारे कम्पोज़िट कल्चर के लिये लिख सकता है।" - निदा फ़ाज़ली। ६० के दशक का पहला गीत इस शृंखला का हमनें कल

मेरा तो जो भी कदम है.....इतना भावपूर्ण है ये गीत कि सुनकर किसी की भी ऑंखें नम हो जाए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103 '...औ र कारवाँ बनता गया'... मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों का कारवाँ इन दिनों चल रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। पिछली चार कड़ियों में हमनें ४० और ५० के दशकों से चुन कर चार गानें हमनें आपको सुनवाये, आज क़दम रखेंगे ६० के दशक में। साल १९६४ में एक फ़िल्म आयी थी 'दोस्ती' जिसनें न केवल मजरूह को उनका एकमात्र फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलवाया, बल्कि संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को भी उनका पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलवाया था। वैसे विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला में प्यारेलाल जी नें स्वीकार किया था कि इस पुरस्कार को पाने के लिये उन्होंने बहुत सारे फ़िल्मफ़ेयर मैगज़ीन की प्रतियाँ ख़रीद कर उनमें प्रकाशित नामांकन फ़ॉर्म में ख़ुद ही अपने लिये वोट कर ख़ुद को जितवाया था। पंकज राग नें भी इस बारे में अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखा था - "फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों पर शंकर-जयकिशन के कुछ जायज़ और कुछ नाजायज़ तरीके के वर्चस्व को उनसे बढ़कर नाजायज़ी से तोड़ना और 'संगम' को पछाड़ कर 'दोस्ती' के

इतनी बड़ी ये दुनिया जहाँ इतना बड़ा मेला....पर कोई है अकेला दिल, जिसकी फ़रियाद में एक हँसी भी है उपहास की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 654/2011/94 गा न और मुस्कान', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है यह लघु शृंखला जिसमें हम कुछ ऐसे गीत सुनवा रहे हैं जिनमें गायक-गायिकाओं की हँसी या मुस्कुराहट सुनाई या महसूस की जा सकती है। पिछले गीतों में नायिका की चुलबुली अंदाज़, शोख़ी और रूमानीयत से भरी अदायगी, और साथ ही उनकी मुस्कुराहटें, उनकी हँसी आपनें सुनी। लेकिन जैसा कि पहले अंक में हमनें कहा था कि ज़रूरी नहीं कि हँसी हास्य से ही उत्पन्न हो, कभी कभार ग़म में भी हंसी छूटती है, और वह होती है अफ़सोस की हँसी, धिक्कार की हँसी। यहाँ हास्य रस नहीं बल्कि विभत्स रस का संचार होता है। जी हाँ, कई बार जब दुख तकलीफ़ें किसी का पीछा ही नहीं छोड़ती, तब एक समय के बाद जाकर वह आदमी दुख-तकलीफ़ों से ज़्यादा घबराता नहीं, बल्कि दुखों पर ही हँस पड़ता है, अपनी किस्मत पर हँस पड़ता है। आज के अंक के लिए हम एक ऐसा ही गीत लेकर आये हैं रफ़ी साहब की आवाज़ में। जी हाँ रफ़ी साहब की आवाज़ में अफ़सोस की हँसी। दोस्तों, वैसे तो इस गीत को मैंने बहुत साल पहले एक बार सुना था, लेकिन मेरे दिमाग से यह गीत निकल ही चुका था। और जब मैं रफ़ी

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है...एक मुश्किल प्रतियोगिता के दौर में भी मन्ना दा ने अपनी खास पहचान बनायीं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 644/2010/344 म न्ना डे को फिल्मों में प्रवेश तो मिला किन्तु एक लम्बे समय तक वो चर्चित नहीं हो सके। इसके बावजूद उन्होंने उस दौर की धार्मिक-ऐतिहासिक फिल्मों में गाना, अपने से वरिष्ठ संगीतकारों का सहायक रह कर तथा अवसर मिलने पर स्वतंत्र रूप से भी संगीत निर्देशन करना जारी रखा। अभी भी उन्हें उस एक हिट गीत का इन्तजार था जो उनकी गायन क्षमता को सिद्ध कर सके। थक-हार कर मन्ना डे ने वापस कोलकाता लौट कर कानून की पढाई पूरी करने का मन बनाया। उसी समय मन्ना डे को संगीतकार सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में फिल्म 'मशाल' का गीत -"ऊपर गगन विशाल, नीचे गहरा पाताल......." गाने का अवसर मिला। गीतकार प्रदीप के भावपूर्ण साहित्यिक शब्दों को बर्मन दादा के प्रयाण गीत की शक्ल में आस्था भाव से युक्त संगीत का आधार मिला और जब यह गीत मन्ना डे के अर्थपूर्ण स्वरों में ढला तो गीत ज़बरदस्त हिट हुआ। इसी गीत ने पार्श्वगायन के क्षेत्र में मन्ना डे को फिल्म जगत में न केवल स्थापित कर दिया बल्कि रातो-रात पूरे देश में प्रसिद्ध कर दिया। 'मशाल' के प्रदर्शन अवसर पर गीतों का जो रिकार

ओल्ड इस गोल्ड - शनिवार विशेष - आनंद लीजिए एक अनूठे क्रिकेट का जो हैं "ही" और "शी" के बीच सदियों से जारी...

नमस्कार! दोस्तों, पिछले दिनों आपने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में २०११ विश्वकप क्रिकेट को समर्पित हमारी लघु शृंखला 'खेल खेल में' सुन व पढ़ रहे थे। यह शृंखला थी दस अंकों की। लेकिन दोस्तों, आपको नहीं लगता कि क्रिकेट के लिए दस का आँकड़ा कुछ बेमानी सा है? क्योंकि इसमें ग्यारह खिलाड़ी भाग लेते हैं और देखिये यह साल भी २०११ का है, ऐसे में इस शृंखला के अगर ग्यारह अंक होते तो ज़्यादा न अच्छा रहता? तो इसीलिए हमनें सोचा कि आज का यह विशेषांक समर्पित किया जाये क्रिकेट को और इस तरह से इसे आप 'खेल खेल में' शृंखला की ग्यारहवीं कड़ी भी मान सकते हैं। क्रिकेट और विश्वकप के इतिहास से जुड़ी तमाम बातों और रेकॊर्ड्स का हमनें पिछले दिनों ज़िक्र किया। आइए आज बात करें कनाडा के क्रिकेट टीम की। शायद आप हैरान हो रहे होंगे कि बाकी सब छोड़ कर अचानक कनाडियन क्रिकेट टीम में दिलचस्पी क्यों? दरअसल बात कुछ ऐसी है कि कनाडियन क्रिकेट टीम में एक नहीं, दो नहीं, बल्कि बहुत सारे ऐसे खिलाड़ी हैं जो दक्षिण-एशियाई मूल के हैं, यानी कि भारत, पाक़िस्तान और श्रीलंका के। और वर्तमान २०११ के विश्वकप के टीम में भी कम से कम

मुकाबला हमसे न करो....कभी कभी खिलाड़ी अपने जोश में इस तरह का दावा भी कर बैठते हैं

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 604/2010/304 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार और स्वागत है आप सभी का इस स्तंभ में। तो कहिए दोस्तों, कैसा चल रहा है आपका क्रिकेट विश्वकप दर्शन? आपको क्या लगता है कौन है फ़ेवरीट इस बार? क्या भारत जीत पायेगा २०११ क्रिकेट विश्वकप? किन खिलाड़ियों से है ज़्यादा उम्मीदें? ये सब सवाल हम सब इन दिनों एक दूसरे से पूछ भी रहे हैं और ख़ुद भी अंदाज़ा लगाने की कोशिशें रहे हैं। लेकिन हक़ीक़त सामने आयेगी २ अप्रैल की रात जब विश्वकप पर किसी एक देश का आधिपत्य हो जायेगा। पर जैसा कि पहली कड़ी में ही हमने कहा था, जीत ज़रूरी है, लेकिन उससे भी जो बड़ी बात है, वह है पार्टिसिपेशन और स्पोर्ट्समैन-स्पिरिट। इसी बात पर आइए आज एक बार फिर कुछ रोचक तथ्य विश्वकप क्रिकेट से संबंधित हो जाए! • पहला विश्वकप मैच जो जनता के असभ्य व्यवहार की वजह से बीच में ही रोक देना पड़ा था, वह था १९९६ में कलकत्ते का भारत-श्रीलंका सेमी-फ़ाइनल मैच। • १९९६ में श्रीलंका पहली टीम थी जिसने बाद में बैटिंग कर विश्वकप फ़ाइनल मैच जीता। • २००३ विश्वकप में पाकिस्तान के शोएब अख़्तर ने क्रिकेट इतिहास में पहली बार १०० मा

दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर....जब दर्द को ऊंचे सुरों में ढाला रफ़ी साहब ने एस जे की धुन पर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 596/2010/296 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर एक नए सप्ताह के साथ हम वापस हाज़िर हैं और आप सभी का फिर एक बार बहुत बहुत स्वागत है इस सुरीली महफ़िल में। इन दिनों आप सुन और पढ रहे हैं पियानो साज़ पर केन्द्रित हमारी लघु शृंखला 'पियानो साज़ पर फ़िल्मी परवाज़'। जैसा कि शीर्षक से ही प्रतीत हो रहा है कि इसमें हम कुछ ऐसे फ़िल्मी गीत सुनवा रहे हैं जिनमें पियानो मुख्य साज़ के तौर पर प्रयोग हुआ है; लेकिन साथ ही साथ हम पियानो संबंधित तमाम जानकारियाँ भी आप तक पहुँचाने की पूरी पूरी कोशिश कर रहे हैं। पिछली पाँच कड़ियों में हमने जाना कि पियानो का विकास किस तरह से हुआ और पियानो के शुरु से लेकर अब तक के कैसे कैसे प्रकार आये हैं। आज से अगली पाँच कड़ियों में हम चर्चा करेंगे कुछ मशहूर पियानो वादकों की, और उनमें कुछ ऐसे नाम भी आयेंगे जिन्होंने फ़िल्मी गीतों में पियानो बजाया है। दुनिया भर की बात करें तो पियानो के आविष्कार से लेकर अब तक करीब करीब ५०० पियानिस्ट्स हुए हैं, जिनमें से गिने चुने पियानिस्ट्स ही लोकप्रियता के चरम शिखर तक पहुँच सके हैं। और जो पहुँचे हैं, उन सब ने ब