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मैं बांगाली छोरा करूँ प्यार को नामोश्काराम....बंगाल और मद्रास के बीच छिडी प्यार की जंग आशा और किशोर के मार्फ़त

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 196 क्या आप के ज़हन में है दोस्तों कि आज तारीख़ कौन सी है? आज है ८ सितंबर। और ८ सितंबर का दिन है हमारी, आपकी, हम सब की चहीती गायिका आशा भोंसले जी का जन्मदिन । आज ८ सितंबर २००९ को आशा जी मना रहीं हैं अपना ७८-वाँ जन्म दिवस। पिछले ६ दशकों से उनकी आवाज़ हमारी ज़िंदगियों में रस घोलती चली आ रही है। क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बूढ़े, हर किसी के दिल पर छायी हुई है आशा जी की दिलकश आवाज़। यह वो आवाज़ है दोस्तों जिस पर समय का कोई असर नहीं है। आशा जी ने फ़िल्म संगीत के कई बदलते दौर देखे हैं, और हर दौर में उन्होने अपनी आवाज़ का जादू कुछ इस क़दर बिखेरा है कि हर दौर में उन्होंने सुनने वालों के दिलों पर राज किया है। मैं अपनी तरफ़ से, 'आवाज़' की तरफ़ से और पूरे 'हिंद युग्म' परिवार की तरफ़ से आशा जी को दे रहा हूँ ढेरों शुभकामनाएँ। आशा जी के जन्मदिवस को केन्द्र कर हम इन दिनों सुन रहे हैं उनके युगल गीतों की एक ख़ास लघु शृंखला '१० गायक और एक आपकी आशा'। क्योंकि आज आशा जी का बर्थडे है, तो क्यों न आज थोड़ी से मस्ती की जाए, थोड़े हँसी मज़ाक के साथ आज के 'ओल

देखो माने नहीं रूठी हसीना....रूठी आशा जी को मनाने की कोशिश कर रहे हैं गायक जगमोहन बख्शी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 194 '१० गायक और एक आपकी आशा' की चौथी कड़ी में आज एक कमचर्चित गायक की बारी। ये गायक भी हैं और संगीतकार भी। बद्‍क़िस्मती से ये ना तो गायक के रूप में मशहूर हो सके और ना ही संगीतकार के रूप में। आशा जी के साथ आज अपनी आवाज़ मिला रहे हैं गायक जगमोहन बक्शी जिन्होने सपन सेनगुप्ता के साथ मिलकर बनाई संगीतकार जोड़ी सपन-जगमोहन की। दोस्तों, १९५४ में एक फ़िल्म आयी थी 'टैक्सी ड्राइवर' जिसमें आशा भोंसले और जगमोहन बक्शी का गाया हुआ एक छेड़-छाड़ भरा युगल गीत था, जो काफ़ी मशहूर भी हुआ था। वही गीत आज यहाँ पेश है। गुरु दत्त की फ़िल्म 'आर पार' कहानी थी एक टैक्सी ड्राइवर कालू की जो अमीर बनने के लिए अंडरवर्ल्ड से जुड़ जाता है। 'आर पार' की सफलता से प्रेरित हो कर नवकेतन फ़िल्म्स के आनंद भा‍इयों ने 'टैक्सी ड्राइवर' के शीर्षक से ही एक और फ़िल्म बना डालने की ठानी। फ़िल्म को निर्देशित किया चेतन आनंद ने, कहानीकार थे विजय आनंद, और मुख्य भूमिका में थे देव आनद, जिन्होने मंगल, टैक्सी ड्राइवर की भूमिका निभाई। कल्पना कार्तिक उनकी नायिका थीं इस फ़िल्म में। इस

दो दिल धड़क रहें हैं और आवाज़ एक है....आशा और तलत ने आवाज़ मिलाई आवाज़ से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 191 गा यक मुकेश के बाद आज से हम फ़िल्म संगीत की आकाश के उस सितारे पर एक लघु शृंखला शुरु करने जा रहे हैं जिनकी आवाज़ का जादू हर उम्र के सुनने वालों पर गहराई से हुआ है। दिल की गहराई में आसानी से उतर जाने वाली, हर भाव, हर रंग को उजागर करने वाली ये आवाज़ है फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्व गायिका आशा भोंसले की। आशा भोंसले की आवाज़ की अगर हम तारीफ़ करें तो शायद शब्द भी फीके पड़ जाये उनकी आवाज़ की चमक के सामने। और यह चमक दिन ब दिन बढ़ती चली गयी है अलग अलग रंग बदल कर, ठीक वैसे जैसे कोई चित्रकार अलग अलग रंगों से अपने चित्र को सुंदरता प्रदान करता चला जा रहा हो! ८ सितंबर को आशा जी का जनम दिन है। इसी को केन्द्र करते हुए आज से अगले १० दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनिए आशा जी के गाए युगल गीतों की एक ख़ास लघु शृंखला '१० गायक और एक आपकी आशा'। इसके तहत हम आप को आशा जी के गाए फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग के १० युगल गीत सुनवाएँगे, १० अलग अलग गायकों के साथ गाए हुए। इसमें हम गायिकाओं को शामिल नहीं कर रहे हैं। 'फ़ीमेल डुएट्स' पर हम भविष्य में एक अलग से शृंखला

शीशा-ए-मय में ढले सुबह के आग़ाज़ का रंग ....... फ़ैज़ के हर्फ़ों को आवाज़ के शीशे में उतारा आशा ताई ने

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #४० म हफ़िल-ए-गज़ल की ३८वीं कड़ी में हुई अपनी गलती को सुधारने के लिए लीजिए हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। इस गज़ल के बारे में क्या कहें....सुनते हीं दिल में आशा ताई की मीठी आवाज़ उतर जाती है। आशा ताई हमारी महफ़िल में एक बार पहले भी आ चुकी हैं। उस समय आशा ताई के साथ थे सुर सम्राट ख़य्याम और गज़ल थी " चाहा था एक शख्स को जाने किधर चला गया ।" उस वक्त हमें उस गज़ल के गज़लगो का नाम मालूम न था, लेकिन इस बार ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। आज की गज़ल के गज़लगो का ज़िक्र करना खुद में एक गर्व की बात है और हमारी यह खुशकिस्मती है कि आशा ताई की तरह हीं ये साहब भी हमारी महफ़िल में दूसरी बार तशरीफ़ ला रहे हैं। इससे पहले हमने इनकी लिखी एक नज़्म "गुल हुई जाती है अफ़सुर्दा सुलगती हुई शाम" सुनी थी, जिसे अपनी आवाज़ से सजाया था बेग़म आबिदा परवीन ने। उस कड़ी को हमने पूरी तरह से इन्हीं मोहतरम के हवाले कर दिया था और इनके बारे में ढेर सारी बातें की थीं। उसी अंदाज़ और उसी जोश-औ-जुनूं के साथ हम आज की कड़ी को भी इन्हीं के हवाले करते हैं। तो चलिए हम शुरू करते हैं चर्चाओ

जुल्फों की घटा लेकर सावन की परी आयी....मन्ना डे ने कहा आशा से "रेशमी रुमाल" देकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 127 यूँ तो फ़िल्म जगत में एक से बढ़कर एक संगीतकार जोड़ियाँ रही हैं, जिनके नाम गिनवाने की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन बहुत सारी ऐसी संगीतकार जोड़ियाँ भी हुई हैं जो सफलता और शोहरत में थोड़े से पीछे रह गये। कमचर्चित संगीतकार जोड़ियों की बात करें तो एक नाम बिपिन-बाबुल का ज़हन में आता है। स्वतंत्र रूप से संगीतकार जोड़ी बनने से पहले वे मदन मोहन साहब के सहायक हुआ करते थे। 1958 से वे बने कल्याणजी-आनंदजी के सहायक। बतौर स्वतंत्र संगीतकार बिपिन-बाबुल ने संगीत दिया 'सुल्ताना डाकू', 'बादल और बिजली', और '24 घंटे' जैसी फ़िल्मों में, जिनमें '24 घंटे' 'हिट' हुई थी। पर आगे चलकर बिपिन दत्त और बाबुल बोस की जोड़ी टूट गयी। बिपिन को कामयाबी नहीं मिली। लेकिन बाबुल को थोड़ी बहुत कामयाबी ज़रूर मिली। उनकी फ़िल्म '40 दिन' के गानें आज भी सदाबहार गीतों में शामिल किया जाता है। वैसे बाबुल की तमन्ना थी गायक बनने की। लखनऊ के 'मॊरिस कॊलेज' से तालीम लेकर दिल्ली और लाहौर के रेडियो से जुड़े रहे, लेकिन देश विभाजन के बाद उनहे भारत लौट आना पड़ा, तथ

बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी...ओल्ड इस गोल्ड के सभी श्रोताओं को समर्पित ये गीत.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 119 हा ल ही में हमने आपको एस. एच. बिहारी के बारे में विस्तार से बताया था कि किस तरह से उन्हे एस. मुखर्जी ने १९५४ की फ़िल्म 'शर्त' में पहला बड़ा ब्रेक दिया था। आगे चलकर उनकी कई और फ़िल्मों में बिहारी साहब ने गीत लिखे, और सिर्फ़ लिखे ही नहीं, उन्हे कामयाबी की बुलंदी तक भी पहुँचाया। ऐसी ही एक फ़िल्म थी 'एक मुसाफ़िर एक हसीना'. जॉय मुखर्जी और साधना अभिनीत इस फ़िल्म में ओ. पी. नय्यर का संगीत था। आशा भोंसले और रफ़ी साहब के गाये इस फ़िल्म के तमाम युगल गीतों में तीन गीत जो सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हुए, वो थे "मैं प्यार का राही हूँ", "आप युँही अगर हम से मिलती रहीं, देखिये एक दिन प्यार हो जायेगा", और तीसरा गीत था "बहुत शुक्रिया बड़ी मेहरबानी, मेरी ज़िंदगी में हुज़ूर आप आये". यूँ तो एस. एच. बिहारी ने ही इस फ़िल्म के अधिकतर गानें लिखे, लेकिन "आप युँही अगर" वाला गीत राजा मेहंदी अली ख़ान ने लिखा था। आज इस महफ़िल में सुनिये तीसरा युगल गीत। फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह थी कि शादी की रात साधना के घर आतंकवादियों का हमला होता है

आओ हुजूर तुमको सितारों में ले चलूँ....चलिए घूम आये हम और आप भी "आशा" के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 114 १९६८ में कमल मेहरा की बनायी फ़िल्म आयी थी 'क़िस्मत'। मनमोहन देसाई निर्देशित फ़िल्म 'क़िस्मत' की क़िस्मत बुलंद थी। फ़िल्म तो कामयाब रही ही, फ़िल्म के गीतों ने भी खासी धूम मचाई । अपनी दूसरी फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी ओ. पी. नय्यर ने यह सिद्ध किया कि ६० के दशक के अंत में भी वो नयी पीढ़ी के किसी भी लोकप्रिय संगीतकार को सीधी टक्कर दे सकते हैं। उन दिनों नय्यर साहब और रफ़ी साहब के रिश्ते में दरार आयी थी जिसके चलते इस फ़िल्म के गाने महेन्द्र कपूर से गवाये गये। घटना क्या घटी थी यह हम आपको बाद में किसी दिन बतायेंगे जब रफ़ी साहब और नय्यर साहब के किसी गाने की बारी आयेगी। तो साहब, महेन्द्र कपूर ने रफ़ी साहब की कमी को थोड़ा बहुत पूरा भी किया, हालाँकि नय्यर साहब महेन्द्र कपूर को बेसुरा कहकर बुलाते थे। इस फ़िल्म का वह हास्य गीत तो आपको याद है न "कजरा मोहब्बतवाला", जिसमें शमशाद बेग़म ने विश्वजीत का प्लेबैक किया था! फ़िल्म की नायिका बबिता के लिये गीत गाये आशा भोंसले ने। इस फ़िल्म में नय्यर साहब की सबसे ख़ास गायिका आशाजी ने कई अच्छे गीत गा

नदी नारे न जाओ श्याम पैयां पडूँ...जयदेव ने दिया इस लोक गीत को नया जन्म

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 108 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के हीरक जयंती पर्व और फिर उसके बाद राज कपूर विशेषांकों के बाद आज हम वापस लौट आये हैं हमारे नियमित अंक पर। दोस्तों, अगर हम डाकुओं पर बनी फ़िल्मों की बात करें तो सबसे पहले जिस फ़िल्म का नाम हमारे ज़हन मे आता है वह है 'शोले'। इस फ़िल्म मे गब्बर सिंह के रूप में अमजद ख़ान ने वह इतिहास रचा है कि फिर उनके बाद किसी ने भी डाकू की ऐसी सशक्त भूमिका अदा नहीं की। 'शोले' ७० के दशक की फ़िल्म थी। लेकिन अगर हम एक दशक पीछे की ओर जायें, तो उस ज़माने मे डाकू के रूप मे सुनिल दत्त साहब का नाम बड़ा मशहूर था। उनकी ऐसी तमाम फ़िल्मों में जो फ़िल्म सब से ज़्यादा मशहूर हुई वह थी 'मुझे जीने दो'। १९६३ मे बनी इस फ़िल्म का निर्माण भी सुनिल दत्त और उनके भाई सोम दत्त ने मिलकर किया था। यह उनकी दूसरी फ़िल्म थी बतौर निर्माता, पहली फ़िल्म थी 'ये रास्तें हैं प्यार के' जो १९६३ मे ही बनी थी। 'मुझे जीने दो' की कहानी यह दर्शाती है कि किस तरह प्यार की कोमलता कट्टर से कट्टर डाकू को भी ज़िंदगी की सही राह पर वापस ले जा सकती है। यह कहानी

लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनिया...राज का अभिनय अपने चरम पे था इस फिल्म में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 106 'रा ज कपूर विशेष' मे आज गीतकार शैलेन्द्र और राज कपूर के साथ की बात। शैलेन्द्र एक ऐसे रोशन सितारे हैं जो अपने बहुत छोटे से संगीत सफ़र में ही न जाने कितने अमर गीत हमें दे गये हैं। उनके ये अमर गीत दुनिया के होंठों पर सदियों तक थिरकते रहेंगे। शैलेन्द्र भाषा और साहित्य के विद्वान थे। रूसी साहित्य जानने के लिए उन्होने रूसी भाषा सीखा। रबींद्रनाथ टैगोर की नोबल जयी कृति 'गीतांजली' को समझने के लिए उन्होने बंगला भी सीखा। राज कपूर उन्हे पुश्किन कहा करते थे। सन् १९६६ मे शैलेन्द्र निर्माता बने और फणीश्वर नाथ रेणु की एक कहानी 'मारे गये गुलफ़ाम' को सेल्युलायड के परदे पर उतारा 'तीसरी क़सम' के शीर्षक से। यह फ़िल्म 'सेल्युलायड' के परदे पर लिखी गयी एक कविता है। आज इस फ़िल्म को फ़िल्म इतिहास का एक सुनहरा अध्याय के रूप मे भले ही स्वीकारा जाये, उस समय यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गयी थी और इस फ़िल्म से निर्माता शैलेन्द्र को भारी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था। कई कड़वे अनुभवों से उन्हे गुज़रना पड़ा था। कुछ ऐसे लोग जिन पर उन्हे बहुत भरोसा था, उ

मुड़ मुड़ के न देख मुड़ मुड़ के...सफलता की राह में मुड़ कर न देखा राज ने कभी पीछे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 105 'रा ज कपूर को समर्पित इन विशेषांकों में हम न केवल राज साहब के फ़िल्मों के गाने आप तक पहुँचा रहे हैं, बल्कि उनके साथ अन्य कलाकारों से जुड़ी बातें भी साथ साथ बताते जा रहे हैं। इसी अंदाज़ को क़ायम रखते हुए आज हम बात करेंगे राज कपूर और मन्ना डे के साथ की। उन दिनों मुकेश राज कपूर का प्लेबैक कर रहे थे। ऐसे मे मन्ना डे किस तरह से राज कपूर की आवाज़ बने, पढ़िये मन्ना डे साहब के ही शब्दों में जो उन्होने विविध भारती को एक बार बताया था - " संगीतकार शंकर मुझसे हमेशा कहते थे कि आप की आवाज़ को संगीतकारों ने ठीक से 'एक्सप्लायट' नहीं कर पाये; जब भी सही मौका आयेगा, मैं आपको गवाउँगा। और वह फ़िल्म थी 'चोरी चोरी'। जब मैं 'चोरी चोरी' फ़िल्म का एक गीत गाने के लिए 'रिकॉर्डिंग स्टूडियो' पहुँचा, लताजी भी वहीं पर थीं। फ़िल्म के निर्माता चेटानी साहब ने शंकर से कहा कि 'यह बहुत 'इम्पार्टेंट' गाना है, मुकेश को क्यों नहीं बुलाया?' यह सुनकर मेरा तो दिल बिल्कुल बैठ गया। शंकर जयकिशन ने उन्हे समझाया कि मन्ना डे की आवाज़ मे यह गीत ज़्याद

तू छुपी है कहाँ, मैं तड़पता यहाँ.....अपने आप में अनूठा है नवरंग का ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 68 'न वरंग' हिंदी फ़िल्म इतिहास की एक बेहद मशहूर फ़िल्म रही है। वी. शांताराम ने १९५५ में 'म्युज़िकल' फ़िल्म बनाई थी 'झनक झनक पायल बाजे'। गोपीकिशन और संध्या के अभिनय और नृत्य तथा वसंत देसाई के जादूई संगीत ने इस फ़िल्म को एक बहुत ऊँचा मुक़ाम दिलवाया था। 'झनक झनक पायल बाजे' की अपार सफलता के बाद सन् १९५९ में शांतारामजी ने कुछ इसी तरह की एक और नृत्य और संगीतप्रधान फ़िल्म बनाने की सोची। यह फ़िल्म थी 'नवरंग'। महिपाल और संध्या इस फ़िल्म के कलाकार थे और संगीत का भार इस बार दिया गया अन्ना साहब यानी कि सी. रामचन्द्र को। फ़िल्म के गाने लिखे भरत व्यास ने। आशा भोंसले और मन्ना डे के साथ साथ नवोदित गायक महेन्द्र कपूर को भी इस फ़िल्म में गाने का मौका मिला। बल्कि इस फ़िल्म को महेन्द्र कपूर की पहली 'हिट' फ़िल्म भी कहा जा सकता है। लेकिन आज हमने इस फ़िल्म का जो गीत चुना है उसे आशाजी और मन्नादा ने गाया है। यह गीत अपने आप में बिल्कुल अनूठा है। इस गीत को यादगार बनाने में गीतकार भरत व्यास के बोलों का उतना ही हाथ था जितना की सी. रामचन्द्र

चंदा मामा मेरे द्वार आना...बच्चों के साथ बच्ची बनी आशा की आवाज़ में ये स्नेह निमंत्रण

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 62 सा धारणत: हिन्दी फ़िल्मों के विषय नायक और नायिका को केन्द्र में रख कर ही चुने जाते हैं। लेकिन नायक-नायिका की प्रेम-कहानी के बिना भी सफ़ल फ़िल्में बनाई जा सकती है ये हमारे फ़िल्मकारों ने समय समय पर साबित किया है। ऐसी ही एक फ़िल्म है 'लाजवंती' जिसमें एक माँ और उसकी छोटी सी बच्ची के रिश्ते को बड़ी संवेदनशीलता से दर्शाया गया है। दोस्तों, मैने यह फ़िल्म बहुत साल पहले दूरदर्शन पर देखी था और जितना मुझे याद आ रहा है, इस फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की है कि ग़लतफ़हमी का शिकार पति (बलराज साहनी) अपनी पत्नी (नरगिस) को घर से निकाल देता है और इस तरह से माँ अपनी बेटी (बेबी नाज़) से भी अलग हो जाती है। थोड़े दिनो के बाद पति-पत्नी की ग़लतफ़हमी दूर हो जाती है और वो घर भी वापस आ जाती है लेकिन बेटी के दिल में तब तक अपनी माँ के लिए इतना ज़हर भर चुका होता है कि यही फ़िल्म का मुख्य मुद्दा बन जाता है। अंततः जब बेटी को सच्चाई का पता चलता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है क्योंकि तब तक नरगिस आत्महत्या के लिए निकल पड़ती है। नरगिस खाई में छलांग लगाने ही वाली है कि पीछे से उसकी बे

शोख नज़र की बिजिलियाँ...दिल पे मेरे गिराए जा..

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 07 'ओल्ड इस गोल्ड' में आज गिरनेवाली है बिजली, यह बिजली आपके दिल पर गिरेगी और यह बिजली है किसी के शोख नज़र की. जी हाँ, "शोख नज़र की बिजलियाँ दिल पे मेरे गिराए जा". आशा भोसले की आवाज़ फिल्म "वो कौन थी" में. यूँ तो मदन मोहन की चेहेती रही हैं लता मंगेशकर, लेकिन समय समय पर उन्होने आशा भोसले से कुछ ऐसे गीत गवाए हैं जो केवल आशा भोंसले ही गा सकती थी, और यह गीत भी ऐसा ही एक गीत है. क्योंकि यह गीत फिल्म के 'हेरोईन' साधना पर नहीं, बल्कि 'वेंप' हेलेन पर फिल्माया जाना था, इसलिए आशा भोंसले की आवाज़ चुनी गयी जिसमें ज़रूरत थी एक मादकता की, एक नशीलेपन की, जो नायक को अपनी ओर सम्मोहित करे. और ऐसे गीतों में आशा-जी की आवाज़ किस क़दर निखरकर सामने आती है यह किसी को बताने की ज़रूरत नहीं. बस, फिर क्या था, आशा भोंसले ने इस गीत को इस खूबसूरती से गाया कि इस फिल्म के दूसरे 'हिट' गीतों के साथ साथ इस गीत ने भी सुन्नेवालों के दिलों में एक अलग ही जगह बना ली. राज खोंसला निर्देशित फिल्म "वो कौन थी" बनी थी सन 1964 में. राजा महेंदी अली

बरकरार है आज भी ओ पी नैयर के संगीत का मदभरा जादू

जीनिअस संगीतकार ओ पी नैयर की दूसरी पुण्यतिथि पर विशेष - १९५२ में एक फ़िल्म आई थी, -आसमान, जिसमें गीता दत्त ने एक बेहद खूबसूरत गीत गाया था -"देखो जादू भरे मोरे नैन..." यह संगीतकार ओ पी नैयर की पहली फ़िल्म थी, जो पहला गाना इस फ़िल्म के लिए रिकॉर्ड हुआ था वो था "बेवफा जहाँ में वफ़ा ढूँढ़ते रहे..." गायक थे सी एच आत्मा साहब. दो अन्य गीत सी एच आत्मा की आवाज़ में होने थे जो नासिर पर फिल्माए जाने थे और ४ अन्य गीत, गीता ने गाने थे जो नायिका श्यामा पर फिल्मांकित होने थे. फ़िल्म के कुल ८ गीतों में से आखिरी एक गीत जो फ़िल्म की सहनायिका पर चित्रित होना था उसके बोल थे "जब से पी संग नैना लगे...". नैयर ने इस गीत के लिए लता जी को तलब किया पर जब लता जी को ख़बर मिली कि उन्हें एक ऐसा गीत गाने को कहा जा रहा है जो नायिका पर नही फिल्माया जाएगा (ये उन दिनों बहुत बड़ी बात हुआ करती थी) उनके अहम् को धक्का लगा. वो उन दिनों की (और उसके बाद के दिनों की भी) सबसे सफल गायिका थी. लता ने ओ पी के लिए इस गीत को गाने से साफ़ इनकार कर दिया और जब नैयर साहब तक ये बात पहुँची, तो उन्होंने भी एक दृढ़

गए दिनों का सुराग लेकर...आशा जी और गुलाम अली

पूरे कायनात की मौसिकी यहां इस परिवार में बसती है... चूँकि इस पूरे माह हम बात कर रहे हैं मंगेशकर बहनों की, जिनकी दिव्य आवाजों ने हिन्दी फ़िल्म संगीत का आकाश सजाया है. इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज आवाज़ पर, दिलीप कवठेकर आयें हैं, आशा जी के गुलाम अली साहब के साथ बनी एल्बम "मेराज़-ए-ग़ज़ल" की रिकॉर्डिंग के समय का एक संस्मरण लेकर, पढ़ें और आनंद लें इस बेमिसाल सी ग़ज़ल का. मेरा बचपन का मित्र है, दीपक भोरपकर.इन्दौर में बचपन में साथ साथ गाना बजाना करते थे. वह तबला बजाता था, मै गाना. बडे दिनों बाद लगभग २५ वर्षों बाद पुनर्मिलन हुआ तो पता चला की जनाब मुंबई में है, और हृदयनाथ मंगेशकर के साथ कार्यक्रम में बजाते भी है. यह भी पता चला की वो लताजी और आशा जी को तबले पर रियाज़ भी करवाता है.वे दोनो लगभग रोज़ रियाज़ करती थी उन दिनों में भी. उन दिनों आशा जी का गुलाम अली साहब के साथ जो एलबम निकल रहा था उस के लिए रियाज़ चल रहा था. दीपक उसी में बहुत व्यस्त था. दुर्भाग्यवश ,संभव होते हुए भी मेरा वहां जाने का संयोग नही बन पाया. लेकिन बातों बातों में उन दिनों का यह ताज़ा संस्मरण उसने सुनाया जो आप के लिये प्रस्तुत

वह कभी पीछे मुडकर नहीं देखती, इसीलिए वह आशा है

सजय पटेल ने दो बरस पहले ख्यात गायिका आशा भोंसले से उनके जन्मदिन के ठीक एक दिन पहले बात की थी.उसी गुफ़्तगू की ज़ुगाली आज आवाज़ पर.... संघर्ष हर एक के जीवन में हमेशा ही रहता है, लेकिन उन्होंने पीछे मुड़कर देखना नहीं सीखा और शायद इसीलिए वह सिर्फ़ नाम की आशा नहीं, ज़िंदगी का वो फ़लसफ़ा हैं जिसमें "निराशा' शब्द के लिए कोई जगह नहीं। वह वैसा फूल भी नहीं हैं जिसे कल मुरझाना है, वह ऐसी ख़ुशबू हैं जिसकी महक में उल्लास है, ख़ुशी है, ज़ज़्बा है।ये सारे शब्द उस आवाज़ के लिये यहाँ झरे हैं, जो साठ बरसों से मादकता, मदहोशी और मुस्कान का मीठा सिलसिला पेश करती आई हैं, आशा भोंसले। दो बरस पहले टेलीफ़ोन पर उनसे जब चर्चा हुई थी तब आशाजी ने कहा- जीवन ताल और लय में होना ज़रूरी है। सुर उतरा तो चढ़ जाएगा, लेकिन ताल बिगड़ी तो समझिए संगीत का समॉं ही बिगड़ गया। मनुष्य के लिए "चाल-ढाल और गाने वालों के लिए ताल' बहुत ज़रूरी है। मैंने न जाने कितने संगीतकारों के साथ काम किया तो उसे अपना एक विनम्र कर्तव्य माना। कभी काम करके थकान नहीं महसूस की मैंने। मानकर चली कि संगीत का काम भी एक इबादत है, उसे तो करना