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मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सुनो.....स्वर्गीय मदन साहब के गीत बोले रफी के स्वरों में ढल कर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 140 स न् १९२४ में इराक़ के बग़दाद में जन्मे मदन मोहन कोहली को द्वितीय विश्व युद्ध के समय फ़ौजी बनकर बंदूक थामनी पड़ी थी। लेकिन बंदूक की जगह साज़ों को थामने की उनकी बेचैनी उन्हे संगीत के क्षेत्र में आख़िरकार ले ही आयी। १९४६ में आकाशवाणी के लखनऊ केन्द्र में वो कार्यरत हुए और वहीं वो सम्पर्क में आये उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब और बेग़म अख्तर जैसे नामी फ़नकारों के। १९५० में देवेन्द्र गोयल की फ़िल्म 'आँखें' में उन्होने बतौर स्वतंत्र संगीतकार पहली बार संगीत दिया। फ़िल्म 'मदहोशी' के एक गीत में उन्होने पहली बार लता मंगेशकर और तलत महमूद को एक साथ ले आये थे। १९८० में उनके संगीत से सजी फ़िल्म आयी थी 'चालबाज़'. १९५० से १९८० के इन ३० सालों में उन्होने एक से बढ़कर एक धुन बनायी और सुननेवालों को मंत्रमुग्ध किया। उनका हर गीत जैसे हम से यही कहता कि "मेरी आवाज़ सुनो, प्यार का राग सुनो"। फ़िल्म 'नौनिहाल' के इस गीत की तरह कई अन्य गानें उनके ऐसे हैं जिनको समझने के लिए अहसास की ज़बान ही काफ़ी है। मदन मोहन के संगीत में समुन्दर सी गहराई है

वो देखो जला घर किसी का....लता- मदन मोहन टीम का एक बेहतरीन गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 139 'म दन मोहन विशेष' की पाँचवीं कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं दोस्तों। मदन मोहन ने गीतकार राजा मेहंदी अली ख़ान के लिखे अनेक गीतों को संगीतबद्ध किया था। फ़िल्म 'अनपढ़' के एक गीत के बारे में ऐसा कहा जाता है कि इसकी धुन मदन मोहन ने अपने घर से 'रिकॉर्डिंग स्टुडियो' जाते वक़्त टैक्सी में बैठे बैठे केवल १० मिनट में बना लिया था। वह मन को छू लेनेवाली अमर रचना लता मंगेशकर की आवाज़ में थी "आप की नज़रों ने समझा प्यार के क़ाबिल मुझे"। इसी फ़िल्म में लता जी का गाया "जिया ले गयो जी मोरा साँवरिया" और "है इसी में प्यार की आबरू" गीत बहुत ज़्यादा मशहूर हुए थे। इनकी तुलना में लता जी का ही गाया एक ऐसा गीत भी था जो थोड़ा सा कम सुना गया, या फिर यूं कहिए कि जिसकी चर्चा कम हुई। वह गीत है "वह देखो जला घर किसी का, ये टूटे हैं किसके सितारे, वो क़िस्मत हँसीं और ऐसी हँसीं के रोने लगे ग़म के मारे"। अक्सर ऐसा देखा गया है फ़िल्मों में कि फ़िल्म के चंद मशहूर गीतों की चमक धमक से कुछ दूसरे गीत इस क़दर खो जाते हैं कि उनकी उत्कृष्टता लोग

जमीन से हमें आसमान पर बिठाके गिरा तो न दोगे....एक मासूम सा सवाल इस प्रेम गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 138 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में आप इन दिनों सुन रहे हैं 'मदन मोहन विशेष'। मदन मोहन का मनमोहक संगीत फ़िल्म संगीत के स्वर्णयुग का एक सुरीला अध्याय है। उनकी हर रचना बेजोड़ है, बावजूद इसके कि उन्होने दूसरे सफल संगीतकारों की तरह बहुत ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत नहीं दिया है। उनके गीतों में हमारी संस्कृति की अनुगूँज सुनाई देती है। उनके संगीत में है रागों का अनुराग, संगीत का वह रस भरा संसार है कि जिसमें बार बार डुबकी लगाने को जी चाहता है। फ़िल्म संगीत की दुनिया से जुड़े संगीतकारों की इस दुनिया में मदन मोहन अलग ही नज़र आते हैं। संगीतकार बेशक़ एक दौर में अपनी संगीत यात्रा पूरी कर चला जाता है, लेकिन उनका संगीत काल और समय से परे होता है। मदन मोहन का संगीत भी कालजयी है और रहेगा जो साया बन हमेशा हमारे साथ चलेगा और बाँटता रहेगा हमारी ख़ुशियाँ, हमारे ग़म। मदन मोहन साहब को हम ने जिस क़दर अपने दिलों में बसा रखा है, वो कभी वहाँ से उतर नहीं पायेंगे। कुछ इसी तरह का भाव उनके उस गीत में भी है जो आज हम चुनकर लाये हैं इस महफ़िल के लिए। "ज़मीं से हमें आसमाँ पर बिठाके गिरा

मैं ये सोच कर उसके दर से उठा था...रफी साहब के गाये बहतरीन नज्मों में से एक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 137 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम उस सुर साधक की बातें कर रहे हैं जिनका अंदाज़ था सब से जुदा, जिनका संगीत कानों से होते हुए सीधे रूह में समा जाता है। वह संगीत, जो कभी प्रेम, कभी विरह, कभी पीड़ा, तो कभी प्यार में समर्पण की भावना जगाती है। अपने संगीत से श्रोताओं को बेसुध कर देनेवाले उस सुर-गंधर्व को हम और आप मदन मोहन के नाम से जानते हैं। 'मदन मोहन विशेष' के तीसरे अंक में आज हम उनके संगीत के जिस रंग को लेकर आये हैं वह रंग है अपनी महबूबा से बिछड़ने की घड़ी में दिल से निकलती पुकार, कि काश वो एक बार हमें जाने से रोक ले। छुट्टी पर आये सैनिक को अचानक तार मिलता है कि पड़ोसी मुल्क ने हमारे देश पर हमला बोल दिया है और उसे तुरंत सीमा पर पहुँचना है। ऐसे में एक दम से महबूबा से जुदा होने का ख़याल सैनिक के दिल को दहलाकर रख देता है। क्या पता कि फिर कभी उन से इस ज़िंदगी में मुलाक़ात हो, ना हो! १९६४ में बनी चेतन आनंद की फ़िल्म 'हक़ीक़त' की हम बात कर रहे हैं, जिसके मुख्य कलाकार थे चेतन आनंद और प्रिया राजवंश। १९६२ के 'इंडो-चायना वार' पर आधारित इस

तू प्यार करे या ठुकराए हम तो हैं तेरे दीवानों में - मानते हैं आज भी मदन साहब के दीवाने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 136 'म दन मोहन विशेष' की दूसरी कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। कल इसकी पहली कड़ी में मदन मोहन के संगीत में लताजी का गाया और राजेन्द्र कृष्ण का लिखा हुआ गीत आप ने सुना था। आज भी इसी तिकड़ी के स्वर गूँज रहे हैं इस महफ़िल में, लेकिन एक अलग ही अंदाज़ में। यूं तो आम तौर पर नायक ही नायिका के दिल को जीतने की कोशिश करता है, लेकिन हमारी फ़िल्मों में कभी कभी हालात ऐसे भी बने हैं कि यह काम नायक के बजाय नायिका के उपर आन पड़ी है। धर्मेन्द्र-मुमताज़ की फ़िल्म 'लोफ़र' में लताजी का ही एक गीत था "मैं तेरे इश्क़ में मर ना जाऊँ कहीं, तू मुझे आज़माने की कोशिश न कर", जो बहुत मक़बूल हुआ था। लेकिन आज जिस गीत की हम बात कर रहे हैं वह है १९५७ की फ़िल्म 'देख कबीरा रोया' का "तू प्यार करे या ठुकराये हम तो हैं तेरे दीवानों में, चाहे तू हमें अपना न बना लेकिन न समझ बेगानों में"। है न वही बात इस गीत में भी! वैसे यह गीत शुरु होता है एक शेर से - "न गिला होगा न शिकायत होगी, अर्ज़ है छोटी सी सुन लो तो इनायत होगी"। राजेन्द्र कृष्ण साहब ने

बैरन नींद न आये....मदन मोहन साहब की यादों को समर्पित ओल्ड इस गोल्ड विशेष.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 135 जु लाई का महीना, यानी कि सावन का महीना। एक तरफ़ बरखा रानी अपने पूरे शबाब पर होती हैं और इस सूखी धरा को अपने प्रेम से हरा भरा करती है। लेकिन जुलाई के इसी महीने में एक और चीज़ है जो छम छम बरसती है, और वो है संगीतकार मदन मोहन की यादें। जी हाँ दोस्तों, करीब करीब ढाई दशक बीत चुके हैं, लेकिन अब भी दिल के किसी कोने में छुपी कोई आवाज़ अब भी इशारा करती है १४ जुलाई के उस दिन की तरफ़ जब वो महान संगीतकार हमें छोड़ गये थे। उनके जाने से फ़िल्म संगीत में जो शून्य पैदा हुआ है, उसे भर पाना अब नामुमकिन सा जान पड़ता है। मदन मोहन साहब की सुरीली याद में आज से लेकर अगले सात दिनों तक, यानी कि ८ जुलाई से लेकर १४ जुलाई तक, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सुनने वाले हैं 'मदन मोहन विशेष'। मदन मोहन के स्वरबद्ध गीतों में सर्वश्रेष्ठ सात गानें चुनना संभव नही है, और ना ही हम इसकी कोई कोशिश कर रहे हैं। हम तो बस उनके संगीत के सात अलग अलग रंगों से आपका परिचय करवायेंगे अगले सात दिनों में। तो तैयार हो जाइये दोस्तों, फ़िल्म जगत के अनूठे संगीतकार मदन मोहन साहब की धुनों में ग़ोते लगाने क

वो चाँद मुस्कुराया सितारे शरमाये....मजरूह साहब ने लिखा था इस खूबसूरत युगल गीत को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 123 १९५६ में फ़िल्म 'चोरी चोरी' में लता मंगेशकर और मन्ना डे का गाया एक बड़ा ही मशहूर 'रोमांटिक' युगल गीत आया था "ये रात भीगी भीगी ये मस्त फ़िजायें", जिसने लोकप्रियता की सारी हदें पार कर दी थी और आज एक सदाबहार नग़मा बन कर फ़िल्म संगीत के स्वर्ण युग का प्रतिनिधित्व करने वाले गानों में शामिल हो गया है। शंकर जयकिशन द्वारा स्वरबद्ध यह गीत लता-मन्ना के गाये युगल गीतों में बहुत ऊँचा स्थान रखता है। इस फ़िल्म के बनने के ठीक दो साल बाद, यानी कि १९५८ में एक फ़िल्म आयी थी 'आख़िरी दाव'। फ़िल्म में संगीत था मदन मोहन का। यूँ तो इस फ़िल्म के सभी गीत मोहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले ने गाये थे, लेकिन एक युगल गीत लता और मन्ना दा की आवाज़ में भी था। अभी अभी हमने फ़िल्म 'चोरी चोरी' के उस मशहूर गीत का ज़िक्र इसलिए किया क्यूंकि फ़िल्म 'आख़िरी दाव' का यह गीत भी कुछ कुछ उसी अंदाज़ में बनाया गया था। गीत के बोल और संगीत संयोजन में समानता थी, तथा गायक कलाकार एक होने की वजह से इस गीत को सुनते ही उस गीत की याद आ जाती है। आज 'आखिरी दाव' फ

रस्म-ए-उल्फ़त को निभायें तो निभायें कैसे- लता का सवाल, नक्श ल्यालपुरी का कलाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 121 ल ता मंगेशकर की आवाज़ में मदन मोहन के संगीत से सजी हुई ग़ज़लें हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। यूँ तो ये ग़ज़लें ज़्यादातर राजा मेहंदी अली ख़ान, राजेन्द्र कृष्ण, और कुछ हद तक कैफ़ी आज़्मी ने लिखे थे, लेकिन एक फ़िल्म ऐसी भी रही है जिसमें मदन साहब की तर्ज़ पर इनमें से किसी ने भी नहीं बल्कि गीतकार नक्श ल्यालपुरी ने कम से कम दो बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़लें लिखी हैं। यह फ़िल्म थी 'दिल की राहें' और आज इस महफ़िल में पेश-ए-ख़िदमत है इसी फ़िल्म से एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल लताजी की आवाज़ में। 'दिल की राहें' बनी थी सन् १९७३ में जिसका निर्माण किया था एस. कौसर ने। बी. आर. इशारा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राकेश पाण्डेय, रेहाना सुल्तान, और दिलीप दत्त प्रमुख। छोटी बजट की फ़िल्म थी और फ़िल्म नहीं चली, लेकिन आज अगर इस फ़िल्म को कोई याद करता है तो १००% इसके गीत संगीत की वजह से। मदन मोहन के जादूई संगीत, गीतकार और शायर नक्श ल्यालपुरी के पुर-असर अल्फ़ाज़, तथा लता मंगेशकर, उषा मंगेशकर और मन्ना डे के मधुर आवाज़ों ने इस फ़िल्म के गीतों को एक अलग ही बुल

आप के पहलू में आकर रो दिए... मदन मोहन के सुरों पर रफी साहब की दर्द भरी आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 120 स स्पेन्स फ़िल्मों की अगर हम बात करें तो ६० के दशक में अभिनेत्री साधना ने कम से कम तीन ऐसी मशहूर फ़िल्मों में अभिनय किया है जिनमें वो रहस्यात्मक किरदार में नज़र आती हैं। ये फ़िल्में हैं 'मेरा साया', 'वो कौन थी?' और 'अनीता'। ये फ़िल्में मक़बूल तो हुए ही, इनका संगीत भी सदाबहार रहा है। 'अनीता' में संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल' का था, जब कि बाक़ी के दो फ़िल्मों के संगीतकार थे मदन मोहन साहब। मदन साहब अपनी 'हौन्टिंग मेलडीज़' के लिये तो मशहूर थे ही। बस फिर क्या था, सस्पेन्स वाली फ़िल्मों में उनसे बेहतर और कौन संगीत दे सकता था भला! आज हम आप के लिये लेकर आये हैं फ़िल्म 'मेरा साया' से मोहम्मद रफ़ी साहब का गाया एक दर्दीला नग़मा जिसे लिखा है राजा मेहंदी अली ख़ान ने। वैसे तो इस फ़िल्म के दूसरे कई गीत बहुत ज़्यादा मशहूर हुए थे जैसे कि लताजी के गाये फ़िल्म का शीर्षक गीत "मेरा साया साथ होगा" और "नैनों में बदरा छाये", तथा आशाजी की मचलती आवाज़ में "झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में"। लेकिन रफ़ी

दो दिल टूटे दो दिल हारे...जब लता ने पिया हीर का दर्द

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 55 ही र-रांझा पंजाब के चार प्रसिद्ध दुखद प्रेम कहानियों में से एक है। बाक़ी के तीन हैं मिर्ज़ा साहिबा, सस्सि पुन्नू और सोहनी महिवाल। युँ तो हीर-रांझा को कई काव्य रूपों में प्रस्तुत किया गया है लेकिन १७६६ में वारिस शाह का लिखा हीर-रांझा सब से ज़्यादा चर्चित हुआ। हीर एक बेहद ख़ूबसूरत अमीर परिवार की लड़की है, और रांझा अपने चार भाइयों में सब से छोटा होने की वजह से अपने पिता का चहेता। वह बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है। अपने लालची भाइयों और भाभियों से तंग आकर रांझा घर छोड़ देता है और भटकते हुए हीर के गाँव आ पहुँचता है। दोनों की मुलाक़ात होती है और एक दूसरे से प्यार हो जाता है। रांझा को हीर के घर मवेशियों की देख-रेख करने की नौकरी भी मिल जाती है। हीर उसके बांसुरी की मधुर तानों से सम्मोहित सी हो जाती है और उससे बेहद प्यार करने लगती है। जब उनके प्यार की भनक हीर के लालची चाचा को लगती है तो वह जबरदस्ती हीर की शादी किसी और से करवा देते हैं। रांझा का दिल टूट कर रह जाता है और वह एक जोगी बन जाता है। घूमते घामते एक रोज़ रांझा उसी गाँव आ पहुँचता हैं जहाँ पर हीर रहती है। दोनो एक बार

है इसी में प्यार की आबरू....लता की आवाज़ में कसक दर्द की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 40 क हते हैं कि प्यार अंधा होता है. दिमाग़ कहता है कि वो बेवफा है, लेकिन दिल है कि उनसे वफ़ा पे वफ़ा किये जा रहा है. शायद इसलिए कि दिल यह नहीं चाहता कि उसका प्यार बदनाम हो, बे-आबरू हो. "वो मेरे यादों से जाते नहीं हैं, नींद भी अब एक पल को आती नहीं है, गम की बातों में बस डूबा है दिल, बात कोई और दिल को भाती नहीं है". दर्द में कोई मौसम प्यारा नहीं होता, दिल हो प्यासा तो पानी से गुज़ारा नहीं होता, कोई देखे तो हमारी बेबसी, हम सभी के हो जाते हैं, पर कोई हमारा नहीं होता. मुझे गम भी उनका अज़ीज़ है, यह उन्ही की दी हुई चीज़ है. दिल तो वफ़ा पे वफ़ा किये जा रहा है लेकिन वो वफ़ा भी अगर रिश्ते को बचा ना सके तो फिर दिल क्या करे! कुछ ऐसी ही बात कही गयी है हमारे आज के 'ओल्ड इस गोल्ड' के गीत में. और इतनी खूबसूरत अंदाज़ में कहा गया है कि गीत एक सदाबहार नग्मा बनकर रह गया है. रजा मेहंदी अली खान, मदन मोहन, लता मंगेशकर, और एक फिल्मी ग़ज़ल, और क्या चाहिए दोस्तों, कमाल तो होना ही था! 1962 की फिल्म "अनपढ़" में ऐसे ही दो ग़ज़लें लताजी की थी जिन्हे पर्दे पर माला

एक मंजिल राही दो, फिर प्यार न कैसे हो....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 25 दो स्तों,'ओल्ड इस गोल्ड' की एक और कडी के साथ हम हाज़िर हैं. हमें बेहद खुशी है कि आप इस शृंखला को पसंद कर रहे हैं. और यकीन मानिए, आपके लिए इन गीतों को खोजने में और इन गीतों से जुडी जानकारियाँ इकट्टा करने में भी हमें उतना ही आनंद आ रहा है. इस शृंखला के स्वरूप के बारे में अगर आप कोई भी सुझाव देना चाहते हैं, या किसी तरह का कोई बदलाव चाहते हैं तो हमें बे-झिझक बताईएगा. अगर आप किसी ख़ास गीत को इस शृंखला में सुनना चाहते हैं तो भी हमें बता सकते हैं. और अगर फिल्म संगीत के सुनहरे दौर के किसी गीत से जुडी कोई दिलचस्प बात आप जानते हैं तो भी हमें ज़रूर बताएँ, हमें बेहद खुशी होगी आपकी दी हुई जानकारी को यहाँ पर शामिल करते हुए. तो आइए अब ज़िक्र छेडा जाए आज के गीत का. आज का गीत लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज़ों में एक बेहद खूबसूरत युगल गीत है जिसमें यह बताया जारहा है कि अगर मंज़िल एक है, तो फिर ऐसे मंज़िल को तय करनेवाले दो राही के दिलों में प्यार कैसे ना पनपे. अब इसके आगे शायद मुझे और कुछ बताने की ज़रूरत नहीं, आप ने गीत का अंदाज़ा ज़रूर लगा लिया होगा! जी हाँ, 1961 में बन

जो हमने दास्तां अपनी सुनाई आप क्यों रोये...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 22 "मे रे लिए न अश्क बहा मैं नहीं तो क्या, है तेरे साथ मेरी वफ़ा मैं नहीं तो क्या, ज़िंदा रहेगा प्यार मेरा मैं नहीं तो क्या". दोस्तों, मदन मोहन द्वारा स्वरबद्ध इस गीत का एक एक शब्द जैसे उन्हीं के लिए लिखा गया हो. आज भले ही वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका अमर संगीत युगों युगों तक सुननेवालों के दिलों पर राज करता रहेगा. आज की शाम मदन मोहन, लता मंगेशकर और राजा महेंदी अली ख़ान के नाम. सन् 1964 में बनी फिल्म "वो कौन थी" अपने गीत संगीत की वजह से कालजयी बन गयी. आज 45 साल बाद भी जब हम इस फिल्म के गीतों को सुनते हैं तो इनमें वही ताज़गी, वही असर पाते हैं. शायद यही ख़ासीयत थी फिल्म संगीत के उस सुनहरे दौर की. दोस्तों, आशा भोंसले की आवाज़ में "वो कौन थी" फिल्म का एक गीत हमने कुछ दिन पहले आपको सुनवाया है. आज सुनिए इसी फिल्म से लता मंगेशकर की आवाज़ में एक दर्द भरा नग्मा . 1958 की फिल्म "अदालत" में भी लताजी और मदन मोहन साहब ने एक इसी तरह का गीत बनाया था "यूँ हसरतों के दाग़ मोहब्बत में धो लिए". कुछ ऐसा ही ग़मज़दा अंदाज़ "व

ऐ दिल मुझे बता दे...तू किस पे आ गया है...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 12 आ ज 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम सलाम कर रहे हैं फिल्म जगत के दो महान सुर साधकों को. एक हैं गायिका गीता दत्त और दूसरे संगीतकार मदन मोहन. यूँ तो मदन मोहन के साथ लता मंगेशकर का ही नाम सबसे पहले जेहन में आता है, लेकिन गीता दत्त ने भी कुछ बडे ही खूबसूरत नगमें गाये हैं मदन मोहन के लिए. इनमें से एक है फिल्म "भाई भाई" का, "ऐ दिल मुझे बता दे तू किसपे आ गया है, वो कौन है जो आकर ख्वाबों पे छा गया है". दोस्तों, अगर आप ने कल का 'ओल्ड इस गोल्ड' सुना होगा तो आपको पता होगा कि हमने उसमें आशा भोसले का गाया "आँखों में जो उतरी है दिल में" गाना सुनवाया था. वो गाना ज़िंदगी में किसी के आ जाने की खुशी को उजागर करता है. वैसे ही "भाई भाई" फिल्म का यह गाना भी कुछ उसी अंदाज़ का है. किसी का अचानक दिल में आ जाना, ख्वाबों पर भी उसी का राज होना, पहले पहले प्यार की वो मीठी मीठी अनुभूतियाँ, यही तो है इस गीत में. "भाई भाई" 1956 की फिल्म थी जिसका निर्माण दक्षिण के नामचीं 'बॅनर' ऐ वी एम् ने किया था. अशोक कुमार, किशोर कुमार, नि

खुद ढूंढ रही है शम्मा जिसे क्या बात है उस परवाने की...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 11 'ओ ल्ड इस गोल्ड' की एक और सुरीली शाम ख़ास आपके नाम! हमें यकीन है आज का गीत आपके कानो में से होकर सीधे दिल में उतर जायेगा. आशा भोसले और ओ पी नय्यर के सुरीले संगम से निकला एक और अनमोल मोती है यह गीत. यह गीत है 1963 की फिल्म "फिर वोही दिल लाया हूँ" का. जॉय मुखेर्जी और आशा पारेख अभिनीत नसीर हुसैन की इस फिल्म ने 'बॉक्स ऑफिस' पर कामयाबी के झन्डे गाडे. और इस फिल्म के संगीत के तो क्या कहने! 50 के दशक के बाद 60 के दशक में भी ओ पी नय्यर के संगीत का जादू वैसे ही बरकरार रहा. नय्यर साहब ने इससे पहले नसीर हुसैन के लिए "तुमसा नहीं देखा" फिल्म में संगीत निर्देशन किया था सन 1957 में. मजरूह सुल्तानपुरी ने बडे ही शायराना अंदाज़ में "फिर वोही दिल लाया हूँ" फिल्म के इस गाने को लिखा है. हर किसी के ज़िंदगी में ऐसा एक पल आता है जब दिल को लगता है कि जिसका बरसों से दिल को इंतज़ार था उसकी झलक शायद दिल को अब मिल गयी है. और दिल उसी की तरफ मानो खींचता चला जाता है, दुनिया जैसे एकदम से बदल जाती है. "खुद ढूँढ रही है शम्मा जिसे क्या बात है उ

शोख नज़र की बिजिलियाँ...दिल पे मेरे गिराए जा..

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 07 'ओल्ड इस गोल्ड' में आज गिरनेवाली है बिजली, यह बिजली आपके दिल पर गिरेगी और यह बिजली है किसी के शोख नज़र की. जी हाँ, "शोख नज़र की बिजलियाँ दिल पे मेरे गिराए जा". आशा भोसले की आवाज़ फिल्म "वो कौन थी" में. यूँ तो मदन मोहन की चेहेती रही हैं लता मंगेशकर, लेकिन समय समय पर उन्होने आशा भोसले से कुछ ऐसे गीत गवाए हैं जो केवल आशा भोंसले ही गा सकती थी, और यह गीत भी ऐसा ही एक गीत है. क्योंकि यह गीत फिल्म के 'हेरोईन' साधना पर नहीं, बल्कि 'वेंप' हेलेन पर फिल्माया जाना था, इसलिए आशा भोंसले की आवाज़ चुनी गयी जिसमें ज़रूरत थी एक मादकता की, एक नशीलेपन की, जो नायक को अपनी ओर सम्मोहित करे. और ऐसे गीतों में आशा-जी की आवाज़ किस क़दर निखरकर सामने आती है यह किसी को बताने की ज़रूरत नहीं. बस, फिर क्या था, आशा भोंसले ने इस गीत को इस खूबसूरती से गाया कि इस फिल्म के दूसरे 'हिट' गीतों के साथ साथ इस गीत ने भी सुन्नेवालों के दिलों में एक अलग ही जगह बना ली. राज खोंसला निर्देशित फिल्म "वो कौन थी" बनी थी सन 1964 में. राजा महेंदी अली

तलत महमुद का था अंदाजें बयां कुछ और...

गायक तलत महमूद की ८५ वीं जयंती पर विशेष गीत संगीत के बिना जरा जीवन की कल्पना करिये और लगे हाथ यह कल्पना भी कर डालिये कि तलत महमुद जैसे गायक की खूबसूरत मखमली आवाज यदि हमारे कानों तक पहुँचनें से महरुम रहती तो। तब ज्यादा कुछ न होता, धरती अपनी जगह ही बनी रहती, आसमान भी वहीं स्थिर रहता, बस हम इन बेहद खूबसूरत गीतों को सुननें से महरूम रह जाते। "वो दिन याद करो","आहा रिमझिम के वो प्यारे प्यारे गीत लिये","प्यार पर बस तो नहीं फिर भी", जैसे गीत हमारे नीरस जीवन, में मधुर रस घोलते हैं। सुनिए १९६८ में आई फ़िल्म "आदमी" से रफी और तलत का गाया गीत, गीतकार हैं शकील बदायूँनी और संगीत है नौशाद का - तहजीब के शहर लखनऊ में २४ फरवरी १९२४ में जन्में तलत महमुद को बचपन से ही संगीत का बेहद शौक था। वे संगीत के इतने दीवाने थे कि पूरी पूरी रात वे संगीत सुनते सुनते ही बिता देते थे। उन्होनें संगीत की विधिवत शिक्षा प.भट्ट से ली। अपने संगीत कैरियर की शुरूआत मीर, जिगर, दाग गजलों से की। उस समय संगीत की सबसे बडी कंपनी एच एम वी के लिये उन्होनें १९४१ "सब दिन एक समान नहीं था"

माई री मैं कासे कहूँ...मदन मोहन की दुर्लभ आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 04 दोस्तों, अगर संगीतकार मदन मोहन के स्वरबद्ध फिल्मों पर गौर किया जाए तो हम पाएँगे की कुछ फिल्मों को छोड्कर इनमें से अधिकतर फिल्में 'बॉक्स ऑफीस' पर उतनी कामयाब नहीं रही. लेकिन जहाँ तक इन फिल्मों के संगीत का सवाल है, तो हर एक फिल्म में मदन मोहन का संगीत कामयाब रहा, जिन्हे भूरी भूरी प्रशंसा मिली. सच तो यह है कि मदन मोहन के संगीत में ऐसे कुछ कम चलनेवाले फिल्मों के कई गीत आज कालजयी बन गये हैं. ऐसा ही एक कालजयी गीत आज हम आपके लिए लेकर आए हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. 1970 में एक फिल्म आई थी "दस्तक", जिसका निर्देशन किया था राजिंदर सिंह बेदी ने. संजीव कुमार और रहना सुल्तान अभिनीत यह फिल्म 'बॉक्स ऑफीस' पर बुरी तरह से 'फ्लॉप' रही. लेकिन इस फिल्म के संगीत के लिए मदन मोहन को मिला भारत सरकार की ओर से उस साल के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार. यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है की राष्ट्रीय पुरस्कार सभी भाषाओं के फिल्मों को ध्यान में रखकर दिया जाता है. इसका यह अर्थ हुआ कि मदन मोहन केवल 'बोलीवुड' के संगीतकारों में ही नहीं ब

आपको प्यार छुपाने की बुरी आदत है...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला (०१) आवाज़ की दुनिया के मेरे दोस्तों, आज से आवाज़ पर हम शुरू कर रहे हैं एक नया स्तंभ -"ओल्ड इस गोल्ड".यह एक ऐसा स्तंभ है जो सलाम करती है फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन बेशकीमती गीतों को जिनसे फ़िल्म संगीत संसार आज तक महका हुआ है. इस स्तंभ के अंतर्गत हम न केवल आपको उस गुज़रे दौर के लोकप्रिय गाने सुनवायेंगे, बल्कि उन गीतों की थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे. आज इस नए स्तंभ की पहली कड़ी में हमने जिस गीत को चुना है आपले साथ बाँटने के लिए, वो फ़िल्म "नीला आकाश" का है. ये फ़िल्म बनी थी १९६५ में. राजेंदर भाटिया द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्या कलाकार थे धर्मेन्द्र और माला सिन्हा.जहाँ तक इसके गीत संगीत का सवाल है, इस फ़िल्म के गाने लिखे रजा मेहंदी अली खान ने, और संगीतकार थे मदन मोहन. दोस्तों, आपको शायद ये बताने की जरुरत नही कि राजा मेहंदी अली खान और मदन मोहन की जोड़ी ने बहुत सारे खूबसूरत गीत हमें दिए हैं. बल्कि यूँ कहें कि राजेंदर कृष्ण के बाद मदन मोहन जिस गीतकार के सबसे ज्यादा गीत संगीतबद्ध किए, वो थे राजा मेहंदी अली खान. नीला आकाश के ज्यादातर गाने आश

"नैना बरसे रिमझिम रिमझिम" - संजय पटेल ने ताज़ा किया एक मार्मिक संस्मरण, संगीत के महान फनकार मदन मोहन को आवाज़ की श्रद्दांजलि

Mangeshkar christened him 'The Emperor Of Ghazals'. She should know because it is in her voice that Madan Mohan created all those masterpieces that set an impossibly high standard for ghazals in films. The irony of the fact is that Madan Mohan couldn't combine class and mass appeal the way an S.D.Burman or Shanker-Jaikishan could. He composed the only way he knew to - with great respect for each of his tunes. दोस्तो, आज मदन मोहन जी की ३३ वीं पुन्यतिथि है, इस अवसर पर उन्हें याद कर रहे हैं आवाज़ के पारखी संजय पटेल , जानिए उन्हीं की जुबानी ये मार्मिक संस्मरण, जो जुडा है एक अमर गीत " नैना बरसे " से.... मदन मोहन के गीत नैना बरसे रिमझिम रिमझिम से जुड़ा एक मार्मिक संस्मरण. - संजय पटेल जब हमारे मन में संगीतकार मदन मोहन का स्मरण आता है तब स्वतः ही यह बात स्थापित हो जाती है कि हम उस सुरीले दौर की बात कर रहे हैं जब संगीत में शोर कम और माधुर्य अधिक हुआ करता था। इसका मतलब ये भी नहीं कि वैसा दौर बाद में नहीं आया लेकिन यह निर्विवाद है कि मदन मोहन की बलन का संगीतकार परिदृश्य