स्वरगोष्ठी – 377 में आज
राग से रोगोपचार – 6 : रात्रि के दूसरे प्रहर का राग बागेश्री
असामान्य मनःस्थितियों को दूर भगाता है राग बागेश्री
विदुषी मालिनी राजुरकर |
मन्ना डे |
राग बागेश्री
के आरोह के स्वर हैं; सा, ग॒, म, ध, नि॒ सां और अवरोह के स्वर सां, सा,
नि॒, ध, म, प, ध, म, ग॒, रे, सा। अभावग्रस्त एवं चिन्ताग्रस्त व्यक्ति की
भयानक कष्ट की स्थिति जब सीमा पार कर जाती है तो व्यक्ति हताशा, विषाद और
चिन्ताविकृति जैसी असामान्य मानसिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है।
बीमारी, गरीबी, सामाजिक उपेक्षा एवं संवेदनहीनता ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न
करने में सहायक होती हैं। परित्यक्ता या विधवा नारी, उसका विखरा और उजड़ा
हुआ जीवन, अनाथ बालक-बालिका की हताशा, विषम सामाजिक परिस्थितियों के कारण
उत्पन्न आक्रोश, चिड़चिड़ापन, असामान्य मनःस्थितियाँ आदि के हालात में राग
बागेश्री के स्वरों तथा वादी स्वर मध्यम का स्वरात्मक गम्भीर प्रभाव पीड़ित
व्यक्ति मर्मस्थल में चोट करते हैं। इन स्वरों के प्रभाव से व्यक्ति को
मानसिक शान्ति प्राप्त हो सकती है। राग बागेश्री में श्रेष्ठ कलासाधकों
द्वारा प्रस्तुत गायन, सितार, सरोद, इसराज, सारंगी, मयूरवीणा, सुरबहार,
विचित्रवीणा वादन की नादात्मक प्रभाव शान्ति और सुखद निद्रा का लाभ प्रदान
कर सकते है।
अब हम आपको राग बागेश्री में निबद्ध एक तराना सुनवाते हैं, इसे प्रस्तुत कर रहीं हैं, ग्वालियर परम्परा में देश की जानी-मानी गायिका
विदुषी मालिनी राजुरकर। 1941 में जन्मीं मालिनी जी का बचपन राजस्थान के
अजमेर में बीता और वहीं उनकी शिक्षा-दीक्षा भी सम्पन्न हुई। आरम्भ से ही दो
विषयों- गणित और संगीत, से उन्हें गहरा लगाव था। उन्होने गणित विषय से
स्नातक की पढ़ाई की और अजमेर के सावित्री बालिका विद्यालय में तीन वर्षों तक
गणित विषय पढ़ाया भी। इसके साथ ही अजमेर के संगीत महाविद्यालय से गायन में
निपुण स्तर तक शिक्षा ग्रहण की। सुप्रसिद्ध गुरु पण्डित गोविन्दराव राजुरकर
और उनके भतीजे बसन्तराव राजुरकर से उन्हें गुरु-शिष्य परम्परा में संगीत
की शिक्षा प्राप्त हुई। बाद में मालिनी जी ने बसन्तराव जी से विवाह कर
लिया। मालिनी जी को देश का सर्वोच्च संगीत-सम्मान, ‘तानसेन सम्मान’ से
नवाजा जा चुका है। खयाल के साथ-साथ मालिनी जी टप्पा, सुगम और लोक संगीत के
गायन में भी कुशल हैं। मालिनी जी के स्वर में राग बागेश्री में निबद्ध तराना अब आप सुनिए।
राग बागेश्री : तीनताल में निबद्ध तराना : विदुषी मालिनी राजुरकर
राग
बागेश्री भारतीय संगीत का अत्यन्त मोहक राग है। कुछ लोग इस राग को
बागेश्वरी नाम से भी पुकारते हैं, किन्तु सुप्रसिद्ध गायिका विदुषी गंगूबाई
हंगल के मतानुसार इस राग का नाम बागेश्री अधिक उपयुक्त है। इस राग को काफी
थाट से सम्बद्ध माना जाता है। राग के वर्तमान प्रचलित स्वरूप के आरोह में
ऋषभ स्वर वर्जित होता है और पंचम स्वर का अल्पत्व प्रयोग किया जाता है।
अवरोह में सातों स्वर प्रयोग होते हैं। इस प्रकार यह राग षाड़व-सम्पूर्ण
जाति का होता है। कुछ प्रयोक्ता आरोह में पंचम स्वर वर्जित करते हैं। इस
राग में गान्धार और निषाद स्वर कोमल तथा शेष स्वर शुद्ध प्रयोग किए जाते
हैं। कर्नाटक पद्धति में इस राग के समतुल्य राग नटकुरंजी है, जिसमें पंचम
स्वर का प्रयोग नहीं किया जाता। राग का वादी स्वर मध्यम और संवादी स्वर षडज
होता है। रात्रि के दूसरे प्रहर में इस राग का गायन-वादन आदर्श माना जाता
है। इस राग में श्रृंगारपूर्ण रचनाएँ खूब फबतीं हैं।
पाँचवें
से आठवें दशक तक हिन्दी और गुजराती फिल्मों के संगीत से जुड़े डी. दिलीप का
वास्तविक नाम दिलीप ढोलकिया है। जूनागढ़, गुजरात में 15 अक्तूबर, 1921 में
जन्में दिलीप ढोलकिया ने बचपन में ही बाँसुरी और पखावज वादन की शिक्षा
प्राप्त की थी। उनके दादा जी पण्डित मणिशंकर ढोलकिया अपने समय के विख्यात
कीर्तनकार थे। वे सात वर्ष की आयु से ही जूनागढ़ के स्वामीनारायण मन्दिर में
अपने दादा जी के साथ कीर्तन मण्डली में गायन और तबला, पखावज वादन करने लगे
थे। दिलीप ढोलकिया के पिता भोगीलाल ढोलकिया कुशल बाँसुरी वादक थे। समृद्ध
सांगीतिक परिवेश पाले-बढ़े बालक दिलीप ने बाद में संगीतज्ञ पण्डित पाण्डुरंग
अम्बेडकर से विधिवत संगीत सीखा, जो स्वयं विख्यात संगीतज्ञ उस्ताद अमान
अली खाँ के शिष्य थे। संगीत से लगाव के कारण उन्होने 1944 में मुम्बई (तब
बम्बई) का रुख किया। आरम्भ में दिलीप ढोलकिया ने रेडियो और एच.एम.वी. के
लिए गीत गाये। 1944 की फिल्म ‘किस्मतवाला’ में शान्तिकुमार देसाई और रतन
लाल के संगीत निर्देशन में और 1946 की फिल्म ‘लाज’ में रामचन्द्र पाल के
संगीत निर्देशन में गीत गाये। बाद में संगीतकार चित्रगुप्त के सहायक हो गए
और उनके संगीत निर्देशन में बनी फिल्म ‘भक्त पुण्डलीक’ में भी गीत गाये।
1951 में प्रदर्शित गुजराती फिल्म ‘दिवाद्दाण्डी’ में पहली बार पार्श्वगायन
किया। 1951 से 1960 के दौरान उनकी पहचान सहायक संगीतकार के रूप में बनी।
स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन का पहला अवसर उन्हें 1956 में बनी फिल्म
‘बगदाद की रातें’ में मिला। परन्तु इस फिल्म का प्रदर्शन इसके निर्माण के
छः वर्ष बाद हुआ। फिल्म में कर्णप्रिय संगीत के बावजूद दिलीप ढोलकिया को
तत्काल कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। इस बीच 1960 में तेलुगू फिल्मों के
सुप्रसिद्ध अभिनेता एन.टी. रामाराव अभिनीत फिल्म ‘भक्ति महिमा’ में
स्वतंत्र रूप से संगीत निर्देशन का अवसर मिला। उन्होने इस फिल्म में 16
मोहक गीतों की संगीत रचना की थी। 1961 में फिल्म ‘सौगन्ध’ और ‘तीन उस्ताद’
के स्वरबद्ध गीत दिलीप ढोलकिया की प्रतिभा को रेखांकित करने में सफल रहे।
1962 में उनके संगीत से सजी सर्वाधिक उल्लेखनीय फिल्म ‘प्राइवेट सेक्रेटरी’
का प्रदर्शन हुआ। इस फिल्म के गीत अपनी मधुरता और रागों के आधार के कारण
अत्यन्त लोकप्रिय हुए। अशोक कुमार और जयश्री गडकर अभिनीत इस फिल्म के गीतों
को मन्ना डे और लता मंगेशकर ने स्वर दिया था। आज हमारी चर्चा में इसी
फिल्म का एक गीत- ‘जा रे बेईमान तुझे जान लिया...’ है, जिसे दिलीप ढोलकिया
ने राग बागेश्री के स्वरों में पिरोया था। प्रेम धवन के गीत को मन्ना डे ने
एकताल और दादरा ताल में अपने पूरे कौशल के साथ गाया है। लीजिए, उनके मधुर
स्वर में सुनिए, राग बागेश्री पर आधारित यह गीत और मुझे इस कड़ी को यहीं
विराम देने की अनुमति दीजिए।
राग बागेश्री : ‘जा रे बेईमान तुझे जान लिया...’ : मन्ना डे : फिल्म - प्राइवेट सेक्रेटरी
संगीत पहेली
‘स्वरगोष्ठी’
के 377वें अंक की संगीत पहेली में आज हम आपको छठे दशक की एक फिल्म से
रागबद्ध गीत का अंश सुनवा रहे हैं। गीत के इस अंश को सुन कर आपको दो अंक
अर्जित करने के लिए निम्नलिखित तीन में से कम से कम दो प्रश्नों के उत्तर
देने आवश्यक हैं। यदि आपको तीन में से केवल एक अथवा तीनों प्रश्नों का
उत्तर ज्ञात हो तो भी आप प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं। 380वें अंक की
‘स्वरगोष्ठी’ तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें वर्ष 2018 के
तीसरे सत्र का विजेता घोषित किया जाएगा। इसके साथ ही पूरे वर्ष के
प्राप्तांकों की गणना के बाद वर्ष के अन्त में महाविजेताओं की घोषणा की
जाएगी और उन्हें सम्मानित भी किया जाएगा।
1 – इस गीतांश को सुन कर बताइए कि इसमें किस राग का स्पर्श है?
2 – इस गीत में प्रयोग किये गए ताल को पहचानिए और उसका नाम बताइए।
3 – इस गीत में किस पार्श्वगायिका के स्वर है।?
आप उपरोक्त तीन मे से किन्हीं दो प्रश्नों के उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com
पर ही शनिवार, 28 जुलाई, 2018 की मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। आपको यदि
उपरोक्त तीन में से केवल एक प्रश्न का सही उत्तर ज्ञात हो तो भी आप पहेली
प्रतियोगिता में भाग ले सकते हैं। COMMENTS
में दिये गए उत्तर मान्य हो सकते हैं, किन्तु उसका प्रकाशन पहेली का उत्तर
देने की अन्तिम तिथि के बाद किया जाएगा। “फेसबुक” पर पहेली का उत्तर
स्वीकार नहीं किया जाएगा। विजेता का नाम हम उनके शहर, प्रदेश और देश के नाम
के साथ ‘स्वरगोष्ठी’ के 379वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में
प्रस्तुत गीत-संगीत, राग, अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या
अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी
में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए COMMENTS के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।
पिछली पहेली के विजेता
‘स्वरगोष्ठी’
की 375वें अंक की संगीत पहेली में हमने आपको वर्ष 1952 में प्रदर्शित
फिल्म “बैजू बावरा” के एक रागबद्ध गीत का अंश सुनवा कर आपसे तीन में से
किसी दो प्रश्न के उत्तर पूछा था। पहले प्रश्न का सही उत्तर है; राग – मारूविहाग, दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है; ताल – कहरवा, और तीसरे प्रश्न का सही उत्तर है; स्वर – लता मंगेशकर और मोहम्मद रफी।
“स्वरगोष्ठी”
की इस पहेली प्रतियोगिता में तीनों अथवा तीन में से दो प्रश्नो के सही
उत्तर देकर विजेता बने हैं; कल्याण, महाराष्ट्र से शुभा खाण्डेकर, वोरहीज, न्यूजर्सी से डॉ. किरीट छाया, चेरीहिल न्यूजर्सी से प्रफुल्ल पटेल, कोटा, राजस्थान से तुलसी राम वर्मा, पेंसिलवेनिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया, जबलपुर, मध्यप्रदेश से क्षिति तिवारी और हैदराबाद से डी. हरिणा माधवी।
उपरोक्त सभी प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक
बधाई। सभी प्रतिभागियों से अनुरोध है कि अपने पते के साथ कृपया अपना उत्तर
ई-मेल से ही भेजा करें। इस पहेली प्रतियोगिता में हमारे नये प्रतिभागी भी
हिस्सा ले सकते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि आपको पहेली के तीनों प्रश्नों के
सही उत्तर ज्ञात हो। यदि आपको पहेली का कोई एक उत्तर भी ज्ञात हो तो भी आप
इसमें भाग ले सकते हैं।
अपनी बात
मित्रों,
‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ पर जारी हमारी
महत्त्वाकांक्षी श्रृंखला “राग से रोगोपचार” की छठी कड़ी में आपने कुछ
शारीरिक और मनोशारीरिक रोगों के उपचार में सहयोगी राग बागेश्री का परिचय
प्राप्त किया।
आज
के अंक में हम आपको लोक संगीत विषयक एक अनूठी और दुर्लभ पुस्तक के
पुनर्प्रकाशन की सूचना और इस दुर्लभ पुस्तक की संक्षिप्त जानकारी देना
चाहते हैं। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी ने वर्ष 1977 में लोक संगीत की
एक महत्त्वकांक्षी पुस्तक “ऊँची अटरिया रंग भरी” का प्रकाशन किया था। इस
पुस्तक के 106 पारम्परिक गीतों का संकलन सुविख्यात संगीतज्ञ पण्डित
राधावल्लभ चतुर्वेदी ने किया था। उन्होने पारम्परिक लोकगीतों का 39 शीर्षक
में संकलन ही नहीं, बल्कि उन गीतों का परिचय और स्वरलिपि भी तैयार किया था।
लगभग चार दशक पहले इस पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। वर्तमान में इस पुस्तक की
माँग थी, किन्तु विगत दो दशक से यह संगीत-प्रेमियों के लिए अप्राप्य थी।
पण्डित राधावल्लभ चतुर्वेदी की सुपुत्री नीलम चतुर्वेदी के प्रयत्नों से इस
पुस्तक के द्वितीय संस्करण का प्रकाशन केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी ने
किया है। 360 पृष्ठों के इस ग्रन्थ का मूल्य 625 रुपए है। अधिक जानकारी के
लिए अकादमी के रवीन्द्र भवन, 35, फिरोज शाह रोड, नई दिल्ली 110001 स्थित
कार्यालय से अथवा ई-मेल mail@sangeetnatak.gov.in पर सम्पर्क कर सकते हैं।
हमें
विश्वास है कि हमारे अन्य पाठक भी “स्वरगोष्ठी” के प्रत्येक अंक का अवलोकन
करते रहेंगे और अपनी प्रतिक्रिया हमें भेजते रहेगे। आज के अंक के बारे में
यदि आपको कुछ कहना हो तो हमें अवश्य लिखें। हमारी वर्तमान अथवा अगली
श्रृंखला के लिए यदि आपका कोई सुझाव या अनुरोध हो तो हमें swargoshthi@gmail.com
पर अवश्य लिखिए। अगले अंक में रविवार को प्रातः 7 बजे हम ‘स्वरगोष्ठी’ के
इसी मंच पर एक बार फिर सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करेंगे।
शोध व आलेख : पं. श्रीकुमार मिश्र
सम्पादन व प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
सम्पादन व प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र
राग बागेश्री : SWARGOSHTHI – 377 : RAG BAGESHRI : 22 जुलाई, 2018
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