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चित्रकथा - 49: फ़िल्मी गीतों में मुहावरों का प्रयोग

अंक - 49

फ़िल्मी गीतों में मुहावरों का प्रयोग


"ये मुँह और मसूर की दाल..." 




भाषा को सुन्दर बनाने के लिए, उसे अलंकृत करने के लिए कई उपाय हैं। विभिन्न अलंकारों, उपमाओं, कहावतों और मुहावरों से भाषा, काव्य और साहित्य की सुन्दरता बढ़ती है। इनसे हमारे फ़िल्मी गीत भी बच नहीं सके। ’चित्रकथा’ के पुराने एक अंक में हमने गुलज़ार के लिखे गीतों में विरोधाभास अलंकार की चर्चा की थी। आज हम लेकर आए हैं उन फ़िल्मी गीतों की बातें जिनमें हिन्दी के मुहावरों का प्रयोग हुआ है। हम यह दावा नहीं करते कि हमने सभी मुहावरों वाले गीतों को खोज निकाला है, पर हाँ, कोशिश ज़रूर की है ज़्यादा से ज़्यादा मुहावरों को चुनने की जिन्हें फ़िल्मी गीतों में जगह मिली है। और हमारे इस लेख को समृद्ध करने में सराहनीय योगदान मिला है श्री प्रकाश गोविन्द के ब्लॉग से, जिसमें इस तरह के मुहावरे वाले गीतों की एक फ़ेहरिस्त उन्होंने तैयार की है श्रीमती अल्पना वर्मा और श्रीमती इन्दु पुरी गोस्वामी के सहयोग से। तो प्रस्तुत है आज के ’चित्रकथा’ में लेख - ’फ़िल्मी गीतों में मुहावरों का प्रयोग’।




फ़िल्मी गीतों को सजाने-सँवारने में जितनी भूमिका एक संगीतकार की होती है, उतनी ही भूमिका गीतकार की भी होती है। ओ. पी. नय्यर साहब ने एक बार यहाँ तक कहा था कि किसी भी गीत में गीतकार का योगदान 50%, संगीतकार का योगदान 25%, तथा गायक व साज़िन्दों का योगदान 25% होता है। नय्यर साहब की इस बात को अगर मान लिया जाए तो फिर किसी गीत की कामयाबी में गीतकार का बहुत बड़ा हाथ सामने आता है। गीतकार के पास संगीतकार जैसा वाद्यों और आवाज़ों का तामझाम नहीं होता, उनके पास होती ह उनकी कलम और उनका साहित्य, काव्य और शब्दों की पकड़, जिनसे वो किसी गीत को अमर बना सकते हैं। अपने गीतों को सुन्दर बनाने के लिए वो अलंकारों और मुहावरों का प्रयोग करते हैं। जहाँ एक तरफ़ अलंकार भाषा को सुन्दर और काव्यात्मक बनाते हैं, वहीं दूसरी ओर मुहावरों के प्रयोग से भाषा की रोचकता बढ़ती है। अधिकतर मुहावरे हास्य रस पैदा करते हैं, पर कुछ मुहावरे गंभीर विचार भी व्यक्त कर सकते हैं। मुहावरे भरे गीतों का यह सफ़र शुरु करते हैं साल 1950 से। इसे संयोग ही कहिए या कुछ और, 1950 में कम से कम चार ऐसे गीत बने जिनमें मुहावरों का प्रयोग है और इन सभी गीतों के गीतकार हैं प्यारेलाल संतोषी और संगीतकार हैं सी. रामचन्द्र। पहला गीत है फ़िल्म ’सरगम’ का - "बूढ़ा है घोड़ा लाल है लगाम, कैसी यह जोड़ी मिलाई मेरे राम"। चितलकर और लता मंगेशकर की आवाज़ों में यह हास्य गीत कठपुतली शो के पार्श्व में गाया जा रहा है पर इंगित वहाँ वैठे एक बूड्ढे की तरफ़ है। यह गीत मुहावरों से भरा है और हर मुहावरे का सार एक ही है। "पहलू-ए-हूर में लंगूर", "कौवे की चोंच में अंगूर", "गधे को दे दिए खाने बदाम", "बंदर के हाथ में साज", और "उल्लू के सर पे ताज" जैसे मुहावरे इस गीत के अन्तरों की शान बनते हैं। इसी मुहावरे पर 1990 की फ़िल्म ’अमीरी ग़रीबी’ में एक गीत था "कान में झुमके, चाल में ठुमके, मैडम तेरा क्या है नाम, बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम"। अलका यागनिक के गाए इस गीत में रेखा रोहिणी हतंगड़ी को चिढ़ा रही है। इस गीत को आनन्द बक्शी ने लिखा था।

वापस लौटते हैं 1950 की फ़िल्म ’सरगम’ पर। इस फ़िल्म में एक और मुहावरे का गीत है जिसे चितलकर, मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर ने गाया है - "बाप भला ना भैया, भैया सबसे बड़ा रुपैया"। यह भी एक हास्य स्टेज सॉंग् है जिसमें एक मज़ेदार जलसे के ज़रिए यह दिखाया जाता है कि किस तरह से बेटा अपने बाप से सारा रुपये पैसे लेकर शादी करके बाप को छोड़ कर चला जाता है। इसी मुहावरे पर एक फ़िल्म भी बनी थी 1976 में - ’सबसे बड़ा रुपैया’। हास्य अभिनेता महमूद द्वारा निर्मित इस फ़िल्म का शीर्षक गीत भी महमूद ने ही गाया था जिसके बोल थे "ना बीवी ना बच्चा, ना बाप बड़ा ना मैया, दि होल थिंग् इज़ दैट कि भैया सबसे बड़ा रुपैया"। बासु-मनोहारी के संगीत में इसे मजरूह ने लिखा था। इसी गीत को 2005 की फ़िल्म ’ब्लफ़ मास्टर’ में नया जामा पहना कर रीक्रिएट किया गया था, लेकिन महमूद का गाया मूल गीत को ही रखा गया था। 1950 में वापस लौटते हैं। पी. एल. संतोषी का लिखा एक बेहद लोकप्रिय गीत बना "भोली सूरत दिल के खोटे, नाम बड़े और दर्शन छोटे"। चितलकर और लता की आवाज़ों में ’अलबेला’ फ़िल्म का यह गीत सुपरहिट हुआ। इस मुखड़े का 1999 की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म ’हम साथ-साथ हैं’ के गीत "सुनो जी दुल्हन एक बात सुनो जी" में भी प्रयोग हुआ था। इस पैरोडी शैली के गीत में "भोली सूरत..." वाली पंक्ति को कविता कृष्णमूर्ती और उदित नारायण ने गाया। 1950 में पी. एल. संतोषी और सी. रामचन्द्र एक बार फिर एक मुहावरा गीत लेकर आए फ़िल्म ’संगीता’ में। एक बार फिर चितलकर और लता की आवाज़ों में यह गीत है "गिरगिट की तरह हैं रंग बदलते फ़ैशन वाले बाबू"। इस गीत का अंदाज़ भी पिछले गीतों की ही तरह नोक-झोक वाला है।

1957 में सी. रामचद्र के ही संगीत निर्देशन में फ़िल्म आई ’बारिश’। इस बार गीतकार थे राजेन्द्र कृष्ण और उन्होंने इस फ़िल्म में एक गीत लिखा "ये मुँह और दाल मसूर की, ज़रा देखो तो सूरत हुज़ूर की"। लता मंगेशकर के गाए इस हास्य गीत में नायिका नायक को चिढ़ा रही है और उसे ग़ुस्सा दिला रही है, मज़े ले रही है। इसी गीत के अन्तरे में एक और मुहावरा है "बन्दर शहर का आया है गाँव में"। वैसे "ये मुँह और दाल मसूर की" मुहावरे का प्रयोग फ़िल्मी गीत में 1955 में ही हो चुका था। कमचर्चित संगीतकार विनोद के संगीत में फ़िल्म ’श्री नगद नारायण’ में आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी का गाया गीत था "ये मुँह मसूर की दाल, ज़रा मुँह धो कर आना, पहन घघरिया कहे बंदरिया, मल्लिका मुझे बनाना"। मधुप शर्मा के लिखे इस हास्य गीत में नायक और नायिका एक दूसरे की टाँग खींच रहे हैं। इस मुहावरे का सबसे ज़्यादा लोकप्रिय गीत बना था 1967 की फ़िल्म ’अराउन्ड दि वर्ल्ड’ के लिए। राजश्री और अमीता पर फ़िल्माया शारदा और मुबारक बेगम की आवाज़ों में शैलेन्द्र का लिखा तथा शंकर जयकिशन के संगीत में "ये मुँह और मसूर की दाल, वाह रे वाह मेरे बाँकेलाल" ख़ूब लोकप्रिय हुआ था और यह गीत इन दो गायिकाओं के यादगार गीतों में शामिल है। जब दाल की बात हो ही रही है तो लगे हाथ दो और मुहावरों की बात करते हैं जिनमें दाल का ज़िक्र है। एक है "घर की मुर्गी दाल बराबर" और दूसरा है "दाल में काला"। 1966 की फ़िल्म ’स्ट्रीट सिंगर’ में शंकर-जयकिशन के संगीत में हसरत साहब का लिखा और रफ़ी साहब का गाया नग़मा है "घर की मुर्गी दाल बराबर, कोई ना पूछे बात भी आकर"। "दाल में काला या फिर काले में दाल, आइ ऐम क़यामत बेबी, आइ ऐम कमाल", यह गीत आया था 2006 की फ़िल्म ’गोलमाल’ में। विशाल ददलानी, केके और शान के गाए इस गीत में विशाल-शेखर का संगीत था।

’अराउन्ड दि वर्ल्ड’ फ़िल्म में एक गीत और ऐसा था जिसमें मुहावरे का प्रयोग हुआ है। रफ़ी साहब की आवाज़ में "कौवा चला हंस की चाल, आख़िर भूला अपनी चाल" हसरत जयपुरी की रचना है। महमूद पर फ़िल्माये गए इस मस्ती भरे गीत में महमूद ख़ुद अपने आप को ही कौवा कह रहे हैं। यह भी एक संयोग है कि महमूद पर ही एक और ऐसा गीत फ़िल्माया गया है जिसमें हंस की चाल मुहावरे का प्रयोग हुआ है। संयोग इस बात का भी है कि यह गीत हसरत जयपुरी ने ही लिखा है और संगीत भी शंकर जयकिशन का ही है। रफ़ी-आशा का गाया यह गीत है "ओ गोरी चलो ना हंस की चाल ज़माना दुश्मन है, तेरी उम्र है सोलह साल ज़माना दुश्मन है"। कौवे की बात भले ना हो पर हंस के चाल की बात ज़रूर है इसमें। 1953 की फ़िल्म ’नया रास्ता’ में शमशाद बेगम और साथियों का गाया एक चुलबुला गीत था "दौलत के हाथों ख़ून भी सफ़ेद हो गया, सोने का पिंजरा देख के मैं क़ैद हो गया, कबूतर क़ैद हो गया"। अंजुम जयपुरी और चित्रगुप्त की इस रचना में कई मुहावरे हैं। "ख़ून सफ़ेद होना" और "कबूतर क़ैद होना" तो मुखड़ा में ही है, अन्तरों में भी मुहावरे हैं। "कौवा भी चाल हंस की चलता है आजकल", "भाई का सर तो धूप में सफ़ेद हो गया" जैसे बोलों में मुहावरे साफ़ महसूस किए जा सकते हैं। कौवा और हंस, दोनों को साथ में लेकर एक और गीत है 1989 की फ़िल्म ’हिसाब ख़ून का’ फ़िल्म में। आशा भोसले और मोहम्मद अज़ीज़ के गाए इस गीत में मिथुन चक्रवर्ती रूठी हुई पूनम ढिल्लों को मना रहे हैं यह गाते हुए "शोख़ बहारों का मौसम, रंगीन नज़ारों का मौसम, कहता है जानम प्यार कर ले, बुढ़ापे को छोड़ तू नैना चार कर ले", जिसके जवाब में पूनम गाती हैं "चढ़ी जवानी बुड्ढे पे, हाय हाय करके बुड्ढे पे, बुढ़ापे में इसका यह हाल देखो, कौवा चला हंस की चाल देखो"। यह अनवर सागर का लिखा और नदीम-श्रवण का स्वरबद्ध किया गीत है। और अभी हाल ही की फ़िल्म ’जॉली एल एल बी’ (2013) में कृष्णा के संगीत में कैलाश खेर ने भी गाया "कौवा चला देखो हंस की चाल, जंगल में होगा अब तो धमाल"। इस मस्ती भरे गीत में और भी मुहावरों का प्रयोग हुआ है जैसे कि "बाल मुंडवाते ही ओले पड़ना", "चौबे जी गए छब्बे बनने दूबे होके लौटे", "ओखली में सिर दिया मसूल से क्या डरना", "रोज़े गले पड़ना" आदि।

वापस लौटते हैं 50 के दशक में और एक बार फिर से सी. रामचन्द्र के गीत की बारी। 1954 में फ़िल्म आई ’पहली झलक’। राजेन्द्र कृष्ण का लिखा इस फ़िल्म में मुहावरा गीत था "ऊँची ऊँची दुकान, फीका फीका पकवान, देखी देखी अमीरों तुम्हारी ये शान"। लता मंगेशकर की आवाज़ में इस गीत में अमीरों पर व्यंग-बाण ताना गया है। व्यंग के ज़रिए गंभीर बात कही गई है इस गीत में। इसी वर्ष संगीतकार एस. एन. त्रिपाठी और चित्रगुप्त के संगीत में फ़िल्म ’अलीबाबा और चालीस चोर’ फ़िल्म में मोहम्मद रफ़ी और शमशाद बेगम का गाया गीत था "देखो देखो हज़ूर ये हैं खट्टे अंगूर, अजी छोड़ो ये हाथ नहीं आएँगे"। राजा मेहदी अली ख़ान ने इस हास्य गीत को लिखा था। चित्रगुप्त के ही संगीत में 1959 की फ़िल्म ’गेस्ट हाउस’ में गीत था "जिसका जूता उसी का सर, दिल है छोटा बड़ा शहर, अरे वाह रे वाह तेरी बम्बई"। प्रेम धवन का लिखा और मुकेश का गाया यह गीत उस श्रेणी में आता है जिसमें बम्बई शहर की नकारात्मक वर्णन किया गया है। इस मुहावरे से याद आया कि प्रेम धवन का ही लिखा 1957 की फ़िल्म ’मिस बॉम्बे’ में एक गीत आया था "इसकी टोपी उसके सर, उसकी टोपी इसके सर"। हंसराज बहल के संगीत में इसे रफ़ी-शमशाद ने ही गाया था। बिल्कुल ऐसा ही एक गीत 1986 की फ़िल्म ’शत्रु’ में आया था किशोर कुमार की आवाज़ में। आनन्द बक्शी - आर. डी. बर्मन का यह गीत था "इसकी टोपी उसके सर, ऐसे ही चलता है सारी दुनिया का ट्रैक्टर"। 1998 में तो एक फ़िल्म ही बनी थी ’इसकी टोपी उसके सर’ शीर्षक से। अनु मलिक और विनोद राठौड़ की आवाज़ों में फ़िल्म का शीर्षक गीत है "सच की झूठ से है टक्कर, इसकी टोपी उसके सर"। 

1955 में एक मज़ेदार बात हुई। इस साल दो ऐसी फ़िल्में आईं जिनमें एक ही मुहावरे के प्रयोग से दो गीत बने। यह मुहावरा है "अंधेर नगरी चौपट राजा"। इसी शीर्षक से बनी फ़िल्म में भरत व्यास गीतकार थे और अविनाश व्यास संगीतकार। शमशाद बेगम, तलत महमूद, शंकर दासगुप्ता और साथियों की आवाज़ों में फ़िल्म का शीर्षक गीत था "अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा"। और दूसरी फ़िल्म थी ’रेल्वे प्लैटफ़ॉर्म’ जिसमें साहिर लुधियानवी का लिखा और मदन मोहन का स्वरबद्ध किया गीत था "अंधेर नगरी चौपट राजा, जिस मोल भाजी उस मोल खाजा"। इस गीत की ख़ास बात यह है कि इसमें मोहम्मद रफ़ी, आशा भोसले, एस. डी. बातिश और मनमोहन कृष्ण की आवाज़ें शामिल हैं। इस गीत के मुखड़े में दो दो मुहावरे हैं - "अंधेर नगरी चौपट राजा" और "टके सेर भाजी टके सेर खाजा"। वर्ष 2004 में एक सेक्स कॉमेडी फ़िल्म आई थी ’मस्ती’। इस हिट फ़िल्म में उदित नारायण और अभिजीत की आवाज़ों में एक गीत था "एक कुँवारा फिर गया मारा"। इस गीत में भी "टके सेर भाजी टके सेर खाजा" मुहावरे का प्रयोग हुआ है। चौपट राजा से याद आया कि एक मुहावरा है "कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली"। इस मुहावरे को और इसके साथ एक और मुहावरा "छछुंदर के सिर में चमेली का तेल" को जोड़ कर गीतकार समीर ने 1998 की फ़िल्म ’दुल्हे राजा’ के लिए एक बड़ा ही मस्ती भरा क़व्वालीनुमा गीत बनाया। आनन्द मिलिन्द के संगीत में सोनू निगम, विनोद राठौड़ और सत्यनारायण मिश्र की आवाज़ों में यह गाना है "छछुन्दर के सर पे न भाये चमेली, कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली"। फ़िल्म के नायक गोविन्दा अपने होने वाले ससुरजी क़ादर ख़ान को चिढ़ाते हुए यह गीत गा रहे हैं। गोविन्दा की बात चल पड़ी है तो दो और गीतों का ज़िक्र ज़रूरी है। 1994 की फ़िल्म ’दुलारा’ का गीत "मेरा पैन्ट भी सेक्सी" विवादों से घिर गया था। रानी मलिक का लिखा, निखिल विनय का संगीत बद्ध किया तथा गोविन्दा व अलका यागनिक का गाया यह गीत शुरु एक मुहावरे से ही होता है - "एक है अनार यहाँ, कितने बीमार यहाँ, यह दिल मैं किस किस को दूँ"। "एक अनार सौ बीमार" मुहावरे के बाद "एक और एक ग्यारह" मुहावरा तो गोविन्दा की एक फ़िल्म का शीर्षक भी बना। 2003 की इस फ़िल्म का शीर्ष गीत है "एक और एक ग्यारह, ओ मेरे यारा"। गोविन्दा और संजय दत्त पर फ़िल्माये इस गीत को गाया सोनू निगम और शंकर महादेवन ने। गीत समीर का, संगीत शंकर-अहसान-लॉय का। इसी शीर्षक से 1981 में भी एक फ़िल्म बनी थी जिसमें शशि कपूर और विनोद खन्ना थे। मजरूह-लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के रचे फ़िल्म का शीर्षक गीत था रफ़ी-किशोर का, जिसके बोल थे "कांधा जोड़ के निकल पड़े तो हम हैं एक और एक ग्यारह"।

1958 की फ़िल्म ’सुवर्ण सुन्दरी’ पंडित आदि नारायण राव के संगीत के लिए याद किया जाता है। इस फ़िल्म का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है "कुहू कुहू बोले कोयलिया"। इसी फ़िल्म में रफ़ी साहब का गाया एक एकल गीत था "राम नाम जपना पराया माल अपना"। भरत व्यास के लिखे इस मुहावरा गीत की शुरुआत एक दोहे से होती है "अजगर करे ना चाकरी पंछी करे ना काम, हम काहे खटपट करे जब सब के दाता राम"। इसी भाव को आगे बढ़ाते हुए "राम नाम जपना, पराया माल अपना" मुहावरे का प्रयोग होता है। यही नहीं, कुछ और मुहवरों का भी उल्लेख इस गीत में मिलता है जैसे कि "सीधी उंगली घी ना निकले तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है" और "जिसकी लाठी उसकी भैंस"। 1965 की फ़िल्म ’दो दिल’ में भी "राम राम जपना पराया माल अपना, प्यार में देखा हमने यह सपना" गीत लिखा कैफ़ी आज़मी ने। हेमन्त कुमार के संगीत में इसे गाया एक बार फिर रफ़ी साहब ने और गीत फ़िल्माया गया महमूद पर। इस मुहावरे का प्रयोग 1982 की ब्लॉकबस्टर फ़िल्म ’नमक हलाल’ के सुपरहिट गीत "के पग घुंघरू बाँध मीरा नाची थी" के अन्तरे में हुआ है। अनजान के लिखे, बप्पी लाहिड़ी के स्वरबद्ध किए और किशोर कुमार तथा सत्यनारायण मिश्र के गाए इस गीत में ज़िक्र आता है "आपका तो लगता है बस यही सपना, राम नाम जपना पराया माल अपना"। 

"जंगल में मोरे नाचा किसने देखा", इस मुहावरे पर दो फ़िल्मी गीत बने हैं। 1958 की फ़िल्म ’मधुमती’ में शराबी जॉनी वाकर रफ़ी साहब की आवाज़ में गाते हैं "जंगल में मोर नाचा किसी ने न देखा है, हमने जो थोड़ी पी के झूमी हाय रे सबने देखा"। शैलेन्द्र के बोल, सलिल चौधरी का संगीत। शराबी के शराब पीने की आदत की क्या बढ़िया पैरवी हुई है इस गीत में। 1969 की फ़िल्म ’शतरंज’ में लता जी की आवाज़ में गाना है "जंगल में मोर नाचा किसने देखा, मैंने देखा, मैंने देखा, मैंने देखा"। हसरत जयपुरी - शंकर जयकिशन की यह रचना है। जंगल से संबंधित एक और लोकप्रिय मुहावरा है "जंगल में मंगल होना"। इस पर भी कई फ़िल्में और फ़िल्मी गीत बने हैं। 1978 की फ़िल्म ’राजा रानी को चाहिए पसीना’ में गीत है "जंगल में मंगल होगा" जिसे वसन्त देव ने लिखा, शारंग देव ने स्वरबद्ध किया और गाया है आरती अंकलीकर, साधना घानेकर, शर्मीला, वन्दना दातर और दुर्गा जसराज ने। 1996 की फ़िल्म ’प्रेम ग्रंथ’ में एक गीत है "जंगल में शेर, बाग़ों में मोर, शहरों में चोर, हो रामा"। विनोद राठौड और अलका यागनिक का गाया यह गीत आनन्द बक्शी और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल का साथ में बनाया हुआ शायद आख़िरी गीतों में से एक है। 2012 में ’डेल्हि सफ़ारी’ फ़िल्म में भी एक गीत है "न फ़ाइटिंग् न दंगल, बस जंगल में है मंगल"। शंकर-अहसान-लॉय के संगीत में समीर का लिखा और शंकर का ही गाया नग़मा है यह। जंगल से अब पानी की ओर रुख़ करते हैं। पानी पर कई मुहावरे हैं जैसे कि "चुल्लु भर पानी में डूब मरना", "डूबते को तिनके का सहारा", "जल बिन मछली" वगेरह। 1992 की फ़िल्म ’विरोधी’ में उदित नारायण का गाया गीत था "चुल्लु भर पानी में डूब जा, इस लड़की की कम है अकल, सूरत है ना शकल"। 1968 की फ़िल्म ’कहीं और चल’ में रफ़ी साहब का गीत था "डूबते हुए को तिनके का सहारा भी नहीं, किन इशारों पे जियूँ कोई इशारा भी नहीं"। शंकर जयकिशन के संगीत में इसे लिखा था हसरत जयपुरी ने। 1971 की फ़िल्म ’जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली’ में लता जी का गाया गीत था "मन की प्यास मेरे मन से ना निकली, ऐसे तड़पूँ कि जैसे जल बिन मछली"। मजरूह और लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल की यह रचना है।

एक बहुत ही लोकप्रिय मुहावरा है "नाच न जाने आंगन टेढ़ा" जिसका हम अक्सर रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में इस्तमाल किया करते हैं। 1985 की फ़िल्म ’ज़माना’ में किशोर कुमार और हरिहरन का गाया एक गीत था "नाच न जाने आंगन टेढ़ा, मेरी धुनों पे देखो राधा लहराए"। कमाल का गीत है जिसमें ॠषी कपूर और गोपी कृष्ण नृत्य कर रहे हैं। किशोर कुमार ॠषी कपूर के लिए और हरिहरन गोपी कृष्ण के लिए गाते हैं। उषा खन्ना के संगीत में यह मजरूह की गीत रचना है। शास्त्रीय संगीत और आधुनिक पाश्चात्य संगीत की जुगलबन्दी है यह गीत। यह गीत कुछ ख़ास लोकप्रिय नहीं हुआ, पर इस मुहावरे के प्रयोग वाला जो गीत बेहद मकबूल रहा वह है 1968 की फ़िल्म ’पड़ोसन’ की कालजयी हास्य गीत "एक चतुर नार बड़ी होशियार"। इस गीत में जो प्रतियोगिता होती है, उसमें महमूद (मन्ना डे) गाते हैं "नाच न जाने आंगन टेढ़ा, तू क्या जाने क्या है नारी..."। "टेढ़ा" शब्द को लेकर न जाने क्या क्या करामात करते हैं मन्ना दा। और फिर किशोर दा टेढ़े को सीधा भी तो करते हैं! किशोर कुमार का ही गाया हुआ एक हास्य गीत है 1980 की फ़िल्म ’स्वयंवर’ में। गुलज़ार का लिखा यह गीत है "नारी कुछ ऐसन आगे निकल रही है, मरदन के पाँव तले धरती फ़िसल रही है"। वैसे तो "पैरों तले ज़मीन खिसकना" एक संजीदा मुहावरा है, लेकिन इस गीत में गुलज़ार साहब ने इसे हास्य पैदा करने के लिए प्रयोग किया है। ऐसा ही एक और बेहद चर्चित मुहावरा है "हाथ बटाना" या "हाथ बढ़ाना", यानी कि काम में किसी की मदद करना। फ़िल्म ’नया दौर’ का मशहूर मज़दूर गीत "साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिल कर बोझ उठाना" इसी मुहावरे पर आधारित है। साहिर लुधियानवी का लिखा यह गीत है। 1991 की फ़िल्म ’भाभी’ में हसरत जयपुरी ने गीत लिखा था "आ जाना ज़रा हाथ बटाना" जिसे मोहम्मद अज़ीज़ और चन्द्राणी मुखर्जी ने गाया है।

आँखों पर कई मुहावरे हैं। "आँखों का तारा" मुहावरे का प्रयोग बहुत से गीतों में हुआ है - "तारों की आँखों का तारा तू" (फूलों की सेज), "आँखों का तारा" (शेर-ए-बग़दाद), "आँखों का तारा, प्राणों से प्यारा" (आँसू), "इन आँखों का तू तारा है" (दलपति), "हसीनों की आँखों का तारा रहूँगा" (प्यार का सपना), "प्यारा फूल आँखों का तारा" (स्ट्रीट सिंगर), और सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है फ़िल्म ’आराधना’ का, "चन्दा है तू मेरा सूरज है तू, ओ मेरी आँखों का तारा है तू"। "आँखें चार होना" मुहावरा भी कई गीतों में सुनने को मिला है जैसे कि "प्यार प्यार प्यार प्यार प्यार तू कर ले, चार चार चार आँखें चार तू कर ले" (सुराग़), "आँखें चार हो गया होते होते" (इंसान जाग उठा), "आँखों से आँखें चार हुई दिल के" (फूल और कांटे, 1948) वगेरह। आँखों से संबंधित एक और मुहावरा है "आँखों में समाना"। फ़िल्मी गीतों की बात करें तो "आँखों में समा जाओ" (यासमीन), "ओ राजा आँखों में तू समा जा दिल से" (कैप्टेन किशोर), "मेरी आँखों में समा जाओ" (लव में गुम), "आँखों में बसे हो तुम" (टक्कर) आदि। आँखों के साथ-साथ निगाहों की भी बात कर ली जाए। 1956 की मशहूर फ़िल्म ’CID' का मशहूर गीत "कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना" ने इस मुहावरे को और भी ज़्यादा लोकप्रिय बना दिया है, इसमें कोई शक़ नहीं। मजरूह साहब का यह कमाल था।

शादी पर कई मुहावरे हैं जिनमें सबसे ज़्यादा प्रचलित है "बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना"। गीतकार शैलेन्द्र ने इस मुहावरे का प्रयोग किया जब ऐसा ही एक सिचुएशन ’जिस देश में गंगा बहती है’ फ़िल्म में बनी। "शादी का लड्डू" मुहावरा भी कई गीतों में सुनने को मिला है, जिनमें से एक है "सुन राजा शादी लड्डू मोतीचूर का, जो खाए पछताए जो न खाए पछताए", फ़िल्म ’होते होते प्यार हो गया’। कुछ और मुहावरे याद आ रहे हैं जिनका कम से कम एक-एक गीत में इस्तमाल हुआ है। "आसमाँ से गिरे खजूर पे अटके" का प्रयोग 1992 की फ़िल्म ’दौलत की जंग’ के एक गीत में हुआ था। अनुराधा पौडवाल के गाए मजरूह का लिखा यह गाना है "अए मोहब्बत ऐ मुक़द्दर वाह तेरा क्या कहना, रोती आँखें लेकर मुझे पड़ रहा है हँसना, के दीवाने तेरे आसमाँ से गिरे ख़जूर पे अटके"। 1983 की फ़िल्म ’अर्पण’ में लता जी का गाया गीत था "तौबा कैसे हैं नादान घुंघरू पायल के"। आनन्द बक्शी के लिखे इस गीत का पहला अन्तरा शुरु होता है "कैसे कोई भेद छुपाए, घर का भेदी लंका ढाये"। 1978 की फ़िल्म ’देस परदेस’ में अमित खन्ना का लिखा लता-किशोर का युगल गीत था "जैसा देस वैसा भेस फिर क्या डरना"। 1959 की फ़िल्म ’छोटी बहन’ में शैलेन्द्र का लिखा और लता का गाया भक्ति गीत था "ये कैसा न्याय तेरा दीपक तले अंधेरा"। "चिराग़ तले अंधेरा" मुहावरे का बड़ा ही सुन्दर प्रयोग इस गीत में हुआ है। और अब आख़िर में आशा भोसले के दो युगल गीतों की बातें। पहला गीत है ’नॉटी बॉय’ फ़िल्म का जिसे इन्होंने किशोर कुमार के साथ गाया था। यह गीत भी शैलेन्द्र का ही लिखा हुआ है जिसके बोल हैं "सा सा सा रे... तार दिलों के अब जोड़ दो"; इस गीत के अन्तरे में जब किशोर कहते हैं कि "प्यार की सरगम गाते हुए हम, सपनों में आओ खो जाएंगे", तब आशा जवाब देती हैं कि "तुमको पता है राज़ ये क्या है, लेने के देने पड़ जाएंगे"। यहाँ "लेने के देने पड़ना" एक आम मुहावरा है। इसी तरह से फ़िल्म ’लीडर’ में आशा-रफ़ी का एक ग़ज़लनुमा डुएट है "आजकल शौक़-ए-दीदार है, क्या कहूँ आपसे प्यार है"। इसमें शकील साहब एक अन्तरे में लिखते हैं "छोटा मुंह और बड़ी बात मत भूलिए, देखिए अपनी औक़ात मत भूलिए, क़िस्सा-ए-इश्क़ बेकार है"। तो दोस्तों, "छोटा मुंह और बड़ी बात" के साथ ही मुहावरों भरे गीतों की ये बातें अब यहीं ख़त्म करते हैं। हाँ, अगर आपको जेहन में कुछ और गीत उभरें जिनमें मुहावरे हैं, तो टिप्पणी में ज़रूर लिख भेजें।



आख़िरी बात

’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!




शोध: प्रकाश गोविन्द, अल्पना वर्मा, इन्दु पुरी गोस्वामी, सुजॉय चटर्जी 
आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र  



रेडियो प्लेबैक इण्डिया 

Comments

Poora article raat hi padha. Kitni mehnat ki hai aap logon ne. Baba re!
Hmmm ek gana yaad aa rha hai. Article me tha ya nhi? dhyaan nhi.
Dev sahb ki film ka gana hai,unhi pr filmaya hua ' Daane daane pr likha hai khaane wale ka naam...' 😊

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