पुत्र ॠतुराज सिसोदिया की यादों में पिता बसन्त प्रकाश और ताऊ खेमचन्द प्रकाश
"रफ़्ता-रफ़्ता आप मेरे दिल के मेहमाँ हो गए..."
फ़िल्म संगीत के सुनहरे युग में जहाँ एक तरफ़ कुछ संगीतकार लोकप्रियता की बुलंदियों तक पहुँचे, वहीं दूसरी तरफ़ बहुत से संगीतकार ऐसे भी हुए जो बावजूद प्रतिभा सम्पन्न होने के बहुत अधिक दूर तक नहीं बढ़ सके। आज जब सुनहरे दौर के संगीतकारों की बात चलती है तब अनिल बिस्वास, नौशाद, सी. रामचन्द्र, रोशन, सचिन देव बर्मन, ओ.पी. नय्यर, मदन मोहन, रवि, हेमन्त कुमार, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, राहुल देव बर्मन जैसे नाम सब से पहले लिए जाते हैं। इन चमकीले नामों की चमक के सामने बहुत से नाम इस चकाचौंध में नज़रंदाज़ हो जाते हैं। ऐसा ही एक नाम है संगीतकार बसंत प्रकाश का। जी हाँ, वही बसंत प्रकाश जो 40 के दशक के सुप्रसिद्ध संगीतकार खेमचंद प्रकाश के छोटे भाई थे। खेमचंद जी की तरह बसंत प्रकाश इतने मशहूर तो नहीं हुए, पर फ़िल्म संगीत के ख़ज़ाने को समृद्ध करने में अपना अमूल्य योगदान दिया। आज बसंत प्रकाश जी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन यह हमारा सौभाग्य है कि उनके बेटे श्री ॠतुराज सिसोदिआ आज हमारे साथ ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ पर मौजूद हैं।
ऋतुराज जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका हमारे मंच पर।
बहुत बहुत धन्यवाद आपका! जिस तरह से आपने भूमिका दी है, बहुत अच्छा लगा, और मैं भी बहुत उत्सुक हूँ आपके सवालों के जवाब देने के लिए, अपने पिता और खेमचन्द जी के बारे में बताने के लिए, जिन पर मुझे बहुत बहुत गर्व है।
बड़ा ही रोमांचित अनुभव कर रहा हूँ मैं इस वक़्त। ऋतुराज जी, सबसे पहले तो हम जानना चाहेंगे खेमचंद प्रकाश और बसंत प्रकाश के संबंध के बारे में। मेरा मतलब है कि कुछ लोग कहते हैं कि बसंत जी खेमचंद जी के मानस पुत्र हैं, कोई कहता है कि वो उनके मुंहबोले भाई हैं, तो हम आपसे जानना चाहेंगे इस रिश्ते के बारे में।
बहुत अच्छा और अहम सवाल है यह। मैं आपको बताऊँ कि मेरे पिता बसंत प्रकाश जी और खेमचंद जी सगे भाई भी थे और पिता-पुत्र भी।
सगे भाई और पिता-पुत्र भी? मतलब?
यानी कि रिश्ते में तो दोनों सगे भाई ही थे, लेकिन बाद में खेमचंद जी ने व्यक्तिगत कारणों से मेरे पिता बसंत प्रकाश जी को अपने इकलौते पुत्र के तौर पर गोद लिया।
यानी कि खेमचंद जी आपके ताया जी भी हुए और साथ ही दादाजी भी!
बिल्कुल ठीक!
वैसे तो हम आज बसंत प्रकाश जी के बारे में ही चर्चा कर रहे हैं, लेकिन खेमचंद जी का नाम उनके साथ ऐसे जुड़ा हुआ है कि उनका भी ज़िक्र करना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए बसंत प्रकाश जी पर चर्चा आगे बढ़ाने से पहले, हम आपसे खेमचंद जी के बारे में जानना चाहेंगे। क्या जानते हैं आप उनके बारे में?
जी हाँ, हर पोता अपने दादाजी के बारे में जानना चाहेगा, और मेरे पिता जी ने भी उनके बारे में मुझे बताया था। खेमचंद जी ने 'सुप्रीम पिक्चर्स' की फ़िल्म 'मेरी आँखें' के ज़रिये 1939 में फ़िल्म जगत में पदार्पण किया था। और जल्द ही नामचीन 'रणजीत' फ़िल्म स्टुडिओ ने उन्हें अनुबंधित कर लिया। लता मंगेशकर के लिए खेमचंद प्रकाश फलदायक साबित हुए और उस दौर में 'आशा', 'ज़िद्दी' और 'महल' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर लता जी को नई-नई प्रसिद्धी हासिल हुई थी। लेकिन खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु ने फ़िल्म जगत में एक कभी न पूरा होने वाले शून्य को जन्म दिया।
निस्संदेह खेमचंद जी के जाने से जो क्षति हुई, वह फ़िल्म जगत की अब तक की सब से बड़ी क्षतियों में से एक है।
'तानसेन' को बेहतरीन म्युज़िकल फ़िल्मों में गिना जाता है। खेमचंद जी ने लता जी को तो ब्रेक दिया ही, साथ ही किशोर कुमार को भी पहला ब्रेक दिया "मरने की दुयाएं क्यों माँगू" गीत में। यह बात मशहूर है कि लता मंगेशकर की आवाज़ को शुरु शुरु में निर्माता चंदुलाल शाह नें रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन खेमचंद जी ने उनके निर्णय को चैलेंज किया और उन्हें बताया कि एक दिन यही आवाज़ इस इंडस्ट्री पर राज करेगी। 'ज़िद्दी' में लता जी का गाया एक बेहद सुंदर गीत था "चंदा रे जा रे जा रे"।
बहुत ही सुन्दर रचना है यह! अच्छा ॠतुराज जी, यह बताइए कि खेमचंद जी का स्वरबद्ध कौन सा गीत आपको सब से प्रिय है?
ऐसे बहुत से गीत हैं जो मुझे व्यक्तिगत तौर पे बहुत पसंद है, लेकिन एक जो गीत जो मेरा फ़ेवरीट है, वह है फ़िल्म 'महल' का "मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना"।
वाह! यह गीत मुझे भी बहुत पसन्द है, "आएगा आनेवाला" गीत से भी ज़्यादा। ऋतुराज जी, अपने परिवार के बारे में बताइए। कौन-कौन हैं आपके परिवार में?
मेरे पिताजी बसन्त प्रकाश जी के दो विवाह रहे। उनकी पहली पत्नी का नाम स्वर्गीय छोगीदेवी, मैं और मेरी सभी बहने उन्हें बड़ी माँ कह कर बुलाते थे। उनकी दो बेटियाँ हैं प्रभा दीदी और स्वर्गीय मधु दीदी। मधु दीदी निस्सन्तान रहीं और प्रभा दीदी की दो बेटियाँ हैं। वो सभी हमारे पैत्रिक निवास स्थान सुजानगढ़ में रहते हैं। मेरे पिता का दोसरा विवाह स्वर्गीय अनीता से हुआ। इस विवाह से उनकी पाँच बेटियाँ हुईं - वैजयन्ती, लक्ष्मी, दुर्गा, शानू, सोनम, और एक बेटा, यानी कि मैं। हमारा पूरा परिवार मुंबई के मलाड में रहते हैं। मेरी माँ अनीता 1995 में गुज़र गईं, मेरे पिता 1996 में, और मेरी बड़ी माँ 1998 में इस दुनिया से चली गईं। बस इतनी सी है मेरे परिवार की दास्तान।
ॠतुराज जी, हम अब बसंत प्रकाश जी पर आते हैं; बताइए कि एक पिता के रूप में वो कैसे थे? उनकी कुछ विशेषताओं के बारे में बताएँ जिनके बारे में जान कर संगीत-रसिक अभिभूत हो जाएँ?
मेरा और मेरे पिताजी का संबंध दोस्ती का था और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, पूरे परिवार के साथ ही वो घुलमिल कर रहते थे, और एक अच्छे पिता के सभी गुण उनमें थे। परिवार का वो ख़याल रखा करते थे। बहुत ही शांत और सादे स्वभाव के थे। उनकी रचनाएँ मौलिक हुआ करती थी। उन्होंने कभी डिस्को या पाश्चात्य संगीत का सहारा नहीं लिया क्योंकि वो भारतीय शास्त्रीय संगीत में विश्वास रखते थे। राग-रागिनियों, ताल और लोक-संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। खेमचंद जी से ही उन्होंने संगीत सीखा और संगीत और नृत्य कला की बारीकियाँ उनसे सीखी। वो थोड़े मूडी थे और उनका संगीत उनके मूड पे डिपेण्ड करता था।
कहा जाता है कि 'अनारकली' फ़िल्म के लिए पहले पहले बसंत प्रकाश जी को ही साइन करवाया गया था, लेकिन बाद में इन्होंने फ़िल्म छोड़ दी। क्या इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे?
जी हाँ, यह सच बात है। 'अनारकली' के संगीत को लेकर कुछ विवाद खड़े हुए थे। एक दिन काम के अंतराल के वक़्त मेरे पिता जी फ़िल्मिस्तान स्टुडिओ में आराम कर रहे थे। उस समय निर्देशक के सहायक उस कमरे में आये और उन पर चीखने लगे। मेरे पिता जी को उस ऐसिस्टैण्ट के चिल्लाने का तरीका अच्छा नहीं लगा। उन दोनों में बहसा-बहसी हुई, और उसी वक़्त पिताजी फ़िल्म छोड़ कर आ गये। लेकिन तब तक पिताजी फ़िल्म का एक गीत रेकॉर्ड कर चुके थे। सी. रामचंद्र आकर फ़िल्म के संगीत का भार स्वीकारा और अपनी शर्त रख दी कि न केवल फ़िल्म के गानें लता मंगेशकर से गवाये जाएँगे, बल्कि मेरे पिताजी द्वारा स्वरब्द्ध गीता दत्त के गाये गीत को भी फ़िल्म से हटवा दिया जाये। शुरु शुरु में उनके इन शर्तों को फ़िल्मिस्तान मान तो गये, लेकिन आख़िर में गीता दत्त के गाये गीत को फ़िल्म में रख लिया गया। और वह गीत था "आ जाने वफ़ा"।
ॠतुराज जी, मैंने पढ़ा है कि खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु के बाद बसंत प्रकाश जी ने उनकी कुछ असमाप्त फ़िल्मों के संगीत को पूरा किया था और इसी तरह से उनका फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था। तो हम आपसे जानना चाहते हैं कि वह कौन सी असमाप्त फ़िल्में थीं खेमचन्द जी की जिसमें बसंत प्रकाश जी ने संगीत दिया था?
10 अगस्त 1950 को दादाजी की मृत्यु हो गई थी, और उनकी कई फ़िल्में असमाप्त थी जैसे कि 'जय शंकर', 'श्री गणेश जन्म', 'तमाशा'। 'श्री गणेश जन्म' में मन्ना डे सह-संगीतकार थे और 'तमाशा' के गीतों को मन्ना डे और एस. के. पाल ने पूरा किया था। बसंत प्रकाश जी ने 'जय शंकर' का संगीत पूरा किया और यही उनकी पहली फ़िल्म भी थी।
स्वतन्त्र संगीतकार के रूप में उनकी पहली फ़िल्म कौन सी थी?
1952 की ही फ़िल्म ’बदनाम’। यह फ़िल्मिस्तान की फ़िल्म थी जिसे डी.डी. कश्यप ने डिरेक्ट किया था; बलराज साहनी और श्यामा थे इस फ़िल्म में। इस फ़िल्म के सभी गाने हिट हुए। सबसे ज़्यादा हिट गीत था "साजन तुमसे प्यार करूँ मैं कैसे तुम्हें बतलाऊँ", लता जी की आवाज़ में। इसे HMV ने लता जी के rare gems album में शामिल किया है।
जी हाँ, यह बड़ा ही मशहूर गीत था उस ज़माने का। और फिर इस फ़िल्म में और भी कई गीत थे जैसे कि "जिया नाहीं लागे हो", "काहे परदेसिया को अपना बनाया", "घिर आई है घोर घटा"।
शंकर दासगुप्ता का गाया "यह इश्क़ नहीं आसां"।
जी जी। ऋतुराज जी, हमने सुना है बसन्त प्रकाश जी संगीत के साथ-साथ नृत्य में भी पारंगत थे?
यह सच बात है। वो संगीत, गायन और कत्थक नृत्य में माहिर थे। खेमचन्द जी के अलावा पंडित मोहनलाल जी से उन्होंने कत्थक सीखा।
बसंत प्रकाश जी द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों में और कौन कौन सी फ़िल्में उल्लेखनीय रहीं?
सलोनी (1952), श्रीमतिजी (1952), निशान डंका (1952), बदनाम (1952), महारानी (1957), नीलोफ़र (1957), भक्तध्रुव (1957), हम कहाँ जा रहे हैं (1966), ज्योत जले (1967), ईश्वर अल्लाह तेरे नाम (1982), अबला (1989)।
देखा जाए तो 1952 का वर्ष उनके करीअर का व्यस्ततम वर्ष रहा। फिर उसके बाद 1957 का वर्ष सुखद था। ’नीलोफ़र’ फ़िल्म का गीत "रफ़्ता रफ़्ता वो हमारे दिल के अरमाँ हो गए" बहुत बहुत कामयाब रहा।
जी, यह गीत मेरे पिताजी का सब से पसंदीदा गीत था। यह गीत इस फ़िल्म का भी सब से लोकप्रिय गीत था। और अब तक लोग इस गीत को याद करते हैं, सुनते हैं।
बिल्कुल सुनते हैं। यह तो था बसन्त प्रकाश जी का पसन्दीदा गीत; आपका पसन्दीदा गीत कौन सा है?
यूं तो अभी जिन फ़िल्मों के नाम मैंने लिए, उन सब के गानें मुझे बहुत पसंद है, लेकिन एक जो मेरा फ़ेवरीट गीत है, वह है उनकी अंतिम फ़िल्म 'अबला' का, "अबला पे सितम निर्बल पर जुलुम, तू चुप बैठा भगवान रे..."।
1968 के बाद पूरे बीस साल तक वो ग़ायब रहे और 1986 में दोबारा उनका संगीत सुनाई दिया। इसके पीछे क्या कारण है? वो ग़ायब क्यों हुए और दोबारा वापस कैसे आये?
उनके पैत्रिक स्थान पर कुछ प्रॉपर्टी के इशूज़ हो गये थे जिस वजह से उन्हें लकवा मार गया और 15 साल तक वो लकवे से पीड़ित थे। जब वो ठीक हुए, तब उनके मित्र वसंत गोनी साहब, जो एक निर्देशक थे, उन्होंने पिताजी को फिर से संगीत देने के लिए राज़ी करवाया और इन दोनों फ़िल्मों, 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' और 'अबला', में उन्हें संगीत देने का न्योता दिया। वसंत जी को पिताजी पर पूरा भरोसा था। पिताजी राज़ी हो गये और इस तरह से एक लम्बे अरसे के बाद उनका संगीत फिर से सुनाई दिया।
वह क्या मसला था सम्पत्ति का ज़रा खुल कर बताएँगे अगर आपको कोई आपत्ति ना हो तो?
मेरे पिताजी खेमचन्द जी के सबसे छोटे भाई थे। क्योंकि खेमचन्द जी का कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने पिताजी को गोद लिया ताकि उन्हें सम्पत्ति का वारिस बना सके। खेमचन्द जी की दो हवेलियाँ थीं। पहली हवेली को बंधक बनाया हुआ था, और दूसरी हवेली, जिसका नाम था ’पवनहंस’, उसे कुछ लोगों ने धोखे से हमसे छीन लिया था जाली पेपर्स के बलबूते। क्योंकि पिताजी ज़्यादातर समय मुंबई में गुज़ारते थे, इसका फ़ायदा उठा कर हवेली के नकली पेपर तैयार कर उन लोगों ने उस पर कब्ज़ा कर लिया। उस पर पिताजी ने कानूनी कार्यवाही भी की क्योंकि वह हवेली ही खेमचन्द की अन्तिम निशानी थी हमारे पास और पिताजी उसे खोना नहीं चाहते थे। बीस साल तक यह केस चलने के बाद पिताजी यह केस हार गए। इस सदमे को वो सह नहीं सके और 1975 में उन्हें पैरालिसिस का अटैक आ गया। इस वजह से संगीतकार का दायित्व निभा पाना भी उनके लिए असंभव सा हो गया, और उन्हें काम मिलने बन्द हो गए। वो बस कुछ लोगों को संगीत की शिक्षा दिया करते थे उसके बाद।
बहुत दुख हुआ यह जानकर कि सम्पत्ति ही काल बन गया बसन्त प्रकाश जी के जीवन में। अच्छा ऋतुराज जी, सुनने में आता है कि खेमचंद जी की एक बेटी भी थी जिनका नाम था सावित्री, और जिनके लिए खेमचंद जी ने पैत्रिक स्थान सुजानगढ़ में एक आलीशान हवेली बनवाई थी, पर बाद में आर्थिक कारणों से वह गिरवी रख दी गई, और आज वह किसी और की अमानत है। क्या आप खेमेचंद जी की बेटी सावित्री जी के बारे में कुछ बता सकते हैं?
जी नहीं, मुझे उनके बारे में कुछ नहीं मालूम। पिताजी ने कभी मुझे उनके बारे में नहीं बताया, इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।
बहुत बहुत शुक्रिया ऋतुराज जी। हम वाक़ई अभिभूत हैं खेमचंद जी और बसंत प्रकाश जी जैसे महान कलाकारों के बारे में आप से बातचीत कर। ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के लिए अपना कीमती वक़्त निकालने के लिए और इतनी सारी बातें बताने के लिए मैं अपनी तरफ़ से, हमारे तमाम श्रोता-पाठकों की तरफ़ से, और ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की तरफ़ से, आपका शुक्रिया अदा करता हूँ। नमस्कार!
आपका भी बहुत धन्यवाद, नमस्कार!
बहुत बहुत धन्यवाद आपका! जिस तरह से आपने भूमिका दी है, बहुत अच्छा लगा, और मैं भी बहुत उत्सुक हूँ आपके सवालों के जवाब देने के लिए, अपने पिता और खेमचन्द जी के बारे में बताने के लिए, जिन पर मुझे बहुत बहुत गर्व है।
बड़ा ही रोमांचित अनुभव कर रहा हूँ मैं इस वक़्त। ऋतुराज जी, सबसे पहले तो हम जानना चाहेंगे खेमचंद प्रकाश और बसंत प्रकाश के संबंध के बारे में। मेरा मतलब है कि कुछ लोग कहते हैं कि बसंत जी खेमचंद जी के मानस पुत्र हैं, कोई कहता है कि वो उनके मुंहबोले भाई हैं, तो हम आपसे जानना चाहेंगे इस रिश्ते के बारे में।
बहुत अच्छा और अहम सवाल है यह। मैं आपको बताऊँ कि मेरे पिता बसंत प्रकाश जी और खेमचंद जी सगे भाई भी थे और पिता-पुत्र भी।
सगे भाई और पिता-पुत्र भी? मतलब?
यानी कि रिश्ते में तो दोनों सगे भाई ही थे, लेकिन बाद में खेमचंद जी ने व्यक्तिगत कारणों से मेरे पिता बसंत प्रकाश जी को अपने इकलौते पुत्र के तौर पर गोद लिया।
यानी कि खेमचंद जी आपके ताया जी भी हुए और साथ ही दादाजी भी!
बिल्कुल ठीक!
वैसे तो हम आज बसंत प्रकाश जी के बारे में ही चर्चा कर रहे हैं, लेकिन खेमचंद जी का नाम उनके साथ ऐसे जुड़ा हुआ है कि उनका भी ज़िक्र करना अनिवार्य हो जाता है। इसलिए बसंत प्रकाश जी पर चर्चा आगे बढ़ाने से पहले, हम आपसे खेमचंद जी के बारे में जानना चाहेंगे। क्या जानते हैं आप उनके बारे में?
जी हाँ, हर पोता अपने दादाजी के बारे में जानना चाहेगा, और मेरे पिता जी ने भी उनके बारे में मुझे बताया था। खेमचंद जी ने 'सुप्रीम पिक्चर्स' की फ़िल्म 'मेरी आँखें' के ज़रिये 1939 में फ़िल्म जगत में पदार्पण किया था। और जल्द ही नामचीन 'रणजीत' फ़िल्म स्टुडिओ ने उन्हें अनुबंधित कर लिया। लता मंगेशकर के लिए खेमचंद प्रकाश फलदायक साबित हुए और उस दौर में 'आशा', 'ज़िद्दी' और 'महल' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर लता जी को नई-नई प्रसिद्धी हासिल हुई थी। लेकिन खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु ने फ़िल्म जगत में एक कभी न पूरा होने वाले शून्य को जन्म दिया।
खेमचन्द्र प्रकाश |
'तानसेन' को बेहतरीन म्युज़िकल फ़िल्मों में गिना जाता है। खेमचंद जी ने लता जी को तो ब्रेक दिया ही, साथ ही किशोर कुमार को भी पहला ब्रेक दिया "मरने की दुयाएं क्यों माँगू" गीत में। यह बात मशहूर है कि लता मंगेशकर की आवाज़ को शुरु शुरु में निर्माता चंदुलाल शाह नें रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन खेमचंद जी ने उनके निर्णय को चैलेंज किया और उन्हें बताया कि एक दिन यही आवाज़ इस इंडस्ट्री पर राज करेगी। 'ज़िद्दी' में लता जी का गाया एक बेहद सुंदर गीत था "चंदा रे जा रे जा रे"।
बहुत ही सुन्दर रचना है यह! अच्छा ॠतुराज जी, यह बताइए कि खेमचंद जी का स्वरबद्ध कौन सा गीत आपको सब से प्रिय है?
ऐसे बहुत से गीत हैं जो मुझे व्यक्तिगत तौर पे बहुत पसंद है, लेकिन एक जो गीत जो मेरा फ़ेवरीट है, वह है फ़िल्म 'महल' का "मुश्किल है बहुत मुश्किल चाहत का भुला देना"।
वाह! यह गीत मुझे भी बहुत पसन्द है, "आएगा आनेवाला" गीत से भी ज़्यादा। ऋतुराज जी, अपने परिवार के बारे में बताइए। कौन-कौन हैं आपके परिवार में?
मेरे पिताजी बसन्त प्रकाश जी के दो विवाह रहे। उनकी पहली पत्नी का नाम स्वर्गीय छोगीदेवी, मैं और मेरी सभी बहने उन्हें बड़ी माँ कह कर बुलाते थे। उनकी दो बेटियाँ हैं प्रभा दीदी और स्वर्गीय मधु दीदी। मधु दीदी निस्सन्तान रहीं और प्रभा दीदी की दो बेटियाँ हैं। वो सभी हमारे पैत्रिक निवास स्थान सुजानगढ़ में रहते हैं। मेरे पिता का दोसरा विवाह स्वर्गीय अनीता से हुआ। इस विवाह से उनकी पाँच बेटियाँ हुईं - वैजयन्ती, लक्ष्मी, दुर्गा, शानू, सोनम, और एक बेटा, यानी कि मैं। हमारा पूरा परिवार मुंबई के मलाड में रहते हैं। मेरी माँ अनीता 1995 में गुज़र गईं, मेरे पिता 1996 में, और मेरी बड़ी माँ 1998 में इस दुनिया से चली गईं। बस इतनी सी है मेरे परिवार की दास्तान।
ॠतुराज जी, हम अब बसंत प्रकाश जी पर आते हैं; बताइए कि एक पिता के रूप में वो कैसे थे? उनकी कुछ विशेषताओं के बारे में बताएँ जिनके बारे में जान कर संगीत-रसिक अभिभूत हो जाएँ?
मेरा और मेरे पिताजी का संबंध दोस्ती का था और सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं, पूरे परिवार के साथ ही वो घुलमिल कर रहते थे, और एक अच्छे पिता के सभी गुण उनमें थे। परिवार का वो ख़याल रखा करते थे। बहुत ही शांत और सादे स्वभाव के थे। उनकी रचनाएँ मौलिक हुआ करती थी। उन्होंने कभी डिस्को या पाश्चात्य संगीत का सहारा नहीं लिया क्योंकि वो भारतीय शास्त्रीय संगीत में विश्वास रखते थे। राग-रागिनियों, ताल और लोक-संगीत में उनकी गहरी रुचि थी। खेमचंद जी से ही उन्होंने संगीत सीखा और संगीत और नृत्य कला की बारीकियाँ उनसे सीखी। वो थोड़े मूडी थे और उनका संगीत उनके मूड पे डिपेण्ड करता था।
कहा जाता है कि 'अनारकली' फ़िल्म के लिए पहले पहले बसंत प्रकाश जी को ही साइन करवाया गया था, लेकिन बाद में इन्होंने फ़िल्म छोड़ दी। क्या इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे?
जी हाँ, यह सच बात है। 'अनारकली' के संगीत को लेकर कुछ विवाद खड़े हुए थे। एक दिन काम के अंतराल के वक़्त मेरे पिता जी फ़िल्मिस्तान स्टुडिओ में आराम कर रहे थे। उस समय निर्देशक के सहायक उस कमरे में आये और उन पर चीखने लगे। मेरे पिता जी को उस ऐसिस्टैण्ट के चिल्लाने का तरीका अच्छा नहीं लगा। उन दोनों में बहसा-बहसी हुई, और उसी वक़्त पिताजी फ़िल्म छोड़ कर आ गये। लेकिन तब तक पिताजी फ़िल्म का एक गीत रेकॉर्ड कर चुके थे। सी. रामचंद्र आकर फ़िल्म के संगीत का भार स्वीकारा और अपनी शर्त रख दी कि न केवल फ़िल्म के गानें लता मंगेशकर से गवाये जाएँगे, बल्कि मेरे पिताजी द्वारा स्वरब्द्ध गीता दत्त के गाये गीत को भी फ़िल्म से हटवा दिया जाये। शुरु शुरु में उनके इन शर्तों को फ़िल्मिस्तान मान तो गये, लेकिन आख़िर में गीता दत्त के गाये गीत को फ़िल्म में रख लिया गया। और वह गीत था "आ जाने वफ़ा"।
ॠतुराज जी, मैंने पढ़ा है कि खेमचंद जी की असामयिक मृत्यु के बाद बसंत प्रकाश जी ने उनकी कुछ असमाप्त फ़िल्मों के संगीत को पूरा किया था और इसी तरह से उनका फ़िल्म जगत में आगमन हुआ था। तो हम आपसे जानना चाहते हैं कि वह कौन सी असमाप्त फ़िल्में थीं खेमचन्द जी की जिसमें बसंत प्रकाश जी ने संगीत दिया था?
10 अगस्त 1950 को दादाजी की मृत्यु हो गई थी, और उनकी कई फ़िल्में असमाप्त थी जैसे कि 'जय शंकर', 'श्री गणेश जन्म', 'तमाशा'। 'श्री गणेश जन्म' में मन्ना डे सह-संगीतकार थे और 'तमाशा' के गीतों को मन्ना डे और एस. के. पाल ने पूरा किया था। बसंत प्रकाश जी ने 'जय शंकर' का संगीत पूरा किया और यही उनकी पहली फ़िल्म भी थी।
स्वतन्त्र संगीतकार के रूप में उनकी पहली फ़िल्म कौन सी थी?
1952 की ही फ़िल्म ’बदनाम’। यह फ़िल्मिस्तान की फ़िल्म थी जिसे डी.डी. कश्यप ने डिरेक्ट किया था; बलराज साहनी और श्यामा थे इस फ़िल्म में। इस फ़िल्म के सभी गाने हिट हुए। सबसे ज़्यादा हिट गीत था "साजन तुमसे प्यार करूँ मैं कैसे तुम्हें बतलाऊँ", लता जी की आवाज़ में। इसे HMV ने लता जी के rare gems album में शामिल किया है।
जी हाँ, यह बड़ा ही मशहूर गीत था उस ज़माने का। और फिर इस फ़िल्म में और भी कई गीत थे जैसे कि "जिया नाहीं लागे हो", "काहे परदेसिया को अपना बनाया", "घिर आई है घोर घटा"।
शंकर दासगुप्ता का गाया "यह इश्क़ नहीं आसां"।
जी जी। ऋतुराज जी, हमने सुना है बसन्त प्रकाश जी संगीत के साथ-साथ नृत्य में भी पारंगत थे?
यह सच बात है। वो संगीत, गायन और कत्थक नृत्य में माहिर थे। खेमचन्द जी के अलावा पंडित मोहनलाल जी से उन्होंने कत्थक सीखा।
बसंत प्रकाश जी द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों में और कौन कौन सी फ़िल्में उल्लेखनीय रहीं?
सलोनी (1952), श्रीमतिजी (1952), निशान डंका (1952), बदनाम (1952), महारानी (1957), नीलोफ़र (1957), भक्तध्रुव (1957), हम कहाँ जा रहे हैं (1966), ज्योत जले (1967), ईश्वर अल्लाह तेरे नाम (1982), अबला (1989)।
देखा जाए तो 1952 का वर्ष उनके करीअर का व्यस्ततम वर्ष रहा। फिर उसके बाद 1957 का वर्ष सुखद था। ’नीलोफ़र’ फ़िल्म का गीत "रफ़्ता रफ़्ता वो हमारे दिल के अरमाँ हो गए" बहुत बहुत कामयाब रहा।
जी, यह गीत मेरे पिताजी का सब से पसंदीदा गीत था। यह गीत इस फ़िल्म का भी सब से लोकप्रिय गीत था। और अब तक लोग इस गीत को याद करते हैं, सुनते हैं।
बिल्कुल सुनते हैं। यह तो था बसन्त प्रकाश जी का पसन्दीदा गीत; आपका पसन्दीदा गीत कौन सा है?
यूं तो अभी जिन फ़िल्मों के नाम मैंने लिए, उन सब के गानें मुझे बहुत पसंद है, लेकिन एक जो मेरा फ़ेवरीट गीत है, वह है उनकी अंतिम फ़िल्म 'अबला' का, "अबला पे सितम निर्बल पर जुलुम, तू चुप बैठा भगवान रे..."।
1968 के बाद पूरे बीस साल तक वो ग़ायब रहे और 1986 में दोबारा उनका संगीत सुनाई दिया। इसके पीछे क्या कारण है? वो ग़ायब क्यों हुए और दोबारा वापस कैसे आये?
उनके पैत्रिक स्थान पर कुछ प्रॉपर्टी के इशूज़ हो गये थे जिस वजह से उन्हें लकवा मार गया और 15 साल तक वो लकवे से पीड़ित थे। जब वो ठीक हुए, तब उनके मित्र वसंत गोनी साहब, जो एक निर्देशक थे, उन्होंने पिताजी को फिर से संगीत देने के लिए राज़ी करवाया और इन दोनों फ़िल्मों, 'ईश्वर अल्लाह तेरे नाम' और 'अबला', में उन्हें संगीत देने का न्योता दिया। वसंत जी को पिताजी पर पूरा भरोसा था। पिताजी राज़ी हो गये और इस तरह से एक लम्बे अरसे के बाद उनका संगीत फिर से सुनाई दिया।
वह क्या मसला था सम्पत्ति का ज़रा खुल कर बताएँगे अगर आपको कोई आपत्ति ना हो तो?
मेरे पिताजी खेमचन्द जी के सबसे छोटे भाई थे। क्योंकि खेमचन्द जी का कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने पिताजी को गोद लिया ताकि उन्हें सम्पत्ति का वारिस बना सके। खेमचन्द जी की दो हवेलियाँ थीं। पहली हवेली को बंधक बनाया हुआ था, और दूसरी हवेली, जिसका नाम था ’पवनहंस’, उसे कुछ लोगों ने धोखे से हमसे छीन लिया था जाली पेपर्स के बलबूते। क्योंकि पिताजी ज़्यादातर समय मुंबई में गुज़ारते थे, इसका फ़ायदा उठा कर हवेली के नकली पेपर तैयार कर उन लोगों ने उस पर कब्ज़ा कर लिया। उस पर पिताजी ने कानूनी कार्यवाही भी की क्योंकि वह हवेली ही खेमचन्द की अन्तिम निशानी थी हमारे पास और पिताजी उसे खोना नहीं चाहते थे। बीस साल तक यह केस चलने के बाद पिताजी यह केस हार गए। इस सदमे को वो सह नहीं सके और 1975 में उन्हें पैरालिसिस का अटैक आ गया। इस वजह से संगीतकार का दायित्व निभा पाना भी उनके लिए असंभव सा हो गया, और उन्हें काम मिलने बन्द हो गए। वो बस कुछ लोगों को संगीत की शिक्षा दिया करते थे उसके बाद।
बहुत दुख हुआ यह जानकर कि सम्पत्ति ही काल बन गया बसन्त प्रकाश जी के जीवन में। अच्छा ऋतुराज जी, सुनने में आता है कि खेमचंद जी की एक बेटी भी थी जिनका नाम था सावित्री, और जिनके लिए खेमचंद जी ने पैत्रिक स्थान सुजानगढ़ में एक आलीशान हवेली बनवाई थी, पर बाद में आर्थिक कारणों से वह गिरवी रख दी गई, और आज वह किसी और की अमानत है। क्या आप खेमेचंद जी की बेटी सावित्री जी के बारे में कुछ बता सकते हैं?
जी नहीं, मुझे उनके बारे में कुछ नहीं मालूम। पिताजी ने कभी मुझे उनके बारे में नहीं बताया, इसलिए मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता।
बहुत बहुत शुक्रिया ऋतुराज जी। हम वाक़ई अभिभूत हैं खेमचंद जी और बसंत प्रकाश जी जैसे महान कलाकारों के बारे में आप से बातचीत कर। ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के लिए अपना कीमती वक़्त निकालने के लिए और इतनी सारी बातें बताने के लिए मैं अपनी तरफ़ से, हमारे तमाम श्रोता-पाठकों की तरफ़ से, और ’रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की तरफ़ से, आपका शुक्रिया अदा करता हूँ। नमस्कार!
आपका भी बहुत धन्यवाद, नमस्कार!
आख़िरी बात
’चित्रकथा’ स्तंभ का आज का अंक आपको कैसा लगा, हमें ज़रूर बताएँ नीचे टिप्पणी में या soojoi_india@yahoo.co.in के ईमेल पते पर पत्र लिख कर। इस स्तंभ में आप किस तरह के लेख पढ़ना चाहते हैं, यह हम आपसे जानना चाहेंगे। आप अपने विचार, सुझाव और शिकायतें हमें निस्संकोच लिख भेज सकते हैं। साथ ही अगर आप अपना लेख इस स्तंभ में प्रकाशित करवाना चाहें तो इसी ईमेल पते पर हमसे सम्पर्क कर सकते हैं। सिनेमा और सिनेमा-संगीत से जुड़े किसी भी विषय पर लेख हम प्रकाशित करेंगे। आज बस इतना ही, अगले सप्ताह एक नए अंक के साथ इसी मंच पर आपकी और मेरी मुलाक़ात होगी। तब तक के लिए अपने इस दोस्त सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिए, नमस्कार, आपका आज का दिन और आने वाला सप्ताह शुभ हो!
शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
Comments