एक बार ’विविध भारती’ के एक साक्षात्कार में गीतकार नक़्श लायलपुरी साहब ने फ़रमाया था कि उन्होंने क़रीब 60 मुजरे लिखे हैं जो कि अलग-अलग रंग, अलग-अलग मिज़ाज के हैं। उन्होंने श्रोताओं से इन्हें सुनने का भी सुझाव दिया था। यह बात मेरे अवचेतन मन में बरसों से चली आ रही थी। हाल ही में नक़्श साहब की मृत्यु के बाद यह बात फिर से मुझे याद आ गई और मैंने यह निर्णय लिया कि उनके सुझाये इन 60 मुजरों को खोज निकालना ज़रूरी है। जुट गया शोध पर। और इसी शोध का नतीजा है आज के ’चित्रकथा’ का यह अंक। मेरी तरफ़ से यह नक़्श साहब को श्रद्धांजलि है। मैं इसमें कितना कामयाब हुआ हूँ, इसका फ़ैसला आप लेंगे। आज प्रस्तुत है इस लेख का पहला भाग।
नक़्श लायलपुरी ने फ़िल्मी दुनिया में क़दम रखा था 1952 में फ़िल्म ’जग्गु’ में केवल एक गीत लिख कर। ग़ौर तलब बात यह है कि यह एक गीत मुजरा शैली का ही गीत था। हंसराज बहल के संगीत में आशा भोसले का गाया यह गीत है "अगर तेरी आँखों से आँखें मिला दूँ, मैं क़िस्मत जगा दूँ, मुक़द्दर बना दूँ"। गीत के संगीत में पारम्परिक मुजरा संगीत की झलक ना होकर मध्यएशियाई संगीत की झलक मिलती है। "निगाहें बदल दूँ, निशाना बदल दूँ, जो चाहूँ तो सारा ज़माना बदल दूँ, मोहब्बत की राह पर चलना सिखा दूँ, मैं क़िस्मत जगा दूँ..." और "है जिनकी जवानी उन्हीं का ज़माना, जो चाहे अगर मेरी दुनिया में आना, ज़मीं तो ज़मीं आसमाँ पे बिठा दूँ, मैं क़िस्मत जगा दूँ..." जैसे बोल इसे मुजरा शैली का गीत बनाता है शब्द और भाव की दृष्टि से। नक़्श साहब की दूसरी फ़िल्म ’घमंड’ जो 1955 में आई थी, उसमें भी एक मुजरा गीत था। राजकुमारी की आवाज़ में गुल्शन सूफ़ी की यह रचना एक मुजरा गीत था जिसके बोल थे "जब से उलझे नैन मुझे दिन रैन नहीं है चैन, सजनवा नैनों की गली में आजा, ओ मोरे राजा"। पिछले गीत में जहाँ नायिका नायक को अपनी ओर आकर्षित करती हुई ख़ुद की बढ़ाई कर रही है, वहीं दूसरी तरफ़ ’घमंड’ फ़िल्म के इस मुजरे में नायिका अपने नायक को उसके पास आने की ग़ुज़ारिश कर रही है। इस तरह से ये दोनों गीत बिल्कुल अलग रंग के होते हुए भी एक ही अंजाम की तरफ़ बढ़ रहे हैं।
1958 में एक फ़िल्म आई थी ’अजी बस शुक्रिया’ जिसमें रोशन का संगीत था और गीत लिखे फ़ारुख़ क़ैसर ने। लेकिन नक़्श साहब के दो मुखड़े इस फ़िल्म के लिए लिए गए जिनमें से एक मुजरा था। क़िस्सा आख़िर क्या था, जानिए नक़्श साहब की ज़ुबानी - "मैं रोशन साहब के साथ सिर्फ़ एक ही फ़िल्म कर सका। एक और फ़िल्म थी जिसमें मेरे लिखे दो मुखड़े इस्तमाल किए गए। दरसल क्या हुआ कि मेरे दो मुखड़े रोशन साहब के पास पड़े हुए थे। वो उन्हें ’अजी बस शुक्रिया’ में इस्तमाल करना चाहते थे। लेकिन फ़िल्म के डिरेक्टर मोहम्मद हुसैन चाहते थे कि फ़ारुख़ क़ैसर फ़िल्म के गीत लिखे। रोशन और फ़ारुख़ क़ैसर कई बार सिटिंग् की पर फ़ारुख़ साहब जो कुछ लिख रहे थे वो सब रोशन साहब को पसन्द नहीं आ रही थी। एक दिन रोशन साहब मेरे पास आए और कहने लगे कि वो वह फ़िल्म छोड़ रहे हैं क्योंकि वो गीतों के बोलों से ख़ुश नहीं हैं। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें मेरे लिखे दो मुखड़े पसन्द है और वो उनका इस्तमाल करना चाहते हैं। मैंने ख़ुशी ख़ुशी वो मुखड़े उन्हें दे दिए और फ़ारुख़ क़ैसर ने उनके अन्तरे लिखे। कुछ दिनों बाद मुझे दो वाउचर मिले 250 रुपये प्रति मुखड़ा। इन दो गीतों में एक मुजरा था "बेदर्दी नज़रें मिला के कहदे क्या है तेरी मर्ज़ी" और दूसरा गीत था "सारी सारी रात तेरी याद सताये"। मीनू मुमताज़ पर फ़िल्माया गया यह मुजरा काफ़ी हिट हुआ था पर इस मुजरे के गीतकार के रूप में फ़ारुख़ क़ैसर का नाम ही जुड़ा हुआ है जबकि पंच लाइन नक़्श साहब का दिया हुआ है।
इसके अगले ही साल 1959 में स्टण्ट फ़िल्म आई ’सर्कस क्वीन’। मोहम्मद शफ़ी के संगीत में नक़्श साहब का लिखा मुजरा गाया मुबारक बेगम ने। ’जग्गु’ फ़िल्म के गीत की तरह इसे भी एक आधुनिक मुजरा कह सकते हैं जो एक पार्टी में पेश की जा रही है। "ओहो दिल वाले, निगाहें मिला ले, दिल के दामन को रंगी बना ले"। इसकी धुन में भी मध्यएशियाई रंग शामिल है। इस गीत के तीन अन्तरे हैं - "नैन तीखे हैं क़ातिल निगाहें, मेरी फूलों सी नाज़ुक हैं बाहें, चाल बहकी हुई, ज़ुल्फ़ें महकी हुई, मेरे मुखड़े पे झूमे उजाले...", "आ हसीनों की महफ़िल में आके, देख ले दो घड़ी मुस्कुरा के, साज़ दिल का उठा गीत ख़ुशियों के गा, झूम कर ज़िन्दगी का मज़ा ले...", "ज़िन्दगी है सफ़र जीने वाले, हँसते-हँसते गुज़र जीने वाले, होके मस्ती में जी, है यही ज़िन्दगी, कर ना दिल को ग़मों के हवाले..." - पहले दो अन्तरों में नायिका नायक को अपनी तरफ़ आकर्षित कर रही हैं तो तीसरे अन्तरे में आकर्षण के साथ-साथ ज़िन्दगी का फ़ल्सफ़ा भी बता रही है। इस तरह से इस मुजरे में नक़्श साहब ने जीवन-दर्शन का भी समावेश कर दिया है।
एक अरसे के बाद 1968 में नक़्श साहब के लिखे गीतों से सजी फ़िल्म आई ’तेरी तलाश में’ जिसमें सपन-जगमोहन के स्वरबद्ध गीत काफ़ी सराहे गए। इस फ़िल्म में आशा भोसले का गाया एक मुजरा गीत था "राज़-ए-दिल हमसे कहो, हम तो कोई ग़ैर नहीं, यूं परेशाँ ना रहो हम तो कोई ग़ैर नहीं"। अब तक के नक़्श साहब के मुजरों में ख़ुशी का रंग था, पर इस ग़ज़ल में उन्होंने दर्द भर दिया है। ग़ज़ल के बाक़ी दो शेर हैं - "महकी महकी सी ये तन्हाई गिला करती है, ग़ैर तुम भी न रहो हम तो कोई ग़ैर नहीं", और "किसी हमदर्द को कुछ दर्द बटा लेने दो, दर्द तन्हा ना सको हम तो कोई ग़ैर नहीं"। 1972 की फ़िल्म ’बाज़ीगर’ में नक़्श साहब ने दो मुजरे लिखे। एक बार फिर सपन-जगमोहन का संगीत और आशा भोसले की आवाज़। "आज आया है तू मेरा महमान बनके, तुझको जाने ना दूँगी मैं"। गीत का सिचुएशन क़रीब क़रीब ’शोले’ फ़िल्म के "जब तक है जान, जाने-जहाँ मैं नाचूंगी" गीत जैसा ही है। या फिर ’मेरा गाँव मेरा देश’ फ़िल्म के "मार दिया जाए छोड़ दिया जाए" गीत जैसी। दुश्मन के डेरे पर नायिका नाचती हुई यह गीत गा रही है; एक अन्तरे में नक़्श साहब लिखते हैं - "तेरे हाल पे रहम ना खाऊँगी, मैं तो खेल के होली तेरे ख़ून से, बरसों की आग बुझाऊंगी, यही है मेरी मर्ज़ी..."। यह गीत पारम्परिक मुजरा जैसा नहीं है, लेकिन इसी फ़िल्म का अन्य गीत "मेरी झूम के नाची जवानी तो घुंघरू टूट गए, मैंने छेड़ी जो दिल की कहानी घुंघरू टूट गए"। आशा भोसले ही की आवाज़ में इस मुजरे को सुनते हुए ख़याल आया कि 80 के दशक में क़तील शिफ़ई का लिखा मशहूर मुजरा "मोहे आई ना जग से लाज, मैं इतना ज़ोर से नाची आज कि घुंघरू टूट गए" में बोलों की समानता है।
1973 में फ़िल्म आई ’प्रभात’ जिसमें मदन मोहन का संगीत था। इसमें नक़्श ल्यालपुरी को गीत लिखने का मौक़ा मिला। नक़्श साहब ने उसी साक्षात्कार में बताया था कि इस फ़िल्म में उन्होंने दो मुजरे लिखे जिन पर बिहार की जनता ने सिनेमाघरों में स्क्रीन पर सिक्के उछाले। लता मंगेशकर की आवाज़ में पहला मुजरा है "भरोसा कर लिया जिस पर, उसी ने हमको लूटा है, कहाँ तक नाम गिनवाएँ सभी ने हमको लूटा है"। ग़ौर करने लायक बात है कि इस मुजरे में नक़्श साहब ने मुजरा करने वाली के दिल के दर्द को उजागर किया है कि उसे हर किसी ने बस लूटा ही है। ’तेरी तलाश में’ फ़िल्म के मुजरे में जिस दर्द की छाया हमने देखी थी वह नायक का दर्द था, जबकि इस मुजरे में नायिका का दर्द छुपा है। एक अन्तरे में नक़्श साहब कहते हैं, "जो लुटते मौत के हाथों तो कोई ग़म नहीं होता, सितम इस बात का है ज़िन्दगी ने हमको लूटा है"। इसी तरह का कुछ उन्होंने ’दिल की राहें’ की ग़ज़ल में भी कहा था, "बोझ होता जो ग़मों का तो उठा भी लेते, ज़िन्दगी बोझ बनी हो तो उठायें कैसे"। ख़ैर, ’प्रभात’ फ़िल्म का एक और मुजरा है "साक़िया क़रीब आ, नज़र मिला"। लता जी की ही आवाज़ में शास्त्रीय संगीत आधारित इस मुजरे को मदन मोहन के अद्भुत संगीत ने जितना निखारा है, उतना ही न्याय नक़्श ल्यालपुरी के असरदार बोलों ने किया है। "प्यासी कहीं ना रह जाए मेरे शबाब की रातें, दिल को मेरे न बहला तू करके शराब की बातें, तुझको ख़ुदा का वास्ता शराब ना शराब ना, साक़िया क़रीब आ..." - पहले अन्तरे में नायिका शराब को ना कह रही है तो दूसरे अन्तरे में शराब पिलाने की बात होती है और तीसरे अन्तरे में तो नायिका ख़ुद शराब पीने की बात करती है। वो कहती है, "दिल भी जवाँ है पहलु में तू भी है पास जानेजाँ, ढलने लगी है शोलों में होठों की प्यास जानेजाँ, इतनी सी है इल्तिजा मुझे पीला पीला, साक़िया क़रीब आ..."।
70 के दशक के शुरुआती किसी साल में संगीतकार मदन मोहन के संगीत में नक़्श साहब ने दो मुजरे लिखे थे संभवत: ’रहनुमा’ फ़िल्म के लिए जो बन्द हो गई। लेकिन गाने आशा भोसले की आवाज़ में रेकॉर्ड हो चुके थे। 6 मिनट 38 सेकन्ड्स अवधि का पहला मुजरा था "हम होश लुटा कर महफ़िल में जब उनका नज़ारा कर बैठे, घबरा के उन्हें तन्हाई में मिलने का इशारा कर बैठे"। इस मुजरे में पूरी की पूरी एक कहानी छुपी हुई है। पहले अन्तरे में नक़्श साहब बताते हैं कि किस तरह से उस तवायफ़ को किसी ने अपना हाथ दिया और किस तरह से वो उसके प्यार में पड़ गई। "हाथों में जो उनका हाथ आया, आंखों में नशा सा छाने लगा, सौ बार झुकीं बोझल पलकें, माथे पे पसीना आने लगा, मिलते ही किसी बेगाने से हम वादा वफ़ा का कर बैठे।" दूसरे अन्तरे में दोनों के और ज़्यादा क़रीब आने की बात कही गई है, तन से तन का मेल हुआ, पर जल्द ही तवायफ़ का मोह भंग हुआ। "दिल से दिल की बातें भी हुईं, छुप छुप के मुलाक़ातें भी हुईं, कुछ फूल तमन्ना की महके, रंगीन कई रातें हुईं, इक रोज़ हमें मालूम हुआ हम ख़ून-ए-तमन्ना कर बैठे"। और अन्तिम अन्तरे में तवायफ़ के टूटे दिल के संभल जाने के प्रयास का चित्रण हुआ है। "उल्फ़त की मिली यह हमको सज़ा, हर ग़म को अकेले सहना पड़ा, शिकवे लबों पे आई मगर पत्थर की चुप रहना पड़ा, क्या जाने उन्हें हम क्या समझे जो उनपे भरोसा कर बैठे"। दूसरा मुजरा है "आज की शाम पहलू में तू, तेरा जाम ख़ाली है क्यों?"। संगीत संयोजन को सुन कर अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि यह मदन मोहन की रचना है। सुन कर लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के संगीत की याद आ जाती है। "ज़ुल्फ़ की घटा खुली बिखर गई, शाम और भी ज़रा निखर गई, दिल की धड़कनों में रंग आ गया, तू मिला तो ज़िन्दगी सँवर गई, कैसे कहूँ मेरे लिए लायी है क्या आज की शाम..."।
संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल के प्यारेलाल के भाई गणेश के संगीत निर्देशन में 1975 में एक फ़िल्म आई थी ’बदनाम’। इस फ़िल्म में नक़्श ल्यालपुरी ने एक मुजरा लिखा था जिसे आशा भोसले ने गाया - "महफ़िल मेरी रातें मेरी दुनिया करे बातें मेरी, शीशे की जवानी आके मेरे सोनिया, नशे दियाँ बोतलाँ"। पंजाबी शब्दों का सुन्दर इस्तमाल नक़्श साहब ने इस मुजरे में किया। गीत फ़िल्माया गया था लक्ष्मी छाया पर जिन पर "मार दिया जाए कि छोड़ दिया जाए" फ़िल्माया गया था। गणेश के संगीत में एल-पी की छाया मिलती है। फ़िल्म के ना चलने से यह गीत भी गुमनाम रह गया। संगीतकार सपन-जगमोहन के साथ नक़्श लायलपुरी ने बहुत अच्छा काम किया है। 1976 में नक़्श-सपन-जगमोहन की एक और फ़िल्म आई ’कागज़ की नाव’। इसमें आशा भोसले का गाया एक बेहद ख़ूबसूरत मुजरा था जो शास्त्रीय संगीत पर आधारित था। "ना जैयो रे सौतन घर सैंया, रुक जा मैं रो रो पड़ूँ तोरे पैंया" निस्सन्देह एक उच्चस्तरीय मुजरा गीत है। अन्तरे में नक़्श साहब लिखते हैं - "जादू भी जाने टोना भी जाने, नजरिया से दिल को पिरोना भी जाने, हँस के मिले दूर होना भी जाने, तू ही ना माने ना माने, ना जैयो रे सौतन घर सैंया..."। गीत की ख़ास बात यह है कि गीत मुजरे वाली कोठे पे गा रही है, पर बोल पत्नी की ज़ुबाँ से निकलने वाले बोल हैं जो अपने पति को सौतन के घर जाने से रोक रही है। इस तरह से विरोधाभास का सुन्दार उदारहण है यह गीत। कितने सुन्दर शब्दों में नक़्श साहब दूसरा अन्तरा कहते हैं, "तन से लुभाये, अदाओं से लूटे, पल में वो माने तो पल में ही रूठे, बैरन की होती हैं सब रूप झूठे, तू ही ना जाने..."।
1977 में एक फ़िल्म आई थी ’महाबदमाश’। इस फ़िल्म में विनोद खन्ना और नीतू सिंह मुख्य भूमिकाओं में थे। रवीन्द्र जैन के संगीत में इस फ़िल्म में नक़्श लायलपुरी ने गीत लिखे। सिचुएशन के मुताबिक एक पार्टी में नीतू सिंह विनोद खन्ना को शराब का सहारा लेकर अपनी तरफ़ आकर्षित करने का प्रयास कर रही है। पारम्परिक मुजरा शैली का गीत ना होते हुए भी सिचुएशन और भाव गीत के बोलों को मुजरा जैसा बना दिया है। मुखड़ा है - "अभी ज़रा सी देर में ये रात गुनगुनाएगी, ये धड़कनों की लय कोई हसीं धुन सुनाएगी, न तुझको नींद आएगी, न मुझको नींद आएगी, मेरे क़रीब आके पी, ये फ़ासला मिटा के पी"। एक अन्तरे में नक़्श साहब लिखते हैं "जो तू कहे तो झूमके महकती ज़ुल्फ़ खोल दूँ, सनम तेरी शराब में लबों का रंग घोल दूँ, तेरी नज़र नज़र पे मैं ये दिल का फूल तोड़ दूँ, मेरे क़रीब आके पी..."। अब तक जितने भी मुजरों की हमने बातें की, हर एक मुजरा दूसरे मुजरे से अलग है। यहाँ तक कि शब्दों का दोहराव भी दिखाई नहीं दिया किसी में। इसी साल एक फ़िल्म आई थी ’वोही बात’, इसमें एक ग़ज़ल नक़्श साहब ने लिखी है, लेकिन शायद इसे एक मुजरे की तरह फ़िल्माया नहीं गया है, हालाँकि इसमें दर्द एक मुजरे वाली का ज़रूर छुपा हुआ है। ग़ज़ल के तीन शेर अर्ज़ है - "ज़हर देता है मुझे कोई दवा देता है, जो भी मिलता है मेरे ग़म को बढ़ा देता है।" "क्यों सुलगती है मेरे दिल में पुरानी यादें,कौन बूझती हुई शोलों को हवा देता है।" "हाल हँस-हँस के बुलाता है कभी बाहों में, कभी माज़ी मुझे रो रो सदा देता है।"
आज बस इतना ही, इस लेख का दूसरा व अन्तिम भाग आप पढ़ पाएंगे अगले सप्ताह।
आख़िरी बात
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शोध,आलेख व प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
प्रस्तुति सहयोग : कृष्णमोहन मिश्र
रेडियो प्लेबैक इण्डिया
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