स्मृतियों के स्वर - 06
"तू कहीं आसपास है दोस्त"
रफ़ी साहब का अन्तिम सफ़र शब्बीर कुमार की भीगी यादों में
रफ़ी साहब का अन्तिम सफ़र शब्बीर कुमार की भीगी यादों में
सूत्र : विविध भारती
कार्य्रक्रम : हमारे मेहमान
प्रसारण तिथि : 16 सितम्बर, 2009
"रमज़ान का सत्रहवाँ रोज़ा था, और मैं बस बैठा ही था घर में। तो हमारे एक पड़ोसी आये घर पे। वो अक्सर मुझसे हँसी मज़ाक किया करते थे, बड़े मज़ाहिया किस्म के इंसान हैं, अक्सर मज़ाक मस्ती चलती रहती थी। तो वो मेरे पास आये और बोले कि 'शब्बीर, बड़ा शॉकिंग् न्यूज़ है'। मैंने पूछा 'क्या?', तो बोले 'रफ़ी साहब नहीं रहे'। मैंने कहा, 'देखिये, आपकी मज़ाक बहुत होती है, इतना बेहुदा और इतना घटिया मज़ाक ज़िन्दगी में कभी मेरे साथ मत कीजियेगा'। बोले, 'शब्बीर, मैं जानता हूँ कि आप रफ़ी साहब को कितना चाहते हैं, आप मेरे यहाँ चलिये, रेडियो में सुन लीजिये'। यह सुन के मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया था, मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता था, तो मैं उनके यहाँ गया तो बकायदा अनाउन्समेण्ट चल रही है रफ़ी साहब के बारे में, ज़िक्र हो रहे हैं और उनके गाने बज रहे हैं। फिर भी मुझे यकीन नहीं आ रहा है कि रफ़ी साहब नहीं रहे, और मैं बड़ा परेशान हो गया। वहाँ से मैं पडोस में हमारे एक थे, उनके यहाँ टेलीफ़ोन रहा करता था, उनके घर में मैं गया, उनके वहाँ से लोकल अख़्बार, जो बरोडा का है, 'लोकसत्ता', उसकी दीवाली का इश्यु जो है, उसकी कभी कभार मुझसे डिज़ाइन करवाया करते थे, तो वहाँ से मैंने 'लोकसत्ता' के कार्यालय में कॉल लगाई कि ऐसी ऐसी लोग बातें कर रहे हैं, तो क्या आज की हेडलाइन वही है, क्या निकल चुकी है अख़्बार? और मैं, यकीन करने को तैयार नहीं।
मेरी बहनें, उनकी ससुराल भी पास-पास में थी। वो भी भाग कर आ गईं कि आज भाई बहुत परेशान होंगे और कुछ दोस्त यार भी सुबह-सुबह मेरे यहाँ इकट्ठा हो गये हमारे घर पर। अब मेरी ज़हनी कैफ़ियत, न कुछ बोलते बन पड़ता था, न कुछ, मैं बिल्कुल शॉक्ड बैठा था। मेरी बहनों ने, भाइयों ने मिल कर पैसे इकट्ठे किये कि कैसे भी करके भाई को हम 'बाइ एअर' बम्बई भेज दें क्योंकि अख़्बार में लिखा था कि जुमे का रोज़ था, तो बान्द्रा जामा मस्जिद में जुमे के नमाज़ के बाद रफ़ी साहब का जनाज़ा वहाँ से ले जाया जायेगा। ज़्यादा वक़्त भी नहीं था। और मैं अगर ट्रेन से जाता हूँ तो मुझे ट्रेन मिली थी एक 'डीलक्स' जो यहाँ 4:30 - 5 बजे पहुँचती थी। तो मेरी बहनों ने पैसों की कलेक्शन की और मेरे दोस्तों को देकर कहा कि भाई को आज बाइ एअय भेज दीजिये। मैं तो बैठा हुआ था चुपचाप। उन लोगों ने एअरपोर्ट में कॉल लगाई, पता चला कि बम्बई की फ़्लाइट तो निकल गई है अभी 10 मिनट पहले। फिर वो आपस में तय कर रहे थे, मुझे तो होश था ही नहीं, तो क्या किया जाये, तो बोले कि 'आप डीलक्स से निकल जाइये'। मेरे दोस्तों ने कहा कि हम वक़्त से तो पहुँच नहीं पायेंगे, जनाज़े के, और रोज़े की नमाज़ें, तो बोले कि आप वहाँ पहुँच जाइये, वहाँ फ़ातिया पढ़ लीजियेगा। मैं तो ज़िन्दा लाश की तरह ही था, ट्रेन में बैठ गये। 10:30 की ट्रेन थी।
शाम 4:30 को मैं बोरीवली पहुँचा। फिर पूछते-पाछते कि भाई मुझे बान्द्रा स्टेशन जाना है, बान्द्रा वेस्ट जाना है। तो पूछते-पाछते हम मस्जिद तक पहुँचे। पूरा सन्नाटा था, बारिश अपने पूरे शबाब पर थी। तो तीन चार टैक्सी थीं, बाक़ी पूरा सुनसान सन्नाटा था। वहाँ जाकर, टैक्सियों में रफ़ी साहब के गाने बज रहे हैं, और बड़ा ग़मज़दा माहौल था। तो वो टैक्सी वाले बोले कि उस फ़रिश्ते को तो बहुत देर पहले ही ले गये हैं, अब तक तो मिट्टी भी दे दी होंगी! मैंने उनसे पूछा कि कहाँ ले गये उनको? बोले कि जुहु कब्रिस्तान। मैंने बोला कि आप ले चलेंगे हमको? तो उनके टैक्सी में बैठ कर जुहु कब्रिस्तान की तरफ़ चल पड़े। जैसे-जैसे करीब आता गया, वैसे-वैसे हज़ारों की तादाद में लोगों को आते हुए देखा। तो यह था ही कि साहब को दफ़ना दिया होगा। तो वहाँ पहुँचे तो ला-तादाद फ़िल्मी हस्तियाँ, ला-तादाद उनके चाहनेवाले, और वहाँ बैठे हुए, बारिश ज़बरदस्त हो रही है। और मैं तो एक ही जोड़ी कपड़े पहनकर निकल गया था अपने दोस्तों के साथ। इतना इतना पानी था, काफ़ी पानी जम गया था, जूते भी मेरे पानी में भीगे हुए थे, कब्रिस्तान में बहुत सारा पानी था, बारिश हो रही थी। हम लोग वहाँ गये तो देखता हूँ कि रफ़ी साहब का जनाज़ा रखा हुआ है और तैयारी हो रही है। और चारों तरफ़ से पुलिस वाले हाथ से हाथ बाँधे एक सर्कल बना लिया था, ताकि कोई बाहर वाला अन्दर न आ सके, क्योंकि भीड इतनी थी कि उनको हाथ लगाने के लिए लोग बेकाबू हुए जा रहे थे। उस घेरे के अन्दर कुछ ख़ास लोग ही थे - उनकी फ़ैमिली के थे, शाहिद थे, युसुफ़ साहब, और उस वक़्त जॉनी विस्की साहब थे, जुनियर महमूद साहब भी थे। तो उनके साथ मैं शोज़ कर चुका था पहले, गुजरात में। तो मैंने कोशिश की कि अब मौका मिला है तो अब मैं नहीं छोड़ूंगा चाहे मुझे कुछ भी हो जाये। तो मैं उस सर्कल को तोड़ कर साहब तक पहुँचने की कोशिश की तो मुझे धक्का मारा पुलिस वालों ने। एक बार गिरते गिरते सम्भल गया। फिर दोबारा कोशिश की। तीसरी बार मुझे डंडा मारा उन लोगों ने। उस वक़्त मेरी घड़ी की बैण्ड ऐसे खुल गई। उस वक़्त ड्राइंग का शौक था तो पेन ऐसे ही रखता था जेब में। तो ये सब शोर हो रहा था तो जॉनी विस्की साहब ने देखा कि पुलिस ने किसी को डंडा मारा। तो देखा कि अरे ये तो शब्बीर है, ये गुजरात से आया है। तो उन्होंने पुलिस वालों से कहा कि इनको आने दो अंदर। और जब मैं पहुँचा तो साहब का जनाज़ा उठा, उनकी डेड बॉडी उठाई और किसी फ़रिश्ते ने उनको कब्र में उतारते वक़्त उनके क़दमों को मेरे हाथ में दे दिया। मैंने उनके क़दमों को पकड़ा तो यह मेरी घड़ी जो है न, ये नीचे गई, पेन मेरा क़ब्र में गया, और कब्र में भी पानी था, और यह बस मेरी आख़िरी मुलाक़ात।
करोड़ों दिलों में धड़कन बन कर धड़कते रहे हैं वो, और धड़कते रहेंगे। तेरे आने की आस है दोस्त, शाम फिर क्यों उदास है दोस्त, महकी महकी फ़िज़ा यह कहती है, तू कहीं आसपास है दोस्त। मेरा तो जो भी क़दम है वो तेरी राहों में है, के तू कहीं भी रहे तू मेरी निगाह में है!!!"
कार्य्रक्रम : हमारे मेहमान
प्रसारण तिथि : 16 सितम्बर, 2009
"रमज़ान का सत्रहवाँ रोज़ा था, और मैं बस बैठा ही था घर में। तो हमारे एक पड़ोसी आये घर पे। वो अक्सर मुझसे हँसी मज़ाक किया करते थे, बड़े मज़ाहिया किस्म के इंसान हैं, अक्सर मज़ाक मस्ती चलती रहती थी। तो वो मेरे पास आये और बोले कि 'शब्बीर, बड़ा शॉकिंग् न्यूज़ है'। मैंने पूछा 'क्या?', तो बोले 'रफ़ी साहब नहीं रहे'। मैंने कहा, 'देखिये, आपकी मज़ाक बहुत होती है, इतना बेहुदा और इतना घटिया मज़ाक ज़िन्दगी में कभी मेरे साथ मत कीजियेगा'। बोले, 'शब्बीर, मैं जानता हूँ कि आप रफ़ी साहब को कितना चाहते हैं, आप मेरे यहाँ चलिये, रेडियो में सुन लीजिये'। यह सुन के मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया था, मैं ऐसा सोच भी नहीं सकता था, तो मैं उनके यहाँ गया तो बकायदा अनाउन्समेण्ट चल रही है रफ़ी साहब के बारे में, ज़िक्र हो रहे हैं और उनके गाने बज रहे हैं। फिर भी मुझे यकीन नहीं आ रहा है कि रफ़ी साहब नहीं रहे, और मैं बड़ा परेशान हो गया। वहाँ से मैं पडोस में हमारे एक थे, उनके यहाँ टेलीफ़ोन रहा करता था, उनके घर में मैं गया, उनके वहाँ से लोकल अख़्बार, जो बरोडा का है, 'लोकसत्ता', उसकी दीवाली का इश्यु जो है, उसकी कभी कभार मुझसे डिज़ाइन करवाया करते थे, तो वहाँ से मैंने 'लोकसत्ता' के कार्यालय में कॉल लगाई कि ऐसी ऐसी लोग बातें कर रहे हैं, तो क्या आज की हेडलाइन वही है, क्या निकल चुकी है अख़्बार? और मैं, यकीन करने को तैयार नहीं।
मेरी बहनें, उनकी ससुराल भी पास-पास में थी। वो भी भाग कर आ गईं कि आज भाई बहुत परेशान होंगे और कुछ दोस्त यार भी सुबह-सुबह मेरे यहाँ इकट्ठा हो गये हमारे घर पर। अब मेरी ज़हनी कैफ़ियत, न कुछ बोलते बन पड़ता था, न कुछ, मैं बिल्कुल शॉक्ड बैठा था। मेरी बहनों ने, भाइयों ने मिल कर पैसे इकट्ठे किये कि कैसे भी करके भाई को हम 'बाइ एअर' बम्बई भेज दें क्योंकि अख़्बार में लिखा था कि जुमे का रोज़ था, तो बान्द्रा जामा मस्जिद में जुमे के नमाज़ के बाद रफ़ी साहब का जनाज़ा वहाँ से ले जाया जायेगा। ज़्यादा वक़्त भी नहीं था। और मैं अगर ट्रेन से जाता हूँ तो मुझे ट्रेन मिली थी एक 'डीलक्स' जो यहाँ 4:30 - 5 बजे पहुँचती थी। तो मेरी बहनों ने पैसों की कलेक्शन की और मेरे दोस्तों को देकर कहा कि भाई को आज बाइ एअय भेज दीजिये। मैं तो बैठा हुआ था चुपचाप। उन लोगों ने एअरपोर्ट में कॉल लगाई, पता चला कि बम्बई की फ़्लाइट तो निकल गई है अभी 10 मिनट पहले। फिर वो आपस में तय कर रहे थे, मुझे तो होश था ही नहीं, तो क्या किया जाये, तो बोले कि 'आप डीलक्स से निकल जाइये'। मेरे दोस्तों ने कहा कि हम वक़्त से तो पहुँच नहीं पायेंगे, जनाज़े के, और रोज़े की नमाज़ें, तो बोले कि आप वहाँ पहुँच जाइये, वहाँ फ़ातिया पढ़ लीजियेगा। मैं तो ज़िन्दा लाश की तरह ही था, ट्रेन में बैठ गये। 10:30 की ट्रेन थी।
शाम 4:30 को मैं बोरीवली पहुँचा। फिर पूछते-पाछते कि भाई मुझे बान्द्रा स्टेशन जाना है, बान्द्रा वेस्ट जाना है। तो पूछते-पाछते हम मस्जिद तक पहुँचे। पूरा सन्नाटा था, बारिश अपने पूरे शबाब पर थी। तो तीन चार टैक्सी थीं, बाक़ी पूरा सुनसान सन्नाटा था। वहाँ जाकर, टैक्सियों में रफ़ी साहब के गाने बज रहे हैं, और बड़ा ग़मज़दा माहौल था। तो वो टैक्सी वाले बोले कि उस फ़रिश्ते को तो बहुत देर पहले ही ले गये हैं, अब तक तो मिट्टी भी दे दी होंगी! मैंने उनसे पूछा कि कहाँ ले गये उनको? बोले कि जुहु कब्रिस्तान। मैंने बोला कि आप ले चलेंगे हमको? तो उनके टैक्सी में बैठ कर जुहु कब्रिस्तान की तरफ़ चल पड़े। जैसे-जैसे करीब आता गया, वैसे-वैसे हज़ारों की तादाद में लोगों को आते हुए देखा। तो यह था ही कि साहब को दफ़ना दिया होगा। तो वहाँ पहुँचे तो ला-तादाद फ़िल्मी हस्तियाँ, ला-तादाद उनके चाहनेवाले, और वहाँ बैठे हुए, बारिश ज़बरदस्त हो रही है। और मैं तो एक ही जोड़ी कपड़े पहनकर निकल गया था अपने दोस्तों के साथ। इतना इतना पानी था, काफ़ी पानी जम गया था, जूते भी मेरे पानी में भीगे हुए थे, कब्रिस्तान में बहुत सारा पानी था, बारिश हो रही थी। हम लोग वहाँ गये तो देखता हूँ कि रफ़ी साहब का जनाज़ा रखा हुआ है और तैयारी हो रही है। और चारों तरफ़ से पुलिस वाले हाथ से हाथ बाँधे एक सर्कल बना लिया था, ताकि कोई बाहर वाला अन्दर न आ सके, क्योंकि भीड इतनी थी कि उनको हाथ लगाने के लिए लोग बेकाबू हुए जा रहे थे। उस घेरे के अन्दर कुछ ख़ास लोग ही थे - उनकी फ़ैमिली के थे, शाहिद थे, युसुफ़ साहब, और उस वक़्त जॉनी विस्की साहब थे, जुनियर महमूद साहब भी थे। तो उनके साथ मैं शोज़ कर चुका था पहले, गुजरात में। तो मैंने कोशिश की कि अब मौका मिला है तो अब मैं नहीं छोड़ूंगा चाहे मुझे कुछ भी हो जाये। तो मैं उस सर्कल को तोड़ कर साहब तक पहुँचने की कोशिश की तो मुझे धक्का मारा पुलिस वालों ने। एक बार गिरते गिरते सम्भल गया। फिर दोबारा कोशिश की। तीसरी बार मुझे डंडा मारा उन लोगों ने। उस वक़्त मेरी घड़ी की बैण्ड ऐसे खुल गई। उस वक़्त ड्राइंग का शौक था तो पेन ऐसे ही रखता था जेब में। तो ये सब शोर हो रहा था तो जॉनी विस्की साहब ने देखा कि पुलिस ने किसी को डंडा मारा। तो देखा कि अरे ये तो शब्बीर है, ये गुजरात से आया है। तो उन्होंने पुलिस वालों से कहा कि इनको आने दो अंदर। और जब मैं पहुँचा तो साहब का जनाज़ा उठा, उनकी डेड बॉडी उठाई और किसी फ़रिश्ते ने उनको कब्र में उतारते वक़्त उनके क़दमों को मेरे हाथ में दे दिया। मैंने उनके क़दमों को पकड़ा तो यह मेरी घड़ी जो है न, ये नीचे गई, पेन मेरा क़ब्र में गया, और कब्र में भी पानी था, और यह बस मेरी आख़िरी मुलाक़ात।
करोड़ों दिलों में धड़कन बन कर धड़कते रहे हैं वो, और धड़कते रहेंगे। तेरे आने की आस है दोस्त, शाम फिर क्यों उदास है दोस्त, महकी महकी फ़िज़ा यह कहती है, तू कहीं आसपास है दोस्त। मेरा तो जो भी क़दम है वो तेरी राहों में है, के तू कहीं भी रहे तू मेरी निगाह में है!!!"
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ज़रूरी सूचना:: उपर्युक्त लेख 'विविध भारती' के कार्यक्रम का अंश है। इसके सभी अधिकार 'विविध भारती' के पास सुरक्षित हैं। किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा इस प्रस्तुति का इस्तमाल व्यावसायिक रूप में करना कॉपीराइट कानून के ख़िलाफ़ होगा, जिसके लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ज़िम्मेदार नहीं होगा।
तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
Comments
सुजॉय चटर्जी
Aur haan chandrakant dixit ji ke "cine-paheli" santwana puraskaar awedan mein mujhe bhi sammilit kar ligiye, mera address change ho gaya hai, updated address aap ko august ke end mein send kar dunga.
Shukriya