स्मृतियों के स्वर - 05
हिन्दी सिनेमा के पहले दौर के कुछ कलाकारों की स्मृतियों के स्वर
सूत्र: विविध भारती
अलग-अलग कार्यक्रमों से संकलित
जैसा कि आप जानते हैं भारत की पहली बोलती फ़िल्म थी 'आलम आरा'। निर्माता-निर्देशक अर्देशिर इरानी की कंपनी 'इम्पीरियल मूवीटोन' द्वारा बनाई गई फ़िल्म 'आलम आरा' 14 मार्च 1931 को मुम्बई की 'मजेस्टिक सिनेमा' में प्रदर्शित हुई थी। और इसी फ़िल्म से शुरू हुआ था फ़िल्म संगीत का सफ़र जो आज तक बदस्तूर जारी है। फ़िल्म 'आलम आरा' में वज़ीर मोहम्मद ख़ान का गाया गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे" उस ज़माने में बेहद मशहूर हुआ था। इसके बाद प्रदर्शित हुई कोलकाता की फ़िल्म कम्पनी 'मदन थिएटर्स' की फ़िल्म 'शिरीं फ़रहाद'। इस दूसरी बोलती फ़िल्म के नायक थे मास्टर निसार, जो सायलेन्ट फ़िल्मों के दौर में ही सुपरस्टार का दर्जा हासिल कर चुके थे। आप को यह जानकर ताज्जुब होगा कि मास्टर निसार की आवाज़ भी 'विविध भारती' में मौजूद है। तो आइए पढ़ें 'विविध भारती' के साथ मास्टर निसार के बातचीत का यह अंश।
मास्टर निसार:
"1931, तो हमारे मालिक जो थे, कलकत्ते के, मदन थिएटर्स, मदन थिएटर्स लिमिटेड, तो उन्होंने, मैं नाटक में काम करता था, उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि कल तुम स्टुडियो चले जाना। मैंने पूछा 'क्यों साहब?' बोले, 'चले जाना तुम'। तो जहांगीर जी, उनके लड़के थे, वो डिरेक्शन करते थे, मुझसे कहने लगे कि 'शिरीं फ़रहाद', हम यह टॉकी बनाना चाहते हैं, उसमें एक सीन लेना चाहते हैं। तो आग़ा साहब से कहो कि कुछ डायलोग्स लिख दें। आग़ा हश्र साहब से, मैंने जाकर उनसे कहा तो आग़ा साहब कहने लगे कि 'एक सीन का क्या मतलब होता है? पूरा शिरीं फ़रहाद उनसे कहो क्यों नहीं उतारते?' मैंने जाकर उनसे कह दिया। तो बोले कि 'अच्छा, आग़ा साहब से जाकर कहो कि वो लिखें'। तो आग़ा साहब लिखने लगे, और 1931 की बात है, जब 'शिरीं फ़रहाद' नाम से फ़िल्म शुरू हुआ।"
कोलकाता की 'न्यू थिएटर्स कंपनी' द्वारा निर्मित अधिकांश फ़िल्मों का आधार मुख्य रूप से बांगला उपन्यास और कहानियाँ होते थे। बी. एन. सरकार द्वारा स्थापित इस कम्पनी ने उस ज़माने में रायचन्द बोराल, पंकज मल्लिक, तिमिर बरन, के. एल. सहगल, के. सी. डे, केदार शर्मा और कानन देवी जैसे दिग्गज काम करते थे। मधुर संगीत 'न्यू थिएटर्स' के फ़िल्मों की खासियत थी। कालान्तर में यही बातें कही रायचन्द बोराल, यानी आर. सी. बोराल ने इन शब्दों में कही।
रायचन्द बोराल:
"मैं लगभग 40 बरसों से फ़िल्म इंडस्ट्री में हूँ। मतलब न्यू थिएटर्स के जनम से ही फ़िल्म संगीत की सेवा करता हूँ। आज मैं उन बीते हुए समय की झलक दिखाऊँ? हो सकता है ये फ़िल्में आप ने न देखी हों, उन फ़िल्मों के कलाकारों को भी आप ने न देखा हो, मगर नाम ज़रूर सुना होगा। यह बात है 40 साल पहले की, फ़िल्म 'धूप छाँव' का संगीत निर्देशन मैंने किया और गायक कलाकार थे के. सी. डे।"
उस ज़माने में पार्श्वगायन, यानी प्लेबैक शुरू नहीं हुआ था, और अभिनेताओं को कैमरे के सामने ख़ुद गाना पड़ता था। प्लेबैक का ख़याल सबसे पहले 'न्यू थिएटर्स' में सन 1935 में बनी फ़िल्म 'धूप छाँव' के दौरान संगीतकार पंकज मल्लिक के मन में कौंधा था। पंकज मल्लिक के ही शब्दों में-
पंकज मल्लिक:
"बोलती फ़िल्मों के भारत में चालू होने के दो साल पहले ही मैं फ़िल्मी दुनिया में आ चुका था। यानी सन 1928 में। उस समय मूक फ़िल्में दिखाई जाती थी। उसके साथ जिस संगीत की रचना के बजने का रिवाज़ था, उस संगीत की रचना मैं किया करता था। उसके बाद जब बोलती फ़िल्में आयीं, कलकत्ते में, तो मुझे ही संगीत निर्देशक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब तो आकाशवाणी नहीं था, इसका नाम था 'इण्डियन ब्रॉडकास्टिंग् कॉर्पोरेशन'। मेरे आने के करीब 6 महीने पहले शायद यह कम्पनी चालू हुई थी। मैंने रेडियो पर जो पहला गाना गाया था, वह गीत कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक रचना थी।
'न्यू थिएटर्स' से सम्बन्धित एक और नाम था तिमिर बरन का, जिन्होंने 1935 की फ़िल्म 'देवदास' में संगीत दिया था।
तिमिर बरन:
"आज इस कार्यक्रम के ज़रिये आप लोगों से बातचीत करने का मुझे जो मौका मिला है, उसके लिए मैं अपने आप को धन्य समझता हूँ। जब कि मैंने भी कई फ़िल्मों की धुनें बनाई थी और संगीत निर्देशक रह चुका हूँ, अब भी फ़िल्मों से जुड़ा हुआ हूँ और संगीत निर्देशन का कार्य जारी है। मुझे गीतों के बोलों से साज़-ओ-संगीत से ज़्यादा प्रेम है क्योंकि मैं ख़ुद एक सरोद-वादक हूँ।"
सन् 1934 में 'बॉम्बे टॉकीज़' अस्तित्व में आया जिसकी नीव इंगलैण्ड से आये हिमांशु राय और देविका रानी ने एक पब्लिक लिमिटेड कम्पनी के तौर पर रखी थी। शंकर मुखर्जी, कवि प्रदीप और अशोक कुमार ने अपने करियर की शुरुआत 'बॉम्बे टॉकीज़' की फ़िल्मों से ही की थी। विविध भारती के ‘जयमाला’ कार्यक्रम में दादामुनि अशोक कुमार ने फ़िल्मों के उस शुरुआती दौर को याद करते हुए कुछ इस तरह से कहा था-
अशोक कुमार:
“दरसल जब मैं फ़िल्मों में आया था, सन् 1934-35 के आसपास, उस समय गायक-अभिनेता सहगल ज़िंदा थे। उन्होंने फ़िल्मी गानों को एक शकल दी और मेरा ख़याल है उन्ही की वजह से फ़िल्मों में गानों को एक महत्वपूर्ण जगह मिली। आज उन्हीं की बुनियाद पर यहाँ की फ़िल्में बनाई जाती हैं, यानि ‘बॉक्स ऑफ़िस सक्सेस’ के लिए गानों को सब से ऊँची जगह दी जाती है। मेरे वक़्त में प्लेबैक तकनीक की तैयारियाँ हो ही रही थीं। तलत, रफ़ी, मुकेश फ़िल्मी दुनिया में आए नहीं थे, लता तो पैदा भी नहीं हुई होगी। अभिनेताओं को गाना पड़ता था चाहे उनके गले में सुर हो या नहीं। इसलिए ज़्यादातर गाने सीधे सीधे और सरल बंदिश में बनाये जाते थे ताकि हम जैसे गाने वाले आसानी से गा सके।”
सन् 1936 में अस्तित्व में आई सोहराब मोदी की कम्पनी 'मिनर्वा मूवीटोन'। इस बैनर के तले बनी 1939 की फ़िल्म 'पुकार' की आशातीत सफलता ने देखते ही देखते सोहराब मोदी को उस ज़माने के अग्रणी निर्माता निदेशकों की कतार में ला खड़ा किया।
सोहराब मोदी:
"ऐ निगेहबान-ए-वतन, ऐ मर्द मैदान-ए-वतन, तेरे दम से है बहारों पर गुलिस्तान-ए-वतन। तुझ पे जान-ओ-दिल फ़िदा, हस्ती फ़िदा, मस्ती फ़िदा, तुझपे बेक़स ग़ुलामों की यह कुल बस्ती फ़िदा। आज तेरी अर्ज़मंदी को पहुँच सकता है कौन, तेरी रूहानी बुलन्दी को पहुँच सकता है कौन, वीरों के लिए तो वाक़ई जब से होश संभाला, तब से ही अपने दिल-ओ-दिमाग़ में सबसे ऊँचा मक़ाम पाया, लेकिन तवारिख जैसे सबजेक्ट में बचपन में मुझे कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। मैं सिसिल बी. डे मिले की अंग्रेज़ी फ़िल्में बहुत देखा करता था, और उनसे मुतासिर होकर अपने देश की तवारिख पर गौर करने लगा। उस वक़्त मुझे ख़्याल आया कि हमारे देश को ऐसी फ़िल्मों की बहुत ज़रूरत है, अपने देश की जनता को जगाने के लिए, देश के बच्चों को देश की महानता का ज्ञान कराने के लिए यही एक ज़रूरी काम था ताकि वो अपनी तवारिख से अनजान न बने रहे। दूसरी बात यह कि तवारिख फ़िल्म का कैनवस जितना बड़ा सोशल फ़िल्मों का नहीं। मैं हमेशा बड़े कैनवस की तस्वीरों को खींचने का कायल रहा हूँ। यह वजह भी मुझे इस ओर ज़्यादा खींचती रही। तीसरी वजह यह कि हर कलाकार अपनी कला को पनपने के लिए अधिक से अधिक स्कोप चाहता है जो मेरे ख़याल से ऐसी फ़िल्मों में ही मिल सकता था। इसकी पहली वजह तो यह है कि हर कलाकार की अपनी एक रुचि होती है। मेरी रुचि इसी तरह के पात्रों में थी।"
अलग-अलग कार्यक्रमों से संकलित
जैसा कि आप जानते हैं भारत की पहली बोलती फ़िल्म थी 'आलम आरा'। निर्माता-निर्देशक अर्देशिर इरानी की कंपनी 'इम्पीरियल मूवीटोन' द्वारा बनाई गई फ़िल्म 'आलम आरा' 14 मार्च 1931 को मुम्बई की 'मजेस्टिक सिनेमा' में प्रदर्शित हुई थी। और इसी फ़िल्म से शुरू हुआ था फ़िल्म संगीत का सफ़र जो आज तक बदस्तूर जारी है। फ़िल्म 'आलम आरा' में वज़ीर मोहम्मद ख़ान का गाया गीत "दे दे ख़ुदा के नाम पर प्यारे" उस ज़माने में बेहद मशहूर हुआ था। इसके बाद प्रदर्शित हुई कोलकाता की फ़िल्म कम्पनी 'मदन थिएटर्स' की फ़िल्म 'शिरीं फ़रहाद'। इस दूसरी बोलती फ़िल्म के नायक थे मास्टर निसार, जो सायलेन्ट फ़िल्मों के दौर में ही सुपरस्टार का दर्जा हासिल कर चुके थे। आप को यह जानकर ताज्जुब होगा कि मास्टर निसार की आवाज़ भी 'विविध भारती' में मौजूद है। तो आइए पढ़ें 'विविध भारती' के साथ मास्टर निसार के बातचीत का यह अंश।
मास्टर निसार:
"1931, तो हमारे मालिक जो थे, कलकत्ते के, मदन थिएटर्स, मदन थिएटर्स लिमिटेड, तो उन्होंने, मैं नाटक में काम करता था, उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि कल तुम स्टुडियो चले जाना। मैंने पूछा 'क्यों साहब?' बोले, 'चले जाना तुम'। तो जहांगीर जी, उनके लड़के थे, वो डिरेक्शन करते थे, मुझसे कहने लगे कि 'शिरीं फ़रहाद', हम यह टॉकी बनाना चाहते हैं, उसमें एक सीन लेना चाहते हैं। तो आग़ा साहब से कहो कि कुछ डायलोग्स लिख दें। आग़ा हश्र साहब से, मैंने जाकर उनसे कहा तो आग़ा साहब कहने लगे कि 'एक सीन का क्या मतलब होता है? पूरा शिरीं फ़रहाद उनसे कहो क्यों नहीं उतारते?' मैंने जाकर उनसे कह दिया। तो बोले कि 'अच्छा, आग़ा साहब से जाकर कहो कि वो लिखें'। तो आग़ा साहब लिखने लगे, और 1931 की बात है, जब 'शिरीं फ़रहाद' नाम से फ़िल्म शुरू हुआ।"
कोलकाता की 'न्यू थिएटर्स कंपनी' द्वारा निर्मित अधिकांश फ़िल्मों का आधार मुख्य रूप से बांगला उपन्यास और कहानियाँ होते थे। बी. एन. सरकार द्वारा स्थापित इस कम्पनी ने उस ज़माने में रायचन्द बोराल, पंकज मल्लिक, तिमिर बरन, के. एल. सहगल, के. सी. डे, केदार शर्मा और कानन देवी जैसे दिग्गज काम करते थे। मधुर संगीत 'न्यू थिएटर्स' के फ़िल्मों की खासियत थी। कालान्तर में यही बातें कही रायचन्द बोराल, यानी आर. सी. बोराल ने इन शब्दों में कही।
रायचन्द बोराल:
"मैं लगभग 40 बरसों से फ़िल्म इंडस्ट्री में हूँ। मतलब न्यू थिएटर्स के जनम से ही फ़िल्म संगीत की सेवा करता हूँ। आज मैं उन बीते हुए समय की झलक दिखाऊँ? हो सकता है ये फ़िल्में आप ने न देखी हों, उन फ़िल्मों के कलाकारों को भी आप ने न देखा हो, मगर नाम ज़रूर सुना होगा। यह बात है 40 साल पहले की, फ़िल्म 'धूप छाँव' का संगीत निर्देशन मैंने किया और गायक कलाकार थे के. सी. डे।"
उस ज़माने में पार्श्वगायन, यानी प्लेबैक शुरू नहीं हुआ था, और अभिनेताओं को कैमरे के सामने ख़ुद गाना पड़ता था। प्लेबैक का ख़याल सबसे पहले 'न्यू थिएटर्स' में सन 1935 में बनी फ़िल्म 'धूप छाँव' के दौरान संगीतकार पंकज मल्लिक के मन में कौंधा था। पंकज मल्लिक के ही शब्दों में-
पंकज मल्लिक:
"बोलती फ़िल्मों के भारत में चालू होने के दो साल पहले ही मैं फ़िल्मी दुनिया में आ चुका था। यानी सन 1928 में। उस समय मूक फ़िल्में दिखाई जाती थी। उसके साथ जिस संगीत की रचना के बजने का रिवाज़ था, उस संगीत की रचना मैं किया करता था। उसके बाद जब बोलती फ़िल्में आयीं, कलकत्ते में, तो मुझे ही संगीत निर्देशक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। तब तो आकाशवाणी नहीं था, इसका नाम था 'इण्डियन ब्रॉडकास्टिंग् कॉर्पोरेशन'। मेरे आने के करीब 6 महीने पहले शायद यह कम्पनी चालू हुई थी। मैंने रेडियो पर जो पहला गाना गाया था, वह गीत कविगुरु रबीन्द्रनाथ ठाकुर की एक रचना थी।
'न्यू थिएटर्स' से सम्बन्धित एक और नाम था तिमिर बरन का, जिन्होंने 1935 की फ़िल्म 'देवदास' में संगीत दिया था।
तिमिर बरन:
"आज इस कार्यक्रम के ज़रिये आप लोगों से बातचीत करने का मुझे जो मौका मिला है, उसके लिए मैं अपने आप को धन्य समझता हूँ। जब कि मैंने भी कई फ़िल्मों की धुनें बनाई थी और संगीत निर्देशक रह चुका हूँ, अब भी फ़िल्मों से जुड़ा हुआ हूँ और संगीत निर्देशन का कार्य जारी है। मुझे गीतों के बोलों से साज़-ओ-संगीत से ज़्यादा प्रेम है क्योंकि मैं ख़ुद एक सरोद-वादक हूँ।"
सन् 1934 में 'बॉम्बे टॉकीज़' अस्तित्व में आया जिसकी नीव इंगलैण्ड से आये हिमांशु राय और देविका रानी ने एक पब्लिक लिमिटेड कम्पनी के तौर पर रखी थी। शंकर मुखर्जी, कवि प्रदीप और अशोक कुमार ने अपने करियर की शुरुआत 'बॉम्बे टॉकीज़' की फ़िल्मों से ही की थी। विविध भारती के ‘जयमाला’ कार्यक्रम में दादामुनि अशोक कुमार ने फ़िल्मों के उस शुरुआती दौर को याद करते हुए कुछ इस तरह से कहा था-
अशोक कुमार:
“दरसल जब मैं फ़िल्मों में आया था, सन् 1934-35 के आसपास, उस समय गायक-अभिनेता सहगल ज़िंदा थे। उन्होंने फ़िल्मी गानों को एक शकल दी और मेरा ख़याल है उन्ही की वजह से फ़िल्मों में गानों को एक महत्वपूर्ण जगह मिली। आज उन्हीं की बुनियाद पर यहाँ की फ़िल्में बनाई जाती हैं, यानि ‘बॉक्स ऑफ़िस सक्सेस’ के लिए गानों को सब से ऊँची जगह दी जाती है। मेरे वक़्त में प्लेबैक तकनीक की तैयारियाँ हो ही रही थीं। तलत, रफ़ी, मुकेश फ़िल्मी दुनिया में आए नहीं थे, लता तो पैदा भी नहीं हुई होगी। अभिनेताओं को गाना पड़ता था चाहे उनके गले में सुर हो या नहीं। इसलिए ज़्यादातर गाने सीधे सीधे और सरल बंदिश में बनाये जाते थे ताकि हम जैसे गाने वाले आसानी से गा सके।”
सन् 1936 में अस्तित्व में आई सोहराब मोदी की कम्पनी 'मिनर्वा मूवीटोन'। इस बैनर के तले बनी 1939 की फ़िल्म 'पुकार' की आशातीत सफलता ने देखते ही देखते सोहराब मोदी को उस ज़माने के अग्रणी निर्माता निदेशकों की कतार में ला खड़ा किया।
सोहराब मोदी:
"ऐ निगेहबान-ए-वतन, ऐ मर्द मैदान-ए-वतन, तेरे दम से है बहारों पर गुलिस्तान-ए-वतन। तुझ पे जान-ओ-दिल फ़िदा, हस्ती फ़िदा, मस्ती फ़िदा, तुझपे बेक़स ग़ुलामों की यह कुल बस्ती फ़िदा। आज तेरी अर्ज़मंदी को पहुँच सकता है कौन, तेरी रूहानी बुलन्दी को पहुँच सकता है कौन, वीरों के लिए तो वाक़ई जब से होश संभाला, तब से ही अपने दिल-ओ-दिमाग़ में सबसे ऊँचा मक़ाम पाया, लेकिन तवारिख जैसे सबजेक्ट में बचपन में मुझे कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी। मैं सिसिल बी. डे मिले की अंग्रेज़ी फ़िल्में बहुत देखा करता था, और उनसे मुतासिर होकर अपने देश की तवारिख पर गौर करने लगा। उस वक़्त मुझे ख़्याल आया कि हमारे देश को ऐसी फ़िल्मों की बहुत ज़रूरत है, अपने देश की जनता को जगाने के लिए, देश के बच्चों को देश की महानता का ज्ञान कराने के लिए यही एक ज़रूरी काम था ताकि वो अपनी तवारिख से अनजान न बने रहे। दूसरी बात यह कि तवारिख फ़िल्म का कैनवस जितना बड़ा सोशल फ़िल्मों का नहीं। मैं हमेशा बड़े कैनवस की तस्वीरों को खींचने का कायल रहा हूँ। यह वजह भी मुझे इस ओर ज़्यादा खींचती रही। तीसरी वजह यह कि हर कलाकार अपनी कला को पनपने के लिए अधिक से अधिक स्कोप चाहता है जो मेरे ख़याल से ऐसी फ़िल्मों में ही मिल सकता था। इसकी पहली वजह तो यह है कि हर कलाकार की अपनी एक रुचि होती है। मेरी रुचि इसी तरह के पात्रों में थी।"
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ज़रूरी सूचना:: उपर्युक्त लेख 'विविध भारती' के कार्यक्रम का अंश है। इसके सभी अधिकार 'विविध भारती' के पास सुरक्षित हैं। किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा इस प्रस्तुति का इस्तेमाल व्यावसायिक रूप में करना कॉपीराइट कानून के ख़िलाफ़ होगा, जिसके लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ज़िम्मेदार नहीं होगा।
तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।
प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी
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