सिने पहेली – 85                                   "होगा मसीहा सामने तेरे, फिर भी न तू बच पायेगा, तेरा अपना ख़ून ही आख़िर तुझको आग लगायेगा, आसमान में उड़ने वाले मिट्टी में मिल जायेंगे....", कल टेलीविज़न पर मन्ना दा के अन्तिम सफ़र को देखते समय उन्ही के गाये फ़िल्म 'उपकार' के इस गीत के इन बोलों में इस नश्वर संसार के कटु सत्य को एक बार फिर से महसूस कर जैसे मन काँप सा उठा। मन्ना दा चले गये.... हमेशा के लिए.... बहुत बहुत दूर। और हमसे कह गये "जीवन कहीं भी ठहरता नहीं है, आँधी से तूफ़ाँ से डरता नहीं है, तू न चलेगा तो चल देंगी राहें, मइल को तरसेंगी तेरी निगाहें, तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा..."। मन्ना दा भी निरन्तर अपने जीवन पथ पर चलते रहे, बिना रुके, और करते रहे साधना, सुरों की।    संगीत की वादियों में गूंजती अनगिनत आवाज़ों में इस सुर-साधक की आवाज़ सबसे अलग है। इनके स्वर कभी नभ से विराटता रचते हैं, और कभी सागर की गहराई का अहसास कराते हैं। वो चाहे रुमानीयत हो, वीर रस के ओजपूर्ण गीत हो, हास्य की गुदगुदाहट हो, या फिर अपने आराध्य को अर्पित भक्ति की स्वरांजलि, इस ...