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सूफी संगीत की समृद्ध परंपरा

सू फी संगीत पर हमारी श्रृंखला की चौथी और अंतिम कड़ी लेकर आज हम हाज़िर हैं. आशा है संज्ञा टंडन द्वारा प्रस्तुत इस श्रृंखला का आपने भरपूर आनंद लिया होगा. अगर कोई कड़ी आपसे छूट गयी हों तो आप निम्न लिंक्स पर जाकर सुन सकते हैं. सूफी संगीत ०१   सूफी संगीत ०२ सूफी संगीत ०३  और अब सुनें ये अंतिम कड़ी. हमें आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा.  

सूफी संतों के सदके में बिछा सूफी संगीत (सूफी संगीत ०३)

सूफी संगीत पर विशेष प्रस्तुति संज्ञा टंडन के साथ  सू फी संतों की साधना में चार मकाम बहुत महत्वपूर्ण माने जाते हैं- शरीअत ,  तरी-कत ,  मारि-फत तथा हकीकत। शरीयत में सदाचरण  ,  कुरान शरीफ का पाठ ,  पांचों वक्त की नमाज ,  अवराद यानी मुख्य आयतों का नियमित पाठ ,  अल्लाह का नाम लेना ,  जिक्रे जली अर्थात बोलकर या जिक्रे शफी यानी मुंह बंद करके अल्लाह का नाम लिया जाता है। उस मालिक का ध्यान किया जाता है। उसी का प्रेम से नाम लिया जाता है। मुराकवा में नामोच्चार के साथ-साथ अल्लाह का ध्यान तथा मुजाहिदा में योग की भांति चित्त की वृत्तियों का निरोध किया जाता है। पांचों ज्ञानेन्दियों के लोप का अभ्यास इसी में किया जाता है। इस शरीअत के बाद पीरो मुरशद अपने मुरीद को अपनाते हैं  ,  उसे रास्ता दिखाते हैं। इसके बाद शुरू होती है तरी-कत। इस में संसार की बातों से ऊपर उठकर अहम् को तोड़ने  ,  छोड़ने का अभ्यास किया जाता है। अपनी इद्रियों को वश में रखने के लिए शांत रहते हुए एकांतवास में व्रत उपवास किया जाता है। तब जाकर मारिफत की पायदान पर आने का मौका मिलता है। इस परम स्थिति में आने के लिए भी सात मकाम तय

इस ईद "जिक्र" उस परवरदिगार का सूफी संगीत में

प्लेबैक इंडिया ब्रोडकास्ट  सूफी संगीत भाग २  कहा जाता है कि सूफ़ीवाद ईराक़ के बसरा नगर में क़रीब एक हज़ार साल पहले जन्मा. भारत में इसके पहुंचने की सही सही समयावधि के बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ग़रीबनवाज़ ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती बाक़ायदा सूफ़ीवाद के प्रचार-प्रसार में रत थे. (पूरी पोस्ट यहाँ पढ़ सकते हैं)

आत्मा को परमात्मा से जोड़ता सूफी संगीत (सूफी -एपिसोड ०१)

प्लेबैक इंडिया ब्रोडकास्ट  सूफी संगीत यानी, स्वरलहरियों पर तैरकर जाना और ईश्वर रुपी समुंदर में विलीन हो जाना, सूफी संगीत यानी, "मै" का खो जाना और "तू" हो जाना, सदियों से रूह को सकून देते, सूफी संगीत पर हमारी विशेष प्रस्तुति का पहला भाग सुनिए संज्ञा टंडन के साथ. उम्मीद है हमारे संगीत प्रेमियों के लिए ये पोडकास्ट एक अनमोल तोहफा साबित होगा.  यदि प्लयेर पर सुनने में असुविधा हो तो यहाँ से डाउनलोड करें. 

है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में, खुदा वही है.. कविता सेठ ने सूफ़ियाना कलाम की रंगत हीं बदल दी है

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०५ इ ससे पहले कि हम आज की महफ़िल की शुरूआत करें, मैं अश्विनी जी (अश्विनी कुमार रॉय) का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा। आपने हमें पूरी की पूरी नज़्म समझा दी। नज़्म समझकर हीं यह पता चला कि "और" कितना दर्द छुपा है "छल्ला" में जो हम भाषा न जानने के कारण महसूस नहीं कर पा रहे थे। आभार प्रकट करने के साथ-साथ हम आपसे दरख्वास्त करना चाहेंगे कि महफ़िल को अपना समझें और नियमित हो जाएँ यानि कि ग़ज़ल और शेर लेकर महफ़िल की शामों (एवं सुबहों) को रौशन करने आ जाएँ। आपसे हमें और भी बहुत कुछ सीखना है, जानना है, इसलिए उम्मीद है कि आप हमारी अपील पर गौर करेंगे। धन्यवाद! आज हम अपनी महफ़िल को उस गायिका की नज़र करने वाले हैं, जो यूँ तो अपनी सूफ़ियाना गायकी के लिए मक़बूल है, लेकिन लोगों ने उन्हें तब जाना, तब पहचाना जब उनका "इकतारा" सिद्दार्थ (सिड) को जगाने के लिए फिल्मी गानों के गलियारे में गूंज उठा। एकबारगी "इकतारा" क्या बजा, फिल्मी गानों और "पुरस्कारों" का रूख हीं मुड़ गया इनकी ओर। २००९ का ऐसा कौन-सा पुरस्कार है, ऐसा कौन-सा सम्मान है, जो इन्हें न मिल

दिल यार यार करता है- संगीत सत्र की सूफी-पेशकश

Season 3 of new Music, Song # 07 हिन्द-युग्म हिन्दी का पहला ऐसा ऑनलाइन मंच हैं जहाँ इंटरनेटीय जुगलबंदी से संगीत-निर्माण की शुरूआत हुई। इन दिनों हिन्द-युग्म संगीतबद्ध गीतों के तीसरे संत्र 'आवाज़ महोत्सव 2010' चला रहा है, जिसके अंतर्गत 4 अप्रैल 2010 से प्रत्येक शुक्रवार हम एक नया गीत रीलिज कर रहे हैं। हिन्द-युग्म के आदिसंगीतकार ऋषि एस हर बार कुछ नया करने में विश्वास रखते हैं। आज जो गीत हम रीलिज कर रहे हैं, उसमें ऋषि के संगीत का बिलकुल नया रूप उभरकर आया है। साथ में हैं हिन्द-युग्म से पहली बार जुड रहे गायक रमेश चेल्लामणि। गीत के बोल - तेरी चाहत में जीता है, तेरी चाहत में मरता है, तेरी सोहबत को तरसता है तेरी कुर्बत को तड़पता है, कैसा दीवाना है.... ये दिल यार यार करता है, ये दिल यार यार करता है... लौट के आजा सोहणे सजन, तुझ बिन सूना, ये मन आँगन, साँसों के तार टूटे है, धड़कन की ताल मध्यम है, कहीं देर न हो जाए, ये दिल यार यार करता है, ये दिल यार यार करता है... आँखों से छलका है ग़म, सीने में अटका है दम, सब देखे कर के जतन, होता ही नहीं दर्द कम, इतना भी तो न कर सितम इतना भी न बन बे रहम, क

"अमन की आशा" है संगीत का माधुर्य, होली पर झूमिए इन सूफी धुनों पर

ताज़ा सुर ताल ०९/२०१० सुजॊय - सभी पाठकों को होली पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएँ और सजीव, आप को भी! सजीव - मेरी तरफ़ से भी 'आवाज़' के सभी रसिकों को होली की शुभकामनाएँ और सुजॊय, तुम्हे भी। सुजॊय - होली का त्योहार रंगों का त्योहार है, ख़ुशियों का त्योहार है, भाइचारे का त्योहार है। गिले शिकवे भूलकर दुश्मन भी गले मिल जाते हैं, चारों तरफ़ ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है। सजीव - सुजॊय, तुमने भाइचारे की बात की, तो मैं समझता हूँ कि यह भाइचारा केवल अपने सगे संबंधियों और आस-पड़ोस तक ही सीमित ना रख कर, अगर हम इसे एक अंतर्राष्ट्रीय रूप दें, तो यह पूरी की पूरी पृथ्वी ही स्वर्ग का रूप ले सकती है। सुजॊय - जी बिल्कुल! आज कल जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय उग्रवाद बढ़ता जा रहा है, विनाश और दहशत के बादल इस पूरी धरा पर मंदला रहे हैं। ऐसे में अगर कोई संस्था अगर अमन और शांति का दूत बन कर, और सीमाओं को लांघ कर दो देशों को और ज़्यादा क़रीब लाने का प्रयास करें, तो हमें खुले दिल से उसकी स्वागत करनी चाहिए। सजीव - हाँ, और ऐसी ही दो संस्थाओं ने मिल कर अभी हाल में एक परियोजना बनाई है भारत और पाक़िस्तान के रिश्तों को

बुल्ला की जाणां मैं कौन ? - बुल्ले शाह पर विशेष प्रस्तुति

बुल्ला की जाणां मैं कौन ? सवाल जो ज़ेहन को भी सोचने के लिए मजबूर कर दें कि ज़ेहन तू कौन है? कैसा दंभ? कौन सी चतुराई? किसकी अक्ल? जो बुल्ला खुद कहता है मैं की जाना मैं कौन उसके बारे में रत्ती भर भी जान सकें या समझ सकें ये दावा करना भी बुल्ले की सोच से दगा करने जैसा है। अगर बुल्ले का इतिहास लिखूं तो कहना होगा, बुल्ला सैय्यद था, उच्च जाति मुलसमान, मोहम्मद साहब का वंशज, पर खुद बुल्ला कहता है - न मैं मोमन विच मसीतां, ना मैं विच कुफर दियां रीतां तो कैसे कहूं कि वो मोमिन (मुसलमान) था। बुल्ला तो अल्हा की माशूक था, जो अपने नाराज़ मुरशद को मनाने पैरों में घुंघरू बांध कर गलियों में कंजरी (वैश्य) की तरह नाचती फिरती है, गाती फिरती है, कंजरी बनेया मेरी इज्जत घटदी नाहीं मैंनू नच के यार मनावण दे बुल्ला की जाणां - (रब्बी शेरगिल) बुल्ले के जन्म के बारे में इतिहासकार एक राय नहीं है, बुल्ले को इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता। कहते हैं मीर अब्दुला शाह कादरी शतारी का जन्म 1680 इसवी में बहावलपुर सिंध के गांव उच गैलानीयां में शाह मुहमंद दरवेश के घर हुआ, जो मुसलमानों में मानी जाती ऊंची जाति सैय्यद थे। वह मसजिदों

सांसों की माला में सिमरूं मैं पी का नाम...बाबा नुसरत फ़तेह अली ख़ां की आवाज़ में एक दुर्लभ कम्पोज़ीशन

अपनी आकृति पए ध्यान मत दो, चाहे वह कैसी भी सुन्दर हो या बदसूरत प्रेम पर ध्यान दो और उस लक्ष्य पर जहां तुम्हें पहुंचना है ... अरे तुम! जिसके होंठ पपड़ा गए हैं, तुम जो लगातार खोज रहे हो पानी को प्यास से पपड़ाए तुम्हारे होंठ सबूत हैं इस बात का कि बिल आख़ीर तुम पानी के सोते तक पहुंच ही जाओगे यह कविता सबसे बड़े सूफ़ी कवि जलालुद्दीन रूमी की है. युद्ध, बाज़ारवाद, पैसे, उपनिवेशवाद और इन सबसे उपजे आतंकवाद से लगातार रूबरू अमरीकी समाज के बारे में एक नवीनतम तथ्य रूमी से जुड़ा हुआ है. वाल्ट व्हिटमैन और एमिली डिकिन्सन जैसे दिग्गज अमरीकी कवियों के संग्रह पिछले कई दशकों से बेस्टसैलर्स की सूची में सबसे ऊपर रहा करते थे. वर्ष २००६ और सात में इस स्थान पर रूमी काबिज़ हैं. आम अमरीकी जनता की पसन्द में आया यह बदलाव यह एक ऐसी प्रतिक्रिया है जो बार बार इस बात को अन्डरलाइन करती जाती है कि सूफ़ी काव्य और संगीत इतनी सदियों बाद आज भी प्रासंगिक है और अपनी सार्वभौमिकता में एक स्पन्दन छिपाए हुए है जो मुल्कों, सरहदों, मजहबों, भाषाओं और संवेदनाओं से बहुत आगे की चीज़ है. सूफ़ी दरवेश उस सर्वव्याप्त सर्वशक्तिमान प्रेम के ग

ख़ुसरो निज़ाम से बात जो लागी

भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित सूफ़ी संगीत की विधाओं में सबसे लोकप्रिय है क़व्वाली. इस विधा के जनक के रूप में पिछली कड़ी में अमीर ख़ुसरो का ज़िक़्र भर हुआ था. उत्तर प्रदेश के एटा जिले के पटियाली गांव में १२५३ में जन्मे अमीर खुसरो का असली नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद था. कविता और संगीत के क्षेत्र में असाधारण उपलब्धियां अपने नाम कर चुके अमीर खुसरो को तत्कालीन खिलजी बादशाह जलालुद्दीन फ़ीरोज़ खिलजी ने को तूती-ए-हिन्द का ख़िताब अता फ़रमाया था. 'अमीर' का बहुत सम्मानित माना जाने वाला ख़िताब भी उन्हें खिलजी बादशाह ने ही दिया था. भीषणतम बदलावों, युद्धों और धार्मिक संकीर्णता का दंश झेल रहे तेरहवीं-चौदहवीं सदी के भारतीय समाज की मूलभूत सांस्कृतिक एकता को बचाए रखने और फैलाए जाने का महत्वपूर्ण कार्य करने में अमीर खुसरो ने साहित्य और संगीत को अपना माध्यम बनाया. तब तक भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद अपनी जड़ें जमा चुका था और उसे इस विविधतापूर्ण इलाक़े के हिसाब से ढाले जाने के लिये जिस एक महाप्रतिभा की दरकार थी, वह अमीर ख़ुसरो के रूप में इस धरती पर आई. सूफ़ीवाद के मूल सिद्धान्त ने अमीर खुसरो को भी गहरे छ

सूफ़ी संगीत: भाग दो - नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब की दिव्य आवाज़

कहा जाता है कि सूफ़ीवाद ईराक़ के बसरा नगर में क़रीब एक हज़ार साल पहले जन्मा. भारत में इसके पहुंचने की सही सही समयावधि के बारे में आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में ग़रीबनवाज़ ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती बाक़ायदा सूफ़ीवाद के प्रचार-प्रसार में रत थे. चिश्तिया समुदाय के संस्थापक ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती अजमेर शरीफ़ में क़याम करते थे. उनकी मज़ार अब भारत में सूफ़ीवाद और सूफ़ी संगीत का सबसे बड़ा आस्ताना बन चुकी है. महान सूफ़ी गायक मरहूम बाबा नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने अपने वालिद के इन्तकाल के बाद हुए परामानवीय अनुभवों को अपने एक साक्षात्कार में याद करते हुए कहा था कि उन्हें बार-बार किसी जगह का ख़्वाब आया करता था. उन दिनों उनके वालिद फ़तेह अली ख़ान साहब का चालीसवां भी नहीं हुआ था. इस बाबत उन्होंने अपने चाचा से बात की. उनके चाचा ने उन्हें बताया कि असल में उन्हें ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह दिखाई पड़ती है. पिता के चालीसवें के तुरन्त बाद वे अजमेर आए और ग़रीबनवाज़ के दर पर मत्था टेका. यह नुसरत के नुसरत बन चुकने से बहुत पहले की बात है. उसके बाद नुसरत ने सूफ़

झूमो रे, दरवेश...( भाग १ ), सूफी संगीत परम्परा पर एक विशेष श्रृंखला, अशोक पाण्डे की कलम से

सूफी संगीत यानी, स्वरलहरियों पर तैरकर जाना और ईश्वर रुपी समुंदर में विलीन हो जाना, सूफी संगीत यानी, "मै" का खो जाना और "तू" हो जाना, सदियों से रूह को सकून देते, सूफी संगीत पर "आवाज़" के संगीत विशेषज्ञ, और वरिष्ट ब्लॉगर, अशोक पाण्डे लेकर आए हैं, एक विशेष श्रृंखला, जिसका हर अंक हमें यकीं है, हमारे संगीत प्रेमियों के लिए, एक अनमोल धरोहर साबित होगा. प्रस्तुत है, इस श्रृंखला की पहली कड़ी आज, अशोक पाण्डे की कलम से..... सूफ़ीवाद के प्रवर्तकों में अग्रणी गिने जाने वाले तेरहवीं सदी के महान फ़ारसी कवि जलालुद्दीन रूमी एक जगह लिखते हैं: " मैंने चुपचाप आहें भरीं ताकि आने वाली कई सदियों तक दुनिया में मेरी 'हाय' प्रतिध्वनित होती रहे " विशेषज्ञों ने सूफ़ीवाद को परिभाषित करते हुए उसे एक ऐसा विज्ञान बताया है जिसका उद्देश्य हृदय का परिष्कार करते हुए उसे ईश्वर के अलावा हर दूसरी चीज़ से विरत करना होता है. एक दूसरी परिभाषा के अनुसार सूफ़ीवाद वह विज्ञान है जिसके माध्यम से हम सीख सकते हैं कि किस तरह ईश्वर की उपस्थिति में जीवन बिताते हुए अपने आन्तरिक व्यक्तित्व की अशुद