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फिल्मी चक्र समीर गोस्वामी के साथ || एपिसोड 08 || मजरूह सुल्तानपुरी

Filmy Chakra With Sameer Goswami  Episode 08 Majrooh Sultanpuri फ़िल्मी चक्र कार्यक्रम में आप सुनते हैं मशहूर फिल्म और संगीत से जुडी शख्सियतों के जीवन और फ़िल्मी सफ़र से जुडी दिलचस्प कहानियां समीर गोस्वामी के साथ, लीजिये आज इस कार्यक्रम के आठवें एपिसोड में सुनिए कहानी शब्दों के जादूगर मजरूह सुल्तानपुरी की...प्ले पर क्लिक करें और सुनें.... / फिल्मी चक्र में सुनिए इन महान कलाकारों के सफ़र की कहानियां भी - किशोर कुमार शैलेन्द्र  संजीव कुमार  आनंद बक्षी सलिल चौधरी  नूतन  हृषिकेश मुख़र्जी 

चलो झूमते सर पे बाँधे कफ़न...जब मजरूह साहब ने जगाई खून में गर्मी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 723/2011/163 स्व तन्त्रता दिवस की 64वीं वर्षगाँठ के अवसर पर श्रृंखला ‘वतन के तराने’ कीतीसरी कड़ी में आपका हार्दिक स्वागत है। कल की कड़ी में हमने आपसे भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की अप्रतिम वीरांगना झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई के प्रेरक जीवन-प्रसंग के कुछ अंश को रेखांकित किया था। आज हम आपसे उसके आगे के प्रसंगों की चर्चा करेंगे। झाँसी के महाराज गंगाघर राव से विवाह हो जाने के बाद मनु अब झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई बन कर महलों में आ गईं। विवाह के समय मनु की आयु 14 वर्ष और महाराज की आयु लगभग 50 वर्ष थी। वास्तव में इस बेमेल विवाह की जिम्मेदार तत्कालीन परिस्थितियाँ थी, जिन्हें अंग्रेजों ने ही उत्पन्न किया था। देशी राजाओं के राज्यों को हड़पने के लिए अंग्रेजों ने एक कानून बना दिया था कि जिन राजाओं की अपनी सन्तान नहीं होगी, उस राज्य को राजा के निधन के बाद अंग्रेजों की सत्ता के अधीन कर लिया जाएगा। उस समय झाँसी को विदेशी सत्ता के अधीन होने से बचाने के लिए महाराज गंगाधर राव को अपने एक उत्तराधिकारी की आवश्यकता थी। इसीलिए इस बेमेल विवाह को हर पक्ष से मौन स्वीकृति मिली। दूसरी ओर

"बैयाँ ना धरो.." श्रृंगार का ऐसा रूप जिसमें बाँह पकड़ने की मनाही भी है और आग्रह भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 696/2011/136 श्रृं खला "रस के भरे तोरे नैन" के तीसरे और समापन सप्ताह के प्रवेश द्वार पर खड़ा मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीतानुरागियों का अभिनन्दन करता हूँ| पिछले तीन सप्ताह की 15 कड़ियों में हमने आपको बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक से लेकर सातवें दशक तक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों का रसास्वादन कराया है| श्रृंखला के इस समापन सप्ताह की कड़ियों में हम आठवें दशक की फिल्मों से चुनी हुई ठुमरियाँ लेकर उपस्थित हुए हैं| श्रृंखला के पिछले अंकों में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक भारतीय संगीत शैलियों को समुचित राजाश्रय न मिलने और तवायफों के कोठों पर फलने-फूलने के कारण सुसंस्कृत समाज में यह उपेक्षित रहा| ऐसे कठिन समय में भारतीय संगीत के दो उद्धारकों ने जन्म लिया| आम आदमी को संगीत सुलभ कराने और इसे समाज में प्रतिष्ठित स्थान दिलाने में पं. विष्णु नारायण भातखंडे (1860) तथा पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर (1872) ने पूरा जीवन समर्पित कर दिया| इन दोनों 'विष्णु' को भारतीय संगीत का उद्धारक मानने में कोई मतभेद नहीं| भातखंडे जी ने पूरे देश

"नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर.." - ठुमरी जब लोक-रंग में रँगी हो

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 686/2011/126 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के दूसरे सप्ताह में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ| पिछले अंकों में हमने आपके साथ "ठुमरी" के प्रारम्भिक दौर की जानकारी बाँटी थी| यह भी चर्चा हुई थी कि उस दौर में "ठुमरी" कथक नृत्य का एक हिस्सा बन गई थी| परन्तु एक समय ऐसा भी आया जब "ठुमरी" की विकास-यात्रा में थोड़ा व्यवधान भी आया| इस शैली के पृष्ठ-पोषक नवाब वाजिद अली शाह को 1856 में अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण बन्दी बना लिया गया| नवाब को बन्दी बना कर कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर भेज दिया गया| नवाब यहाँ पर मृत्यु-पर्यन्त (1887) तक स्थायी रूप से रहे| नवाब वाजिद अली शाह के लखनऊ छूटने से पहले तक "ठुमरी" की जड़ें जमीन को पकड़ चुकी थीं| इस दौर में केवल संगीतज्ञ ही नहीं बल्कि शासक, दरबारी, सामन्त, शायर, कवि आदि सभी "ठुमरी" की रचना, गायन और उसके भावाभिनय में प्रवृत्त हो गए थे| वाजिद अली शाह के रिश्ते

कुछ दिन पहले एक ताल में....क्लास्सिक कहानी कहने के अंदाज़ में लिखा मजरूह ने इस गीत को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 675/2011/115 क हानी भरे गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इन दिनो चल रही लघु शृंखला 'एक था गुल और एक थी बुलबुल' में अब तक जिन "कहानीकारों" को हम शामिल कर चुके हैं, वो हैं किदार शर्मा, मुंशी अज़ीज़, क़मर जलालाबादी और हसरत जयपुरी। और इन कहानियों को हमें सुनाया सहगल, शांता आप्टे, सुरैया और लता मंगेशकर नें। आज इस लड़ी में एक और कड़ी को जोड़ते हुए सुनवा रहे हैं मजरूह सुल्तानपुरी की लिखी कहानी आशा भोसले के स्वर में। नर्गिस पर फ़िल्माया यह गीत है १९५८ की फ़िल्म 'लाजवंती' का। मजरूह साहब नें शुद्ध हिंदी के शब्दों का प्रयोग करते हुए इस कहानी रूपी गीत को लिखा है और दादा बर्मन का लाजवाब संगीत है इस गीत में। फ़िल्म का एक और कहानीनुमा गीत " चंदा मामा, मेरे द्वार आना " आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहले सुन चुके हैं। जैसा कि पिछले अंकों में हमनें बताया था कि फ़िल्मों में अक्सर नायिका अपने जीवन की दुखभरी कहानी को ही किसी बच्चे को लोरी-गीत के रूप में सुनाती है, इस गीत का भाव भी कुछ हद तक वैसा ही है। कहानी है एक बतख के जोड़े की और उनके

रूठ के हमसे कभी जब चले जाओगे तुम....हर किसी के जीवन को कभी न कभी छुआ होगा मजरूह के इस गीत ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 670/2011/110 "मे रे पीछे ये तो मोहाल है कि ज़माना गर्म-ए-सफ़र न हो, कि नहीं मेरा कोई नक़्श-ए-पाँव जो चिराग़-ए-राह-गुज़र न हो", मजरूह साहब के लेखनी की विविधता ऐसी है कि आने वाली तमाम पीढ़ियाँ उनके लेखनी से प्रभावित होती रहेंगी। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों का जो कारवाँ चला जा रहा था, वह कारवाँ आज की कड़ी में जाकर कुछ समय के लिये पड़ाव डाल रहा है। '...और कारवाँ बनता गया' शृंखला की आज है दसवीं और अंतिम कड़ी। १९४६ में 'शाहजहाँ' से जो कारवाँ चल पड़ा था, वह आकर रुका था १९९९ में फ़िल्म 'जानम समझा करो' पे आकर। राहुल देव बर्मन वाले अंक में हमनें ज़िक्र किया था उन फ़िल्मों का जिनमें नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़ी का संगम था। पंचम को अलग रखें तो नासिर साहब के साथ मजरूह साहब नें पंचम के आने से पहले 'फिर वही दिल लाया हूँ' तथा पंचम के बाद आनंद-मिलिंद के साथ 'क़यामत से क़यामत तक', जतीन-ललित के साथ 'जो जीता वही सिकंदर' और अनु मलिक के साथ 'अकेले हम अकेले

आओ मनाये जश्ने मोहब्बत, जाम उठाये गीतकार मजरूह साहब के नाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 669/2011/109 म जरूह सुल्तानपुरी एक ऐसे गीतकार रहे हैं जिनका करीयर ४० के दशक में शुरु हो कर ९० के दशक के अंत तक निरंतर चलता रहा और हर दशक में उन्होंने अपना लोहा मनवाया। कल हमनें १९७३ की फ़िल्म 'अभिमान' का गीत सुना था। आज भी इसी दशक में विचरण करते हुए हमनें जिस संगीतकार की रचना चुनी है, वो हैं राजेश रोशन। वैसे तो राजेश रोशन के पिता रोशन के साथ भी मजरूह साहब नें अच्छा काम किया, फ़िल्म 'ममता' का संगीत उसका मिसाल है; लेकिन क्योंकि हमें १०-कड़ियों की इस छोटी सी शृंखला में अलग अलग दौर के संगीतकारों को शामिल करना था, इसलिए रोशन साहब को हम शामिल नहीं कर सके, लेकिन इस कमी को हमन उनके बेटे राजेश रोशन को शामिल कर पूरा कर रहे हैं। एक बड़ा ही लाजवाब गीत हमनें सुना है मजरूह-राजेश कम्बिनेशन का, १९७७ की फ़िल्म 'दूसरा आदमी' से। "आओ मनायें जश्न-ए-मोहब्बत जाम उठायें जाम के बाद, शाम से पहले कौन ये सोचे क्या होना है शाम के बाद"। हज़ारों गीतों के रचैता मजरूह सुल्तानपुरी के फ़न की जितनी तारीफ़ की जाये कम है। ज़िक्र चाहे दोस्त के दोस्ती की हो या फिर महब

तेरी बिंदिया रे....शब्द और सुरों का सुन्दर मिलन है ये गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 668/2011/108 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों जारी है मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया'। इसके तहत हम दस अलग अलग संगीतकारों द्वारा स्वरबद्ध मजरूह साहब के लिखे गीत सुनवा रहे हैं जो बने हैं अलग अलग दौर में। ४०, ५० और ६० के बाद आज हम क़दम रख रहे हैं ७० के दशक में। ५० के दशक में नौशाद, अनिल बिस्वास, ओ.पी. नय्यर, मदन मोहन, के अलावा एक और नाम है जिनका उल्लेख किये बग़ैर यह शृंखला अधूरी ही रह जायेगी। और वह नाम है सचिन देव बर्मन का। अब आप सोच रहे होंगे कि ५० के दशक के संगीतकारों के साथ हमनें उन्हें क्यों नहीं शामिल किया। दरअसल बात ऐसी है कि हम बर्मन दादा द्वारा स्वरबद्ध जिस गीत को सुनवाना चाहते हैं, वह गीत है ७० के दशक का। इससे पहले कि हम इस गीत का ज़िक्र करें, हम वापस ४०-५० के दशक में जाना चाहेंगे। मेरा मतलब है मजरूह साहब के कहे कुछ शब्द जिनका ताल्लुख़ उस ज़माने से है। विविध भारती के किसी कार्यक्रम में उन्होंने ये शब्द कहे थे - " १९४५ से १९५२ के दरमियाँ की बात है। उस समय मैंने तरक्की-पसंद अशार की शुरुआत की थी। मेरे उम्र

क्या जानूँ सजन होती है क्या गम की शाम....जब जल उठे हों मजरूह के गीतों के दिए तो गम कैसा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 667/2011/107 फ़ि ल्म-संगीत इतिहास के सुप्रसिद्ध गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की सातवीं कड़ी में एक ऐसे संगीतकार की रचना लेकर आज हम उपस्थित हुए हैं जिस संगीतकार के साथ भी मजरूह साहब नें एक सफल और बहुत लम्बी पारी खेली है। आप हैं राहुल देव बर्मन। इन दोनों के साथ की बात बताने से पहले यह बताना ज़रूरी है कि इस जोड़ी को मिलवाने में फ़िल्मकार नासिर हुसैन की मुख्य भूमिका रही है। वैसे कहीं कहीं यह भी सुनने/पढ़ने में आता है कि मजरूह साहब नें पंचम की मुलाक़ात नासिर साहब से करवाई। उधर ऐसा भी कहा जाता है कि साहिर लुधियानवी नें नासिर साहब की आलोचना की थी उनकी व्यावसायिक फ़िल्में बनाने के अंदाज़ की। नासिर साहब नाराज़ होकर साहिर साहब से यह कह कर मुंह मोड़ लिया कि साहिर साहब चाहते हैं कि हर निर्देशक गुरु दत्त बनें। नासिर हुसैन को अपना स्टाइल पसंद था, जिसमें वो कामयाब भी थे, तो फिर किसी और फ़िल्मकार के नक्श-ए-क़दम पर क्यों चलना! और इस तरह से मजरूह बन गये नासिर हुसैन की पहली पसंद और उन्होंने मजरूह साहब से

मुझे दर्दे दिल क पता न था....मजरूह साहब की शिकायत रफ़ी साहब की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 666/2011/106 "म जरूह साहब का ताल्लुख़ अदब से है। वो ऐसे शायर हैं जो फ़िल्म इंडस्ट्री में आकर मशहूर नहीं हुए, बल्कि वो उससे पहले ही अपनी तारीफ़ करवा चुके थे। उन्होंने बहुत ज़्यादा गानें लिखे हैं, जिनमें कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे भी हैं। आदमी के देहान्त के बाद उसकी अच्छाइयों के बारे में ही कहना चाहिए। वो एक बहुत अच्छे ग़ज़लगो थे। वो आज हम सब से इतनी दूर जा चुके हैं कि उनकी अच्छाइयों के साथ साथ उनकी बुराइयाँ भी हमें अज़ीज़ है। आर. डी. बर्मन साहब की लफ़्ज़ों में मजरूह साहब का ट्युन पे लिखने का अभ्यास बहुत ज़्यादा था। मजरूह साहब नें बेशुमार गानें लिखे हैं जिस वजह से साहित्य और अदब में कुछ ज़्यादा नहीं कर पाये। उन्हें जब दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया, तब उन्होंने यह कहा था कि अगर यह पुरस्कार उन्हें साहित्य के लिये मिलता तो उसकी अहमियत बहुत ज़्यादा होती। "उन्होंने कुछ ऐसे गानें लिखे हैं जिन्हें कोई पढ़ा लिखा आदमी, भाषा के अच्छे ज्ञान के साथ ही, हमारे कम्पोज़िट कल्चर के लिये लिख सकता है।" - निदा फ़ाज़ली। ६० के दशक का पहला गीत इस शृंखला का हमनें कल

मेरा तो जो भी कदम है.....इतना भावपूर्ण है ये गीत कि सुनकर किसी की भी ऑंखें नम हो जाए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103 '...औ र कारवाँ बनता गया'... मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों का कारवाँ इन दिनों चल रहा है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में। पिछली चार कड़ियों में हमनें ४० और ५० के दशकों से चुन कर चार गानें हमनें आपको सुनवाये, आज क़दम रखेंगे ६० के दशक में। साल १९६४ में एक फ़िल्म आयी थी 'दोस्ती' जिसनें न केवल मजरूह को उनका एकमात्र फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलवाया, बल्कि संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल को भी उनका पहला फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिलवाया था। वैसे विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला में प्यारेलाल जी नें स्वीकार किया था कि इस पुरस्कार को पाने के लिये उन्होंने बहुत सारे फ़िल्मफ़ेयर मैगज़ीन की प्रतियाँ ख़रीद कर उनमें प्रकाशित नामांकन फ़ॉर्म में ख़ुद ही अपने लिये वोट कर ख़ुद को जितवाया था। पंकज राग नें भी इस बारे में अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में लिखा था - "फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों पर शंकर-जयकिशन के कुछ जायज़ और कुछ नाजायज़ तरीके के वर्चस्व को उनसे बढ़कर नाजायज़ी से तोड़ना और 'संगम' को पछाड़ कर 'दोस्ती' के

जा जा जा रे बेवफा...मजरूह साहब ने इस गीत के जरिये दर्शाये जीवन के मुक्तलिफ़ रूप

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103 '...औ र कारवाँ बनता गया', गीतकार व शायर मजरूह सुल्तानपुरी को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला की चौथी कड़ी में आप सभी का एक बार फिर से स्वागत है। मजरूह साहब पर एक किताब प्रकाशित हुई है जिसे उनके दो चाहनेवालों नें लिखे हैं। ये दो शख़्स हैं अमेरीका निवासी भारतीय मूल के बैदर बख़्त और उनकी अमरीकी सहयोगी मारीएन एर्की। इन दो मजरूह प्रशंसकों नें उनकी ग़ज़लों को संकलित कर एक किताब के रूप में प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'Never Mind Your Chains'। यह शीर्षक मजरूह साहब के ही लिखे एक शेर से आया है - "देख ज़िदान के परे, रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार, रक्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख"। अर्थात् चमन खिला हुआ है पिंजरे के ठीक उस पार, अगर नाच उठना है तो फिर पांव की बेड़ियों की तरफ़ न देख, never mind your chains। थोड़ा और क़रीब से देखा जाये तो उनकी यह ख़ूबसूरत ग़ज़ल उनके करीयर पर भी लागू होती है। उनका कभी न रुकने, कभी न हार स्वीकारने की अदा, लाख पाबंदियों के बावजूद उन्हें न रोक सकी, और आज उन्होंने एक अमर शायर व गीतकार के

हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे....संगीत प्रेमी ढूँढेगें मजरूह साहब को वो जहाँ भी होंगें

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 663/2011/103 द स अलग अलग संगीतकारों के लिये मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीतों की इस लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की तीसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज है २४ मई। आज ही के दिन साल २००० में मजरूह साहब इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिये छोड़ गये थे। नीमोनिआ का दौरा पड़ने पर मजरूह साहब को १६ मई २००० को मुंबई के लीलावती हस्पताल में भर्ती करवाया गया था और वहीं पर उन्होंने अपनी अंतिम सांसें ली। आज मजरूह साहब को गये १२ वर्ष, याने एक युग बीत चुका है, लेकिन जब भी मई का यह महीना आता है, और ख़ास कर आज के दिन, बार बार उनका लिखा और मदन मोहन का स्वरबद्ध किया वही गीत याद आता है कि "हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे, बहारें हमको ढूंढ़ेंगी न जाने हम कहाँ होंगे"। लेखक राजीव विजयकर नें बहुत ही अच्छी तरह से मजरूह साहब की शख्सियत को बयान किया था अपने एक लेख में, जिसमें उन्होंने लिखा था कि मजरूह साहब एक सिक्के की तरह है जिसके दोनों पहलुओं की एक समान ज़रूरत होती है। अगर आप इस सिक्के से टॉस भी अगर करें तो चित हो या पुट, दोनों में ही आपकी जीत निश्चित

छेड़ी मौत नें शहनाई, आजा आनेवाले....लिखा मजरूह साहब ने ये गीत अनिल दा के लिए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 662/2011/102 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार व उर्दू के जानेमाने शायर मजरूह सुल्तानपुरी पर केन्द्रित लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया' की दूसरी कड़ी में आप सब का हार्दिक स्वागत है। मजरूह सुल्तानपुरी का असली नाम था असरार उल हसन ख़ान, और उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर नामक स्थान पर १९१९ या १९२० में हुआ था। कहीं कहीं पे १९२२ भी कहा गया है। 'लिस्नर्स बुलेटिन' में उनकी जन्म तारीख़ १ अक्तुबर १९१९ दी गई है। उनके पिता एक पुलिस सब-इन्स्पेक्टर थे। पिता का आय इतना नहीं था कि अपने बेटे को अंग्रेज़ी स्कूल में दाख़िल करवा पाते। इसलिए मजरूह को अरबी और फ़ारसी में सात साल 'दर्स-ए-निज़ामी' की तालीम मिली, और उसके बाद आलिम की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद मजरूह नें लखनऊ के तकमील-उत-तिब कॉलेज में यूनानी चिकित्सा की तालीम ली। इसमें उन्होंने पारदर्शिता हासिल की और एक नामचीन हकीम के रूप में नाम कमाया। सुल्तानपुर में मुशायरे में भाग लेते समय वो एक स्थापित हकीम भी थे। लेकिन लोगों नें उनकी शायरी को इतना पसंद किया

जब उसने गेसु बिखराये...एक अदबी शायर जो दशक दर दशक रचता गया फ़िल्मी गीतों का कारवाँ भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 661/2011/101 "वो तो है अलबेला, हज़ारों में अकेला"। फ़िल्म 'कभी हाँ कभी ना" के गीत के ये शब्द ख़ुद उन पर भी लागू होते हैं जिन्होंने इसे लिखा है। १९४६ से लेकर अगले पाँच दशकों तक एक से एक कामयाब, लाजवाब, सदाबहार गीत देने वाले इस फ़िल्मी गीतकार का शुमार अदबी शायरों में भी होता है। और केवल लेखन ही नहीं, हकीम शास्त्र में भी पारंगत इस लाजवाब शख़्स को हम सब जानते हैं मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से। आगामी २४ मई को मजरूह साहब की पुण्यतिथि के उपलक्ष्य पर आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है उनके लिखे दस अलग अलग संगीतकारों की स्वरबद्ध फ़िल्मी रचनाओं पर आधारित हमारी नई लघु शृंखला '...और कारवाँ बनता गया'। १९४५ में साबू सिद्दिक़ी इंस्टिट्युट में आयोजित एक मुशायरे में भाग लेने के लिये मजरूह साहब बम्बई तशरीफ़ लाये थे। वहाँ उनकी ग़ज़लों और नज़्मों का श्रोताओं पर गहरा असर हुआ और इन श्रोताओं में फ़िल्मकार ए. आर. कारदार भी शामिल थे। कारदार साहब नें फिर जिगर मोरादाबादी को सम्पर्क किया जिन्होंने उनकी मुलाक़ात मजरूह से करवा दी। लेकिन मजरूह साहब नें फ़िल्मों के लिय