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संगीतकार जयदेव को याद करते हुए कुछ गायक और संगीतकार



स्मृतियों के स्वर - 03

जयदेव को याद करते हुए कुछ गायक और संगीतकार



रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, एक ज़माना था जब घर बैठे प्राप्त होने वाले मनोरंजन का एकमात्र साधन रेडियो हुआ करता था। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ बहुत से कार्यक्रम ऐसे हुआ करते थे जिनमें कलाकारों से साक्षात्कार करवाये जाते थे और जिनके ज़रिये फ़िल्म और संगीत जगत के इन हस्तियों की ज़िन्दगी से जुड़ी बहुत सी बातें जानने को मिलती थी। गुज़रे ज़माने के इन अमर फ़नकारों की आवाज़ें आज केवल आकाशवाणी और दूरदर्शन के संग्रहालय में ही सुरक्षित हैं। मैं ख़ुशक़िस्मत हूँ कि शौकीया तौर पर मैंने पिछले बीस वर्षों में बहुत से ऐसे कार्यक्रमों को लिपिबद्ध कर अपने पास एक ख़ज़ाने के रूप में समेट रखा है। 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' पर, महीने के हर दूसरे और चौथे शनिवार को इसी ख़ज़ाने में से मैं निकाल लाता हूँ कुछ अनमोल मोतियाँ हमारे इस स्तंभ में, जिसका शीर्षक है - स्मृतियों के स्वर, जिसमें हम और आप साथ मिल कर गुज़रते हैं स्मृतियों के इन हसीन गलियारों से। तो आइये आज इसकी तीसरी कड़ी में जानें सुप्रसिद्ध संगीतकार जयदेव के बारे में उन्हीं के दोस्त व संगीतकार बृजभूषण तथा उनके द्वारा अवसर पाने वाले कुछ पार्श्वगायकों से।


संगीतकार जयदेव

संगीतकार बृजभूषण ने जयदेव को बहुत करीब से जाना है। वो न केवल जयदेव जी के अच्छे दोस्त हैं, बल्कि वो उनके गुरुभाई भी हैं।

बृजभूषण:

पंडित अमरनाथ के सबसे बड़े जो उनके शिष्य हैं, वो हम दोनों पर महरबान थे, इस तरह से मैं और जयदेव गुरुभाई थे। मैं जब बम्बई में नया-नया आया, अकेला भी था, मैं एक होटल में ठहरा हुआ था। जब जयदेव को इस बात का पता चला तो मुझ पर बहुत गुस्सा हुए और कहा कि चलो मेरे घर। मुझे उनको बहुत करीब से देखने का मौका मिला है। फ़ोक, क्लासिकल और भक्ति संगीत पर उन्हें ज़बरदस्त दखल हासिल था। उन्होंने अनेक अच्छे लोगों को सुना है, कॉनफ़रेन्सेस में भी गये। उनके संगीत की विशेषता है कि एक लूप-सिस्टम मिलता है उनके गानों में, जैसे कि "मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया"। हर मेलडी में उनका एक सिग्नेचर रहता था, हर गीत में अपना अलग छाप छोड़ देते थे। वो एस. डी. बर्मन के सहायक थे। चेतन आनन्द ने उन्हें 'किनारे किनारे' और 'अंजलि' में संगीत देने का मौका दिया। बहुत ज़माने के बाद उन पर नज़र पड़ी। ऐसी बहुत सी धुनें हैं जिन्हें जयदेव ने बनाये पर एस. डी. बर्मन के नाम से गए। Inspite of S D Burman's influence on him, जब देव आनन्द ने उन्हें चान्स दिया 'हम दोनो' में, वो अपना अलग स्टाइल लेकर आये। स्लो हो या फ़ास्ट, हर गाने में एक इण्डियन कलर और मेलडी रहता था, that were rich in Hindustani flavour. वो बहुत ही सीधे सादे आदमी थे, कोई दिखावा या शो-ऑफ़ नहीं था, कभी चीप हरकतें नहीं की, कुर्ता-पजामा पहनते थे। उनका कोई भी रिश्तेदार नहीं था, अकेले रहते थे। लेकिन दोस्त इतने ज़्यादा थे कि हमेशा उनके घर में ताँता लगा रहता था, स्ट्रगलर्स बैठे रहते थे। ख़य्याम साहब से भी उनकी दोस्ती हो गई। दोनो ने मिल कर, यानी कि जयदेव वर्मा और ख़य्याम ने मिल कर एक फ़िल्म में संगीत भी दिया था 'शर्मा जी वर्मा जी' के नाम से। आख़िर के दिनों में वो बहुत परेशान थे अपने हाउस ओनर की वजह से, but Government of Maharashtra was kind enough to provide him a place, पर ज़्यादा दिनों तक वो इसका आनन्द नहीं उठा सके।



फ़िल्म 'गमन' में जयदेव ने उभरती गायिका छाया गांगुली को मौका दिया पहली बार फ़िल्म में गाने का और "आपकी याद आती रही रात भर" गा कर छाया गांगुली को मिला उस साल का 'Best Female Playback Singer' का Filmfare Award.

छाया गांगुली:

इससे पहले मुझे ग़ज़ल गाने का कोई तजुर्बा नहीं था। इस अवार्ड से मुझे प्रोत्साहन मिला और अच्छे से अच्छा गाने का। यह उन्हीं की मेहनत और कोशिश का परिणाम है। उसी साल 1979 को 'गमन' के लिए 'Best Music Director' का भी अवार्ड उन्हें मिला। मैंने कभी सोचा नहीं था कि एक दिन मैं फ़िल्म में गायूंगी क्योंकि उस तरह से कभी सोचा नहीं था। वो बहुत ही उदार, जेण्टल और सॉफ़्ट-स्पोकेन थे। नये कलाकारों का हौसला बढ़ाते थे। उन्हें साहित्य, संगीत और कविता से बहुत लगाव था। गीत की एक पंक्ति को लेकर सिंगर से अलग-अलग तरह से उसे गवाते थे। उनके पास जाने से ऐसा लगता है कि नर्वस हो जाऊंगी। उनका घर मेरे ऑफ़िस के नज़दीक ही था। आकाशवाणी में काम करती थी। तो उनका जब बुलावा आया तो पहले दिन तो मैं गई भी नहीं। फिर दूसरे दिन उनके ऐसिस्टैण्ट प्यारेलाल जी बुलाने आये थे। तब मैं गई। वो सामने वाले से इस तरह बात करते थे that he will make you feel very much at ease. उनके संगीत में भारतीय संगीत की मेलडी भी है, साथ ही मांड की लोकशैली भी झलकती है। कहीं न कहीं उनके गीतों में भक्ति रस भी मिल जाता है। मेरा एक ऐल्बम निकला था 'भक्ति सुधा' के नाम से जिसमें उनके भजन थे। उच्चारण सीखने के लिए वो मुझे पंडित नरेन्द्र शर्मा के पास ले गये। उन्हें साहित्य का ज्ञान था, पर फिर भी वो मुझे पंडित जी के पास ले गये ताकि मुझे उनसे सीखने का मौका मिले। उनसे बहुत कुछ सीखने का मुझे मौका मिला।



गायक हरिहरण की आज एक अलग पहचान है, एक अलग मुकाम हासिल कर चुके हैं। पर उनकी प्रतिभा को पहली बार पहचान कर जयदेव ने ही फ़िल्म संगीत में उन्हें पहला ब्रेक दिया था।

हरिहरण:

जयदेव जी का मेरे जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। वो मेरे friend, philosopher and guide थे। 1977 में पहली बार मैं उनसे मिला एक कम्पीटिशन में जिसमें वो जज बने थे। वहाँ से मैं उन्हें जानता हूँ। He has treated me as a son. उनका पर्सोनलिटी एक था, वही delicacy and sensitivity जो उनके गीतों में हमें मिलता है, वैसे ही वो आदमी थे, बहुत ही अच्छे और नरम-दिल। मैंने उनके साथ तीन-चार साल काम किया। गाना सीखना, रेकॉर्डिंग्स पर जाना, उन्हें ऐसिस्ट करना, रिहर्सल्स कण्डक्ट करवाना। उन्होंने ही मुझे लाइफ़ की फिलोसोफ़ी सिखायी कि what is life about? He was a magnanimous human-being, बिल्कुल फ़कीर थे। न कुछ लेना न कुछ देना, बस अपने काम से काम रखते थे, लोगों से प्यार करना, संगीत से प्यार करना, बस! 'गमन' में गवाने से पहले उन्होंने मुझसे कहा कि हरि, तुम अच्छा गा लेते हो, रिहर्सल्स करो, तुम हो मद्रासी, अभी उर्दू सीखो। मैं भी चाँद बाला, अभी गुज़र गईं हैं वो, उनसे मैं उर्दू सीखने लगा। जयदेव जी से टाइमली ऐडवाइस मिलने से मुझे सही दिशा मिली। मुज़फ़्फ़र अली ने जब 'गमन' बनाया तो उन्होंने नये नये सिंगर्स को चान्स दिया। उस समय नये लोगों को चान्स मिलना बहुत मुश्किल था क्योंकि बड़े-बड़े सिंगर्स मौजूद थे। इस फ़िल्म में मेरा गीत था "अजीब सानिहा मुझ पर गुज़र गया यारों"। मैंने उनसे पूछा कि यह 'सानिहा' का क्या मतलब है? उन्होंने कहा कि सानिहा मतलब हादसा। मुझे पहले गीत में ही उर्दू में गाने का मौका मिला, यह पूरा उर्दू ही था। मेरी मम्मी आयी थीं रेकॉर्डिंग्‍ पर, फ़िर्स्ट टेक ही ओ.के हो गया। जयदेव जी बहुत ख़ुश हुए। इस गीत के लिए एक-दोन दिन रियाज़ करवाया था। यह अच्छी बात है, इससे गाना याद हो जाता है जिससे इफ़ेक्ट अच्छा होता था, वरना गाने को अपनाने में वक़्त लगता है, रियाज़ करने से अच्छा रहता है।



छाया गांगुली और हरिहरण के साथ-साथ फ़िल्म 'गमन' में एक और गायक ने फ़िल्म संगीत में क़दम रखा। ये हैं सुरेश वाडकर, जो जयदेव से बहुत प्रभावित हैं।

सुरेश वाडकर:

पापाजी ने बहुत मेलोडियस काम किया, ख़ूबसूरत ख़ूबसूरत गाने दिये श्रोताओं के लिए। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैंने उनको ऐसिस्ट किया 6/8 महीने। 'सुर सिंगार प्रतियोगिता' जीतने के बाद मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। वो मेरे गुरुजी के क्लोज़ फ़्रेण्ड्स में थे। मेरे गुरुजी थे पंडित जियालाल बसन्त, लाहोर से वो उनके करीबी दोस्त थे। पापाजी ने मेरे गुरुजी से कहा कि इसे मेरे पास भेजो, एक्स्पीरियन्स हो जायेगा कि गाना कैसे बनता है, एक अच्छा अनुभव हो जायेगा। मैं गया उनके पास, वहीं पे मेरी लताजी से जान पहचान हो गई। उस समय वो फ़िल्म 'तुम्हारे लिए' का गाना "तुम्हे देखती हूँ" के लिए आया करती थीं। मुझे वहाँ मज़ा आता था, कभी रिदम सेक्शन, कभी सिटिंग्स में जाया करता, तबला लेकर उनके साथ बैठता, कैसे गाना बनता है, शायर भी होते थे वहाँ, फिर गाना बनने के बाद अरेंजमेण्ट कैसे किया जाता है, ये सब मैंने देखा और सीखा। पापाजी भी मुझसे बहुत प्यार करते थे, बिल्कुल अपने बेटे की तरह। सीने में जलन" यह ग़ज़ल बनने से पहले ही मैं थोड़ा बिज़ी हो गया था। उन्होंने मुझसे कहा कि अपने करीयर पे ध्यान दो, इस गाने के बाद उन्होंने कहा कि तुम गाओगे मेरे लिए। मुझे इतनी ख़ुशी हुई कि जिस संगीतकार को बचपन से सुना करता था, अब मैं उन्हीं के गीत गा रहा हूँ। बस एक ही गाना मैंने उनका गाया "सीने में जलन"। पापाजी मेलोडी का बहुत ज़्यादा ध्यान रखते थे। जितने भी बुज़ुर्ग संगीतकार हैं, वो अपने गीतों में हमेशा मेलोडी को ज़िन्दा रखते थे। अभी का ज़माना अलग है, लोगों को जैसा पसन्द है वैसा ही बन रहा है। आज का म्युज़िक भी अच्छा है, बस ज़्यादा ऑरकेस्ट्रेशन है, मेलोडी कम है। आज लोगों को हर गाने में नाचना ज़रूरी है। जयदेव जी और उनके जो कन्टेम्पोररीज़ थे, उनके गीतों में फ़ोक का एक रंग होता था मीठा मीठा सा, गीत क्लासीक़ी और मेलोडी भरा होता था, गाने में चैलेंज हमेशा होता था। पापाजी की सांस थोड़ी कम थी। इसको ध्यान में रख कर गाना बनाते थे कमाल का। "मैं ज़िन्दगी का साथ निभाता चला गया" में छोटे-छोटे टुकड़ों में इतना अच्छा लगता है। गाना शुरु होते ही लगता है कि यह तो पापाजी का गाना है। उनकी पहचान, उनका स्टैम्प उनके गाने में होता था। मैं बहुत भाग्यशाली रहा, उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला।



ये हैं गायक भूपेन्द्र...

भूपेन्द्र:

उनका अनोखा संगीत था, कम्पोज़िशन की शैली ऑरिजिनल थी। अपने गीतों में वो पोएट्री की तह तक पहुँचते थे, हर तरह के कम्पोज़िशन को बख़ूबी अंजाम देते थे। उन्हें काम लेना आता था। कोई ज़ोर नहीं , कोई ज़बरदस्ती नहीं। वो उन संगीतकारों में से थे जो कहते थे कि आप अपनी तरह से समझकर क्या कर सकते हैं कीजिए। आज के संगीतकारों जैसे नहीं जिनको आप कुछ कह नहीं सकते। इससे हर गाने में चार चाँद लग जाता था। आर्टिस्ट को कभी वो डिस्टर्ब नहीं करते थे, बस एक या दो टेक में गाना ओ.के हो जाता था। मैंने के. ए. अब्बास की एक फ़िल्म में अपना पहला गाना गाया था, पर फ़िल्म 'घरौंदा' से मैं पॉपुलर हुआ। "एक अकेला इस शहर में", इस गीत को सुन कर लोगों को लगा होगा कि गाना मीटर में है। This song is a normal song like any other song, वो हर किस्म का गाना बना सकते थे। अगर जयदेव जी आज भी होते तो फ़िल्म संगीत की जो परिभाषा है, उसमें वो अपने आप को ऐडजस्ट कर लेते। I am proud of him, मुझे फ़क्र है उन पर।


सूत्र: विविध भारती, मुंबई
कार्य्रक्रम: सरगम के सितारे
प्रसारण तिथि: 5 जनवरी 2006

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ज़रूरी सूचना:: उपर्युक्त लेख 'विविध भारती' के कार्यक्रम का अंश है। इसके सभी अधिकार विविध भारती के पास सुरक्षित हैं। किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा इस प्रस्तुति का इस्तमाल व्यावसायिक रूप में करना कॉपीराइट कानून के ख़िलाफ़ होगा, जिसके लिए 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' ज़िम्मेदार नहीं होगा।



तो दोस्तों, आज बस इतना ही। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आयी होगी। अगली बार ऐसे ही किसी स्मृतियों की गलियारों से आपको लिए चलेंगे उस स्वर्णिम युग में। तब तक के लिए अपने इस दोस्त, सुजॉय चटर्जी को अनुमति दीजिये, नमस्कार! इस स्तम्भ के लिए आप अपने विचार और प्रतिक्रिया नीचे टिप्पणी में व्यक्त कर सकते हैं, हमें अत्यन्त ख़ुशी होगी।


प्रस्तुति : सुजॉय चटर्जी 

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