Skip to main content

Posts

शब्दों में संसार - हरा सोना

शब्दों में संसार - एपिसोड ०१ - हरा सोना  शब्दों में संसार की पहली कड़ी में आप सबका स्वागत है। यह श्रॄंखला "शब्दों के चाक पे" की तरह हीं "कविताओं" पर आधारित है। बस फर्क यह है कि जहाँ "चाक" पर हम आजकल की ताज़ातरीन कविताओं की मिट्टी डालते थे , वहीं "संसार" में हम उन कविताओं को खोदकर ला रहे हैं जो मिट्टी तले कई सालों से दबी हैं यानि कि श्रेष्ठ एवं नामी कवियों की पुरानी कविताएँ। आज की कड़ी में हमने "निराला" , " पंत" से लेकर "त्रिलोचन" एवं "नागार्जुन" तक की कविताएँ शामिल की हैं और आज का विषय है "हरा सोना"। "हरा सोना" नाम से हीं साफ हो जाता है कि हम खेतों में लहलहाते फसलों एवं जंगलों में शान से सीना ताने खड़े पेड़ों की बातें कर रहे हैं। हम प्रकृति यानि कि कुदरत की बातें कर रहे हैं।   लीजिए सुनिए रेडियो प्लेबैक का ये अनूठा पोडकास्ट - आप इस पूरे पोडकास्ट को यहाँ से डाउनलोड भी कर सकते हैं आज की कड़ी में प्रस्तुत कवितायें और उनसे जुडी जानकारी इस प्रक

स्मृतियों के झरोखे से : भारतीय सिनेमा के सौ साल – 15

भूली-बिसरी यादें भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में आयोजित विशेष श्रृंखला ‘स्मृतियों के झरोखे से’ के एक नये अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र अपने साथी सुजॉय चटर्जी के साथ आपका स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला में प्रत्येक मास के पहले और तीसरे गुरुवार को हम आपके लिए लेकर आते हैं, मूक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर के कुछ रोचक तथ्य और आलेख के दूसरे हिस्से में सवाक फिल्मों के प्रारम्भिक दौर की कोई उल्लेखनीय संगीत रचना और रचनाकार का परिचय। आज के अंक में हम आपसे इस युग के कुछ रोचक तथ्य साझा करने जा रहे हैं। भारतीय सिनेमा-इतिहास का दूसरा अध्याय ‘राजा हरिश्चन्द्र’ से शुरू हुआ भा रत में सिनेमा के इतिहास का आरम्भ 7जुलाई, 1896 से हुआ था, जब बम्बई (अब मुम्बई) के वाटसन होटल में लुईस और ऑगस्ट लुमियरे नामक फ्रांसीसी बन्धुओं की बनाई मूक फिल्म- ‘मारवेल ऑफ दि सेंचुरी’ का प्रदर्शन हुआ था। यह भारत में प्रदर्शित प्रथम विदेशी फिल्म थी, बाद में 14जुलाई, 1896 से मुम्बई के नावेल्टी थियेटर में इस फिल्म का नियमित प्रदर्शन हुआ। इसी फिल्म प्रदर्शन के बाद ही भारतीय फिल्मकारों ने भारत में फिल्

छोटे परदे की कहानियाँ और पुराने फ़िल्मी गीत

प्लेबैक इंडिया ब्रोडकास्ट (१३) रोज छोटे परदे पर नज़र आने वाले धारावाहिक, अधिकतर भारतीय परिवारों के लिए एक साथ बैठकर रात का भोजन खाने और तमाम गुफुत्गुओं के उस समय सफर के हमसफ़र होते हैं. कब जाने अनजाने ही इन धारावाहिकों के किरदार हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं और कब उनकी कहानियों में कहीं हम खुद को भी ढूँढने लगते हैं, पता ही नहीं चलता.  ऐसे में इन धारवाहिकों के निर्माताओं पर भी दबाब होता है कि नयी और अनूठी कहानियों को नए अंदाज़ में पेश करें, और इन कहानियों को दर्शकों से जोड़ने के लिए अगर वो पुराने हिंदी फ़िल्मी गीतों का सहारा लेते हैं तो हैरत नहीं होनी चाहिए. पर कहीं न कहीं पिछले कुछ दिनों में ये चलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है, इसी पर एक पड़ताल है हमारा आज का ब्रोडकास्ट....सुनिए और अपनी राय देकर इस चर्चा को सार्थक बनायें.

बोलती कहानियाँ - मध्यम वर्गीय कुत्ता - हरिशंकर परसाई - देवेन्द्र पाठक

'बोलती कहानियाँ' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में अभिषेक ओझा की कहानी " वो लोग ही कुछ और होते हैं " का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार हरिशंकर परसाई का व्यंग्य " मध्यम वर्गीय कुत्ता ", जिसको स्वर दिया है देवेन्द्र पाठक "मुन्ना" ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 17 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट बेचैन आत्मा पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं तो अधिक जानकारी के लिए कृपया admin@radioplaybackindia.com पर सम्पर्क करें। मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर सप्ताह सुनें एक नयी कहानी कुत्तेवाले घर मुझे अच्छे नहीं लगते। वहाँ जाओ तो मेजबान के पहले कुत्ता भौंकक

प्लेबैक इंडिया वाणी (१६) बर्फी, और आपकी बात

संगीत समीक्षा - बर्फी साल २०११ में एक बहुत ही खूबसूरत फिल्म प्रदर्शित हुई थी-”स्टेनले का डब्बा”. जिसका संगीत बेहद सरल और सुरीला था, “बर्फी” के संगीत को सुनकर उसी बेपेच सरलता और निष्कलंकता का अहसास होता है. आज के धूम धूम दौर में इतने लचीले और सुकूँ से भरे गीत कितने कम सुनने को मिलते हैं. आश्चर्य उस पर ये कि फिल्म में संगीत है प्रीतम का. बॉलीवुड के संगीतकार के पास जिस किस्म की विवधता होनी चाहिए यक़ीनन वो प्रीतम के सुरों में है, और वो किसी भी फिल्म के अनुरूप अपने संगीत को ढाल कर पेश कर सकते हैं. “बर्फी” में प्रीतम के साथ गीतकारों की पूरी फ़ौज है. आईये अनुभव करें इस फिल्म के संगीत को रेडियो प्लेबैक की नज़र से... आला बर्फी कई मायनों में एक मील का पत्थर है. गीत के शुरुआती और अंतिम नोटों पर सीटी का लाजावाब प्रयोग है. हल्का फुल्का हास्य है शब्दों में और उस पर मोहित की बेमिसाल गायिकी किशोर कुमार वाली बेफिक्र मस्ती की झलक संजोय बहती मिलती है. संगीत संयोजन सरल और बहुत प्रभावी है, पहाड़ों की महक है गीत में कहीं तो पुराने अंग्रेजी गीतों का राजसी अंदाज़ भी कहीं कहीं सुनने को मिलता है. एक

संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला : पं. श्रीकुमार मिश्र से बातचीत

स्वरगोष्ठी – ८८ में आज संगीत के सौ रंग बिखेरती सारंगी ‘स्व रगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ, मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार पुनः आपकी गोष्ठी में उपस्थित हूँ और आप सब संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ। मित्रों, यह ‘स्वरगोष्ठी’ स्तम्भ का सौभाग्य रहा है कि इसे आरम्भ से ही संगीत-साधकों, संगीत-शिक्षकों और संगीत-प्रेमियों का मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। हमारे एक ऐसे ही मार्गदर्शक हैं जाने-माने इसराज और मयूर वीणा वादक और शिक्षक पं. श्रीकुमार मिश्र। पिछले दिनों उनकी कक्षा में मैं आकस्मिक रूप से जब पहुँचा तो आश्चर्यचकित रह गया। लगभग अप्रचलित इन गज-वाद्यों को सीखने के लिए कुल ९ विद्यार्थी उस कक्षा में उपस्थित थे, जिनमें ५ बालिकाएँ थीं। श्रीकुमार जी इन बच्चों को एक सरल सी तान का अभ्यास करा रहे थे। मैंने संगीत के उन विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों की सराहना की और श्रीकुमार जी से गज-तंत्र वाद्यों के बारे में ‘स्वरगोष्ठी’ के लिए कुछ बातचीत करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होने सहर्ष स्वीकार कर लिया। आज के अंक में हम इस बातचीत के सम्पादित अंश आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। कृष्णमोहन : श्रीकुमार जी

'सिने पहेली' में जारी है घमासान, प्रतियोगिता में आया एक रोचक मोड़

सिने-पहेली # 37 (15 सितम्बर, 2012)   'रे डियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी पाठकों और श्रोताओं को सुजॉय चटर्जी का सप्रेम नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का आपके मनपसंद स्तंभ 'सिने पहेली' में। चौथे सेगमेण्ट के अंतिम चार कड़ियों में हम आ पहुँचे हैं। जैसा कि हमने पहले कहा था कि हर सेगमेण्ट की पहली पाँच कड़ियाँ आसान होंगी, और बाद की पाँच कड़ियाँ होंगी थोड़ी मुश्किल, पिछले सप्ताह की पहेली से आपको इस बात का अंदाज़ा लग गया होगा। पिछले सप्ताह अन्य सप्ताहों के मुकाबले हमें कम प्रतियोगियों ने जवाब भेजे हैं जिससे हमें निराशा हुई है। भले आपको सारे जवाब न आते हों, पर कम से कम जितने आते थे, उतने तो लिख भेज ही सकते थे न? यह ज़रूरी नहीं कि हर प्रतियोगी विजेता बने, यह संभव भी नहीं, पर जो बात विजेता बनने से ज़्यादा ज़रूरी है, वह है प्रतियोगिता में बने रहना, प्रतियोगिता में भाग लेना, एक खिलाड़ी की तरह मैदान में अंत तक डटे रहना। हम अपने सभी प्रतियोगियों से निवेदन करते हैं कि अगर सारे जवाब मालूम भी न हों तो कम से कम कोशिश तो करें, जितने जवाब आते हों, उन्हें तो कम से कम लिख भेजें। याद रहे