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तेरे पास आके मेरा वक्त गुजर जाता है ...."लम्स तुम्हारा" यूं मुझमें ठहर जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 716/2011/156 आ ज रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं, नमस्कार! पिछले हफ़्ते आपनें सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुन कर पाँच कविताओं पर आधारित पाँच फ़िल्मी गीत सुनें, इस हफ़्ते पाँच और कविताओं तथा पाँच और गीतों को लेकर हम तैयार हैं। तो स्वागत है आप सभी का, लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की छठी कड़ी में। इस कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता ' लम्स तुम्हारा '। उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा दुनिया सँवर जाती है मेरे आस-पास धूप छूकर गुज़रती है किनारों से और जिस्म भर जाता है एक सुरीला उजास बादल सर पर छाँव बन कर आता है और नदी धो जाती है पैरों का गर्द सारा हवा उड़ा ले जाती है पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा खरे सोने सा, जैसा गया था रचा उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा कितना कुछ बदल जाता है मेरे आस-पास। हमारी ज़िंदगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मिल कर अच्छा लगता है, जिनके साथ हम दिल की बातें शेयर कर सकते हैं। और ऐसे लोगों में एक ख़ास इंसान ऐसा होता है

मेघा बरसने लगा है आज की रात...राग "जयन्ती मल्हार" पर आधारित एक आकर्षक गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 710/2011/150 व र्षा गीतों पर आधारित श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" की समापन कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ| इस श्रृंखला का समापन हम राग "जयन्ती मल्हार" और इस राग पर आधारित एक आकर्षक गीत से करेंगे| परन्तु आज के राग और गीत पर चर्चा करने से पहले संगीत के रागों और फिल्म-संगीत के बारे में एक तथ्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है| शास्त्रीय संगीत में रागानुकुल स्वरों की शुद्धता आवश्यक होती है| परन्तु सुगम और फिल्म संगीत में रागानुकुल स्वरों की शुद्धता पर कड़े प्रतिबन्ध नहीं होते| फिल्मों के संगीतकार का ज्यादा ध्यान फिल्म के प्रसंग और चरित्र की ओर होता है| इस श्रृंखला में प्रस्तुत किये गए दो गीतों को छोड़ कर शेष गीतों में एकाध स्थान पर राग के निर्धारित स्वरों में आंशिक मिलावट की गई है; इसके बावजूद राग का स्पष्ट स्वरुप इन गीतों में नज़र आता है| गीतों को चुनने में यही सावधानी बरती गई है| आज हमारी चर्चा में राग "जयन्ती मल्हार" है| वर्षा ऋतु में गाये-बजाये जाने वाले रागों में "जयन्ती मल्हार" भी

झिर झिर बरसे सावनी अँखियाँ...बरसती बौछारों में तन और मन का अंतरद्वंद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 707/2011/147 पा वस ऋतु के रागों पर आधारित फिल्म-गीतों की श्रृंखला "उमड़ घुमड़ का आई रे घटा" की सातवीं कड़ी में सभी संगीतप्रेमी पाठकों-श्रोताओं का एक बार फिर; मैं कृष्णमोहन मिश्र सहर्ष अभिनन्दन करता हूँ| दोस्तों; इस श्रृंखला की तीसरी कड़ी में हमने आपको राग "गौड़ मल्हार" में निबद्ध एक बन्दिश का रसास्वादन कराया था| आज पुनः हम राग "गौड़ मल्हार" की विशेषताओं और प्रवृत्ति पर चर्चा करेंगे और इस राग पर आधारित एक मधुर गीत का रसास्वादन कराएँगे| तीसरी कड़ी में हम यह चर्चा कर चुके हैं कि राग "गौड़ मल्हार" की संरचना सारंग और मल्हार अंग के मेल से हुई है| श्रावण (सावन) मास में अचानक आकाश पर बादल छा जाते हैं और मल्हार अंग के स्वाभाव के अनुरूप रिमझिम फुहारें मानव-मन को तृप्त करने में संलग्न हो जातीं हैं| कुछ ही देर में आकाश मेघ रहित हो जाता है और खुला आकाश सारंग अंग के अनुकूल अनुभूति कराने लगता है| अर्थात राग "गौड़ मल्हार" में दोनों प्रवृत्तियाँ मौजूद रहतीं हैं| इस राग के थाट के बारे में विद्वानों के बीच थोड़ा मतभेद है| कुछ विद्व

राही कोई भूला हुआ, तूफानों में खोया हुआ राह पे आ जाता है...राग "देस मल्हार" के सुरों में बँधा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 705/2011/145 पा वस की रिमझिम फुहारों के बीच वर्षाकालीन रागों में निबद्ध गीतों की हमारी श्रृंखला "उमड़ घुमड़ कर आई रे घटा" जारी है| आज श्रृंखला की पाँचवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र पुनः आपका स्वागत करता हूँ| दोस्तों आज का राग है- "देस मल्हार"| श्रृंखला की पहली कड़ी में हमने कुछ ऐसे रागों की चर्चा की थी जो मल्हार अंग के नहीं हैं इसके बावजूद उन रागों से हमें वर्षा ऋतु की सार्थक अनुभूति होती है| ऐसा ही एक राग है "देस", जिसके गायन-वादन से वर्षा ऋतु का सजीव चित्र हमारे सामने उपस्थित हो जाता है| और यदि इसमें मल्हार अंग का मेल हो जाए तो फिर 'सोने पर सुहागा' हो जाता है| आज हम आपको राग "देस मल्हार" का थोड़ा सा परिचय और फिर इसी राग पर आधारित एक मनमोहक गीत सुनवाएँगे| राग "देस मल्हार" के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें स्वतंत्र राग "देस" में "मल्हार" अंग का मेल होता है| राग "देस" अत्यन्त प्रचलित और सार्वकालिक होते हुए भी वर्षा ऋतु के परिवेश का चित्रण करने में समर्थ है| एक तो इस राग के स्व

बरसो रे कारे बादरवा...कारे-कजरारे मेघों का भावपूर्ण आह्वान

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 701/2011/141 "ओ ल्ड इज गोल्ड" पर आज से आरम्भ हो रही नई श्रृंखला में अपने पाठकों-श्रोताओं का मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर स्वागत करता हूँ| दोस्तों; आज का यह अंक हम सब के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण है| पिछली श्रृंखला के समापन अंक से "ओल्ड इज गोल्ड" ने सात सौ अंकों का आँकड़ा पार कर लिया है| आज हम सब आठवें शतक के पहले अंक में प्रवेश कर रहें हैं| "ओल्ड इज गोल्ड" की श्रृंखलाओं को यह ऐतिहासिक उपलब्धि दिलाने में आप सभी पाठकों-श्रोताओं का ही योगदान है| "आवाज़" के सम्पादक सजीव सारथी तथा "ओल्ड इज गोल्ड" श्रृंखलाओं के संवाहक सुजॉय चटर्जी ने एक बार पुनः मुझे एक नई श्रृंखला का दायित्व दिया, इसके लिए मैं इनके साथ-साथ अपने पाठकों-श्रोताओं के प्रति भी आभार प्रकट करता हूँ| दोस्तों; इन दिनों आप प्रकृति के अद्भुत वरदान- वर्षा ऋतु का आनन्द ले रहें हैं| आपके चारो ओर परिवेश ने हरियाली की चादर ओढ़ रखी है| तप्त-शुष्क मिट्टी पर वर्षा की फुहारें पड़ने पर जो सुगन्ध फैलती है वह अवर्णनीय है| ऐसे ही मनभावन परिवेश में आपके उल्लास और उमंग को द्विग

रस के भरे तोरे नैन....हिंदी फ़िल्मी गीतों में ठुमरी परंपरा पर आधारित इस शृंखला को देते हैं विराम इस गीत के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 700/2011/140 भा रतीय फिल्मों में ठुमरियों के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के समापन अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| पिछली 19 कड़ियों में हमने आपको फिल्मों में 40 के दशक से लेकर 80 के दशक तक शामिल की गईं ठुमरियों से न केवल आपका परिचय कराने का प्रयत्न किया, बल्कि ठुमरी शैली की विकास-यात्रा के कुछ पड़ावों को रेखांकित करने का प्रयत्न भी किया| आज के इस समापन अंक में हम आपको 1978 में प्रदर्शित फिल्म "गमन" की एक मनमोहक ठुमरी का रसास्वादन कराएँगे; परन्तु इससे पहले वर्तमान में ठुमरी गायन के सशक्त हस्ताक्षर पण्डित छन्नूलाल मिश्र से आपका परिचय भी कराना चाहते हैं| एक संगीतकार परिवार में 3 अगस्त,1936 को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जनपद में जन्में छन्नूलाल मिश्र की प्रारम्भिक संगीत-शिक्षा अपने पिता बद्रीप्रसाद मिश्र से प्राप्त हुई| बाद में उन्होंने किराना घराने के उस्ताद अब्दुल गनी खान से घरानेदार गायकी की बारीकियाँ सीखीं| जाने-माने संगीतविद ठाकुर जयदेव सिंह का मार्गदर्शन भी श्री मिश्र को मिला| निरन्तर शोधपूर्ण प्रवृत्ति के कारण उनकी ख्याल ग

ठाढ़े रहियो ओ बाँके यार...लोक-रस से अभिसिंचित ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 697/2011/137 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला 'रस के भरे तोरे नैन' की सत्रहवीं कड़ी में समस्त ठुमरी-रसिकों का स्वागत है| श्रृंखला के समापन सप्ताह में हम 70 के दशक की फिल्मों में शामिल ठुमरियों से और वर्तमान में सक्रिय कुछ वरिष्ठ ठुमरी गायक-गायिकाओं से आपका परिचय करा रहे हैं| कल के अंक में हमने पूरब अंग की ठुमरियों की सुप्रसिद्ध गायिका सविता देवी और उनकी माँ सिद्धेश्वरी देवी से आपका परिचय कराया था| आज के अंक में हम विदुषी गिरिजा देवी से आपका परिचय करा रहे हैं| गिरिजा देवी का जन्म 8 मई 1929 को कला और संस्कृति की नगरी वाराणसी (तत्कालीन बनारस) में हुआ था| पिता रामदेव राय जमींदार थे और संगीत-प्रेमी थे| उन्होंने पाँच वर्ष की आयु में ही गिरिजा देवी के संगीत-शिक्षा की व्यवस्था कर दी थी| गिरिजा देवी के प्रारम्भिक संगीत-गुरु पण्डित सरयूप्रसाद मिश्र थे| नौ वर्ष की आयु में पण्डित श्रीचन्द्र मिश्र से उन्होंने संगीत की विभिन्न शैलियों की शिक्षा प्राप्त करना आरम्भ किया| नौ वर्ष की आयु में ही एक हिन्दी फिल्म "याद रहे" में गिरिजा देवी ने अभिनय भी किया

चाहे तो मोरा जिया लईले....राग पीलू में निखरता श्रृंगार का एक और रूप

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 693/2011/133 फि ल्मों में ठुमरी के प्रयोग पर केन्द्रित श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की तेरहवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने "पछाहीं ठुमरी" की कुछ प्रमुख विशेषताओं और रचनाकारों से आपका परिचय कराया था| आज हम इसी प्रसंग को आगे बढ़ाते हुए ठुमरी के क्रमशः विस्तृत होते क्षेत्र पर भी चर्चा करेंगे| उन्नीसवी शताब्दी के अन्तिम दशक में नज़र अली और उनके भाई कदर अली ठुमरी के बड़े प्रवीण गायक हुए| ये दोनों भाई संगीतजीवी वर्ग के थे और मूलतः लखनऊ-निवासी थे| बाद में दोनों भाई ग्वालियर जाकर बस गए| नज़र अली ने "नज़रपिया" नाम से अनेक ठुमरियों की रचना की| इनकी अधिकतर ठुमरियाँ बोल-बाँट की हैं| ग्वालियर के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ राजभैया पुँछवाले ने भी नज़रपिया से ठुमरी गायन सीखा था| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक जनसामान्य में ठुमरी गायन इतना लोकप्रिय हो चला था कि तवायफों के अतिरिक्त उस समय देश के अनेक घरानेदार और प्रतिष्ठित ध्रुवपद तथा ख़याल गायकों ने इसे बड़े शौक से अपनाया| ध्रुवपद गायकों में मथुरा के चन

भैरवी के सुरों में कृष्ण ने राह चलती राधा की चुनरी रंग डारी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 690/2011/130 आ ज सप्ताहान्त की प्रस्तुति में एक बार फिर आप सभी संगीत प्रेमियों का स्वागत है| पिछले सप्ताह आपसे किये वायदे का पालन करते हुए आज भी हम एक मनमोहक ठुमरी भैरवी के साथ उपस्थित हैं| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक में जब "बनारसी ठुमरी" के विकास के साथ-साथ लखनऊ से पूर्व की ओर, बनारस से लेकर बंगाल तक विस्तृत होती जा रही थी, वहीं दूसरी ओर लखनऊ से पश्चिम दिशा में दिल्ली तक "पछाहीं अंग" की "बोल-बाँट" और "बन्दिशी" ठुमरी का प्रचलन बढ़ता जा रहा था| 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद लखनऊ के सनदपिया रामपुर दरबार चले गए थे, जहाँ कुछ समय रह कर उन्होंने ठुमरी का चलन शुरू किया| रामपुर दरबार के सेनिया घराने के संगीतज्ञ बहादुर हुसेन खाँ और उस्ताद अमीर खाँ इस नई गायन शैली से बहुत प्रभावित हुए और इसके विकास में अपना योगदान किया| इसी प्रकार ठुमरी शैली का दिल्ली के संगीत जगत में न केवल स्वागत हुआ, बल्कि अपनाया भी गया| उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दो दशकों में दिल्ली में ठुमरी के कई गायक और रचनाकार हुए, जिन्होंने इस शैली को स

सजन संग काहे नेहा लगाए...उलाहना भाव में करुण रस की अनुभूति कराती ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 689/2011/129 श्रृं खला "रस के भरे तोरे नैन" की नौवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, आप सभी संगीत-प्रेमियों का स्वागत करता हूँ| कल के अंक में आपने रईसों और जमींदारों की छोटी-छोटी महफ़िलों में फलती-फूलती ठुमरी शैली की जानकारी प्राप्त की| इस समय तक ठुमरी गायन की तीन प्रकार की उप-शैलियाँ विकसित हो चुकी थी| नृत्य के साथ गायी जाने वाली ठुमरियों में लय और ताल का विशेष महत्त्व होने के कारण ऐसी ठुमरियों को "बन्दिश" या "बोल-बाँट" की ठुमरी कहा जाने लगा| इस प्रकार की ठुमरियाँ छोटे ख़याल से मिलती-जुलती होती हैं, जिसमे शब्द का महत्त्व बढ़ जाता है| ऐसी ठुमरियों को सुनते समय ऐसा लगता है, मानो तराने पर बोल रख दिए गए हों| ठुमरी का दूसरा प्रकार जो विकसित हुआ उसे "बोल-बनाव" की ठुमरी का नाम मिला| ऐसी ठुमरियों में शब्द कम और स्वरों का प्रसार अधिक होता है| गायक या गायिका कुछ शब्दों को चुन कर उसे अलग-अलग अन्दाज़ में प्रस्तुत करते हैं| धीमी लय से आरम्भ होने वाली इस प्रकार की ठुमरी का समापन द्रुत लय में कहरवा की लग्गी से किया जाता है| ठुमरी के यह

"कासे कहूँ मन की बात..." - रंगमंच पर आने को आतुर ठुमरी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 687/2011/127 फि ल्मों में ठुमरी विषयक श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" में इन दिनों हम ठुमरी शैली के विकास- क्रम पर चर्चा कर रहे हैं| बनारस में ठुमरी पर चटक लोक-रंग चढ़ा| यह वह समय था जब अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम विफल हो गया था और एक-एक कर देशी रियासतें ब्रिटिश शासन के कब्जे में आते जा रहे थे| कलाकारों से राजाश्रय छिनता जा रहा था| भारतीय कलाविधाओं को अंग्रेजों ने हमेशा उपेक्षित किया| ऐसे कठिन समय में तवायफों ने, भारतीय संगीत; विशेष रूप से ठुमरी शैली को जीवित रखने में अमूल्य योगदान किया| भारतीय फिल्मों के प्रारम्भिक तीन-चार दशकों में अधिकतर ठुमरियाँ तवायफों के कोठे पर ही फिल्माई गई| पिछले अंक में अवध के जाने-माने संगीतज्ञ उस्ताद सादिक अली खां का जिक्र हुआ था| अवध की सत्ता नवाब वाजिद अली शाह के हाथ से निकल जाने के बाद सादिक अली ने ही "ठुमरी" का प्रचार देश के अनेक भागों में किया था| सादिक अली खां के एक परम शिष्य थे भैयासाहब गणपत राव; जो हारमोनियम वादन में दक्ष थे| सादिक अली से प्रेरित होकर गणपत राव हारमोनियम जैसे वि

"नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर.." - ठुमरी जब लोक-रंग में रँगी हो

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 686/2011/126 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" के दूसरे सप्ताह में मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सभी संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ| पिछले अंकों में हमने आपके साथ "ठुमरी" के प्रारम्भिक दौर की जानकारी बाँटी थी| यह भी चर्चा हुई थी कि उस दौर में "ठुमरी" कथक नृत्य का एक हिस्सा बन गई थी| परन्तु एक समय ऐसा भी आया जब "ठुमरी" की विकास-यात्रा में थोड़ा व्यवधान भी आया| इस शैली के पृष्ठ-पोषक नवाब वाजिद अली शाह को 1856 में अंग्रेजों ने अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण बन्दी बना लिया गया| नवाब को बन्दी बना कर कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के मटियाबुर्ज नामक स्थान पर भेज दिया गया| नवाब यहाँ पर मृत्यु-पर्यन्त (1887) तक स्थायी रूप से रहे| नवाब वाजिद अली शाह के लखनऊ छूटने से पहले तक "ठुमरी" की जड़ें जमीन को पकड़ चुकी थीं| इस दौर में केवल संगीतज्ञ ही नहीं बल्कि शासक, दरबारी, सामन्त, शायर, कवि आदि सभी "ठुमरी" की रचना, गायन और उसके भावाभिनय में प्रवृत्त हो गए थे| वाजिद अली शाह के रिश्ते

भैरवी के सुरों में श्रृंगार, वैराग्य और आध्यात्म का अनूठा संगम -"बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए.."

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 685/2011/125 'ओ ल्ड इज गोल्ड' पर जारी श्रृंखला "रस के भरे तोरे नैन" की पाँचवी कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका स्वागत करता हूँ| दोस्तों; संगीत के मंच की एक परम्परा है कि गायक या वादक अपनी प्रस्तुतियों का समापन राग भैरवी के गायन-वादन से करते हैं| आज की यह सप्ताहान्त प्रस्तुति है, अतः आज हमने आपके लिए जो ठुमरी चुनी है वह राग भैरवी में निबद्ध है| राग भैरवी को "सदा सुहागन राग" कहा गया है| संगीत के अन्य रागों को समय (प्रहर) या ऋतुओं में ही गाने-बजाने की परम्परा है, किन्तु "भैरवी" हर मौसम और हर समय कर्णप्रिय लगता है| राग "भैरवी की एक विशेषता यह भी होती है कि इस राग के बाद दूसरा कोई भी राग सुनने में अच्छा नहीं लगता, इसीलिए हर कलाकार द्वारा प्रस्तुति के अन्त में "भैरवी" का गायन-वादन किया जाता है| सभी कोमल स्वरों वाला यह राग उपशास्त्रीय और सुगम संगीत की रचनाओं के लिए सबसे उपयुक्त राग है| इसीलिए फिल्म संगीत में राग आधारित गीतों में सर्वाधिक संख्या भैरवी आधारित गीतों की ही है| श्रृंखला की पिछली कड़ियों में हमने अवध

बिछुडती नायिका की अपने प्रियतम के लिए कामना -"मैं मिट जाऊँ तो मिट जाऊँ, तू शाद रहे आबाद रहे...."

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 684/2011/124 'र स के भरे तोरे नैन' - फिल्मों में ठुमरी विषयक इस श्रृंखला में मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक बार फिर आपका स्वागत करता हूँ| कल की कड़ी में हमने आपसे चर्चा की थी कि नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में 'ठुमरी' एक शैली के रूप में विकसित हुई थी| अपने प्रारम्भिक रूप में यह एक प्रकार से नृत्य-गीत ही रहा है| राधा-कृष्ण की केलि-क्रीड़ा से प्रारम्भ होकर सामान्य नायक-नायिका के रसपूर्ण श्रृंगार तक की अभिव्यक्ति इसमें होती रही है| शब्दों की कोमलता और स्वरों की नजाकत इस शैली की प्रमुख विशेषता तब भी थी और आज भी है| कथक नृत्य के भाव अंग में ठुमरी की उपस्थिति से नर्तक / नृत्यांगना का अभिनय मुखर हो जाता है| ठुमरी का आरम्भ चूँकि कथक नृत्य के साथ हुआ था, अतः ठुमरी के स्वर और शब्द भी भाव प्रधान होते गए| राज-दरबार के श्रृंगारपूर्ण वातावरण में ठुमरी का पोषण हुआ था| तत्कालीन काव्य-जगत में प्रचलित रीतिकालीन श्रृंगार रस से भी यह शैली पूरी तरह प्रभावित हुई| नवाब वाजिद अली शाह स्वयं उच्चकोटि के रसिक और नर्तक थे| ऊन्होने राधा-कृष्ण के संयोग-वियोग पर कई ठुमरी गीतों