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"कल तेरी बज़्म से दीवाना चला जायेगा...", क्या अपने अन्तिम समय का आभास हो चला था शक़ील बदायूंनी को?

एक गीत सौ कहानियाँ - 34   ‘आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले . ..’ 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारी ज़िन्दगियों से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 34-वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म 'राम और श्याम' के गीत "आज की रात मेरे दिल की सलामी ले ले" के बारे में।  जावेद बदायूंनी हि न्दी सिने संगीत जग

फिल्मों के राग आधारित होली गीत

स्वरगोष्ठी – 160 में आज रागों के रस-रंग से अभिसिंचित फिल्मों में राधाकृष्ण की होली ‘बिरज में होली खेलत नन्दलाल...’ ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के मंच पर ‘स्वरगोष्ठी’ के एक नए अंक के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक बार पुनः आप सब संगीतानुरागियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, पिछली कड़ी में अबीर-गुलाल के उड़ते सतरंगी बादलों के बीच सप्तस्वरों के माध्यम से सजाई गई महफिल में आपने धमार के माध्यम से होली के मदमाते परिवेश की सार्थक अनुभूति की है। हम यह चर्चा पहले भी कर चुके हैं कि भारतीय संगीत की सभी शैलियों- शास्त्रीय, उपशास्त्रीय, सुगम, लोक और फिल्म संगीत में फाल्गुनी रस-रंग में पगी रचनाएँ मौजूद हैं, जो हमारा मन मोह लेती हैं। इस श्रृंखला में अब तक हमने फिल्म संगीत के अलावा संगीत की इन सभी शैलियों में से रचनाएँ चुनी हैं। आज के अंक में हम विभिन्न रागों पर आधारित कुछ फिल्मी होली गीत लेकर आपके बीच उपस्थित हुए हैं। आज हम आपको राग काफी, पीलू और भैरवी पर आधारित फिल्मी होली गीत सुनवा रहे हैं।  सां स्कृतिक दृष्टि से ब्रज की होली और इस अवसर के संग

‘मन तड़पत हरिदर्शन को आज...’

      स्वरगोष्ठी – 139 में आज रागों में भक्तिरस – 7 राग मालकौंस का रंग : पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर के संग ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर इन दिनों जारी लघु श्रृंखला ‘रागों में भक्तिरस’ की सातवीं कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र, एक बार पुनः आप सब संगीत-रसिकों का स्वागत करता हूँ। इस श्रृंखला के अन्तर्गत हम आपके लिए भारतीय संगीत के कुछ भक्तिरस प्रधान राग और उनमें निबद्ध रचनाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं। साथ ही उस राग पर आधारित फिल्म संगीत के उदाहरण भी आपको सुनवा रहे हैं। आज माह का पाँचवाँ रविवार है और इस दिन ‘स्वरगोष्ठी’ का अंक हमारे अतिथि संगीतज्ञ द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। आज का यह अंक प्रस्तुत कर रहे हैं, मयूर वीणा और इसराज के सुप्रसिद्ध वादक पण्डित श्रीकुमार मिश्र। श्रृंखला के आज के अंक में श्रीकुमार जी आपसे अत्यन्त लोकप्रिय राग मालकौंस पर चर्चा करेंगे। आज हम आपको राग मालकौंस के भक्तिरस के पक्ष को स्पष्ट करने के लिए तीन रचनाएँ प्रस्तुत करेंगे। सबसे पहले हम आपको सुनवाएँगे, 1952 में प्रदर्शित फिल्म ‘बैजू बावरा’ का भक्तिरस से

रफ़ी साहब का सुरीला सफर - भाग २

इन दिनों हम आप को सुनवा रहे हैं एफ एम् गोल्ड से प्रसारित गा मेरे मन गा  कार्यक्रम की झलकियाँ, जिसमें मशहूर रेडियो प्रेसेंटर और नाटक लेखक दानिश इकबाल साक्षात्कार में हैं लेखक और पत्रकार विनोद विप्लव के साथ. विनोद जी ने रफ़ी साहब की जीवनी को अपनी पुस्तक ' मेरी आवाज़ सुनो ' के माध्यम से पहली बार हिंदी के पाठकों तक पहुँचाया था. इस लंबे साक्षात्कार में रफ़ी साहब के जीवन और उनके गीतों पर लंबी चर्चा हुई है, पेश है इस कार्यक्रम की दूसरी कड़ी -  पहली कड़ी को यहाँ सुने

रफ़ी साहब के सुरीले जीवन की सुरीली कहानी, विनोद विप्लव की जुबानी - 01

सदाबहार गीतों के प्रमुख एफ रेडियो चैनल आल् इंडिया रेडियो के एफएम गोल्ड ने मोहम्मद रफी की याद में एक धारावाहिक कार्यक्रम पेश किया। एफ एम गोल्ड के लोकप्रिय कार्यक्रम ''गा मेरे मन गा'' के तहत आठ किस्तों में प्रसारित यह कार्यक्रम लेखक एवं पत्रकार विनोद विप्लव के साथ बातीचत के आधार पर तैयार किया गया। विनोद विप्लव से यह बातचीत प्रसिद्ध रेडियो प्रजेंटर एवं नाटक लेखक दानिश इकबाल ने की थी।    गौरतलब है कि यूनीवार्ता में मुख्य संवाददाता के रूप में कार्यरत विनोद विप्लव को मोहम्मद रफी की पहली जीवनी लिखने का श्रेय प्राप्त है। ''मेरी आवाज सुनो'' के नाम से यह जीवनी 1997 में प्रकाशित हुयी थी और उस समय किसी भी भाषा में उपलब्ध मोहम्मद रफी की एकमात्र जीवनी थी। हालांकि अब मोहम्मद रफी पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। विनोद विप्लव लिखित जीवनी का उर्दू संस्करण भी शीघ्र बाजार में आने वाला है।

इस तरह मोहम्मद रफी का पार्श्वगायन के क्षेत्र में प्रवेश हुआ

  भारतीय सिनेमा के सौ साल – 37 कारवाँ सिने-संगीत का   ‘एक बार उन्हें मिला दे, फिर मेरी तौबा मौला...’ भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ द्वारा आयोजित विशेष अनुष्ठान- ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ में आप सभी सिनेमा-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत है। आज माह का चौथा गुरुवार है और मा ह के दूसरे और चौथे गुरुवार को हम ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ स्तम्भ के अन्तर्गत ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के संचालक मण्डल के सदस्य सुजॉय चटर्जी की प्रकाशित पुस्तक ‘कारवाँ सिने-संगीत का’ से किसी रोचक प्रसंग का उल्लेख करते हैं। आज के अंक में हम भारतीय फिल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक मोहम्मद रफी के प्रारम्भिक दौर का ज़िक्र करेंगे।  1944 में रफ़ी ने बम्बई का रुख़ किया जहाँ श्यामसुन्दर ने ही उन्हें ‘विलेज गर्ल’ (उर्फ़ ‘गाँव की गोरी’) में गाने का मौका दिया। पर यह फ़िल्म १९४५ में प्रदर्शित हुई। इससे पहले १९४४ में ‘पहले आप’ प्रदर्शित हो गई जिसमें नौशाद ने रफ़ी से कुछ गीत गवाए थे। नौशाद से रफ़ी को मिलवाने का श्रेय हमीद भाई को जाता है। उन्होंने ही लखनऊ जाकर नौश

तेरे पास आके मेरा वक्त गुजर जाता है ...."लम्स तुम्हारा" यूं मुझमें ठहर जाता है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 716/2011/156 आ ज रविवार की शाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं, नमस्कार! पिछले हफ़्ते आपनें सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुन कर पाँच कविताओं पर आधारित पाँच फ़िल्मी गीत सुनें, इस हफ़्ते पाँच और कविताओं तथा पाँच और गीतों को लेकर हम तैयार हैं। तो स्वागत है आप सभी का, लघु शृंखला 'एक पल की उम्र लेकर' की छठी कड़ी में। इस कड़ी के लिए हमने चुनी है कविता ' लम्स तुम्हारा '। उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा दुनिया सँवर जाती है मेरे आस-पास धूप छूकर गुज़रती है किनारों से और जिस्म भर जाता है एक सुरीला उजास बादल सर पर छाँव बन कर आता है और नदी धो जाती है पैरों का गर्द सारा हवा उड़ा ले जाती है पैरहन और कर जाती है मुझे बेपर्दा खरे सोने सा, जैसा गया था रचा उस एक लम्हे में जिसे मिलता है लम्स तुम्हारा कितना कुछ बदल जाता है मेरे आस-पास। हमारी ज़िंदगी में कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे मिल कर अच्छा लगता है, जिनके साथ हम दिल की बातें शेयर कर सकते हैं। और ऐसे लोगों में एक ख़ास इंसान ऐसा होता है

कभी रात दिन हम दूर थे.....प्यार बदल देता है जीने के मायने और बदल देता है दूरियों को "मिलन" में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 714/2011/154 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! सजीव सारथी की लिखी कविताओं की किताब ' एक पल की उम्र लेकर ' से चुनी हुई १० कविताओं पर आधारित शृंखला की आज चौथी कड़ी में हमनें जिस कविता को चुना है, उसका शीर्षक है ' मिलन '। हम मिलते रहे रोज़ मिलते रहे तुमने अपने चेहरे के दाग पर्दों में छुपा रखे थे मैंने भी सब ज़ख्म अपने बड़ी सफ़ाई से ढाँप रखे थे मगर हम मिलते रहे - रोज़ नए चेहरे लेकर रोज़ नए जिस्म लेकर आज, तुम्हारे चेहरे पर पर्दा नहीं आज, हम और तुम हैं, जैसे दो अजनबी दरअसल हम मिले ही नहीं थे अब तक देखा ही नहीं था कभी एक-दूसरे का सच आज मगर कितना सुन्दर है - मिलन आज, जब मैंने चूम लिए हैं तुम्हारे चेहरे के दाग और तुमने भी तो रख दी है मेरे ज़ख्मों पर - अपने होठों की मरहम। मिलन की परिभाषा कई तरह की हो सकती है। कभी कभी हज़ारों मील दूर रहकर भी दो दिल आपस में ऐसे जुड़े होते हैं कि शारीरिक दूरी उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। और कभी कभी ऐसा भी होता है कि वर्षों तक साथ रहते हुए भी दो शख्स एक दूजे के लिए अजनबी ही रह जाते हैं। और कभी कभी मिलन की आस लिए द

दिन ढल जाए हाय रात न जाए....सरफिरे वक्त को वापस बुलाती रफ़ी साहब की आवाज़

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 711/2011/151 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार, और बहुत बहुत स्वागत है आप सभी का इस सुरीले सफ़र में। कृष्णमोहन मिश्र जी द्वारा प्रस्तुत दो बेहद सुंदर शृंखलाओं के बाद मैं, सुजॉय चटर्जी वापस हाज़िर हूँ इस नियमित स्तंभ के साथ। इस स्तंभ की हर लघु शृंखला की तरह आज से शुरु होने वाली शृंखला भी बहुत ख़ास है, और साथ ही अनोखा और ज़रा हटके भी। दोस्तों, आप में से बहुत से श्रोता-पाठकों को मालूम होगा कि 'आवाज़' के मुख्य सम्पादक सजीव सारथी की लिखी कविताओं का पहला संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है, और इस पुस्तक का शीर्षक है ' एक पल की उम्र लेकर '। जब सजीव जी नें मुझसे अपनी इस पुस्तक के बारे में टिप्पणी चाही, तब मैं ज़रा दुविधा मे पड़ गया क्योंकि कविताओं की समीक्षा करना मेरे बस की बात नहीं। फिर मैंने सोचा कि क्यों न इस पुस्तक में शामिल कुल ११० कविताओं में से दस कविताएँ छाँट कर और उन्हें आधार बनाकर फ़िल्मी गीतों से सजी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक शृंखला पेश करूँ? फ़िल्मी गीत जीवन के किसी भी पहलु से अंजान नहीं रहा है, इसलिए इन १० कविताओं से मिलते जुलत

रफ़ी साहब की पुण्यतिथि पर उन्हें श्रद्धांजली एक चित्र-प्रदर्शनी के ज़रिये, चित्रकार हैं श्रीमती मधुछंदा चटर्जी

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 52 ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी दोस्तों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार, और स्वागत है आप सभी का इस 'शनिवार विशेषांक' में। दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ७०० अंक पूरे कर चुका है, और अब देखते ही देखते 'शनिवार विशेषांक' भी आज अपना एक साल पूरा कर रहा है। पिछले साल ३१ जुलाई की शाम हमनें इस साप्ताहिक स्तंभ की शुरुआत की थी 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने' के रूप में, और उस पहले अंक में हमनें गुड्डो दादी का ईमेल शामिल किया था जो समर्पित था गायिका सुरिंदर कौर को। आज ३० जुलाई 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेषांक' की ५२ वी कड़ी में हम नमन कर रहे हैं गायकी के बादशाह मोहम्मद रफ़ी साहब को, जिनकी कल ३१ जुलाई को पुण्यतिथि है। लेकिन उन्हें श्रद्धांजली अर्पित करने का ज़रिया जो हमने चुना है, वह ज़रा अलग हट के है। हम न उन पर कोई आलेख प्रस्तुत करने जा रहे हैं और न ही उन पर केन्द्रित कोई साक्षात्कार लेकर आये हैं। बल्कि हम प्रस्तुत कर रहे हैं एक चित्र-प्रदर्शनी। यह रफ़ी साहब के चित्रों की प्रदर्शनी ज़रूर है, लेकिन यह प्रदर्शनी खींची हुई तस्वीरो

मुझे दर्दे दिल क पता न था....मजरूह साहब की शिकायत रफ़ी साहब की आवाज़ में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 666/2011/106 "म जरूह साहब का ताल्लुख़ अदब से है। वो ऐसे शायर हैं जो फ़िल्म इंडस्ट्री में आकर मशहूर नहीं हुए, बल्कि वो उससे पहले ही अपनी तारीफ़ करवा चुके थे। उन्होंने बहुत ज़्यादा गानें लिखे हैं, जिनमें कुछ अच्छे हैं, कुछ बुरे भी हैं। आदमी के देहान्त के बाद उसकी अच्छाइयों के बारे में ही कहना चाहिए। वो एक बहुत अच्छे ग़ज़लगो थे। वो आज हम सब से इतनी दूर जा चुके हैं कि उनकी अच्छाइयों के साथ साथ उनकी बुराइयाँ भी हमें अज़ीज़ है। आर. डी. बर्मन साहब की लफ़्ज़ों में मजरूह साहब का ट्युन पे लिखने का अभ्यास बहुत ज़्यादा था। मजरूह साहब नें बेशुमार गानें लिखे हैं जिस वजह से साहित्य और अदब में कुछ ज़्यादा नहीं कर पाये। उन्हें जब दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया, तब उन्होंने यह कहा था कि अगर यह पुरस्कार उन्हें साहित्य के लिये मिलता तो उसकी अहमियत बहुत ज़्यादा होती। "उन्होंने कुछ ऐसे गानें लिखे हैं जिन्हें कोई पढ़ा लिखा आदमी, भाषा के अच्छे ज्ञान के साथ ही, हमारे कम्पोज़िट कल्चर के लिये लिख सकता है।" - निदा फ़ाज़ली। ६० के दशक का पहला गीत इस शृंखला का हमनें कल