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कुछ गीत इंडस्ट्री में ऐसे भी बने जिनका सम्बन्ध केवल फिल्म और उसके किरदारों तक सीमित नहीं था...

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # २४ "चै न से हमको कभी आप ने जीने ना दिया, ज़हर जो चाहा अगर पीना तो पीने ना दिया"। फ़िल्म 'प्राण जाए पर वचन ना जाए' का यह दिल को छू लेने वाला गीत आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' की महफ़िल को रोशन कर रहा है। ओ. पी. नय्यर और आशा भोसले ने साथ साथ फ़िल्म संगीत में एक लम्बी पारी खेली है। करीब करीब १५ सालों तक एक के बाद एक सुपर डुपर हिट गानें ये दोनों देते चले आए हैं। कहा जाता है कि प्रोफ़ेशनल से कुछ हद तक उनका रिश्ता पर्सनल भी हो गया था। ७० के दशक के आते आते जब नय्यर साहब का स्थान शिखर से डगमगा रहा था, उन दिनों दोनों के बीच भी मतभेद होने शुरु हो गए थे। दोनों ही अपने अपने उसूलों के पक्के। फलस्वरूप, दोनों ने एक दूसरे से किनारा कर लिया सन् १९७२ में। इसके ठीक कुछ दिन पहले ही इस गीत की रिकार्डिंग् हुई थी। दोनों के बीच चाहे कुछ भी मतभेद चल रहा हो, दोनों ने ही प्रोफ़ेशनलिज़्म का उदाहरण प्रस्तुत किया और गीत में जान डाल दी। फ़िल्म के रिलीज़ होने के पहले ही इस फ़िल्म के गानें चारों तरफ़ छा गए। ख़ास कर यह गीत इतना ज़्यादा लोकप्रिय हो गया था कि फ़िल्मफ़ेयर

मादक गीतों में जब घुलती थी आशा की नशीली आवाज़ तो रवानगी कुछ और ही होती थी

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # १३ क्यों कि आज रिवाइवल हो रहा है एक ऐसे गीत का जो उपज है आशा भोसले, ओ.पी. नय्यर और मजरूह सुल्तानपुरी के तिकड़ी की, तो यह गीत सुनवाने से पहले हो जाए कुछ बातें नय्यर साहब से जुड़ी हुई! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी नंबर ३२४ में नय्यर साहब से की गई विविध भारती टीम के मुलाक़ात का अंश हमने प्रस्तुत किया था। आज उसी का दोहराव... अहमद वसी: वक़्त चलता हुआ, चलता हुआ, कभी ना कभी आपको इस उमर पे लाता होगा जहाँ यह गुज़रा हुआ ज़माना जो है, ये गरदिशें जो हैं, ये अक्सर परछाइयाँ बन के चलती रहती हैं। तो क्या आप समझते हैं कि जो वक़्त गुज़रा वो बड़ा सुनहरा वक़्त था? ओ. पी. नय्यर: वसी साहब, एक तो मैंने आप से अर्ज़ की कि मेरी ज़िंदगी का 'aim and inspiration have been an woman'. अगर उसके अंदर ७०% स्वीट मिली है तो बाक़ी के ३०% अगर मिर्ची भी लगी है तो ३०% मिर्ची में क्यों चिल्लाते हो बेटा, 'you have enjoyed your life, I have loved you, what else do you want' यूनुस ख़ान: नय्यर साहब, जब आपकी युवावस्था के दिन थे, जब आप कुछ करना चाह रहे थे, तो आपके अंदर का एक अकेलापन ज़र

तमाम बड़े संगीतकारों के बीच रह कर भी जयदेव ने बनायीं अपनी खास जगह अपने खास अंदाज़ से

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ०८ आ ज 'ओल्ड इज़ गोल्ड रिवाइवल' में जयदेव का संगीत, साहिर लुधियानवी के बोल, फ़िल्म 'हम दोनो' का वही सदाबहार गीत "अभी ना जाओ छोड़ कर के दिल अभी भरा नहीं", जिसे आज भी सुन कर मानो दिल नहीं भरता और बार बार सुनने को जी करता है। दोस्तों, यह गीत उस दौर का है जब जयदेव साहब की धुनों पर बर्मन दादा यानी कि सचिन दा के धुनों का असर साफ़ सुनाई देता था। बाद में सचिन दा के ही कहने पर जयदेव जी ने अपनी अलग शैली बनाई और अपनी मौलिकता का परिचय दिया। जयदेव जी के परम भक्त और सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक सुरेश वाडेकर उन्हे याद करते हुए कहते हैं - " पापाजी ने बहुत मेलडियस काम किया है, ख़ूबसूरत ख़ूबसूरत गानें दिए श्रोताओं के लिए। मैं भाग्यशाली हूँ कि मैने उनको ऐसिस्ट किया ६/८ महीने। 'सुर सिंगार' प्रतियोगिता जीतने के बाद मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। वो मेरे गुरुजी के क्लोज़ फ़्रेंड्स में थे। मेरे गुरुजी थे पंडित जियालाल बसंत। लाहौर से वो उनके करीबी दोस्त थे। पापाजी ने मेरे गुरुजी से कहा कि इसे मेरे पास भेजो, एक्स्पिरीयन्स हो जाएगा कि गाना कैसे बन

तस्वीर-ए-मोहब्बत थी जिसमें...ओल्ड इस गोल्ड में आज पेश है मंदार नारायण की पसंद

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 405/2010/105 ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में हम हमारी पसंद के गीतों को तो सुनवाते ही रहते हैं। इन दिनों हम ख़ास आपकी पसंदीदा गीतों को समेट कर प्रस्तुत कर रहे हैं लघु शृंखला 'पसंद अपनी अपनी'। आज इस महफ़िल को सजाने के लिए हम लेकर आए हैं एक मुजरा गीत। युं तो बहुत सारी गायिकाओं ने मुजरे गाए गाए हैं, और अक्सर ऐसा हुआ है कि क्योंकि फ़िल्म में मुजरा हीरोइन पर नहीं बल्कि किसी चरित्र अभिनेत्री पर फ़िल्माया जाता रहा है, इसलिए कई बार फ़िल्म की मुख्य गायिका (जो ज़्यादातर लता जी हुआ करती थीं) से ये मुजरे नहीं गवाए जाते थे बल्कि आशा जी या उषा जी या फिर कोई और कमचर्चित गायिका की आवाज़ में ये मुजरे होते थे। वैसे लता जी ने भी बहुत से मुजरे गाए हैं, लेकिन मेरे हिसाब से मुजरों में जान डालने में आशा जी का कोई सानी नहीं है। ५० के दशक से लेकर ८० के दशक तक आशा जी ने बेहिसाब मुजरे गाये हैं। किसी मुजरे की खासियत होती है कि उसमें नुकीली आवाज़ के साथ साथ थोड़ी सी शोख़ी, थोड़ी सी शरारत, थोड़ी सी बेवफ़ाई, थोड़ा सा दर्द, और अपनी तरफ़ आकृष्ट करने की क्षमता होनी चाहिए। और ये सब गुण आशा जी की

मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को....जब ४०० एपिसोड पूरे किये ओल्ड इस गोल्ड ने...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 400/2010/100 औ र आज वह दिन आ ही गया दोस्तों कि जब आपका यह मनपसंद स्तंभ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पहुँच चुका है अपनी ४००-वीं कड़ी पर। फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के सुमधुर गीतों की सुरधारा में बहते हुए तथा हम और आप आपस में एक सुरीला रिश्ता कायम करते हुए इस मंज़िल तक आ पहुँचे हैं जिसके लिए आप सभी बधाई व धन्यवाद के पात्र हैं। आप सब की रचनात्मक टिप्पणियों ने हमें हर रोज़ हौसला दिया आगे बढ़ते रहने का, जिसका परिणाम आज हम सब के सामने है। तो दोस्तों, आज इस ख़ास अंक को कैसे और भी ख़ास बनाया जाए? क्योंकि इन दिनों जारी है पार्श्वगायिकाओं की गाई युगल गीतों की शृंखला 'सखी सहेली', तो क्यों ना आज के अंक में ऐसी दो आवाज़ों को शामिल किया जाए जिन्हे फ़िल्म संगीत के गायिकाओं के आकाश के सूरज और चांद कहें तो बिल्कुल भी ग़लत न होगा! जिस तरह से सूरज और चांद अपनी अपनी जगह अद्वितीय है, उसी प्रकार ये दो गायिकाएँ भी अपनी अपनी जगह अद्वितीय हैं। लता मंगेशकर और आशा भोसले। इन दो बहनों ने फ़िल्मी पार्श्व गायन की धारा ही बदल कर रख दी और जिन्होने दशकों तक इस फ़िल्म जगत में राज किया। तो दो

गलियों में घूमो, सड़कों पे झूमो, दुनिया की खूब करो सैर....आशा और उषा का है ये सुरीला पैगाम

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 398/2010/98 'स खी सहेली' शृंखला की आज की कड़ी में एक ज़बरदस्त हंगामा होने जा रहा है, क्योंकि आज के अंक के लिए हमने दो ऐसी गायिकाओं को चुना है जो अपनी हंगामाख़ेज़ आवाज़ के लिए जानी जाती रहीं हैं। इनमें से एक तो और कोई नहीं बल्कि आशा भोसले हैं, जो हर तरह के गीत गा सकने में माहिर हैं, और दूसरी आवाज़ है उषा अय्यर की। जी हाँ, वही उषा अय्यर, जो बाद में उषा उथुप के नाम से मशहूर हुईं। उषा जी पाश्चात्य और डिस्को शैली के गीतों के लिए जानी जाती हैं और उनका स्टेज परफ़ॊर्मैन्स इतना ज़रबदस्त होता है कि श्रोतागण सब कुछ भूल कर उनके साथ थिरक उठते हैं, मचल उठते हैं। तो ज़रा सोचिए, अगर आशा जी की मज़बूत लेकिन पतली आवाज़ और उषा जी मज़बूत और वज़नदार आवाज़ एक साथ मिल जाएँ एक ही गीत में तो किस तरह का हंगामा पैदा हो जाए! इसी प्रयोग को आज़माया था राहुल देव बर्मन ने १९७० की फ़िल्म 'हरे रामा हरे कृष्णा' के दो गीतों में। वैसे पहले गीत "दम मारो दम" में आशा जी की ही आवाज़ मुख्य रूप से सुनाई देती है, लेकिन जो दूसरा गीत है उसमें दोनों गायिकाओं को एक दूसरे के साथ बराबर

दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल.....साबरमती के संत को याद कर रहा है आज आवाज़ परिवार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 330/2010/30 आ ज है ३० जनवरी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का बलिदान दिवस। बापु के इस स्मृति दिवस को पूरा देश 'शहीद दिवस' के रूप में पालित करता है। बापु के साथ साथ देश के उन सभी वीर सपूतों को श्रद्धांजली अर्पित करने और सेल्युट करने का यह दिन है जिन्होने इस देश की ख़ातिर अपने प्राण न्योछावर कर दिए हैं। 'आवाज़' और 'हिंद युग्म' परिवार की ओर से, और हम अपनी ओर से इस देश पर मर मिटने वाले हर वीर सपूत को सलाम करते हैं, उनके सामने अपना सर झुका कर उन्हे सलामी देते हैं। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनें कवि प्रदीप का लिखा हुआ वह गीत जो बापु पर लिखे गए तमाम गीतों में लोगों के दिलों में बहुत ही लोकप्रिय स्थान रखता है। आशा भोसले और साथियो की आवाज़ों में फ़िल्म 'जागृति' का यह गीत है "दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती की संत तूने कर दिया कमाल, रघुपति राघव राजा राम"। 'जागृति' १९५४ की फ़िल्म थी 'फ़िल्मिस्तान' के बैनर तले बनी हुई। यह एक देशभक्ति मूलक फ़िल्म थी जिसकी कहानी एक अध्यापक और उनके छात्रों के मधुर

आप यूं ही अगर हमसे मिलते रहें....देखिये आपको भी 'ओल्ड इस गोल्ड' से प्यार हो जायेगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 324/2010/24 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं इंदु जी के पसंद के गीतों को। कुल पाँच में से तीन गानें हम पिछले तीन कड़ियों में सुन चुके हैं। आज है चौथे गीत की बारी। मोहम्मद रफ़ी और आशा भोसले की आवाज़ों में यह है फ़िल्म 'एक मुसाफ़िर एक हसीना' का एक बड़ा ही ज़बरदस्त और सुपरहिट डुएट " आप युं ही अगर हमसे मिलते रहे, देखिए एक दिन प्यार हो जाएगा"। "मस्त, प्यारा सा खूबसूरत गीत जिस के बिना कोई पिकनिक, कोई प्रोग्राम पूरा नही होता। साधना की मासूमियत भरा सौन्दर्य, प्यार के इजहार का खूबसूरत अंदाज, मधुर संगीत, सब ने मिल कर एक ऐसा गीत दिया है जिसे आप किसी भी कार्यक्रम में गा कर समा बांध सकते हैं और इंदु पुरी का मतलब ही...समा बंध जाना, महफिल की जान। " बहुत सही कहा इंदु जी, आपने। आप के पसंद पर यह गीत आज इस महफ़िल में ऐसा समा बांधेगा कि लोग कह उठेंगे कि भई वाह! क्या पसंद है! साधना और जॊय मुखर्जी पर फ़िल्माया यह गीत कश्मीर की ख़ूबसूरत वादियों में पिक्चराइज़ हुआ था। इस फ़िल्म की चर्चा तो हम पहले कर चुके हैं इस महफ़िल में, तो क्यों ना आ

परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है....लगभग १० मिनट लंबी इस कव्वाली का आनंद लीजिए पंचम के साथ

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 306/2010/06 रा हुल देव बर्मन के रचे दस अलग अलग रंगों के, दस अलग अलग जौनर के गीतों का सिलसिला जारी है इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज इसमें सज रही है क़व्वाली की महफ़िल। पंचम के बनाए हुए जब मशहूर क़व्वालियों की बात चलती है तो झट से जो क़व्वालियाँ ज़हन में आती हैं, वो हैं फ़िल्म 'दीवार' में "कोई मर जाए किसी पे ये कहाँ देखा है", फ़िल्म 'कसमें वादे' में "प्यार के रंग से तू दिल को सजाए रखना", फ़िल्म 'आंधी' में "सलाम कीजिए आली जनाब आए हैं", फ़िल्म 'हम किसी से कम नहीं' की शीर्षक क़व्वाली, फ़िल्म 'दि बर्निंग् ट्रेन' में "पल दो पल का साथ हमारा", और 'ज़माने को दिखाना है' फ़िल्म की मशहूर क़व्वाली "परी हो आसमानी तुम मगर तुमको तो पाना है", जो इस फ़िल्म का शीर्षक ट्रैक भी है। तो इन तमाम सुपरहिट क़व्वालियों में से हम ने यही आख़िरी क़व्वाली चुनी है, आशा है आप सब इस क़व्वाली का लुत्फ़ उठाएँगे। बार बार इस शृंखला में नासिर हुसैन, मजरूह सुल्तानपुरी और राहुल देव बर्मन की तिकड़

यही वो जगह है, यही वो फिजायें....किसी की यादों में खोयी आशा की दर्द भरी सदा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 298 श रद तैलंग जी के पसंद के ज़रिए आज बहुत दिनों के बाद हम लेकर आए हैं आशा भोसले और ओ. पी. नय्यर साहब की जोड़ी का एक और सदाबहार नग़मा। फ़िल्म 'ये रात फिर ना आएगी' का यह गीत "यही वो जगह है, ये ही वो फ़िज़ाएँ" इस जोड़ी का एक बहुत ही महत्वपूर्ण गीत है। बीती पुरानी यादों को उसी जगह पे जा कर फिर से एक बार जी लेने की बातें हैं इस गीत में। एस. एच. बिहारी साहब ने ऐसे जज़्बाती बोल लिखे हैं कि सुन कर दिल भर आता है। इस गीत के साथ हर कोई अपने आप को कनेक्ट कर सकता है। ख़ास कर वो लोग तो ज़रूर महसूस कर पाएँगे जो कभी अपने घर से दूर किसी जगह पर जा कर रहे होंगे और वहाँ पर कई रिश्ते भी बनाएँ होंगे, दोस्त बनाए होंगे, प्यार पाया होगा। और फिर जब उस जगह को छोड़ कर चले जाना पड़ा तो बस यादें ही साथ में वापस गईं। और फिर कई बरस बाद जब उसी जगह पर वापस लौटे तो सब कुछ बदला हुआ सा पाया। अगर कुछ वैसे का वैसा था तो बस दिल में उन बीते दिनों की यादें। "यही पर मेरा हाथ में हाथ लेकर कभी ना बिछड़ने का वादा किया था, सदा के लिए हो गए हम तुम्हारे गले से लगा कर हमें ये कहा था, कभ

दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ...जब तुतलाती आवाजों में ऐसे बच्चे मनाएं तो कौन भला रूठा रह पाए

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 267 'ब्र च्चों का एक गहरा लगाव होता है अपने दादा-दादी और नाना-नानी के साथ। कहते हैं कि बूढ़ों और बच्चों में ख़ूब अच्छी बनती है। कभी दादी-नानी बच्चों को परियों की कहानी सुनाते हुए रूपकथाओं के देश में ले जाते हैं तो कभी सर्दी की किसी सूनसान रात में बच्चों के ज़िद पर भूतों की ऐसी कहानी सुनाते हैं कि फिर उसके बाद बच्चे बिस्तर से नीचे उतरने में भी डरते हैं। कहानी चाहे कोई भी हो, नानी-दादी से कहानी सुनने का मज़ा ही कुछ और है। ठीक इसी तरह से बच्चे भी अपने इन बड़े बुज़ुर्गों का ख़याल रखते हैं। उनके साथ सैर पे जाना, उनकी छोटी मोटी ज़रूरतों को पूरा करना, चश्मा या लाठी खोजने में मदद करना जैसे काम नाती पोती ही तो करते आए हैं। घर में जब तक बड़े बूढ़े और बच्चे हों, घर की रौनक ही कुछ और होती है। अफ़सोस की बात है कि आज की पीढ़ी के बहुत से लोग अपने बूढ़े माँ बाप से अलग हो जाते हैं। ऐसे में आज के बच्चे भी अपने दादा-दादी से अलग हो जाते हैं। यह एक ऐसी हानि हो रही है बच्चों की जिसकी किसी भी और तरीके से भरपाई होना असंभव है। जो संस्कृति और शिक्षा दादा-दादी और नाना-नानी से मिलती ह

हम दोनों मिलके कागज़ पे दिल के चिट्टी लिखेंगें जवाब आएगा...चिट्टी पत्री के दिनों में लौटें क्या फिर से

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 258 दो स्तों, यह बताइए कि आख़िरी बार आपने किसी को काग़ज़ पर चिट्ठी कब लिखी थी? हाँ हाँ याद कीजिए, दिमाग़ पर और थोड़ा सा ज़ोर लगाइए। मुझे पूरा विश्वास है कि आप में से अधिकतर लोग काग़ज़ पर पत्र लिखना छोड़ चुके होंगे। ई-मेल, मोबाइल, और एस.एम.एस की रफ़्तार ने और ज़िंदगी की तेज़ गति ने पारम्परिक चिट्ठी पत्री के रिवाज़ पर गहरा चोट की है। हम नए टेक्नोलोजी के ख़िलाफ़ नहीं है, लेकिन काग़ज़ पर चिट्ठी लिखने में जो अहसासात ज़हन में उभरते हैं, वो अहसासात ई-मेल या एस.एम.एस नहीं पैदा कर सकती। किसी ने ठीक ही कहा है कि विज्ञान ने हमें दिया है वेग, लेकिन हमसे छीन लिया है हमारा आवेग! दोस्तों, आप सोच रहे होंगे कि आज मैं ऐसे फ़ंडे क्यों दे रहा हूँ। तो कारण एक ही है, कि आज का जो गीत हमने चुना है वह चिट्ठी लिखने पर आधारित है। लेकिन यह चिट्ठी किसी आम काग़ज़ पर नहीं लिखा जा रहा है, बल्कि दो प्यार करने वाले इसे लिख रहे हैं अपने दिलों के काग़ज़ पर, और जिसका दिल से ही जवाब आना है। आशा भोसले और मुकेश की युगल आवाज़ों में यह सुंदर गीत है ७० के दशक के आख़िर का। यानी कि १९७८ में यह फ़िल्म जब र

इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने...."अदा" के तखल्लुस से गज़ल कह रहे हैं शहरयार साहब

महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५७ आ ज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की आखिरी गज़ल लेकर। सीमा जी की पसंद औरों से काफ़ी अलहदा है। अब आज की गज़ल को हीं ले लीजिए। लोग अमूमन मेहदी हसन साहब, गुलाम अली साहब या फिर जगजीत सिंह जी की गज़लों की फ़रमाईश करते हैं, लेकिन सीमा जी ने जिस गज़ल की फ़रमाईश की है, उसे आशा ताई ने गाया है। इस गज़ल की एक और खासियत है और खासियत यह है कि आज की गज़ल और आज से दो कड़ी पहले पेश की गज़ल (जिसकी फ़रमाईश सीमा जी ने हीं की थी) में दो समानताएँ हैं। दो कड़ी पहले हमने आपको "गमन" फिल्म की गज़ल सुनाई थी और आज हम "उमराव जान" फिल्म की गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हैं। इन दोनों फ़िल्मों का निर्माण मुज़फ़्फ़र अली ने किया था और इन दोनों गज़लों के गज़लगो शहरयार हैं। ऐसा लगता है कि मुज़फ़्फ़र अली हमारी महफ़िल के नियमित मेहमान बन चुके हैं। अब चूँकि मुज़फ़्फ़र अली और शहरयार के बारे में हम बहुत कुछ कह चुके हैं, इसलिए क्यों न आज आशा ताई के बारे में बातें की जाएँ। ८ सितम्बर १९३३ को जन्मी आशा ताई अब ७६ साल की हो चुकी हैं, लेकिन उन्हें सुनकर उनकी उम्र का तनिक भी भान

दीवाना मस्ताना हुआ दिल, जाने कहाँ होके बहार आई...ओल्ड इस गोल्ड की ऐतिहासिक 200वीं कड़ी पर सभी श्रोताओं का आभार

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 200 औ र दोस्तों, देखते ही देखते आ गयी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की दूसरी हीरक जयंती, यानी कि 'डबल डायमंड जुबिली'। जी हाँ, आज है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का कड़ी नंबर २००। भगवान के आशिर्वाद से, आप सभी की दुआओं से हम इस पड़ाव तक आ पहुँचे हैं। लेकिन ये अभी हमारी मंज़िल नहीं है। अगर इसी तरह से आप का साथ रहा और उपरवाले की मेहरबानी बनी रही, तो हम ऐसे कई और शतक लगाने की कोशिश करते रहेंगे। जब तक आप सुनते व पढ़ते रहेंगे, हम भी सुनाते व लिखते रहेंगे। और हाँ, अगर आप में से कोई 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए पुराने गीतों पर आलेख लिखने के शौकीन हों तो हमें ज़रूर बताएँ। हमें बेहद ख़ुशी हो रही है कि आशा जी पर केन्द्रित शृंखला को हम अपनी २००-वीं कड़ी के साथ सम्पन्न कर रहे हैं। क्योंकि आज का एपिसोड बहुत महत्व रखता है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस सफ़र के लिए, तो हमने सोचा कि क्यों न उस गायक के साथ आशा जी का गाया हुआ कोई गीत सुनवाया जाए जिनके साथ आशा जी के करीयर के सब से ज़्यादा युगल गीत हैं। जी हाँ, बिल्कुल ठीक समझे आप! मोहम्मद रफ़ी के साथ आशा जी के सब से ज़्यादा गानें

हम तो जानी प्यार करेगा, नहीं डरेगा....चितलकर और आशा ने जमाया जम कर रंग

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 199 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है '१० गायक और एक आपकी आशा'। आशा भोंसले की आवाज़ वो सुरीली आवाज़ है, जानी पहचानी सी, कुछ नई कुछ पुरानी सी, कभी कोमल कभी बुलंद सी। आवाज़ वही पर अंदाज़ हमेशा नया। आशा जी की आवाज़ और अंदाज़ सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं, विदेशों में भी ख़ूब लोकप्रिय हुआ। हाल में उन्होने कई विदेशी बैंड्स से साथ मिल कर 'पॊप ऐल्बम्स' में गाने गाए हैं, जो दुनिया भर में ख़ूब सुने गए। आशा जी की आवाज़ को पाने के लिए संगीतकार और फ़िल्मकार आज भी आमादा रहते हैं जैसा कि गुज़रे ज़माने के संगीतकार और फ़िल्मकार रहते थे। फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों की बात करें तो जिन गीतों के लिए आशा जी को सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायिका का यह पुरस्कार मिला था, उनकी सूची इस प्रकार है - १९६७ - ग़रीबों की सुनो वो तुम्हारी सुनेगा (दस लाख) १९६८ - परदे में रहने दो (शिकारी) १९७१ - पिया तू अब तो आजा (कारवाँ) १९७२ - दम मारो दम (हरे रामा हरे कृष्णा) १९७३ - होने लगी है रात (नैना) १९७४ - चैन से हमको कभी आप ने जीने ना दिया (प्राण जाए पर वचन न जाए) १९७८ - ये मेरा दिल यार का दीवाना