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एक सुषिर लोकवाद्य बीन, महुवर अथवा पुंगी

स्वरगोष्ठी – 168 में आज

संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला – 6

'मन डोले मेरा तन डोले मेरे दिल का गया करार...'  नागों को भी झूमने पर विवश कर देने वाला वाद्य


‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के मंच पर जारी ‘संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला’ की छठीं कड़ी के साथ मैं कृष्णमोहन मिश्र, अपने साथी स्तम्भकार सुजॉय चटर्जी के साथ सभी संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। मित्रों, इस लघु श्रृंखला में हम आपसे भारतीय संगीत के कुछ कम प्रचलित, लुप्तप्राय अथवा अनूठे संगीत वाद्यों की चर्चा कर रहे हैं। वर्तमान में शास्त्रीय या लोकमंचों पर प्रचलित अनेक वाद्य हैं जो प्राचीन वैदिक परम्परा से जुड़े हैं और समय के साथ क्रमशः विकसित होकर हमारे सम्मुख आज भी उपस्थित हैं। कुछ ऐसे भी वाद्य हैं जिनकी उपयोगिता तो है किन्तु धीरे-धीरे अब ये लुप्तप्राय हो रहे हैं। इस श्रृंखला में हम कुछ लुप्तप्राय और कुछ प्राचीन वाद्यों के परिवर्तित व संशोधित स्वरूप में प्रचलित वाद्यों का भी उल्लेख कर रहे हैं। श्रृंखला की आज की कड़ी में हम आपसे एक ऐसे लोकवाद्य पर चर्चा करेंगे जो सुषिर वर्ग का वाद्य है, अर्थात बाँसुरी या शहनाई की तरह इस वाद्य को भी हवा से फूँक कर बजाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि बीन के स्वर से नाग मुग्ध होकर झूमने लगते हैं। ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक में ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के हमारे साथी सुजॉय चटर्जी इस सुषिर वाद्य पर चर्चा कर रहे हैं। 


दोस्तों, आपने शास्त्रीय मंचों पर कई ऐसे वाद्य देखे-सुने होंगे जो मूलतः लोकवाद्य श्रेणी में आते हैं, किन्तु गुणी संगीतज्ञों ने उनमें आवश्यक परिमार्जन कर शास्त्रीय संगीत के उपयुक्त बनाया। आज हमारी चर्चा में एक ऐसा लोकवाद्य है जो आज भी अपने मौलिक रूप में लोकमंचों पर ही सुशोभित है। वह वाद्य बीन है, जो कोई शास्त्रीय साज़ नहीं है, बल्कि इसे हम लोक-साज़ ही कहेंगे, क्योंकि इसका प्रयोग लोक संगीत मे स्वरवाद्य के रूप में ही होता है। इस साज का सर्वाधिक प्रयोग एक समुदाय विशेष के लोग अपने जीविकोपार्जन के लिए करते हैं। यह सपेरों का समुदाय है। बीन को आज हम सपेरों और साँपों से जोड़ते हैं। बीन वाद्य को पूरे भारतवर्ष में अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है। उत्तर और पूर्व भारत में इसे पुंगी, तुम्बी, महुवर, नागासर और सपेरा बाँसुरी के नामों से पुकारा जाता है, तो दक्षिण में नागस्वरम, महुदी, पुंगी और पमबत्ती कुज़ल नाम से प्रचलित है। पुंगी या बीन को सपेरे की पत्नी का दर्जा दिया जाता है और इस साज़ का विकास शुरु में लोक संगीत के लिए किया गया था।

पुंगी या बीन के चाहे कितने भी अलग-अलग नाम क्यों न हो, इस साज़ की जो संरचना है, वह हर स्थान पर लगभग एक जैसा ही है। इसकी लम्बाई करीब एक से दो फुट होती है। पारम्परिक तौर पर बीन या पुंगी एक सूखी लौकी से बनाया जाता है, जिसका इस्तेमाल एयर रिज़र्वर के लिए किया जाता है। इसके साथ बाँस के दो पाइप लगाये जाते हैं जिन्हें जिवाला कहा जाता है। इनमें से एक पाइप मेलोडी के लिए और दूसरा ड्रोन इफ़ेक्ट के लिए होती है। सबसे उपर लौकी के सूखे खोल के अन्दर एक ट्यूब डाला जाता है। वादक बाँसुरी की तरह है इसके सिरे पर फूँक मारता है। लौकी के खोल के अंदर फूँकने पर इसमें हवा भरती है और नीचे के हिस्से में लगे जिवाला से बाहर निकलती है। इन दोनों पाइपों में एक 'बीटिंग रीड' होती है जो ध्वनि उत्पन्न करती है। हम पहले ही यह चर्चा कर चुके हैं कि एक पाइप से मेलोडी बजती है और दूसरे से ड्रोन इफ़ेक्ट आता है। आधुनिक संस्करण में बाँस की दो पाइप के अलावा एक लम्बे मेटलिक ट्यूब का इस्तेमाल होता है। यह भी ड्रोन का काम करता है। पुंगी या बीन बजाते वक़्त हवा की निरन्तरता जरूरी है। फूँक में कोई ठहराव मुमकिन नहीं है। इसलिए इसे बजाने का जो सबसे प्रचलित तरीका है, वह है गोलाकार तरीके से साँस लेने का, जिसे हम अंग्रेज़ी में 'सर्कुलर ब्रीदिंग' कहते हैं। आइए, अब हम आपको समूह में बीन वादन सुनवाते हैं। इसे राजस्थान के लोक कलाकारों ने प्रस्तुत किया है।


समूह बीन वादन : राजस्थानी लोक धुन




पुंगी या बीन साज़ का इस्तेमाल राजस्थान के विख्यात लोकनृत्य, कालबेलिया में अनिवार्य रूप से होता है। इस नृत्य का कालबेलिया नामकरण इसी नाम से पहचाने जाने वाली एक बंजारा जाति के नाम पर पर हुआ है। यह जाति प्राचीन काल से ही एक जगह से दूसरे जगह पर निरन्तर घूमती रहती है। जीविकोपार्जन के लिए ये लोग साँपों को पकड़ते हैं और उनके ज़हर का व्यापार करते हैं। शायद इसी वजह से कालबेलिया लोकनृत्य के पोशाक में और नृत्य की मुद्राओं में भी सर्पों की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं। कालबेलिया जाति को सपेरा, जोगिरा, और जोगी भी कहते हैं और ये स्वयं को हिन्दू मानते है। इनके पूर्वज कांलिपार हैं, जो गुरु गोरखनाथ के बारहवें उत्तराधिकारी थे। कालबेलिया सबसे ज़्यादा राजस्थान के पाली, अजमेर, चित्तौड़गढ़ और उदयपुर ज़िलों में पाये जाते हैं। कालबेलिया नृत्य इनकी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है, जिसमें पुरुष संगीत का पक्ष संभालते हैं। और इस पक्ष को संभालने के लिए जिन साज़ों का वे सहारा लेते हैं, उनमें शामिल हैं बीन या पुंगी, डफ़ली, खंजरी, मोरचंग, खुरालिओ और ढोलक, जिनसे नर्तकियों के लिए रिदम उत्पन्न की जाती है। जैसे जैसे नृत्य आगे बढ़ता है, रिदम और तेज़ होती जाती है। इन नर्तकियों का शरीर इतना लचीला होता है कि देख कर ऐसा लगता है जैसे रबर के बनें हैं। जिस तरह से बीन बजाकर साँपों को आकर्षित और वश में किया जाता है, कालबेलिया की नर्तकियाँ भी उसी अंदाज़ में बीन और ढोलक के इर्द-गिर्द लहरा कर नृत्य प्रस्तुत करती हैं।

बीन का इस्तेमाल कई हिन्दी फ़िल्मी गीतों में भी हुआ है। और जब भी कभी साँपों के विषय पर फ़िल्म बनी तो बीन के पीसेस बहुतायत में शामिल हुए। कभी हारमोनियम और क्लेवायलिन से बीन की ध्वनि उत्पन्न की गई तो कभी कोई और सीन्थेसाइज़र से। क्योंकि मूल बीन बजाने में कठिन अभ्यास की जरूरत होती है, इसलिए ज़्यादातर गीतों में अन्य साज़ों पर मिलते-जुलते आवाज़ को उत्पन्न कर इस्तेमाल किया गया। किसी और साज़ के इस्तेमाल से बीन का ईफ़ेक्ट लाया गया है ज़्यादातर गीतों में। आइए, 1954 में प्रदर्शित फ़िल्म 'नागिन' का बेहद लोकप्रिय गीत सुनते हैं, लता मंगेशकर की आवाज़ में। इसके संगीतकार हेमन्त कुमार थे और गीत में बीन की आकर्षक धुन के वादक कल्याण जी थे। संगीतकार कल्याण जी-आनन्द जी जोड़ी के कल्याण जी उन दिनों हेमन्त कुमार के सहायक थे। गीत के शुरुआत में बीन की धुन का एक लम्बा टुकड़ा इस्तेमाल हुआ है। यह हिस्सा इतना अधिक लोकप्रिय हुआ था कि आज छः दशक बाद भी अगर किसी सन्दर्भ में बीन के धुन की ज़रूरत पड़ती है, तो इसी पीस का सहारा लिया जाता है। आप बीन की मोहक धुन से युक्त इस गीत का आनन्द लीजिए और हमें इस अंक को यहीं विराम देने की अनुमति दीजिए।


फिल्म - नागिन : ‘मन डोले मेरा तन डोले मेरे दिल का गया करार...’ : लता मंगेशकर : संगीत – हेमन्त कुमार





आज की पहेली


‘स्वरगोष्ठी’ के 168वें अंक की पहेली में आज हम आपको लगभग छः दशक पुराने एक लोकप्रिय फिल्मी गीत का अंश सुनवा रहे है। इसे सुन कर आपको दो प्रश्नों के उत्तर देने हैं। 170वें अंक की पहेली के सम्पन्न होने तक जिस प्रतिभागी के सर्वाधिक अंक होंगे, उन्हें इस श्रृंखला (सेगमेंट) का विजेता घोषित किया जाएगा।



1 – गीत के इस अंश में किस ताल वाद्य का प्रयोग किया गया है? ताल वाद्य का नाम बताइए।

2 – यह गीत किस ताल में निबद्ध है?

आप अपने उत्तर केवल swargoshthi@gmail.com या radioplaybackindia@live.com पर ही शनिवार मध्यरात्रि से पूर्व तक भेजें। comments में दिये गए उत्तर मान्य नहीं होंगे। विजेता का नाम हम ‘स्वरगोष्ठी’ के 170वें अंक में प्रकाशित करेंगे। इस अंक में प्रस्तुत गीत-संगीत, राग अथवा कलासाधक के बारे में यदि आप कोई जानकारी या अपने किसी अनुभव को हम सबके बीच बाँटना चाहते हैं तो हम आपका इस संगोष्ठी में स्वागत करते हैं। आप पृष्ठ के नीचे दिये गए comments के माध्यम से तथा swargoshthi@gmail.com अथवा radioplaybackindia@live.com पर भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकते हैं।


पिछली पहेली के विजेता


‘स्वरगोष्ठी’ की 166वीं कड़ी की पहेली में हमने आपको प्राचीन सुरबहार वाद्य पर प्रस्तुत तालबद्ध रचना का एक अंश सुनवा कर आपसे दो प्रश्न पूछे थे। पहले प्रश्न के रूप में हमने प्रस्तुत रचना का राग पूछा था, जिसका सही उत्तर है- राग जैजैवन्ती। पहेली के दूसरे दूसरे प्रश्न का सही उत्तर है- धमार ताल। इस अंक के दोनों प्रश्नो के सही उत्तर चण्डीगढ़ के हरकीरत सिंह, जबलपुर से क्षिति तिवारी, हैदराबाद की डी. हरिणा माधवी तथा पेंसिलवानिया, अमेरिका से विजया राजकोटिया ने दिया है। चारो प्रतिभागियों को ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ की ओर से हार्दिक बधाई।


अपनी बात



मित्रों, ‘रेडियो प्लेबैक इण्डिया’ के साप्ताहिक स्तम्भ ‘स्वरगोष्ठी’ के आज के अंक में हमने संगीत वाद्य परिचय श्रृंखला के अन्तर्गत लोकवाद्य बीन के बारे में चर्चा की। अगले अंक में हम एक ऐसे लोक तालवाद्य की चर्चा करेंगे, जो आज शास्त्रीय मंचों पर भी शोभायमान हो चुका है। आप भी अपनी पसन्द के विषय और गीत-संगीत की फरमाइश हमे भेज सकते हैं। हमारी अगली श्रृंखलाओं के लिए आप किसी नए विषय का सुझाव भी दे सकते हैं। अगले रविवार को प्रातः 9 बजे एक नए अंक के साथ हम ‘स्वरगोष्ठी’ के इसी मंच पर सभी संगीत-प्रेमियों की प्रतीक्षा करेंगे। 


शोध एवं आलेख : सुजॉय चटर्जी 
प्रस्तुति : कृष्णमोहन मिश्र 

Comments

Anonymous said…
मैंने कहीं पढ़ा था कि इस गाने की सिग्नेचर ट्यून में एकार्डियन का इस्तेमाल किया था न कि बीन का। कृपया स्पष्ट कीजियेगा कि सत्य क्या है?
फिल्म 'नागिन' के गीत- 'मन डोले...' में आप बीन की जो आवाज़ सुनते हैं, वह वास्तव में क्ले वायलिन की आवाज़ है। फिल्म के संगीतकार हेमन्त कुमार ने बीन का यह अनुकरण क्ले वायलिन पर अपने सहायक कल्याण जी से कराया था। कल्याण जी ने बाद में आनन्द जी के साथ संगीतकार जोड़ी बनाई थी। 'नागिन' के इस गीत में बीन के स्थान पर क्ले वायलिन के प्रयोग की पुष्टि फिल्म संगीत के इतिहास लेखक श्री पंकज राग ने अपनी पुस्तक 'धुनों की यात्रा' के पृष्ठ 438 पर की है।
been ke baare me pdhkr bahut achchha lga. mujhe bachpan se been sunne ka bahut shauk tha.
baad me jana ki saamp ke bahri kaan nhi hote wo sun nhi skta. apni suraksha ki dridhti se wo been pr nzr gadaaye rkhta hai aur uske 'movement' ke hisaab se apne fann aur shreer ko hilata dulata hai. pr........wo bhi kitna rhythmic hota hai n!
kalbeliya yani 'maut ka mitr' jinke jeewan ki kalpanaa saamp aur been ke bina kri hi nhi ja skti.
music ke sath sath aapkne jo jankariyan di hai wo sarahneey hai.
aap logon ki mehant dekhkr main aashcharyachkit hun.
Vinod kumar said…
मोरचंग कया है

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