मो. रफी को याद कर रहे हैं, युनुस खान
अट्ठाईस बरस पहले 31 जुलाई के दिन सुरसंसार का ये सुरीला पंछी, दुनिया को बेगाना मानकर उड़ गया, और तब से आज तक वो डाली कांप रही है । दरअसल मोहम्मद रफ़ी संगीत की दुनिया में शोर की साजिश के खि़लाफ़ एक सुरीला हस्तक्षेप थे।
दुनिया के नक्शे में खोजने चलें, तो पाकिस्तान के दायरे में लाहौर के नज़दीक कोटला सुल्तान सिंह को खोज पाना, काफी मशक्कत का काम होगा । यहां चौबीस दिसंबर 1924 को रफ़ी साहब का जन्म हुआ था । बाद में रफ़ी का परिवार लाहौर चला आया । यहां उन्होंने उस्ताद बड़े गु़लाम अली ख़ां साहब और उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां साहब से संगीत की तालीम ली थी ।
लाहौर में कुंदन लाल सहगल का एक कंसर्ट हो रहा था, लेकिन अचानक बिजली चली गयी और आयोजन रूक गया । सहगल ने कहा कि जब तक बिजली नहीं आयेगी वो नहीं गायेंगे । तेरह बरस के मोहम्मद रफ़ी इस आयोजन में अपने जीजा मोहम्मद हमीद के साथ आये हुए थे । उन्होंने कहा कि रफ़ी गाना गाकर जनता को शांत कर सकते हैं । इस तरह रफ़ी साहब को मंच पर गाने का मौका़ मिला था । रफ़ी साहब को पहली बार गाने का मौक़ा संगीतकार श्याम सुंदर ने दिया था सन 1942 में, फ़िल्म थी 'गुलबलोच' । इसमें रफ़ी ने अठारह बरस की उम्र में ज़ीनत बेगम के साथ 'सोणिए नी, हीरिए नी, तेरी याद ने बहुत सताया' गाना गाया था । ये गाना बेहद लोकप्रिय हुआ था । इसके बाद रफ़ी को लाहौर रेडियो स्टेशन पर नियमित गाने के बुलावे आने लगे । ये फ़िल्म 1944 में रिलीज़ हुई थी ।
यही वो साल था जब मो. रफ़ी बंबई चले आए थे । मैंने रफ़ी साहब की शुरूआत के बारे में एक किस्सा सुना है, पता नहीं इसमें किस हद तक सच्चाई है । रफ़ी साहब की मुलाक़ात नौशाद के वालिद से हुई थी और रफ़ी का गाना सुनकर उन्होंने नौशाद के नाम एक सिफ़ारिशी चिट्ठी लिखी थी । नौशाद से जब उनकी मुलाक़ात हुई तो उन्होंने इसी साल कारदार की फ़िल्म 'पहले आप' के गाने 'हिंदुस्तान के हम हैं हिंदोस्तां हमारा, हिंदु-मुस्लिम दोनों की आंखों का तारा' में रफ़ी साहब की आवाज़ का इस्तेमाल कोरस में किया था । इस गाने को दरअसल दुर्रानी, श्याम कुमार, मोतीराम, अलाउद्दीन वग़ैरह ने गाया था । इस मार्च-पास्ट गीत को सिपाहियों पर फिल्माया गया था । नौशाद ने सोचा था कि इस गाने में सिपाहियों के बूटों की आवाज़ ज़रूर होंगी । चूंकि उस ज़माने में उतनी तकनीकी सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए गायकों को फौजी बूट पहनाए गये और पैर पटकते हुए गाने को कहा गया । इस गाने की रिकॉर्डिंग के दौरान रफ़ी साहब के पैर में बहुत चोटें आ गयी थीं । रफ़ी साहब को इस गाने के बदले में पचास रूपये मेहनताना दिया गया था । इस फ़िल्म के लिए रफ़ी ने दो और कोरस गाने गाए थे ।
सन 1944 में रफ़ी साहब ने फिल्म 'गांव की गोरी' ( विलेज गर्ल) में संगीतकार श्याम सुंदर के निर्देशन में एक गाना गाया था जी.एम. दुर्रानी के साथ, बोल थे—'अजी दिल हो काबू में तो दिलदार की ऐसी-तैसी' . रिकॉर्ड कंपनी के रिकॉर्ड नंबर के मुताबिक़ ये रफ़ी साहब का दूसरा रिलीज़ गाना था । इस दौर में रफ़ी साहब कुछ फिल्मों में गानों में नज़र भी आए थे । 1945 में आई थी स्वर्णलता और नज़ीर के अभिनय से सजी फिल्म –'लैला मंजनू' । इस फ़िल्म में रफ़ी साहब ने एस. डी. बातिश और साथियों के साथ गाना गाया था 'तेरा जलवा जिसने देखा वो दीवाना हो गया'. ।संगीतकार थे पंडित गोविंदराम । इस गाने में रफ़ी परदे पर भी नज़र आए थे ।
संगीत के क़द्रदान जानते हैं कि मुकेश, रफ़ी और किशोर कुमार तीनों पर अपने शुरूआती दौर में कुंदन लाल सहगल का गहरा असर रहा था । लेकिन दिलचस्प बात ये है कि इन तीनों में से केवल रफ़ी साहब को ही सहगल के साथ गाने का मौक़ा मिला था । रफ़ी अकसर नौशाद से कहा करते थे कि उन्हें सहगल के साथ गाने का मौक़ा दिया जाये ।
ये मौक़ा आया सन 1946 में । जब नौशाद ने मो. रफ़ी को फिल्म 'शाहजहां' में कुंदनलाल सहगल के पीछे कोरस में मुख्या आवाज़ के रूप में मौक़ा दिया था । गाना था मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा -'मेरे सपनों की रानी रूही रूही रूही' . आपको बता दें कि इसी फ़िल्म से बतौर गीतकार मजरूह का सफ़र शुरू हुआ था । कोरस के साथ साथ इस गाने में एकदम आखिर में रफ़ी साहब दो लाईनें गाते हैं । नौशाद साहब बताया करते थे कि रफ़ी इस गाने की दो पंक्तियां गाकर इतने खुश थे मानो उन्हें सारी दुनिया की दौलत मिल गयी हो ।
आप समझ सकते हैं कि आज़ादी के आसपास का समय भारतीय फ़िल्म संगीत में संक्रमण का समय था । अब तक कलाकार अपने गाने स्वयं गाते थे । सहगल, नूरजहां, सुरैया वग़ैरह प्ले बेक नहीं कर रहे थे, बल्कि अपने गाने खुद ही गा रहे थे और परदे पर भी होंठ हिला रहे थे । पर रफ़ी जिस दौर में उभर रहे थे तब प्लेबैक का सफ़र शुरू हो रहा था । सन 1946 में मो. रफी को अपना पहला हिंदी एकल गीत गाने का मौक़ा मिला था फिल्म थी महबूब ख़ान की 'अनमोल घड़ी' और गाने के बोल थे—'तेरा खिलौना टूटा बालक' . ये गाना फ़िल्म के नायक पर नहीं बल्कि एक खिलौने वाले पर फिल्माया गया था ।
इसी साल फीरोज़ निज़ामी के निर्देशन में रफी ने फिल्म 'शरबती आंखें' में दो एकल गीत रिकॉर्ड किए थे । 1947 में उन्होंने फीरोज़ निजामी के ही संगीत निर्देशन में मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां के साथ गाया-'यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है' । ये गाना बड़ा हिट हुआ । इस फ़िल्म के कोरस गीत 'वो अपनी याद दिलाने को' में रफी साहब परदे पर भी दिखे । लेकिन सन 1948 में एस यू सनी की फिल्म 'मेला' में रफ़ी ने अपना पहला हिट एकल गीत दिया था—'ये जिंदगी के मेले'। दिलचस्प बात ये है कि इस फ़िल्म में ये रफ़ी का गाया एकमात्र गाना था । बाकी सारे गाने मुकेश ने गाए थे । 1949 में फिल्म 'दुलारी' के लिए रफ़ी साहब ने 'सुहानी रात ढल चुकी' जैसा बेमिसाल नगमा गाया था । इसी साल अंदाज, चांदनी रात,दिल्लगी जैसी फिल्मों ने रफी साहब को फिल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया था ।
जब बात शुरुवाती दिनों की हो रही है तो, क्यों न उनके द्वारा, उसी दौर में गाया गया बेहद चर्चित "सुहानी रात ढल चुकी " को सुन लिया जाए, ये विडियो, लन्दन में हुए रफी साहब के एक लाइव कंसर्ट से लिया गया है...आनंद लीजिये.
- युनुस खान
(लेखक विविध भारती में कार्यरत हैं । आवाज़ के पाठकों, के लिए विशेष, रफी साहब की पुण्यतिथि पर, दैनिक भास्कर में उनके द्वारा लिखे गए लेख की पुनाप्रस्तुती )
साथ ही पढिये, मो. रफी पर संजय पटेल का ये भावपूर्ण लेख.
बने रहिये आवाज़ के साथ, शाम सात बजे पढिये रफी साहब के संगीत सफर पर एक संक्षिप्त आलेख.
अट्ठाईस बरस पहले 31 जुलाई के दिन सुरसंसार का ये सुरीला पंछी, दुनिया को बेगाना मानकर उड़ गया, और तब से आज तक वो डाली कांप रही है । दरअसल मोहम्मद रफ़ी संगीत की दुनिया में शोर की साजिश के खि़लाफ़ एक सुरीला हस्तक्षेप थे।
दुनिया के नक्शे में खोजने चलें, तो पाकिस्तान के दायरे में लाहौर के नज़दीक कोटला सुल्तान सिंह को खोज पाना, काफी मशक्कत का काम होगा । यहां चौबीस दिसंबर 1924 को रफ़ी साहब का जन्म हुआ था । बाद में रफ़ी का परिवार लाहौर चला आया । यहां उन्होंने उस्ताद बड़े गु़लाम अली ख़ां साहब और उस्ताद अब्दुल वहीद ख़ां साहब से संगीत की तालीम ली थी ।
लाहौर में कुंदन लाल सहगल का एक कंसर्ट हो रहा था, लेकिन अचानक बिजली चली गयी और आयोजन रूक गया । सहगल ने कहा कि जब तक बिजली नहीं आयेगी वो नहीं गायेंगे । तेरह बरस के मोहम्मद रफ़ी इस आयोजन में अपने जीजा मोहम्मद हमीद के साथ आये हुए थे । उन्होंने कहा कि रफ़ी गाना गाकर जनता को शांत कर सकते हैं । इस तरह रफ़ी साहब को मंच पर गाने का मौका़ मिला था । रफ़ी साहब को पहली बार गाने का मौक़ा संगीतकार श्याम सुंदर ने दिया था सन 1942 में, फ़िल्म थी 'गुलबलोच' । इसमें रफ़ी ने अठारह बरस की उम्र में ज़ीनत बेगम के साथ 'सोणिए नी, हीरिए नी, तेरी याद ने बहुत सताया' गाना गाया था । ये गाना बेहद लोकप्रिय हुआ था । इसके बाद रफ़ी को लाहौर रेडियो स्टेशन पर नियमित गाने के बुलावे आने लगे । ये फ़िल्म 1944 में रिलीज़ हुई थी ।
यही वो साल था जब मो. रफ़ी बंबई चले आए थे । मैंने रफ़ी साहब की शुरूआत के बारे में एक किस्सा सुना है, पता नहीं इसमें किस हद तक सच्चाई है । रफ़ी साहब की मुलाक़ात नौशाद के वालिद से हुई थी और रफ़ी का गाना सुनकर उन्होंने नौशाद के नाम एक सिफ़ारिशी चिट्ठी लिखी थी । नौशाद से जब उनकी मुलाक़ात हुई तो उन्होंने इसी साल कारदार की फ़िल्म 'पहले आप' के गाने 'हिंदुस्तान के हम हैं हिंदोस्तां हमारा, हिंदु-मुस्लिम दोनों की आंखों का तारा' में रफ़ी साहब की आवाज़ का इस्तेमाल कोरस में किया था । इस गाने को दरअसल दुर्रानी, श्याम कुमार, मोतीराम, अलाउद्दीन वग़ैरह ने गाया था । इस मार्च-पास्ट गीत को सिपाहियों पर फिल्माया गया था । नौशाद ने सोचा था कि इस गाने में सिपाहियों के बूटों की आवाज़ ज़रूर होंगी । चूंकि उस ज़माने में उतनी तकनीकी सुविधाएं नहीं थीं, इसलिए गायकों को फौजी बूट पहनाए गये और पैर पटकते हुए गाने को कहा गया । इस गाने की रिकॉर्डिंग के दौरान रफ़ी साहब के पैर में बहुत चोटें आ गयी थीं । रफ़ी साहब को इस गाने के बदले में पचास रूपये मेहनताना दिया गया था । इस फ़िल्म के लिए रफ़ी ने दो और कोरस गाने गाए थे ।
सन 1944 में रफ़ी साहब ने फिल्म 'गांव की गोरी' ( विलेज गर्ल) में संगीतकार श्याम सुंदर के निर्देशन में एक गाना गाया था जी.एम. दुर्रानी के साथ, बोल थे—'अजी दिल हो काबू में तो दिलदार की ऐसी-तैसी' . रिकॉर्ड कंपनी के रिकॉर्ड नंबर के मुताबिक़ ये रफ़ी साहब का दूसरा रिलीज़ गाना था । इस दौर में रफ़ी साहब कुछ फिल्मों में गानों में नज़र भी आए थे । 1945 में आई थी स्वर्णलता और नज़ीर के अभिनय से सजी फिल्म –'लैला मंजनू' । इस फ़िल्म में रफ़ी साहब ने एस. डी. बातिश और साथियों के साथ गाना गाया था 'तेरा जलवा जिसने देखा वो दीवाना हो गया'. ।संगीतकार थे पंडित गोविंदराम । इस गाने में रफ़ी परदे पर भी नज़र आए थे ।
संगीत के क़द्रदान जानते हैं कि मुकेश, रफ़ी और किशोर कुमार तीनों पर अपने शुरूआती दौर में कुंदन लाल सहगल का गहरा असर रहा था । लेकिन दिलचस्प बात ये है कि इन तीनों में से केवल रफ़ी साहब को ही सहगल के साथ गाने का मौक़ा मिला था । रफ़ी अकसर नौशाद से कहा करते थे कि उन्हें सहगल के साथ गाने का मौक़ा दिया जाये ।
ये मौक़ा आया सन 1946 में । जब नौशाद ने मो. रफ़ी को फिल्म 'शाहजहां' में कुंदनलाल सहगल के पीछे कोरस में मुख्या आवाज़ के रूप में मौक़ा दिया था । गाना था मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा -'मेरे सपनों की रानी रूही रूही रूही' . आपको बता दें कि इसी फ़िल्म से बतौर गीतकार मजरूह का सफ़र शुरू हुआ था । कोरस के साथ साथ इस गाने में एकदम आखिर में रफ़ी साहब दो लाईनें गाते हैं । नौशाद साहब बताया करते थे कि रफ़ी इस गाने की दो पंक्तियां गाकर इतने खुश थे मानो उन्हें सारी दुनिया की दौलत मिल गयी हो ।
आप समझ सकते हैं कि आज़ादी के आसपास का समय भारतीय फ़िल्म संगीत में संक्रमण का समय था । अब तक कलाकार अपने गाने स्वयं गाते थे । सहगल, नूरजहां, सुरैया वग़ैरह प्ले बेक नहीं कर रहे थे, बल्कि अपने गाने खुद ही गा रहे थे और परदे पर भी होंठ हिला रहे थे । पर रफ़ी जिस दौर में उभर रहे थे तब प्लेबैक का सफ़र शुरू हो रहा था । सन 1946 में मो. रफी को अपना पहला हिंदी एकल गीत गाने का मौक़ा मिला था फिल्म थी महबूब ख़ान की 'अनमोल घड़ी' और गाने के बोल थे—'तेरा खिलौना टूटा बालक' . ये गाना फ़िल्म के नायक पर नहीं बल्कि एक खिलौने वाले पर फिल्माया गया था ।
इसी साल फीरोज़ निज़ामी के निर्देशन में रफी ने फिल्म 'शरबती आंखें' में दो एकल गीत रिकॉर्ड किए थे । 1947 में उन्होंने फीरोज़ निजामी के ही संगीत निर्देशन में मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां के साथ गाया-'यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है' । ये गाना बड़ा हिट हुआ । इस फ़िल्म के कोरस गीत 'वो अपनी याद दिलाने को' में रफी साहब परदे पर भी दिखे । लेकिन सन 1948 में एस यू सनी की फिल्म 'मेला' में रफ़ी ने अपना पहला हिट एकल गीत दिया था—'ये जिंदगी के मेले'। दिलचस्प बात ये है कि इस फ़िल्म में ये रफ़ी का गाया एकमात्र गाना था । बाकी सारे गाने मुकेश ने गाए थे । 1949 में फिल्म 'दुलारी' के लिए रफ़ी साहब ने 'सुहानी रात ढल चुकी' जैसा बेमिसाल नगमा गाया था । इसी साल अंदाज, चांदनी रात,दिल्लगी जैसी फिल्मों ने रफी साहब को फिल्मी दुनिया में स्थापित कर दिया था ।
जब बात शुरुवाती दिनों की हो रही है तो, क्यों न उनके द्वारा, उसी दौर में गाया गया बेहद चर्चित "सुहानी रात ढल चुकी " को सुन लिया जाए, ये विडियो, लन्दन में हुए रफी साहब के एक लाइव कंसर्ट से लिया गया है...आनंद लीजिये.
- युनुस खान
(लेखक विविध भारती में कार्यरत हैं । आवाज़ के पाठकों, के लिए विशेष, रफी साहब की पुण्यतिथि पर, दैनिक भास्कर में उनके द्वारा लिखे गए लेख की पुनाप्रस्तुती )
साथ ही पढिये, मो. रफी पर संजय पटेल का ये भावपूर्ण लेख.
बने रहिये आवाज़ के साथ, शाम सात बजे पढिये रफी साहब के संगीत सफर पर एक संक्षिप्त आलेख.
Comments
यूनुस जी,
बहुत-बहुत शुक्रिया।