Most of the time people Criticized today's music saying that it has nothing worth listening comparing to the music that created by the old masters in their time, while the composer of this generation claimed that they make music for the youth and deliver what they like, but seriously do we need any comparsion like that ? music can ever lost its sweetness or its melody ? Well, who better than our music expert Manish Kumar can answer this question, so guys over to manish and read what he wants to comment on this issue
समय समय पर जब भी आज के संगीत परिदृश्य की बात उठती है, इस तरह के प्रश्न उठते हैं और उठते रहेंगे। पर मेरा इस बात पर अटूट विश्वास है कि भारत जैसे देश में संगीत की लय ना कभी मरी थी ना कभी मरेगी। समय के साथ साथ हमारे फिल्म संगीत में बदलाव जरूर आया है। ५० के दशक के बाद से इसमें कई अच्छे-बुरे उतार-चढ़ाव आये हैं । अक्सर लोग ये कहते हैं कि आज के संगीत में कुछ भी सुनने लायक नहीं है। आज का संगीतकारों में मेलोडी की समझ ही नहीं है। पर मुझे इस तरह के वक्तव्य न्यायोचित नहीं लगते। इससे पहले कि मैं आज के संगीतकारों के बारे में कुछ कहूँ, भारतीय फिल्म संगीत के अतीत पर एक नज़र डालना लाज़िमी होगा ।
इसमें कोई शक नहीं पुरानी फिल्मों के गीत इतने सालों के बाद भी दिल पर वही तासीर छोड़ते हैं ।
एस. डी. बर्मन, सलिल चौधरी, मदनमोहन, हेमंत, नौशाद, शंकर जयकिशन, जैसे कमाल के संगीतकारों,
तलत महमूद,सहगल, सुरैया, गीता दत्त, लता, रफी, मन्ना डे, मुकेश, आशा, किशोर जैसे सुरीले गायकों
और राज कपूर, विमल राय, महबूब खान और गुरूदत जैसे संगीत पारखी निर्माता निर्देशकों ने ५० से ७० के दशक में जो फिल्म संगीत दिया वो अपने आप में अतुलनीय है। इसीलिये इस काल को हिन्दी फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जाता है । ये वो जमाना था जब गीत पहले लिखे जाते थे और उन पर धुनें बाद में बनाई जाती थीं ।
वक्त बदला और ७० के दशक में पंचम दा ने भारतीय संगीत के साथ रॉक संगीत का सफल समावेश पहली बार 'हरे राम हरे कृष्ण' में किया । वहीं ८० के दशक में बप्पी लाहिड़ी ने डिस्को के संगीत को अपनी धुनों का केन्द्र बिन्दु रखा । मेरी समझ से ८० का उत्तरार्ध फिल्म संगीत का पराभव काल था । बिनाका गीत माला में मवाली, हिम्मतवाला सरीखी फिल्मों के गीत भी शुरू की पायदानों पर अपनी जगह बना रहे थे । और शायद यही वजह या एक कारण रहा कि उस समय के हालातों से संगीत प्रेमी विक्षुब्ध जनता का एक बड़ा वर्ग गजल और भजन गायकी की ओर उन्मुख हुआ। जगजीत सिंह, पंकज उधास, अनूप जलोटा, तलत अजीज, पीनाज मसानी जैसे कलाकार इसी काल में उभरे।
९० का उत्तरार्ध हिन्दी फिल्म संगीत के पुनर्जागरण का समय था । पंचम दा तो नहीं रहे पर जाते-जाते १९४२ ए लव स्टोरी (१९९३) का अमूल्य तोहफा अवश्य दे गए । कविता कृष्णामूर्ति के इस काव्यात्मक गीत का रस आपने ना लिया हो तो जरूर लीजिएगा
क्यूँ नये लग रहे हैं ये धरती गगन
मैंने पूछा तो बोली ये पगली पवन
प्यार हुआ चुपके से.. ये क्या हुआ चुपके से
मैंने बादल से कभी, ये कहानी थी सुनी
पर्वतों से इक नदी, मिलने सागर से चली
झूमती, घूमती, नाचती, दौड़ती
खो गयी अपने सागर में जा के नदी
देखने प्यार की ऐसी जादूगरी
चाँद खिला चुपके से..प्यार हुआ चुपके से..
पुरानी फिल्मों से आज के संगीत में फर्क ये है कि रिदम यानि तर्ज पर जोर ज्यादा है। तरह-तरह के वाद्य यंत्रों का प्रयोग होने लगा है। धुनें पहले बनती हैं, गीत बाद में लिखे जाते हैं। नतीजन बोल पीछे हो जाते हैं और सिर्फ बीट्स पर ही गीत चल निकलते हैं।
ऐसे गीत ज्यादा दिन जेहन में नहीं रह पाते। पर ये ढर्रा सब पर लागू नहीं होता ।
१९९५-२००६ तक के हिन्दी फिल्म संगीत के सफर पर चलें तो ऐसे कितने ही संगीतकार हैं जिन पर आपका कथन आज का संगीतकार 'मेलॉडियस' संरचना .................बिलकुल सही नहीं बैठता । कुछ बानगी पेश कर रहा हूँ ताकि ये स्पष्ट हो सके कि मैं ऐसा क्यूँ कह रहा हूँ।
साल था १९९६ और संगीतकार थे यही ओंकारा वाले विशाल भारद्वाज और फिल्म थी माचिस ! आतंकवाद की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म का संगीत कमाल का था ! भला
छोड़ आये हम वो गलियाँ.....
चप्पा चप्पा चरखा चले.. और
तुम गये सब गया, मैं अपनी ही मिट्टी तले दब गया
जैसे गीतों और उनकी धुनों को कौन भूल सकता है ?
इसी साल यानी १९९६ में प्रदर्शित फिल्म इस रात की सुबह नहीं में उभरे एक और उत्कृष्ट संगीतकार एम. एम. करीम साहब ! एस. पी. बालासुब्रमण्यम के गाये इस गीत और वस्तुतः पूरी फिल्म में दिया गया उनका संगीत काबिले तारीफ है
मेरे तेरे नाम नये है
ये दर्द पुराना है,
जीवन क्या है
तेज हवा में दीप जलाना है
दुख की नगरी, कौन सी नगरी
आँसू की क्या जात
सारे तारे दूर के तारे, सबके छोटे हाथ
अपने-अपने गम का सबको साथ निभाना है..
मेरे तेरे नाम नये है.....
१९९९ में आई हम दिल दे चुके सनम और साथ ही हिन्दी फिल्म जगत के क्षितिज पर उभरे इस्माइल दरबार साहब ! शायद ही कोई संगीत प्रेमी हो जो उनकी धुन पर बने इस गीत का प्रशंसक ना हो
तड़प- तड़प के इस दिल से आह निकलती रही....
ऍसा क्या गुनाह किया कि लुट गये,
हां लुट गये हम तेरी मोहब्बत में...
पर हिन्दी फिल्म संगीत को विश्व संगीत से जोड़ने में अगर किसी एक संगीतकार का नाम लिया जाए तो वो ए. आर रहमान का होगा । रहमान एक ऐसे गुणी संगीतकार हैं जिन्हें पश्चिमी संगीत की सारी विधाओं की उतनी ही पकड़ है जितनी हिन्दुस्तानी संगीत की । जहाँ अपनी शुरूआत की फिल्मों में वो फ्यूजन म्यूजिक (रोजा, रंगीला,दौड़ ) पेश करते दिखे तो , जुबैदा और लगान में विशुद्ध भारतीय संगीत से सारे देश को अपने साथ झुमाया। खैर शांत कलेवर लिये हुये मीनाक्षी - ए टेल आफ थ्री सिटीज (२००४) का ये गीत सुनें
कोई सच्चे ख्वाब दिखाकर, आँखों में समा जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
जब सूरज थकने लगता है
और धूप सिमटने लगती है
कोई अनजानी सी चीज मेरी सांसों से लिपटने लगती है
में दिल के करीब आ जाती हूँ , दिल मेरे करीब आ जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
२००४ में एक एड्स पर एक फिल्म बनी थी "फिर मिलेंगे" प्रसून जोशी के लिखे गीत और शंकर-एहसान-लॉय का संगीत किसी भी मायने में फिल्म संगीत के स्वर्णिम काल में रचित गीतों से कम नहीं हैं। इन पंक्तियों पर गौर करें
खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे
बूंदों को धरती पर साज एक बजाने दे
हवायें कह रहीं हैं, आ जा झूमें जरा
गगन के गाल को चल जा के छू लें जरा
झील एक आदत है, तुझमें ही तो रहती है
और नदी शरारत है तेरे संग बहती है
उतार गम के मोजे जमीं को गुनगुनाने दे
कंकरों को तलवों में गुदगुदी मचाने दे
और फिर २००५ की सुपरिचित फिल्म परिणिता में आयी एक और जुगल जोड़ी संगीतकार शान्तनु मोइत्रा और गीतकार स्वान्द किरकिरे की !
अंधेरी रात में परिणिता का दर्द क्या इन लफ्जो में उभर कर आता है
रतिया अंधियारी रतिया
रात हमारी तो, चाँद की सहेली है
कितने दिनों के बाद, आई वो अकेली है
चुप्पी की बिरहा है, झींगुर का बाजे साथ
गीतों की ये फेरहिस्त तो चलती जाएगी। मैंने तो अपनी पसंद के कुछ गीतों को चुना ये दिखाने के लिये कि ना मेलोडी मरी है ना कुछ हट कर संगीत देने वाले संगीतकार।
हमारे इतने प्रतिभावान संगीतकारों और गीतकारों के रहते हुये आज के संगीत से ये नाउम्मीदी उनके साथ न्याय नहीं है । मैं मानता हूँ कि हिमेश रेशमिया जैसे जीव अपनी गायकी से आपका सिर दर्द करा देते होंगे पर वहीं सोनू निगम और श्रेया घोषाल की सुरीली आवाज भी आपके पास हैं। अगर एक ओर अलताफ रजा हैं तो दूसरी ओर जगजीत सिंह भी हैं । अगर रीमिक्स संगीत पुराने गीतों को रसातल में ले जाता दिखता है तो वहीं कैलाश खेर ने सूफी संगीत के माध्यम से संगीत की नई ऊँचाईयों को छुआ है। आपको MTV का पॉप कल्चर ही आज के युवाओं का कल्चर लगता है तो एक नजर Zee के शो सा-रे-गा-मा पर नजर दौड़ाइये जहाँ युवा प्रतिभाएँ हिन्दी फिल्म संगीत को ऊपर ले जाने को कटिबद्ध दिखती हैं ।
हाँ, ये जरूर है कि आज के इस बाजार शासित संगीत उद्योग में ऍसे गीतों की बहुतायत है जो लफ़्जों से ज्यादा अपनी रिदम की वज़ह से चर्चित होते हैं। आखिर ऐसा क्यूँ है कि एक अच्छे गीत को सुनने के लिए हमें दस बेकार गीतों का शोर सुनना पड़ता है ?
इस समस्या की तह तक जाएँ तो ये पाएँगे कि आज की इस शिक्षा प्रणाली में साहित्य चाहे वो हिंदी हो या उर्दू, पर कोई जोर नहीं है। अच्छे नंबर लाने के लिए दसवीं में लोग हिंदी छोड़ संस्कृत ले लेते हैं। जब ये युवा अपने कैरियर की दिशा चुनने के लिए चिकित्सा, अभियांत्रिकी और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में जाते हैं तो ये कटाव और गहरा हो जाता है। जब तक हम आरंभ से ही नई पीढ़ी में हिन्दी और उर्दू साहित्य रुझान नहीं पैदा करेंगे तब तक काव्यात्मक गीत संगीत को प्रश्रय देने वाला एक वर्ग तैयार नहीं होगा और ना ही गुलज़ार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी और स्वानंद किरकिरे जैसे गीतकार संगीत जगत पर समय समय पर उभरते रहेंगे ।
पर यह बात भी गौर करने की है कि जैसी विविधता संगीत के क्षेत्र में आज उपलब्ध है वैसी पहले कभी नहीं थी। मैं मानता हूँ कि ८० के दशक की गिरावट के बाद पिछले १५ सालों में एक नया संगीत युवा प्रतिभावान संगीतकारों की मदद से उभरा है । आज संगीत की सीमा देश तक सीमित नहीं, और जो नये प्रयोग हमारे संगीतकार कर रहे हैं उन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें खुले दिल से सुनना चाहिए। ये नहीं कि ये उस स्वर्णिम काल की पुनरावृति कर देंगे पर इनमें कुछ नया करने और देने की ललक और प्रतिभा दोनों है जिसे निरंतर बढ़ावा देने की जरूरत है।
जब तक संगीत को चाहने वाले रहेंगे, सुर और ताल कभी नहीं मरेंगे । जरूरत है तो अच्छे गीतकारों की एक पौध तैयार करने की और एक अच्छे श्रोता के नाते संगीत के सही चुनाव की।
(मूल रूप में ये आलेख मेरे चिट्ठे एक शाम मेरे नाम पर अगस्त २००६ में छपा था । हिन्द-युग्म,आवाज़ के लिए थोड़ी फेर बदल के बाद यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ।)
- मनीष कुमार
आवाज़ के संगीत समीक्षक
समय समय पर जब भी आज के संगीत परिदृश्य की बात उठती है, इस तरह के प्रश्न उठते हैं और उठते रहेंगे। पर मेरा इस बात पर अटूट विश्वास है कि भारत जैसे देश में संगीत की लय ना कभी मरी थी ना कभी मरेगी। समय के साथ साथ हमारे फिल्म संगीत में बदलाव जरूर आया है। ५० के दशक के बाद से इसमें कई अच्छे-बुरे उतार-चढ़ाव आये हैं । अक्सर लोग ये कहते हैं कि आज के संगीत में कुछ भी सुनने लायक नहीं है। आज का संगीतकारों में मेलोडी की समझ ही नहीं है। पर मुझे इस तरह के वक्तव्य न्यायोचित नहीं लगते। इससे पहले कि मैं आज के संगीतकारों के बारे में कुछ कहूँ, भारतीय फिल्म संगीत के अतीत पर एक नज़र डालना लाज़िमी होगा ।
इसमें कोई शक नहीं पुरानी फिल्मों के गीत इतने सालों के बाद भी दिल पर वही तासीर छोड़ते हैं ।
एस. डी. बर्मन, सलिल चौधरी, मदनमोहन, हेमंत, नौशाद, शंकर जयकिशन, जैसे कमाल के संगीतकारों,
तलत महमूद,सहगल, सुरैया, गीता दत्त, लता, रफी, मन्ना डे, मुकेश, आशा, किशोर जैसे सुरीले गायकों
और राज कपूर, विमल राय, महबूब खान और गुरूदत जैसे संगीत पारखी निर्माता निर्देशकों ने ५० से ७० के दशक में जो फिल्म संगीत दिया वो अपने आप में अतुलनीय है। इसीलिये इस काल को हिन्दी फिल्म संगीत का स्वर्णिम काल कहा जाता है । ये वो जमाना था जब गीत पहले लिखे जाते थे और उन पर धुनें बाद में बनाई जाती थीं ।
वक्त बदला और ७० के दशक में पंचम दा ने भारतीय संगीत के साथ रॉक संगीत का सफल समावेश पहली बार 'हरे राम हरे कृष्ण' में किया । वहीं ८० के दशक में बप्पी लाहिड़ी ने डिस्को के संगीत को अपनी धुनों का केन्द्र बिन्दु रखा । मेरी समझ से ८० का उत्तरार्ध फिल्म संगीत का पराभव काल था । बिनाका गीत माला में मवाली, हिम्मतवाला सरीखी फिल्मों के गीत भी शुरू की पायदानों पर अपनी जगह बना रहे थे । और शायद यही वजह या एक कारण रहा कि उस समय के हालातों से संगीत प्रेमी विक्षुब्ध जनता का एक बड़ा वर्ग गजल और भजन गायकी की ओर उन्मुख हुआ। जगजीत सिंह, पंकज उधास, अनूप जलोटा, तलत अजीज, पीनाज मसानी जैसे कलाकार इसी काल में उभरे।
९० का उत्तरार्ध हिन्दी फिल्म संगीत के पुनर्जागरण का समय था । पंचम दा तो नहीं रहे पर जाते-जाते १९४२ ए लव स्टोरी (१९९३) का अमूल्य तोहफा अवश्य दे गए । कविता कृष्णामूर्ति के इस काव्यात्मक गीत का रस आपने ना लिया हो तो जरूर लीजिएगा
क्यूँ नये लग रहे हैं ये धरती गगन
मैंने पूछा तो बोली ये पगली पवन
प्यार हुआ चुपके से.. ये क्या हुआ चुपके से
मैंने बादल से कभी, ये कहानी थी सुनी
पर्वतों से इक नदी, मिलने सागर से चली
झूमती, घूमती, नाचती, दौड़ती
खो गयी अपने सागर में जा के नदी
देखने प्यार की ऐसी जादूगरी
चाँद खिला चुपके से..प्यार हुआ चुपके से..
पुरानी फिल्मों से आज के संगीत में फर्क ये है कि रिदम यानि तर्ज पर जोर ज्यादा है। तरह-तरह के वाद्य यंत्रों का प्रयोग होने लगा है। धुनें पहले बनती हैं, गीत बाद में लिखे जाते हैं। नतीजन बोल पीछे हो जाते हैं और सिर्फ बीट्स पर ही गीत चल निकलते हैं।
ऐसे गीत ज्यादा दिन जेहन में नहीं रह पाते। पर ये ढर्रा सब पर लागू नहीं होता ।
१९९५-२००६ तक के हिन्दी फिल्म संगीत के सफर पर चलें तो ऐसे कितने ही संगीतकार हैं जिन पर आपका कथन आज का संगीतकार 'मेलॉडियस' संरचना .................बिलकुल सही नहीं बैठता । कुछ बानगी पेश कर रहा हूँ ताकि ये स्पष्ट हो सके कि मैं ऐसा क्यूँ कह रहा हूँ।
साल था १९९६ और संगीतकार थे यही ओंकारा वाले विशाल भारद्वाज और फिल्म थी माचिस ! आतंकवाद की पृष्ठभूमि में बनी इस फिल्म का संगीत कमाल का था ! भला
छोड़ आये हम वो गलियाँ.....
चप्पा चप्पा चरखा चले.. और
तुम गये सब गया, मैं अपनी ही मिट्टी तले दब गया
जैसे गीतों और उनकी धुनों को कौन भूल सकता है ?
इसी साल यानी १९९६ में प्रदर्शित फिल्म इस रात की सुबह नहीं में उभरे एक और उत्कृष्ट संगीतकार एम. एम. करीम साहब ! एस. पी. बालासुब्रमण्यम के गाये इस गीत और वस्तुतः पूरी फिल्म में दिया गया उनका संगीत काबिले तारीफ है
मेरे तेरे नाम नये है
ये दर्द पुराना है,
जीवन क्या है
तेज हवा में दीप जलाना है
दुख की नगरी, कौन सी नगरी
आँसू की क्या जात
सारे तारे दूर के तारे, सबके छोटे हाथ
अपने-अपने गम का सबको साथ निभाना है..
मेरे तेरे नाम नये है.....
१९९९ में आई हम दिल दे चुके सनम और साथ ही हिन्दी फिल्म जगत के क्षितिज पर उभरे इस्माइल दरबार साहब ! शायद ही कोई संगीत प्रेमी हो जो उनकी धुन पर बने इस गीत का प्रशंसक ना हो
तड़प- तड़प के इस दिल से आह निकलती रही....
ऍसा क्या गुनाह किया कि लुट गये,
हां लुट गये हम तेरी मोहब्बत में...
पर हिन्दी फिल्म संगीत को विश्व संगीत से जोड़ने में अगर किसी एक संगीतकार का नाम लिया जाए तो वो ए. आर रहमान का होगा । रहमान एक ऐसे गुणी संगीतकार हैं जिन्हें पश्चिमी संगीत की सारी विधाओं की उतनी ही पकड़ है जितनी हिन्दुस्तानी संगीत की । जहाँ अपनी शुरूआत की फिल्मों में वो फ्यूजन म्यूजिक (रोजा, रंगीला,दौड़ ) पेश करते दिखे तो , जुबैदा और लगान में विशुद्ध भारतीय संगीत से सारे देश को अपने साथ झुमाया। खैर शांत कलेवर लिये हुये मीनाक्षी - ए टेल आफ थ्री सिटीज (२००४) का ये गीत सुनें
कोई सच्चे ख्वाब दिखाकर, आँखों में समा जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
जब सूरज थकने लगता है
और धूप सिमटने लगती है
कोई अनजानी सी चीज मेरी सांसों से लिपटने लगती है
में दिल के करीब आ जाती हूँ , दिल मेरे करीब आ जाता है
ये रिश्ता क्या कहलाता है
२००४ में एक एड्स पर एक फिल्म बनी थी "फिर मिलेंगे" प्रसून जोशी के लिखे गीत और शंकर-एहसान-लॉय का संगीत किसी भी मायने में फिल्म संगीत के स्वर्णिम काल में रचित गीतों से कम नहीं हैं। इन पंक्तियों पर गौर करें
खुल के मुस्कुरा ले तू, दर्द को शर्माने दे
बूंदों को धरती पर साज एक बजाने दे
हवायें कह रहीं हैं, आ जा झूमें जरा
गगन के गाल को चल जा के छू लें जरा
झील एक आदत है, तुझमें ही तो रहती है
और नदी शरारत है तेरे संग बहती है
उतार गम के मोजे जमीं को गुनगुनाने दे
कंकरों को तलवों में गुदगुदी मचाने दे
और फिर २००५ की सुपरिचित फिल्म परिणिता में आयी एक और जुगल जोड़ी संगीतकार शान्तनु मोइत्रा और गीतकार स्वान्द किरकिरे की !
अंधेरी रात में परिणिता का दर्द क्या इन लफ्जो में उभर कर आता है
रतिया अंधियारी रतिया
रात हमारी तो, चाँद की सहेली है
कितने दिनों के बाद, आई वो अकेली है
चुप्पी की बिरहा है, झींगुर का बाजे साथ
गीतों की ये फेरहिस्त तो चलती जाएगी। मैंने तो अपनी पसंद के कुछ गीतों को चुना ये दिखाने के लिये कि ना मेलोडी मरी है ना कुछ हट कर संगीत देने वाले संगीतकार।
हमारे इतने प्रतिभावान संगीतकारों और गीतकारों के रहते हुये आज के संगीत से ये नाउम्मीदी उनके साथ न्याय नहीं है । मैं मानता हूँ कि हिमेश रेशमिया जैसे जीव अपनी गायकी से आपका सिर दर्द करा देते होंगे पर वहीं सोनू निगम और श्रेया घोषाल की सुरीली आवाज भी आपके पास हैं। अगर एक ओर अलताफ रजा हैं तो दूसरी ओर जगजीत सिंह भी हैं । अगर रीमिक्स संगीत पुराने गीतों को रसातल में ले जाता दिखता है तो वहीं कैलाश खेर ने सूफी संगीत के माध्यम से संगीत की नई ऊँचाईयों को छुआ है। आपको MTV का पॉप कल्चर ही आज के युवाओं का कल्चर लगता है तो एक नजर Zee के शो सा-रे-गा-मा पर नजर दौड़ाइये जहाँ युवा प्रतिभाएँ हिन्दी फिल्म संगीत को ऊपर ले जाने को कटिबद्ध दिखती हैं ।
हाँ, ये जरूर है कि आज के इस बाजार शासित संगीत उद्योग में ऍसे गीतों की बहुतायत है जो लफ़्जों से ज्यादा अपनी रिदम की वज़ह से चर्चित होते हैं। आखिर ऐसा क्यूँ है कि एक अच्छे गीत को सुनने के लिए हमें दस बेकार गीतों का शोर सुनना पड़ता है ?
इस समस्या की तह तक जाएँ तो ये पाएँगे कि आज की इस शिक्षा प्रणाली में साहित्य चाहे वो हिंदी हो या उर्दू, पर कोई जोर नहीं है। अच्छे नंबर लाने के लिए दसवीं में लोग हिंदी छोड़ संस्कृत ले लेते हैं। जब ये युवा अपने कैरियर की दिशा चुनने के लिए चिकित्सा, अभियांत्रिकी और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में जाते हैं तो ये कटाव और गहरा हो जाता है। जब तक हम आरंभ से ही नई पीढ़ी में हिन्दी और उर्दू साहित्य रुझान नहीं पैदा करेंगे तब तक काव्यात्मक गीत संगीत को प्रश्रय देने वाला एक वर्ग तैयार नहीं होगा और ना ही गुलज़ार, जावेद अख्तर, प्रसून जोशी और स्वानंद किरकिरे जैसे गीतकार संगीत जगत पर समय समय पर उभरते रहेंगे ।
पर यह बात भी गौर करने की है कि जैसी विविधता संगीत के क्षेत्र में आज उपलब्ध है वैसी पहले कभी नहीं थी। मैं मानता हूँ कि ८० के दशक की गिरावट के बाद पिछले १५ सालों में एक नया संगीत युवा प्रतिभावान संगीतकारों की मदद से उभरा है । आज संगीत की सीमा देश तक सीमित नहीं, और जो नये प्रयोग हमारे संगीतकार कर रहे हैं उन्हें बिना किसी पूर्वाग्रह के हमें खुले दिल से सुनना चाहिए। ये नहीं कि ये उस स्वर्णिम काल की पुनरावृति कर देंगे पर इनमें कुछ नया करने और देने की ललक और प्रतिभा दोनों है जिसे निरंतर बढ़ावा देने की जरूरत है।
जब तक संगीत को चाहने वाले रहेंगे, सुर और ताल कभी नहीं मरेंगे । जरूरत है तो अच्छे गीतकारों की एक पौध तैयार करने की और एक अच्छे श्रोता के नाते संगीत के सही चुनाव की।
(मूल रूप में ये आलेख मेरे चिट्ठे एक शाम मेरे नाम पर अगस्त २००६ में छपा था । हिन्द-युग्म,आवाज़ के लिए थोड़ी फेर बदल के बाद यहाँ प्रकाशित कर रहा हूँ।)
- मनीष कुमार
आवाज़ के संगीत समीक्षक
Comments
बहुत सी सुंदर विश्लेषण। मैं पिछले ८ सालों से अपने दोस्तों के बीच संगीत की चर्चा करता रहा हूँ। ज्यादातर लोग बिना किसी समीक्षा, सोच-समझ कर यह बोल देते हैं कि पुराने गाने बढ़िया होते हैं, नये गाने खराब होते हैं। कई लोग आपको ऐसा भी बोलते हुए मिल जायेंगे कि मुझे पुराने गाने की पसंद हैं, नये गानों के नाम से एलर्जी है। यह मिथ शायद इसलिए भी है क्योंकि नये गानों की संख्या ज्यादा है उसमें अच्छे गानों का प्रतिशत बहुत कम।
आपका आलेख शायद ऐसे लोगों में कुछ विश्वास का जन्म दे।
सही कहा आपने, नया संगीत उतना बुरा भी नहीं है जितनी भ्रान्ति लोगों में फ़ैली हुई है .मुश्किल यह है कि जो मधुर संगीत और मीठे बोल सुनने के लिए कान तरसते हैं, वो अनगिनत अनचाहे गीतों के शोर में कभी मिल जाते हैं और कभी नहीं मिलते ...
^^पूजा अनिल
आपकी ये बात बिल्कुल सही है कि आज की तारीख में भी अच्छा संगीत सुनने को मिल रहा है। ५० से ७० का दशक स्वर्णिम रहा व ८० के दशक में फिल्मी संगीत का सूखा पड़ा था, ये भी सही है। ९० के दशक से संगीत वापस आया था और हमें बहुत ही सुंदर गाने सुनने को मिले थे। सूफी और गज़ल दोनों ही बराबर चल रहे हैं।
परन्तु कुछ बातें मैं अपनी ओर से जोड़ना चाहूँगा। जावेद जी और गुलज़ार साहब का जिक्र आपने किया। वे लोग आज के जमाने की देन नहीं हैं। प्रसून जोशी के गीतों का मैं भी प्रशंसक हूँ। सोनू निगम और श्रेया घोषाल के गाने भी लाजवाब हैं। सारेगमप का मैं नियमित दर्शक हूँ। आपने इस्माइन दरबार के एक फिल्म का जिक्र किया। उसके अलावा और कोई उनकी तरफ से? रेशमिया का गाना बेकार हो सकता है, परन्तु उसने कईं फिल्मों में जबर्दस्त संगीत दिया है। मिसाल के तौर पर 'तेरे नाम', 'अपने' और बनारस।
आपने एक और बात कही कि बच्चे हिन्दी छोड़ कर संस्कृत लेते हैं जिससे हिन्दी और उर्दू का नुकसान हो रहा हैॅ ये तथ्य भी मेरे समझ में नहीं आया। संस्कृत जिसे आती है उसको हिन्दी के काफी शब्द भी पता होते ही हैं। मैं भी उन्हीं बच्चों में से था। इसलिये ऐसा कहा मैंने।
मेरा मानना है कि कोई भी गाने के लिये सबसे पहले शब्दों के मायने जरूरी हैं। आजकल संगीत को प्राथमिकता देने की वजह से गाने के बोल पीछे छूट रहे हैं। कईं गानों के तो मुझे मतलब ही नहीं समझ आते। और कईं की भाषा ही पता नहीं चलती है। कहने का मतलब यही है कि गाना अच्छा होने के लिये बोल, संगीत व आवाज़ तीनों की जरूरत है। आज की तारीख में ये सब मिलता है लेकिन जो पहले १०० में से ७० गानों में मिलता था वही मजा अब १०० में से १० से कम रह गया है। अब कम्प्यूटर आ गये हैं गाना, संगीत सब ठीक कर देते हैं। प्रीतम जैसे बड़े चोर भी आज की फिल्मों के ही देन हैं| पहले गायक रियाज़ करके गाना शूट करते थे, अब पहली बार में ओके हो जाता है।
एक अंतिम बात- बहुत कुछ मीडिया पर भी निर्भर करता है। ओंकारा के दो गानों का बोलबाला रहा-
बीडी जलई ले और दूसरा "नमक इश्क का"। पर इसी फिल्म के बाकि गाने जैसे "नैना ठग लेंगे" पीछे रह गये।क्यों? प्रोमोश्नल वीडियो में भी ये गाने नहीं दिखाये जाते। ये निराशा का विषय है।
मुझे जो ठीक लगा मैंने अपने विचार रखे। अन्यथा नहीं लीजियेगा।
धन्यवाद
आपने मेरे सभी प्रश्नों का उत्तर दे दिया है. धन्यवाद. आपका ब्लाग पढा.. अच्छा लिखते हैं आप संगीत के विषय में.. काफ़ी जानकारी हासिल करी मैंने..
--तपन शर्मा