Skip to main content

Posts

Showing posts with the label sahir ludhayanvi

"तू मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी...", दो दोस्तों के इस गीत के बहाने ज़िक्र आनन्द बक्शी और यश चोपड़ा के दोस्ती की

एक गीत सौ कहानियाँ - 82   ' तू मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी... '   रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़े दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'। इसकी 82-वीं कड़ी में आज जानिए 1989 की मशहूर फ़िल्म ’चाँदनी’ के गीत "तू मुझे सुना मैं तुझे सु

"तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ" - क्यों नहीं माने साहिर इस गीत की अवधि को छोटा करने के सुझाव को?

एक गीत सौ कहानियाँ - 41   ‘ तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ ... ’ 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार। दोस्तों, हम रोज़ाना रेडियो पर, टीवी पर, कम्प्यूटर पर, और न जाने कहाँ-कहाँ, जाने कितने ही गीत सुनते हैं, और गुनगुनाते हैं। ये फ़िल्मी नग़में हमारे साथी हैं सुख-दुख के, त्योहारों के, शादी और अन्य अवसरों के, जो हमारे जीवन से कुछ ऐसे जुड़े हैं कि इनके बिना हमारी ज़िन्दगी बड़ी ही सूनी और बेरंग होती। पर ऐसे कितने गीत होंगे जिनके बनने की कहानियों से, उनसे जुड़ी दिलचस्प क़िस्सों से आप अवगत होंगे? बहुत कम, है न? कुछ जाने-पहचाने, और कुछ कमसुने फ़िल्मी गीतों की रचना प्रक्रिया, उनसे जुड़ी दिलचस्प बातें, और कभी-कभी तो आश्चर्य में डाल देने वाले तथ्यों की जानकारियों को समेटता है 'रेडियो प्लेबैक इण्डिया' का यह स्तम्भ 'एक गीत सौ कहानियाँ'।  इसकी 41वीं कड़ी में आज जानिये फ़िल्म 'धूल का फूल' के सदाबहार युगल गीत "तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ..." के बारे में।  बी.आर.चोपड़ा व यश चोपड़ा ह

अभिनेत्री नन्दा को श्रद्धांजलि आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' में...

एक गीत सौ कहानियाँ - 26   ‘अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम...’ "मुझे अभी-अभी पता चला कि अभिनेत्री नन्दा, जिसे हम बेबी नन्दा कहते थे, वो अब हमारे बीच नहीं रही। यह सुन कर मुझे बहुत दुख हुआ। बेबी नन्दा जब 4-5 साल की थी, तब उसने 'मन्दिर' फ़िल्म में मेरे छोटे भाई की भूमिका निभायी थी। मैं नन्दा के पिताजी मास्टर विनायक जी की कम्पनी में बतौर बाल कलाकार 1943 से काम करती थी। मेरी और नन्दा और उसकी बड़ी बहन मीना के साथ बड़ी दोस्ती थी। नन्दा की पहली फ़िल्म 'तूफ़ान और दीया' से मैंने नन्दा के लिए प्लेबैक शुरु किया। बहुत अच्छी इंसान थी। भगवान उसकी आत्मा को शान्ति दे।" --- लता मंगेशकर अ भिनेत्री नन्दा अब इस दुनिया में नहीं रहीं। लता जी के उपर्युक्त शब्दों से पता चलता है कि कितना अन्तरंग रिश्ता रहा होगा दोनों में। आज नन्दा जी को श्रद्धा-सुमन अर्पित करने के लिए लता जी के गाये और नन्दा जी पर फ़िल्माये फ़िल्म 'हम दोनो' के भजन "अल्लाह तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम" से बेहतर कोई रचना नहीं होगी। गाँधीवादी विचारधारा लिये राग गौड़ सारंग आधारित इस

"नीले गगन के तले धरती का प्यार पले" - कैसे न बनती साहिर और रवि की सुरीली जोड़ी जब दोनों की राशी एक है!!

मशहूर गीतकार - संगीतकार जोड़ियों में साहिर लुधियानवी और रवि की जोड़ी ने भी फ़िल्म-संगीत के ख़ज़ाने को बेशकीमती रत्नों से समृद्ध किया है। कैसे न बनती यह अनमोल जोड़ी जब दोनों की जन्मतिथि लगभग साथ-साथ हैं? ३ मार्च को रवि और ८ मार्च को साहिर के जन्मदिवस को ध्यान में रखते हुए आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' की दसवीं कड़ी में चर्चा इस जोड़ी की एक कलजयी रचना की, सुजॉय चटर्जी के साथ... एक गीत सौ कहानियाँ # 10 फ़िल्म जगत में गीतकार-संगीतकार की जोड़ियाँ शुरुआती दौर से ही बनती चली आई हैं। उस ज़माने में भले स्टुडियो कॉनसेप्ट की वजह से यह परम्परा शुरु हुई हो, पर स्टुडियो सिस्टम समाप्त होने के बाद भी यह परम्परा जारी रही और शक़ील-नौशाद, शलेन्द्र-हसरत-शंकर-जयकिशन, मजरूह-नय्यर, मजरूह-सचिन देव बर्मन, साहिर-सचिन देव बर्मन, साहिर-रवि, गुलज़ार-पंचम, समीर-नदीन-श्रवण, स्वानन्द-शान्तनु जैसी कामयाब गीतकार-संगीतकार जोड़ियाँ हमें मिली। इस लेख में आज चर्चा साहिर-रवि के जोड़ी की। कहा जाता है कि जिन लोगों की राशी एक होती हैं, उनके स्वभाव में, चरित्र में, कई समानतायें पायी जाती हैं और एक राशी के दो लोगों मे

अब कोई गुलशन न उजड़े....एक आशावादी गीत आज के इस बदलते भारत की उथल पुथल में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 730/2011/170 शृं खला ‘वतन के तराने’ की समापन कड़ी में मैं कृष्णमोहन मिश्र आपका हार्दिक स्वागत करता हूँ। दोस्तों, स्वतन्त्रता की 64वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में यह श्रृंखला हमने उन बलिदानियों को समर्पित किया है, जिन्होने देश को विदेशी सत्ता से मुक्त कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इनके बलिदानों के कारण ही 15अगस्त, 1947 को विदेशी शासकों को भारत छोड़ कर जाना पड़ा। आज़ादी के 64वर्षों में हम किसी विदेशी सत्ता के गुलाम तो नहीं रहे, किन्तु स्वयं द्वारा रची गई अनेक विसंगतियों के गुलाम अवश्य हो गए हैं। इस गुलामी से मुक्त होने के लिए हमे अपने पूर्वजों के त्याग और बलिदान का स्मरण करते हुए राष्ट्र-निर्माण के लिए नए संकल्प लेने पड़ेंगे। श्रृंखला की इस समापन कड़ी में हम एक ऐसे बलिदानी का परिचय आपके साथ बाँटना चाहेंगे जो महान पराक्रमी, अद्वितीय युद्धविशारद, कुशल वक्ता के साथ-साथ प्रबुद्ध शायर भी था। उस महान बलिदानी का नाम है रामप्रसाद ‘बिस्मिल’। प्रथम विश्वयुद्ध के समय देश को गुलामी से मुक्त कराने का एक प्रयास हुआ था, जिसे ‘मैनपुरी षड्यंत्र काण्ड’ के नाम से जाना गया थ

आगे भी जाने न तू....जब बदलती है जिंदगी एक पल में रूप अनेक तो क्यों न जी लें पल पल को

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 720/2011/160 स जीव सारथी के लिखे कविता-संग्रह ' एक पल की उम्र लेकर ' पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इसी शीर्षक से लघु शृंखला की आज दसवीं और अंतिम कड़ी है। आज जिस कविता को हम प्रस्तुत करने जा रहे हैं, वह इस पुस्तक की शीर्षक कविता है 'एक पल की उम्र लेकर'। आइए इस कविता का रसस्वादन करें... सुबह के पन्नों पर पायी शाम की ही दास्ताँ एक पल की उम्र लेकर जब मिला था कारवाँ वक्त तो फिर चल दिया एक नई बहार को बीता मौसम ढल गया और सूखे पत्ते झर गए चलते-चलते मंज़िलों के रास्ते भी थक गए तब कहीं वो मोड़ जो छूटे थे किसी मुकाम पर आज फिर से खुल गए, नए क़दमों, नई मंज़िलों के लिए मुझको था ये भरम कि है मुझी से सब रोशनाँ मैं अगर जो बुझ गया तो फिर कहाँ ये बिजलियाँ एक नासमझ इतरा रहा था एक पल की उम्र लेकर। ज़िंदगी की कितनी बड़ी सच्चाई कही गई है इस कविता में। जीवन क्षण-भंगुर है, फिर भी इस बात से बेख़बर रहते हैं हम, और जैसे एक माया-जाल से घिरे रहते हैं हमेशा। सांसारिक सुख-सम्पत्ति में उलझे रहते हैं, कभी लालच में फँस जाते हैं तो कभी झूठी शान दिखा बैठते हैं। कल किसी नें न

जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला....पूरी तरह पियानो पर रचा बुना एक अमर गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 594/2010/294 'पि यानो साज़ पर फ़िल्मी परवाज़', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है यह शृंखला, जिसमें हम आपको पियानो के बारे में जानकारी भी दे रहे हैं, और साथ ही साथ फ़िल्मों से चुने हुए कुछ ऐसे गानें भी सुनवा रहे हैं जिनमें मुख्य साज़ के तौर पर पियानो का इस्तमाल हुआ है। पिछली तीन कड़ियों में हमने पियानो के इतिहास और उसके विकास से संबम्धित कई बातें जानी, आइए आगे पियानो की कहानी को आगे बढ़ाया जाए। साल १८२० के आते आते पियानो पर शोध कार्य का केन्द्र पैरिस बन गया जहाँ पर प्लेयेल कंपनी उस किस्म के पियानो निर्मित करने लगी जिनका इस्तमाल फ़्रेडरिक चौपिन करते थे; और ईरार्ड कंपनी ने बनाये वो पियानो जो इस्तमाल करते थे फ़्रांज़ लिस्ज़्ट। १८२१ में सेबास्टियन ईरार्ड ने आविष्कार किया 'डबल एस्केपमेण्ट ऐक्शन' पद्धति का, जिसमें एक रिपिटेशन लीवर, जिसे बैलेन्सर भी कहा जाता है, का इस्तमाल हुआ जो किसी नोट को तब भी रिपीट कर सकता था जब कि वह 'की' अपने सर्वोच्च स्थान तक अभी वापस पहुंचा नहीं था। इससे फ़ायदा यह हुआ कि किसी नोट को बार बार और तुरंत रिपीट करना

तुझको पुकारे मेरा प्यार.....पुनर्जन्म के प्रेमी की सदा रफ़ी साहब के स्वरों में भीगी हुई

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 574/2010/274 'मा नो या ना मानो' शृंखला में पिछले तीन अंकों में हमने आपको बताया देश विदेश की कुछ ऐसी जगहों के बारे में जिन्हे हौण्टेड माना जाता है, हालाँकि ऐसा मानने के पीछे कोई ठोस वजह अभी तक विज्ञान विकसित नहीं कर पाया है। ख़ैर, आगे बढ़ते हैं इस शृंखला में और आज हम चर्चा करेंगे पुनर्जनम की। जी हाँ, पुनर्जनम, जिसे लेकर भी लोगों में उत्सुक्ता की कोई कमी नहीं है। एक अध्ययन के अनुसार, भारत में ५०% जनता पुनर्जनम में यकीन रखता है। क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि इसके पीछे क्या कारण है? शायद हिंदु आध्यात्म, और शायद समय समय पर मीडिया में पुनर्जनम के क़िस्सों का दिखाया जाना। भोपाल के Government Arts & Commerce College के प्रिंसिपल डॊ. स्वर्णलता तिवारी पुनर्जनम का एक मशहूर उदाहरण है। उनके पुनर्जनम की कहानी दुनिया की उन ७ पुनर्जनम कहानियों में से है जिन पर वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं। एक मुलाक़ात में स्वर्णलता जी ने अपने तीन जन्मों के बारे में बताया है। आइए उनके इस दिलचस्प और रहस्यमय पुनर्जनम घटना क्रम को और थोड़ा करीब से देखा जाये। २ मार्च १९४८ में स्वर्णलता का

देखी ज़माने की यारी, बिछड़े सभी बारी बारी.....शब्द कैफी के और और दर्द गुरु दत्त का

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 548/2010/248 गु रु दत्त के जीवन की कहानी इन दिनों आप पढ़ रहे हैं और उनकी कुछ महत्वपूर्ण फ़िल्मों के गानें भी सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' के चौथे खण्ड के अंतर्गत। कल हमने जाना कि गुरु दत्त साहब ने फ़िल्म 'प्यासा' की स्क्रिप्ट फ़िल्म के बनने से बहुत पहले, ४० के दशक में ही लिख ली थी। १० महीनों तक बेरोज़गार रहने के बाद गुरु दत्त को अमीय चक्रवर्ती की फ़िल्म 'गर्ल्स स्कूल' में बतौर सहायक निर्देशक काम करने का मौका मिला, और फिर १९५० में ज्ञान मुखर्जी के सहायक के रूप में फ़िल्म 'संग्राम' में। और आख़िरकार वह दिन आ ही गया जिसका उन्हें इंतज़ार था। १९५१ में उनके मित्र देव आनंद ने अपनी फ़िल्म 'बाज़ी' को निर्देशित करने के लिए गुरु दत्त को निमंत्रण दिया। फ़िल्म ने बेशुमार शोहरत हासिल की और गुरु दत्त का नाम रातों रात मशहूर हो गया। फ़िल्म 'बाज़ी' के ही मशहूर गीत "तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले" की रेकॊर्डिंग् पर ही गुरु दत्त की मुलाक़ात गायिका गीता रॊय से हुई, और दोनों

जाने क्या तुने कही, जाने क्या मैंने कही....और बनी बात बिगड गयी गीता और गुरु दत्त की

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 547/2010/247 'हिं दी सिनेमा के लौह स्तंभ' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला के चौथे व अंतिम खण्ड में कल से हमने शुरु की है गुरु दत्त के जीवन सफ़र की कहानी। कल हम उनके जन्म और पारिवार के बारे में जाना। आइए अब बात आगे बढ़ाते हैं। गुरु दत्त की बहन ललिता ने अपने भाई को याद करते हुए कहा था कि १४ वर्ष की आयु में ही गुरु दत्त अपनी उंगलियों के सहारे दीवार पर दीये की रोशनी से छवियाँ बनाते थे। बचपन में उन्हें नृत्य करने का भी शौक था। सर्पनृत्य (स्नेक डांस) करके एक बार उन्हें ५ रुपय का पुरस्कार भी जीता था। आर्थिक अवस्था ठीक ना होने की वजह से गुरु दत्त ने कॊलेज की पढ़ाई नहीं की। लेकिन वो उदयशंकर के नृत्य मंडली से जुड़ गए। तब उनकी आयु १६ वर्ष थी। १९४१ से १९४४ तक नृत्य सीखने के बाद वो बम्बई आ गए और पुणे में 'प्रभात फ़िल्म कंपनी' में तीन साल के लिए अनुबंधित हो गए। और यहीं पर गुरु दत्त की मुलाक़ात हुई दो ऐसे प्रतिभाओं से जिनका उनके फ़िल्मों में बहुत बड़ा योगदान रहा है - देव आनंद और रहमान। १९४४ की फ़िल्म 'चाँद' में गुरु दत्त ने श्री कृष्ण का एक

वो न आयेंगें पलट के, उन्हें लाख हम बुलाएं....मुबारक बेगम की आवाज़ में चंद्रमुखी के जज़्बात

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 543/2010/243 'हिं दी सिनेमा के लौह स्तंभ' - 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला के तीसरे खण्ड में इन दिनों आप सुन रहे हैं बिमल रॊय निर्देशित फ़िल्मों के गीत और बिमल दा के फ़िल्मी यात्रा का विवरण। कल बात आकर रुकी थी 'परिणीता' में। १९५४ से अब बात को आगे बढ़ाते हैं। इस साल बिमल दा के निर्देशन में तीन फ़िल्में आईं - 'नौकरी', 'बिराज बहू' और 'बाप-बेटी'। 'नौकरी' 'दो बीघा ज़मीन' का ही शहरीकरण था। फ़िल्म में किशोर कुमार को नायक बनाया गया था, लेकिन यह फ़िल्म 'दो बीघा ज़मीन' जैसा कमाल नहीं दिखा सकी, हालाँकि "छोटा सा घर होगा बादलों की छाँव में" गीत ख़ूब लोकप्रिय हुआ। 'बिराज बहू' भी शरतचन्द्र की इसी नाम की उपन्यास पर बनी थी जिसका निर्माण किया था हितेन चौधरी ने। 'नौकरी' और 'बिराज बहू' में सलिल दा का संगीत था, लेकिन 'बाप-बेटी' में संगीत दिया रोशन ने। फिर आया साल १९५५ और एक बार फिर शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की लोकप्रिय उपन्यास 'देवदास' पर बिमल रॊय ने फ़िल्म बनाई

मैं जब भी अकेली होती हूँ...जब नुक्ते में नुक्स कर बैठी महान आशा जी भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 517/2010/217 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! एक दोहे मे कहा गया है कि "दोस (दोष) पराये देख के चला हसन्त हसन्त, अपनी याद ना आवे जिनका आदि ना अंत"। यानी कि हम दूसरों की ग़लतियों को देख कर उनका मज़ाक उड़ाते हैं, लेकिन अपनी ग़लतियों का कोई अहसास नहीं होता। अब आप अगर यह सोच रहे होंगे कि हमें दूसरों की ग़लतियाँ नहीं निकालनी चाहिए, तो ज़रा ठहरिए, क्योंकि कबीरदास के एक अन्य दोहे में यह भी कहा गया है कि "निन्दक नियरे राखिये आँगन कुटि चवाय, बिना पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय"। यानि कि हमें उन लोगों को अपने आस पास ही रखने चाहिए जो हमारी निंदा करते हैं, ताकि इसी बहाने हमें अपनी ख़ामियों और ग़लतियों के बारे में पता चलता रहेगा, जिससे कि हम अपने आप को सुधार सकते हैं। आप समझ रहे होंगे कि हम ये सब बातें किस संदर्भ में कर रहे हैं। जी हाँ, 'गीत गड़बड़ी वले' शृंखला के संदर्भ में। क्या है कि हमें भी अच्छा तो नहीं लग रहा है कि इन महान कलाकारों की ग़लतियों को बार बार उजागर करें, लेकिन अब जब शृंखला शुरु हो ही चुकी है, तो इसे अंजाम भी तो देन