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"छलिया मेरा नाम..." - इस गीत पर भी चली थी सेन्सर बोर्ड की कैंची

सेन्सर बोर्ड की कैंची की धार आज कम ज़रूर हो गई है पर एक ज़माना था जब केवल फ़िल्मी दृश्यों पर ही नहीं बल्कि फ़िल्मी गीतों पर भी कैंची चलती थी। किसी गीत के ज़रिये समाज को कोई ग़लत संदेश न चला जाए, इस तरफ़ पूरा ध्यान रखा जाता था। चोरी, छल-कपट जैसे अनैतिक कार्यों को बढ़ावा देने वाले बोलों पर प्रतिबंध लगता था। फ़िल्म 'छलिया' के शीर्षक गीत के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। गायक मुकेश के अनन्य भक्त पंकज मुकेश के सहयोग से आज 'एक गीत सौ कहानियाँ' की १६-वीं कड़ी में इसी गीत की चर्चा... एक गीत सौ कहानियाँ # 16 सम्प्रति "कैरेक्टर ढीला है", "भाग डी के बोस" और "बिट्टू सबकी लेगा" जैसे गीतों को सुन कर ऐसा लग रहा है जैसे सेन्सर बोर्ड ने अपनी आँखों के साथ-साथ अपने कानों पर भी ताला लगा लिया है। यह सच है कि समाज बदल चुका है, ५० साल पहले जिस बात को बुरा माना जाता था, आज वह ग्रहणयोग्य है, फिर भी सेन्सर बोर्ड के नरम रुख़ की वजह से आज न केवल हम अपने परिवार जनों के साथ बैठकर कोई फ़िल्म नहीं देख सकते, बल्कि अब तो आलम ऐसा है कि रेडियो पर फ़िल्मी गानें सुनने में भी शर्म महसू

तारों की नगरी से चंदा ने एक दिन....आज सुर्रैया सुना ही है एक दर्द भरी कहानी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 673/2011/113 'ए क था गुल और एक थी बुलबुल' - कहानी भरे गीतों की इस लघु शृंखला की तीसरी कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। कुंदनलाल सहगल और शांता आप्टे के बाद आज कहानी सुनाने की बारी है सुरैया की। ३० के दशक से एक छलांग मार कर आज हम पहुँच गये हैं ५० के दशक में। साल १९५४ में एक फ़िल्म आयी थी 'वारिस', जिसका "राही मतवाले" गीत आप सब को याद ही होगा। इसी फ़िल्म में सुरैया की एकल आवाज़ में एक गीत है "तारों की नगरी से चंदा ने एक दिन धरती पे आने की ठानी"। कहिये प्लॉट कैसा है कहानी का? उतावले हो रहे होंगे न आप आगे की कहानी जानने के लिये। बस थोड़ा सा इंतज़ार कीजिये, अभी हम आते हैं कहानी पर, लेकिन उससे पहले इस गीत से जुड़ी कुछ बातें कहना चाहेंगे। "राही मतवाले" गीत इतना ज़्यादा लोकप्रिय हुआ था कि इस फ़िल्म के दूसरे गीतों की तरफ़ लोगों का ध्यान ज़रा कम ही गया है। आज का प्रस्तुत गीत तो बहुत लोगों नें सुना भी नहीं होगा। सुरैया पर ही फ़िल्माये गये इस गीत में पर्दे पर उसे और उसके बेटे को दिखाया जाता है। फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की ह

भुला नहीं देना जी भुला नहीं देना, जमाना खराब है दगा नहीं देना....कुछ यही कहना है हमें भी

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 553/2010/253 ३० और ४० के दशकों से एक एक मशहूर युगल गीत सुनने के बाद 'एक मैं और एक तू' शुंखला में आज हम क़दम रख रहे हैं ५० के दशक में। इस दशक में युगल गीतों की संख्या इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि एक से बढ़कर एक युगल गीत बनें और अगले दशकों में भी यही ट्रेण्ड जारी रहा। अनिल बिस्वास, नौशाद, सी. रामचन्द्र, सचिन देव बर्मन, शंकर जयकिशन, रोशन, ओ. पी. नय्यर, हेमन्त कुमार, सलिल चौधरी जैसे संगीतकारों ने एक से एक नायाब युगल गीत हमें दिए। अब आप ही बतायें कि इस दशक का प्रतिनिधित्व करने के लिए हम इनमें से किस संगीतकार को चुनें। भई हमें तो समझ नहीं आ रहा। इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना किसी कमचर्चित संगीतकार की बेहद चर्चित रचना को ही बनाया जाये ५० के दशक का प्रतिनिधि गीत! क्या ख़याल है? तो साहब आख़िरकार हमने चुना लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी का गाया फ़िल्म 'बारादरी' का एक बड़ा ही ख़ूबसूरत युगलगीत "भुला नहीं देना जी भुला नहीं देना, ज़माना ख़राब है दग़ा नहीं देना जी दग़ा नहीं देना"। संगीतकार हैं नौशाद नहीं, नाशाद। नाशाद का असली नाम था शौक़त अली। उनका जन्म १९२३ को

न जाना न जाना मेरे बाबू दफ़्तर न जाना....सुनिए लता का शरारती अंदाज़ इस दुर्लभ गीत में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 484/2010/184 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों आप सुन रहे हैं श्री अजय देशपाण्डेय जी के चुने हुए लता मंगेशकर के कुछ बेहद दुर्लभ गीतों पर केन्द्रित लघु शृंखला 'लता के दुर्लभ दस'। ये वो गानें हैं दोस्तों जिन्हें लता जी ने अपने पार्श्वगायन करीयर के शुरुआती सालों में गाया था। अभी तक हमने इस शृंखला में 'हीर रांझा' ('४८), 'मेरी कहानी' ('४८) और 'गर्ल्स स्कूल' ('४९) फ़िल्मों के गानें सुनें। आज हम क़दम रख रहे हैं साल १९५० में। आपको यह बता दें कि अगले पाँच अंकों तक हमारे क़दम जमे रहेंगे इसी साल १९५० में और एक के बाद एक हम सुनेंगे कुल पाँच दुर्लभ गीत जिन्हें लता जी ने अपनी कमसिन आवाज़ से सजाया था इस साल। आज के गीत में लता जी के जिस अंदाज़ का मज़ा आप लेंगे, वह है छेड़-छाड़ वाला अंदाज़। फ़िल्म 'छोटी भाभी' का यह गीत है "न जाना न जाना मेरे बाबू दफ़्तर न जाना"। फ़िल्मकार के बैनर तले निर्मित इस फ़िल्म के निर्देशक थे शांति कुमार। फ़िल्म में अभिनय किया करण दीवान, नरगिस, श्याम, कुलदीप कौर, गुलाब, श्यामा, सुरैया, याकू

फिल्म में गीत लिखना एक अलग ही किस्म की चुनौती है जिसे बेहद सफलता पूर्वक निभाया बीते दौर के गीतकारों ने

ओल्ड इस गोल्ड /रिवाइवल # ३६ १९५५ में निर्माता निर्देशक ए. आर. कारदार ने किशोर कुमार और चांद उसमानी को लेकर बनायी फ़िल्म 'बाप रे बाप'। १९५२ तक नौशाद साहब ही कारदार साहब की फ़िल्मों में संगीत दे रहे थे। उसके बाद ग़ुलाम मोहम्मद, मदन मोहन और रोशन जैसे संगीतकार उनके साथ जुड़े। और 'बाप रे बाप' के लिए कारदार साहब ने चुना ओ.पी. नय्यर साहब को। और गीतकार चुना गया जाँनिसार अख़्तर को। जाँनिसार अख़्तर, जो जावेद अख़्तर साहब के पिता हैं, उन्होने नय्यर साहब के साथ कई फ़िल्मों में काम किया। जाँनिसार साहब ने भले ही बहुत सारी फ़िल्मों के लिए गानें लिखे, लेकिन उन्हे दूसरे गीतकारों की तुलना में कुछ कम ही याद किया जाता है। जाने क्यों! दोस्तों, अभी हाल में आइ.बी.एन-७ चैनल पर लता जी का एक इंटरव्यू लिया गया था और जावेद अख़्तर साहब उसमें लता जी से बातचीत कर रहे थे। तो जब जावेद साहब ने लता जी से पूछा कि कोई एक ऐसा गाना वो बताएँ जो सब से ज़्यादा उन्हे पसंद रहा है, तो पहले तो लता जी हिचकिचाई यह कहते हुए कि किसी एक गीत को चुनना नामुमकिन है। फिर भी जावेद साहब के ज़िद करने पर उन्होने युंही कह दिया क

तेरी राहों में खड़े हैं दिल थाम के...गीतकार कमर जलालाबादी को याद कीजिये स्वराजन्ली लता के स्वरों की देकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 319/2010/19 ९ जनवरी २००३ को हम से बिछड़ गए थे फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध गीतकार क़मर जलालाबादी और जैसे हर तरफ़ से उन्ही का लिखा हुआ गीत गूंज उठा कि "फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम, हम ना भूलेंगे तुम्हे अल्लाह क़सम"। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में क़मर साहब को हमारी 'स्वरांजली'। क़मर जलालाबादी की ख़ूबी सिर्फ़ गीत लेखन तक ही सीमीत नहीं रही। वो एक आदरणीय शायर और इंसान थे। फ़िल्म जगत की चकाचौंध में रह कर भी वो एक सच्चे कर्मयोगी का जीवन जीते रहे। १९५० के दशक में कामयाबी की शिखर पर पहुँचने के बाद भी उनकी सादगी पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उनकी संजीदगी उनके गीतों से छलक पड़ी। दोस्तो, क़मर साहब के साथ हुस्नलाल भगतराम और ओ. पी. नय्यर की अच्छी ट्युनिंग् जमी थी। बाद मे संगीतकार जोड़ी कल्याणजी आनंदजी के साथ तो एक लम्बी पारी उन्होने खेली और कई महत्वपूर्ण गानें इस जोड़ी के नाम किए। सन् १९६० में जिस फ़िल्म से क़मर साहब और कल्याणजी-आनंदजी की तिकड़ी बनी थी, वह फ़िल्म थी 'छलिया'। इस फ़िल्म के सभी गानें सुपर डुपर हिट हुए। उस समय शंकर जयकिशन और शैलेन्द्र-हसरत

रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत (१९) फिल्म गीतकार शृंखला भाग १

जब फ़िल्मी गीतकारों की बात चलती है तो कुछ गिनती के नाम ही जेहन में आते हैं, पर दोस्तों ऐसे अनेकों गीतकार हैं, जिनके नाम समय के गर्द में कहीं खो से गए हैं, जिनके लिखे गीत तो हम आज भी शौक से सुनते हैं पर उनके नाम से अपरिचित हैं, और इसके विपरीत ऐसा भी है कि कुछ बेहद मशहूर गीतकारों के लिखे बेहद अनमोल से गीत भी उनके अन्य लोकप्रिय गीतों की लोकप्रियता में कहीं गुमसुम से खड़े मिलते हैं, फ़िल्मी दुनिया के गीतकारों पर "रविवार सुबह की कॉफी" में हम आज से एक संक्षिप्त चर्चा शुरू कर रहे हैं, इस शृंखला की परिकल्पना भी खुद हमारे नियमित श्रोता पराग सांकला जी ने की है, तो चलिए पराग जी के संग मिलने चलें सुनहरे दौर के कुछ मशहूर/गुमनाम गीतकारों से और सुनें उनके लिखे कुछ बेहद सुरीले/ सुमधुर गीत. हम आपको याद दिला दें कि पराग जी मरहूम गायिका गीत दत्त जी को समर्पित जालस्थल का संचालन करते हैं. १) शैलेन्द्र महान गीतकार शैलेन्द्र जी का असली नाम था "शंकर दास केसरीलाल शैलेन्द्र". उनका जन्म हुआ था सन् १९२३ में रावलपिन्डी (अब पाकिस्तान में). भारतीय रेलवे में वास मुंबई में सन् १९४७ में काम कर रहे

ये काफिला है प्यार का चलता ही जायेगा....मुकेश और आशा ने किया था अपने श्रोताओं से वादा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 198 युं तो आशा भोंसले और मुकेश ने अलग अलग असंख्य गीत गाए हैं, लेकिन जब इन दोनों के गाए हुए युगल गीतों की बात आती है तो हम बहुत ज़्यादा लोकप्रिय गीतों की फ़ेहरिस्त बनाने में असफल हो जाते हैं। हक़ीकत यह है कि मुकेश ने ज़्यादातर लता जी के साथ ही अपने मशहूर युगल गीत गाए हैं। लेकिन फिर भी आशा-मुकेश के कई युगल गीत हैं जो यादगार हैं। ख़ास कर राज कपूर की उन फ़िल्मों में जिनमें लता जी की आवाज़ मौजूद नहीं हैं, उनमें हमें आशा जी के साथ मुकेश के गाए गानें सुनने को मिले हैं, जैसे कि 'फिर सुबह होगी', 'मेरा नाम जोकर', वगेरह। राज कपूर कैम्प से बाहर निकलें तो आशा-मुकेश के जिन गीतों की याद झट से आती है, वे हैं 'एक बार मुस्कुरा दो' फ़िल्म के गानें और फ़िल्म 'तुम्हारी क़सम' का "हम दोनो मिल के काग़ज़ पे दिल के चिट्ठी लिखेंगे जवाब आएगा"। आज हमने जिस युगल गीत को चुना है वह इन में से कोई भी नहीं है। बल्कि हम जा रहे हैं बहुत पीछे की ओर, ४० के दशक के आख़िर में। १९४८ में हंसराज बहल के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'चुनरिया' से शुरुआत करने क

मैं बांगाली छोरा करूँ प्यार को नामोश्काराम....बंगाल और मद्रास के बीच छिडी प्यार की जंग आशा और किशोर के मार्फ़त

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 196 क्या आप के ज़हन में है दोस्तों कि आज तारीख़ कौन सी है? आज है ८ सितंबर। और ८ सितंबर का दिन है हमारी, आपकी, हम सब की चहीती गायिका आशा भोंसले जी का जन्मदिन । आज ८ सितंबर २००९ को आशा जी मना रहीं हैं अपना ७८-वाँ जन्म दिवस। पिछले ६ दशकों से उनकी आवाज़ हमारी ज़िंदगियों में रस घोलती चली आ रही है। क्या बच्चे, क्या जवान, क्या बूढ़े, हर किसी के दिल पर छायी हुई है आशा जी की दिलकश आवाज़। यह वो आवाज़ है दोस्तों जिस पर समय का कोई असर नहीं है। आशा जी ने फ़िल्म संगीत के कई बदलते दौर देखे हैं, और हर दौर में उन्होने अपनी आवाज़ का जादू कुछ इस क़दर बिखेरा है कि हर दौर में उन्होंने सुनने वालों के दिलों पर राज किया है। मैं अपनी तरफ़ से, 'आवाज़' की तरफ़ से और पूरे 'हिंद युग्म' परिवार की तरफ़ से आशा जी को दे रहा हूँ ढेरों शुभकामनाएँ। आशा जी के जन्मदिवस को केन्द्र कर हम इन दिनों सुन रहे हैं उनके युगल गीतों की एक ख़ास लघु शृंखला '१० गायक और एक आपकी आशा'। क्योंकि आज आशा जी का बर्थडे है, तो क्यों न आज थोड़ी से मस्ती की जाए, थोड़े हँसी मज़ाक के साथ आज के 'ओल

ये कैसी अजब दास्ताँ हो गयी है...छुपाते छुपाते बयाँ हो गयी है...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 99 क ल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हमने सुनी थी नूरजहाँ की आवाज़। आज के 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे भी कल जैसी ही बात है क्यूंकि आज भी हम एक ऐसी 'सिंगिंग स्टार' की आवाज़ आप तक पहुँचा रहे हैं जो अपने ज़माने की सबसे महँगी अभिनेत्री हुआ करती थीं। ४० के दशक की इस मशहूर अदाकारा और गायिका का असर कुछ यूँ था कि उनकी एक झलक पाने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। एक बार इस अदाकारा की एक फ़िल्म का 'प्रिमीयर' का मौका था, सिनेमाघर के बाहर लोगों की ख़ासी भीड़ जमा हो गयी थी। तो जब ये अदाकारा अंदर जाने लगीं तो लोग उनसे हाथ मिलाने के लिए बेताब हो उठे। हालात बिगड़ते देख वहाँ पुलिस बुलायी गयी। भीड़ को सम्भालने के लिए लाठी-चार्ज भी करना पड़ा। इसके बाद से इस अदाकारा ने फ़िल्मों के 'प्रिमीयर' में जाना ही बंद कर दिया। इसी से इस अदाकारा के चाहनेवालों की दीवानगी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। अपनी ख़ूबसूरती, लाजवाब अभिनय और बेहद सुरीली आवाज़ वाली इस 'सिंगिंग स्टार' को हम और आप सुरैय्या के नाम से जानते हैं। ४० के दशक की इस लाजवाब 'सिंगिंग स्टार'

भूल जा सपने सुहाने भूल जा....रचने वाले हंसराज बहल को भूला दिया दुनिया ने...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 78 दो स्तों, फ़िल्म जगत में बहुत से ऐसे संगीतकार हुए हैं जिन्होने काम तो बहुत किया है लेकिन उनकी क़िस्मत ने उनका इतना साथ नहीं दिया कि वो भी शोहरत की बुलन्दियों को छू पाते। ऐसे ही एक संगीतकार रहे हैं हंसराज बहल। राजधानी, मिलन, मिस बाम्बे, चंगेज़ ख़ान, सावन, और सिकंदर-ए-आज़म उनकी कुछ चर्चित फ़िल्में रही हैं। गायिका आशा भोंसले ने अपना पहला हिन्दी फ़िल्मी गीत इन्ही के संगीत निर्देशन में १९४८ में फ़िल्म 'चुनरिया' के लिए गाया था। हंसराज बहल ने गायिका मधुबाला ज़वेरी को भी उनका पहला ब्रेक दिया था। हंसराज बहल के छोटे भाई गुलशन बहल के साथ मिलकर वो निर्माता भी बने और अपने बैनर का नाम रखा अपने पिता निहाल चन्द्र के नाम पर, एन. सी. फ़िल्म्स। इस बैनर के तले पहली फ़िल्म बनी थी 'लाल परी' और आगे चलकर कुछ २० के आसपास फ़िल्में इन दोनो भाइयों ने बनाये और इन सभी फ़िल्मों में हंसराज का संगीत था। इसी बैनर के तले बनी थी १९५६ की फ़िल्म 'राजधानी' जिसका एक बड़ा ही मशहूर गीत आज हम आपके लिए लेकर आए हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में। "भूल जा सपने सुहाने

मुखड़े पे गेसू आ गए आधे इधर आधे उधर...किशोर कुमार की मीठी शिकायत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 44 दो स्तों, कुछ दिन पहले 'ओल्ड इस गोल्ड' में हमने आपको किशोर कुमार का गाया और सी रामचंद्र का संगीतबद्ध किया हुआ फिल्म "आशा" का मशहूर गीत सुनवाया था "ईना मीना डीका". यह गीत किशोर और सी रामचंद्र की जोडी का शायद सबसे लोकप्रिय गीत रहा है. यूँ तो इस गायक - संगीतकार की जोडी ने साथ साथ बहुत ज़्यादा काम नहीं किया, लेकिन एक और ऐसी फिल्म है जिसमें इन दोनो ने अपने अपने हुनर के जलवे दिखाए, और वो फिल्म है "पायल की झंकार". आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में एक बार फिर से किशोर कुमार और सी रामचंद्र को सलाम करते हुए आप की खिदमत में हम लेकर आए हैं पायल की झंकार फिल्म का एक बडा ही अनूठा सा गीत जिसे आपने बहुत दिनों से शायद सुना नहीं होगा. क़मर जलालाबादी ने इस गीत को लिखा था. सन 1966 में बनी फिल्म "पायल की झंकार" के मुख्य कलाकार थे किशोर कुमार, राजश्री और ज्योति लक्ष्मी. इसी शीर्षक से राजश्री प्रोडक्शन ने 1980 में एक फिल्म बनाई थी, और 1980 की इस फिल्म में गायिका अलका याग्निक ने अपना पहला हिन्दी फिल्मी गीत गाया था. बहरहाल 1980 से हम वाप

पिया पिया न लागे मोरा जिया...आजा चोरी चोरी....

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 30 दो स्तों, कुछ गीत ऐसे होते हैं जो केवल एक मुख्य साज़ पर आधारित होते हैं. उदाहरण के तौर पर कश्मीर की कली का गाना "है दुनिया उसी की ज़माना उसी का" केवल 'सेक्साफोन' पर आधारित है. इस गीत के संगीतकार थे ओपी नय्यर. नय्यर साहब ने ऐसे ही कुछ और गीतों में भी सिर्फ़ एक मुख्य साज़ का इस्तेमाल किया है. उनके संगीत की खासियत भी यही थी की वो '7-पीस ऑर्केस्ट्रा' से उपर नहीं जाते थे. इसी तरह का एक गीत था फिल्म "फागुन" में जिसमें केवल बाँसुरी का मुख्य रूप से इस्तेमाल हुआ. फिल्म फागुन के सभी गीतों में बाँसुरी सुनाई पड्ती है जिन्हे बजाया था उस ज़माने के मशहूर बाँसुरी वादक सुमंत राज ने. तो आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में आप सुनने जा रहे हैं फिल्म फागुन का वही गीत जिसमें है सुमंत राज की मधुर बाँसुरी की तानें, ओपी नय्यर का दिलकश संगीत, और आशा भोंसले की मनमोहक आवाज़. और अब इस फिल्म के गीत संगीत से जुडी कुछ बातें हो जाए? यह फिल्म बनी थी सन 1958 में. बिभूति मित्रा द्वारा निर्मित एवं निर्देशित इस फिल्म में भारत भूषण और मधुबाला ने मुख्य किरदार निभाए.

डम डम डिगा डिगा...मौसम भीगा भीगा

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 03 "ओल्ड इस गोल्ड" की शृंखला में आज का गीत है फिल्म छलिया से. दोस्तों, एक 'टीम' बनी थी राज कपूर, मुकेश, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी और शंकर जयकिशन की. 50 के दशक में इस 'टीम' ने एक से एक बेहतरीन 'म्यूज़िकल' फिल्में हमें दी. मुकेश की आवाज़ राज कपूर पर कुछ ऐसी जमी कि इन दोनो को एक दूसरे से जुदा करना नामुमकिन सा हो गया. सन 1960 में जब सुभाष देसाई ने फिल्म छलिया बनाने की सोची तो उन्होने अपने भाई मनमोहन देसाई को पहली बार निर्देशन का मौका दिया. फिल्म का मुख्य किरदार राज कपूर को ध्यान में रखकर लिखा गया. इस तरह से मुकेश को गायक चुन लिया गया. लेकिन गीत संगीत का भार शैलेन्द्र - हसरत और शंकर जयकिशन के बजाय सौंपा गया क़मर जलालाबादी और कल्याणजी आनांदजी को. लेकिन इस फिल्म के गीतों को सुनकर ऐसा लगता है की जैसे वही पुरानी 'टीम' ने बनाए हैं इस फिल्म के गीत. कल्याणजी आनांदजी ने उसी अंदाज़ को ध्यान में रखकर इसके गाने 'कंपोज़' किए. और आगे चलकर कल्याणजी आनंदजी के संगीत निर्देशन में ही मुकेश ने अपने 'करियर' के सबसे ज़्यादा गाने गाए