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हु तू तू....भई घर गृहस्थी की नोंक झोंक भी तो किसी कबड्डी के खेल से कम नहीं है न...

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 609/2010/309 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और कड़ी के साथ हम हाज़िर हैं। इन दिनों विश्वकप क्रिकेट के उत्साह को और भी ज़्यादा बढ़ाने के लिए हम भी खेल-कूद भरे गानें लेकर उपस्थित हो रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'खेल खेल में' के अंतर्गत। अभी परसों ही हम बातें कर रहे थे विश्वकप प्रारंभ होने से पहले के क्रिकेट के बारे में। आइए आज आपको बतायें कि एक दिवसीय मैच, यानी कि वन डे इंटरनैशनल की शुरुआत किस तरह से और कब हुई थी। १९६० के दशक के शुरुआत में ब्रिटिश काउण्टी क्रिकेट टीम्स क्रिकेट के एक छोटे स्वरूप को खेलना शुरु किया जो केवल एक ही दिन का होता था। १९६२ में चार प्रतिभागी दलों के बीच प्रतियोगिता आयोजित की गई जिसका शीर्षक था 'मिडलैण्ड्स नॊक आउट कप'। उसके बाद १९६३ में 'जिलेट कप' लोकप्रिय हो जाने से एक दिवसीय क्रिकेट की तरफ़ लोगों का रुझान बढ़ने लगा। १९६९ में एक नैशनल सण्डे लीग का गठन हुआ और पहला एक दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच खेला गया बारिश से प्रभावित एक क्रिकेट टेस्ट मैच के पाँचवे दिन। यह मैच था इंगलैण्ड और ऒस्ट्र

आधा है चंद्रमा रात आधी.....पर हम वी शांताराम जैसे हिंदी फिल्म के लौह स्तंभ पर अपनी बात आधी नहीं छोडेंगें

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 535/2010/235 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों नमस्कार! 'हिंदी सिनेमा के लौह स्तंभ' - इस लघु शृंखला के पहले खण्ड के अंतिम चरण मे आज हम पहुँच चुके हैं। इस खण्ड में हम बात कर रहे हैं फ़िल्मकार वी. शांताराम की। उनकी फ़िल्मी यात्रा में हम पहुँच चुके थे १९५७ की फ़िल्म 'दो आँखें बारह हाथ' तक। आज बातें उनकी एक और संगीत व नृत्य प्रधान फ़िल्म 'नवरंग' की, जो आई थी ५० के दशक के आख़िर में, साल था १९५९। इससे पहले की हम इस फ़िल्म की विस्तृत चर्चा करें, आइए आपको बता दें कि ६०, ७० और ८० के दशकों में शांताराम जी ने किन किन फ़िल्मों का निर्देशन किया था। १९६१ में फिर एक बार शास्त्रीय संगीत पर आधारित म्युज़िकल फ़िल्म आई 'स्त्री'। 'नवरंग' और 'स्त्री', इन दोनों फ़िल्मों में वसत देसाई का नहीं, बल्कि सी. रामचन्द्र का संगीत था। १९६३ में वादक व संगीत सहायक रामलाल को उन्होंने स्वतंत्र संगीतकार के रूप में संगीत देने का मौका दिया फ़िल्म 'सेहरा' में। इस फ़िल्म के गानें भी ख़ूब चले। १९६४ की में वी. शांताराम ने अपनी सुपुत्री राजश्री शा

मेरा रंग दे बसंती चोला....जब गीतकार-संगीतकार प्रेम धवन मिले अमर शहीद भगत सिंह की माँ से तब जन्मा ये कालजयी गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 497/2010/197 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत इन दिनों आप सुन और पढ़ रहे हैं नव रसों पर आधारित फ़िल्मी गीतों की लघु शृंखला 'रस माधुरी'। आज बारी है वीर रस की। वीर रस, यानी कि वीरता और आत्मविश्वास का भाव जो हर इंसान में होना अत्यधिक आवश्यक है। प्राचीन काल में राजा महाराजाओं, सेनापतियों और सैनिकों को वीर की उपाधि दी जाती थी जो युद्ध भी अगर लड़ते थे तो पूरे नियमों को ध्यान में रखते हुए। पीठ पीछे वार करने में कोई वीरता नहीं है, बल्कि उसे कायर कहते हैं। वीरता के रस अपने में उत्पन्न करने के लिए इंसान को धैर्य और प्रशिक्षण की ज़रूरत है। आत्मविश्वास को बढ़ाना होगा अपने अंदर। वीर रस का एक महत्वपूर्ण पक्ष है प्रतियोगिता का, जो बहुत ज़रूरी है अपने काबिलियत को बढ़ाने के लिए। लेकिन हार या जीत को अगर हम बहुत ज़्यादा व्यक्तिगत रूप से लेंगे तो फिर मुश्किल ही होगी। वीर रस की वजह से इंसान स्वाधीन होना चाहेगा, उसे किसी का डर नहीं होगा, और वह बढ़ निकलेगा अपने आप को बंधनों से आज़ाद कराने के लिए। भारत ने हमेशा अमन और सदभाव का राह चुना है। हमने कभी किसी को नहीं ललकारा। हज़ा

चेहरा छुपा लिया है किसी ने हिजाब में....मजलिस-ए-कव्वाली के माध्यम से सभी श्रोताओं को ईद मुबारक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 480/2010/180 आ प सभी को 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से ईद-उल-फ़ित्र की दिली मुबारक़बाद। यह त्योहार आप सभी के जीवन में ख़ुशियाँ लेकर आए ऐसी हम कामना करते हैं। ईद-उल-फ़ित्र के साथ रमज़ान के महीने का अंत होता है और इसी के साथ क़व्वालियों की इस ख़ास मजलिस को भी आज हम अंजाम दे रहे हैं। ४० के दशक से शुरु कर क़व्वालियों का दामन थामे हर दौर के बदलते मिज़ाज का नज़ारा देखते हुए आज हम आ गए हैं ८० के दशक में। जिस तरह से ८० के दशक में फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर ख़त्म होने की कगार पर था, वही बात फ़िल्मी क़व्वालियों के लिए भी लागू थी। क़व्वालियों की संख्या भी कम होती जा रही थी। फ़िल्मों में क़व्वालियों के सिचुएशन्स आने ही बंद होते चले गए। कभी किसी मुस्लिम सबजेक्ट पर फ़िल्म बनती तो ही उसमें क़व्वाली की गुंजाइश रहती। कुछ गिनी चुनी फ़िल्में ८० के दशक की जिनमें क़व्वालियाँ सुनाई दी - निकाह, नूरी, परवत के उस पार, फ़कीरा, नाख़ुदा, नक़ाब, ये इश्क़ नहीं आसाँ, ऊँचे लोग, दि बर्निंग्‍ ट्रेन, अमृत, दीदार-ए-यार, आदि। इस दशक की क़व्वालियों का प्रतिनिधि मानते हुए आज की कड़ी के लिए हमने चु

पुरवा सुहानी आई रे...थिरक उठते है बरबस ही कदम इस गीत की थाप सुनकर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 369/2010/69 'गी त रंगीले' शृंखला की नौवीं कड़ी के लिए आज हमने जिस गीत को चुना है, उसमें त्योहार की धूम भी है, गाँव वालों की मस्ती भी है, लेकिन साथ ही साथ देश भक्ति की भावना भी छुपी हुई है। और क्यों ना हो जब भारत कुमार, यानी कि हमारे मनोज कुमार जी की फ़िल्म 'पूरब और पश्चिम' का गाना हो, तो देश भक्ति के भाव तो आने ही थे! आइए आज सुनें इसी फ़िल्म से "पूर्वा सुहानी आई रे"। लता मंगेशकर, महेन्द्र कपूर, मनहर और साथियों की आवाज़ें हैं, गीत लिखा है संतोष आनंद ने और संगीतकार हैं कल्याणजी-आनंदजी। गीत फ़िल्माया गया है मनोज कुमार, विनोद खन्ना, भारती और सायरा बानो पर। आइए आज गीतकार व कवि संतोष आनंद जी की कुछ बातें की जाए! दोस्तों, कभी कभी सफलता दबे पाँव आने के बजाए दरवाज़े पर दस्तक देकर आती है। मूलत: हिंदी के जाने माने कवि संतोष आनंद को फ़िल्मी गीतकार बनने पर ऐसा ही अनुभव हुआ होगा! कम से कम गीत लिख कर ज़्यादा नाम और इनाम पाने वाले गीतकारों में शुमार होता है संतोष आनंद का। मनोज कुमार ने 'पूरब और पश्चिम' में उनसे सब से पहले फ़िल्मी गीत लिखवाया थ

आज मधुबातास डोले...भरत व्यास रचित इस गीत के क्या कहने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 367/2010/67 गी त रंगीले' शृंखला की सातवीं कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, इन दिनों हर बातें कर रहे हैं बसंत ऋतु की, फागुन के महीने की, रंगों की, फूलों की, महकती हवाओं की, पीले सरसों के खेतों की। इसी मूड को बरक़रार रखते हुए आज हमने एक ऐसा सुरीला नग़मा चुना है जिसके बोल जितने उत्कृष्ट हैं, उसका संगीत भी उतना ही सुमधुर है। लता मंगेशकर और महेन्द्र कपूर की आवाज़ों में यह है फ़िल्म 'स्त्री' का युगल गीत "आज मधुबातास डोले"। जब शुद्ध हिंदी में लिखे गीतों की बात चलती है, तो ऐसे गीतकारों में भरत व्यास का नाम शुरुआती नामों में ही शामिल किया जाता है। शुरु शुरु में फ़िल्मी गीतों में उर्दू का ज़्यादा चलन था। ऐसे में भरत ब्यास ने अपनी अलग पहचान बनाई और हिंदी का दामन थामा। कविता के ढंग में कुछ ऐसे गीत लिखे कि सुननेवाले मोहित हुए बिना नहीं रह पाए। आज का यह गीत भी एक ऐसा ही उत्कृष्टतम गीतों में से एक है। संगीत की बात करें तो सी. रामचन्द्र ने इस फ़िल्म में संगीत दिया था और शास्त्रीय संगीत की ऐसी छटा उन्होने इस फ़िल्म के गीतों में बिखेरी कि जैसे बसंत ऋत

एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है, गहरी सच्चाईयों की सहज अभिव्यक्ति यानी आवाज़े महेंदर कपूर

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 320/2010/20 औ र आज हम आ पहुँचे हैं 'स्वरांजली' की अंतिम कड़ी में। गत ९ जनवरी को पार्श्वगायक महेन्द्र कपूर साहब की जयंती थी। आइए आज 'स्वरांजली' की अंतिम कड़ी हम उन्ही को समर्पित करते हैं। महेन्द्र कपूर हमसे अभी हाल ही में २७ सितंबर २००८ को जुदा हुए हैं। ९ जनवरी १९३४ को जन्मे महेन्द्र कपूर साहब के गाए कुछ गानें आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुन चुके हैं। बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्मों में अक्सर हमने उनकी आवाज़ पाई है। साहिर लुधियानवी के बोल, रवि का संगीत और महेन्द्र कपूर की आवाज़ चोपड़ा कैम्प के कई फ़िल्मों मे साथ साथ गूंजी। इस तिकड़ी के हमने फ़िल्म 'गुमराह' के दो गानें सुनवाए हैं, " आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया " और " चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों "। आज भी हम एक ऐसा ही गीत लेकर आए हैं, लेकिन यह फ़िल्म बी. आर. चोपड़ा की दूसरी फ़िल्मों से बिल्कुल अलग हट के है। यह है १९७३ की फ़िल्म 'धुंध' का शीर्षक गीत, "संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है, एक धुंध से आना है एक धुंध में जाना है"। साहिर लुधिय

तू हुस्न है मैं इश्क हूँ, तू मुझमें है मैं तुझमें हूँ....साहिर, रवि, आशा और महेंद्र कपूर वाह क्या टीम है

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 195 आ शा भोंसले ने जिन जिन पार्श्व गायकों के साथ सब से ज़्यादा लोकप्रिय गानें गाये हैं, उनमें किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी के बाद, मेरे ख़याल से महेन्द्र कपूर का नाम आना चाहिए। बी. आर. चोपड़ा कैम्प के सदस्यों में संगीतकार रवि और गीतकार साहिर लुधियानवी के साथ साथ आशा भोंसले और महेन्द्र कपूर ने भी एक लम्बे समय तक काम किया है। आशा जी और महेन्द्र कपूर के गाए युगल गीतों में 'नवरंग', 'धूल का फूल', 'हमराज़', 'गुमराह', 'आदमी और इंसान', 'वक़्त', 'पति पत्नी और वो', और 'दहलीज़' जैसी मशहूर फ़िल्मों के गानें रहे हैं। आज हम जिस गीत को आप तक पहुँचा रहे हैं वह है फ़िल्म 'हमराज़' का, "तू हुस्न है मैं इश्क़ हूँ, तू मुझ में है मैं तुझ में हूँ"। करीब करीब ७ मिनट २७ सेकन्ड्स के इस गीत में इतिहास की मशहूर प्रेम कहानियों को बड़ी ही ख़ूबसूरती से साहिर साहब ने ज़िंदा किया है। सोहनी-महिवाल, सलीम-अनारकलि तथा रोमियो जुलियट की दास्तान का बयान हुआ है इस गीत में। १९६७ में बनी फ़िल्म 'हमराज़' बी. आर. चोपड

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों....साहिर ने लिखा यह यादगार गीत.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 180 श रद तैलंग जी के फ़रमाइशी गीतों को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं उनकी पसंद के पाँचवे और अंतिम गीत पर, और साथ ही हम छू रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के १८०-वे अंक को। आज का गीत है निर्माता-निर्देशक बी. आर चोपड़ा की फ़िल्म 'गुमराह' का "चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनो", जिसे महेन्द्र कपूर ने गाया है। इससे पहले भी हम ने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इसी फ़िल्म का एक और गीत आप को सुनवाया था महेन्द्र कपूर साहब का ही गाया हुआ, "आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए-नाशाद आया" । इस फ़िल्म के बारे में तमाम जानकारी आप उस आलेख में पढ़ सकते हैं। आज चलिए बात करते हैं महेन्द्र कपूर की। अभी पिछले ही साल २७ सितंबर के दिन महेन्द्र कपूर का देहावसान हो गया। वो एक ऐसे गायक रहे हैं जिनकी गायकी के कई अलग अलग आयाम हैं। एक तरफ़ अगर ख़ून को देश भक्ति के जुनून से गर्म कर देनेवाले देशभक्ति के गीत हैं, तो दूसरी तरफ़ शायराना अंदाज़ लिए नरम-ओ-नाज़ुक प्रेम गीत, एक तरफ़ जीवन दर्शन और आशावादी विचारों से ओत-प्रोत नग़में हैं तो दूसरी तरफ़ ग़मगीन टूटे दिल की सदा भी उनकी आ

मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती...गुलशन बावरा ने लिखा इस असाधारण गीत से इतिहास

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 174 औ र आज है तिरंगे के तीसरे रंग, यानी कि हरे रंग की बारी। हरा रंग है संपन्नता का, ख़ुशहाली का। "ख़ुशहाली का राज है, सर पे तिरंगा ताज है, ये आज का भारत है ओ साथी आज का भारत है"। जी हाँ दोस्तों, इस बात में कोई शक़ नहीं कि देश प्रगति के पथ पर क्रमश: अग्रसर होता जा रहा है। हरित क्रांति से देश में खाद्यान्न की समस्या बड़े हद तक समाप्त हुई है। लेकिन अब भी देश की आबादी का एक ऐसा हिस्सा भी है जिसे दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं। इस तिरंगे का हरा रंग उस दिन सार्थक होगा जिस दिन देश में कोई भी आदमी भूखा न होगा। आज तिरंगे के हरे रंग को सलामी देते हुए हमने जिस गीत को चुना है उस गीत से बेहतर शायद ही कोई और गीत होगा इस मौके के लिए। फ़िल्म 'उपकार' का सदाबहार देश भक्ति गीत "मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती" आप ने हज़ारों बार सुना होगा, आज भी सुनिए, रोज़ सुनिए, क्योंकि इस तरह के गीत रोज़ रोज़ नहीं बनते। यह एक ऐसा देश भक्ति गीत है जिसने एक इतिहास रचा है। शायद ही कोई स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस का पर्व होगा जो इस गाने के बग़ैर मनाया गया होगा

आप आये तो ख़्याल-ए-दिले नाशाद आया....साहिर के टूटे दिल का दर्द-ए-बयां बन कर रह गया ये गीत.

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 75 नि र्माता-निर्देशक बी. आर. चोपड़ा अपनी फ़िल्मों के लिए हमेशा ऐसे विषयों को चुनते थे जो उस समय के समाज की दृष्टि से काफ़ी 'बोल्ड' हुआ करते थे। और यही वजह है कि उनकी फ़िल्में आज के समाज में उस समय की तुलना में ज़्यादा सार्थक हैं। हमारी पुरानी फ़िल्मों में नायिका का चरित्र बिल्कुल निष्पाप दिखाया जाता था। तुलसी के पत्ते की तरह पावन और गंगाजल से धुला होता था नायिका का चरित्र। शादी से बाहर किसी ग़ैर पुरुष से संबंध रखने वाली नायिका की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। लेकिन ऐसा ही कुछ कर दिखाया चोपड़ा साहब ने सन १९६३ की फ़िल्म 'गुमराह' में। एक शादी-शुदा औरत (माला सिन्हा) किस तरह से अपने पति (अशोक कुमार) से छुपाकर अपने पहले प्रेमी (सुनिल दत्त) से संबंध रखती है, लेकिन बाद में उसे पता चलता है कि जिस आदमी से वो छुप छुप कर मिल रही है उसकी असल में शादी हो चुकी है (शशीकला से)। इस कहानी को बड़े ही नाटकीय और भावुक अंदाज़ में पेश किया गया है इस फ़िल्म में। अशोक कुमार, सुनिल दत्त, माला सिन्हा और शशीकला के जानदार अभिनय, बी. आर. चोपड़ा के सशक्त निर्देशन, और साहिर-रव

हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए - साहिर का लिखा एक खूबसूरत युगल गीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 56 ओ . पी. नय्यर ने अगर आशा भोंसले से सबसे ज़्यादा गाने लिये तो संगीतकार रवि ने भी लताजी से ज़्यादा आशाजी से ही गाने लिये। यहाँ तक की रवि के सबसे सफलतम गीत आशाजी ने ही गाये हैं। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में पेश है संगीतकार रवि और गायिका आशा भोंसले की जोड़ी का एक शायराना नग्मा । महेन्द्र कपूर की भी आवाज़ शामिल है इस गाने में। जोड़ी की अगर बात करें तो रवि के साथ शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी की जोड़ी भी ख़ूब जमी थी। हमराज़, नीलकमल, पारस, काजल, दो कलियाँ, गुमराह, आँखें, एक महल हो सपनों का, धुंध, और वक़्त जैसी कामयाब फ़िल्मों में साहिर और रवि ने एक साथ काम किया। आज aasha -महेन्द्र की आवाज़ों में जो गीत हम चुन कर लाए हैं वह है फ़िल्म वक़्त का। साहिर हमेशा से सीधे शब्दों में गहरी बात कह जाते थे। इस गीत में भी सीधे सीधे वो लिखते हैं कि "हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए, लाखों हसीन ख़्वाब निगाहों में आ गए"। बात है तो बड़ी सीधी, लेकिन तरीका बेहद सुंदर और रुमानीयत से भरपूर। फ़िल्म वक़्त बी. आर. चोपड़ा की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था यश चोपड़ा ने। यह हि

जो चला गया उसे भूल जा....मुकेश की आवाज़ में गूंजता दर्द

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 46 गा यक मुकेश ने सबसे ज़्यादा संगीतकार कल्याणजी आनंदजी और शंकर जयकिशन के लिए लोकप्रिय गीत गाए हैं, और कई गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के लिए भी. संगीतकार नौशाद के मनपसंद गायक थे मोहम्मद रफ़ी जिनसे उन्होने अपने सबसे ज़्यादा गाने गवाए. लेकिन कुछ गीत ऐसे भी हैं नौशाद साहब के जिन्हे मुकेश ने गाए हैं. एक ऐसी ही फिल्म है "साथी" जिसमें मुकेश ने कई गीत गाए. इन्ही में से एक गीत आज हम आप को सुनवा रहे हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. फिल्म "साथी" आई थी सन 1968 में. दक्षिण के निर्माता वीनस कृष्णमूर्ती की यह फिल्म थी जिसके लिए उन्होने नौशाद और मजरूह सुल्तानपुरी को गीत संगीत का भार सौंपा गया. इस फिल्म में सबसे लोकप्रिय गीत लताजी ने गाए - "मेरे जीवन साथी कली थी मैं तो प्यासी", "यह कौन आया रोशन हो गयी महफ़िल" और "मैं तो प्यार से तेरे पिया माँग सजाउंगी". मुकेश और सुमन कल्याणपुर का गाया "मेरा प्यार भी तू है यह बहार भी तू है" भी सदाबहार नग्मों में शामिल होता है. लेकिन इस फिल्म में मुकेश की आवाज़ में 3 गाने ऐसे भी हैं जिन्ह

संगीतकार हमेशा गायक से ऊँचा दर्जा रखता है, मानना था ओ पी नैयर का

( पहले अंक से आगे ...) "किस्मत ने हमें मिलाया और किस्मत ने ही हमें जुदा कर दिया....", अक्सर उनके मुँह से ये वाक्य निकलता था. आशा के साथ सम्बन्ध विच्छेद होने के बाद ओ पी का जीवन फ़िर कभी पहले जैसा नही रहा. इस पूरी घटना ने उनके पारिवारिक रिश्तों में भी दरारें पैदा कर दी थी. ये सब उनकी पत्नी, तीन बेटियों और एक बेटे के लिए लगभग असहनीय हो चला था. कुंठा से भरे ओ पी ने किसी साधू की सलाह पर सारी धन संपत्ति, घर (जो लगभग ६ करोड़ का था उन दिनों), गाड़ी, बैंक बैलेंस आदि का त्याग कर सब से अपना नाता तोड़ लिया. पर उनके परिवार ने कभी भी उन्हें माफ़ नही किया....कुछ ज़ख्म कभी नही भरते शायद. 1989 में घर छोड़ने के बाद उन्होंने एक मध्यमवर्गीय महाराष्ट्रीय परिवार के साथ पेइंग गेस्ट बन कर रहने लगे, और मरते दम तक यही उनका परिवार रहा. यहाँ उन्हें वो प्यार और वो सम्मान मिला जिसे शायद उम्र भर तलाशते रहे ओ पी. उस परिवार के एक सदस्या के अनुसार उन्हें अपने परिवार और फ़िल्म इंडस्ट्री के बारे में बात करना बिल्कुल नही अच्छा लगता था. सुरैया, शमशाद बेगम और कभी कभी गजेन्द्र सिंह (स रे गा माँ पा फेम) ही थी जिनसे वो