Skip to main content

Posts

मौसिकी अर्श के आफताब : उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ

सुर संगम- 42 – उन्हे मैसूर दरबार से “आफताब-ए-मौसिकी” (संगीत के सूर्य) की उपाधि से नवाजा गया भारतीय संगीत के प्रचलित घरानों में जब भी आगरा घराने की चर्चा होगी तत्काल एक नाम जो हमारे सामने आता है, वह है- आफताब-ए-मौसिकी उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ। ‘सुर संगम’ के आज के अंक में हम इन्हीं महान गायक कलासाधक को श्रद्धा-सुमन अर्पित करेंगे। पिछली शताब्दी के पूर्वार्द्ध के जिन संगीतज्ञों की गणना हम शिखर-पुरुष के रूप में करते हैं उस्ताद फ़ैयाज़ खान उन्ही में से एक थे। ध्रुवपद-धमार, खयाल-तराना, ठुमरी-दादरा, सभी शैलियों की गायकी पर उन्हें कुशलता प्राप्त थी। प्रकृति ने उन्हें घन, मन्द्र और गम्भीर कण्ठ का उपहार तो दिया ही था, उनके शहद से मधुर स्वर श्रोताओं पर रस-वर्षा कर देते थे। फ़ैयाज़ खाँ का जन्म ‘आगरा रँगीले घराना’ के नाम से विख्यात ध्रुवपद गायकों के परिवार में हुआ था। दुर्भाग्य से फ़ैयाज़ खाँ के जन्म से लगभग तीन मास पूर्व ही उनके पिता सफदर हुसैन खाँ का इन्तकाल हो गया। जन्म से ही पितृ-विहीन बालक को उनके नाना ग़ुलाम अब्बास खाँ ने अपना दत्तक पुत्र बनाया और पालन-पोषण के साथ-साथ संगीत-शिक्षा की व्यवस्था भी की।

कुछ एल पी गीतों की क्वालिटी तो आजकल के डिजिटल रेकॉर्डिंग् से भी उत्तम थी -विजय अकेला

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 66 गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-२) भाग ०१ यहाँ पढ़ें 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' मे पिछले सप्ताह हम आपकी मुलाकात करवा रहे थे गीतकार विजय अकेला से जिनसे हम उनके द्वारा सम्पादित जाँनिसार अख़्तर साहब के गीतों के संकलन की किताब 'निगाहों के साये' पर चर्चा कर रहे थे। आइए आज बातचीत को आगे बढ़ाते हुए आनन्द लेते हैं इस शृंखला की दूसरी और अन्तिम कड़ी। सुजॉय - विजय जी, नमस्कार और एक बार फिर आपका स्वागत है 'आवाज़' के मंच पर। विजय अकेला - धन्यवाद! नमस्कार! सुजॉय - विजय जी, पिछले हफ़्ते आप से बातचीत करने के साथ साथ जाँनिसार साहब के लिखे आपकी पसन्द के तीन गीत भी हमनें सुने। क्यों न आज का यह अंक अख़्तर साहब के लिखे एक और बेमिसाल नग़मे से शुरु की जाये? विजय अकेला - जी ज़रूर! सुजॉय - तो फिर बताइए, आपकी पसन्द का ही कोई और गीत। विजय अकेला - फ़िल्म 'नूरी' का शीर्षक गीत स

गिरिजेश राव की कहानी "श्राप"

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने प्रेमचंद की संस्मरणात्मक कहानी " निर्वासन " का पॉडकास्ट अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं गिरिजेश राव की कहानी " श्राप ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "श्राप" का कुल प्रसारण समय 8 मिनट 2 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट एक आलसी का चिठ्ठा पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। "पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं। तफसील पूछोगे तो कह दूँगा,मुझे कुछ नहीं पता " ~ गिरिजेश राव हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी "आज की रात चाँद कौन सी कला में था? था भी या रोते भांजे को बहलाने किसी और लोक की वासी बहन के घर गया था?" ( गिरि

कहाँ तुम चले गए ...बस यही दोहराते रह गए जगजीत के दीवाने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 780/2011/220 ज गजीत सिंह को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' की अंतिम कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, जगजीत सिंह का पंजाबी भाषा और पंजाबी काव्य को लोकप्रिय बनाने और दूर दूर तक फैलाने में भी उल्लेखनीय योगदान रहा है। शिव कुमार बटालवी की कविताओं को जनसाधारण तक पहुँचाने में उनका ऐल्बम 'बिरहा दा सुल्तान' उल्लेखनीय है। "माय नी माय मैं इक शिकरा यार बनाइया", "रोग बन के रह गिया है पियार तेरे शहर दा", "यारियां राब करके मैनुं पाएं बिरहन दे पीड़े वे", "एह मेरा गीत किसी नी गाना" इसी ऐल्बम के कुछ लोकप्रिय गीत हैं। १० मई २००७ को संसद के युग्म अधिवेषन में ऐतिहासिक केन्द्रीय हॉल में जगजीत सिंह नें बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़ल "लगता नहीं है दिल मेरा" गा कर भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) के १५० वर्ष पूर्ति पर आयोजित कार्यक्रम को चार चाँद लगाया। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम, प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह, उप-राष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत, लोक-सभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी, और कांग्रेस अध्

ये तेरा घर ये मेरा घर....आम आदमी की संकल्पनाओं को शब्द दिए जावेद अख्तर ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 779/2011/219 ज गजीत सिंह को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' में एक बार फिर से मैं, सुजॉय चटर्जी, आपका स्वागत करता हूँ। कल की कड़ी में हमनें आपको जगजीत और चित्रा सिंह के कुछ ऐल्बमों के बारे में बताया। उनके बाद जगजीत जी के कई एकल ऐल्बम आये जिनमें शामिल थे Hope, In Search, Insight, Mirage, Visions, कहकशाँ, Love Is Blind, चिराग, और सजदा। मिर्ज़ा ग़ालिब, फ़िराक़ गोरखपुरी, कतील शिफ़ई, शाहीद कबीर, अमीर मीनाई, कफ़ील आज़ेर, सुदर्शन फ़ाकिर, निदा फ़ाज़ली, ज़का सिद्दीक़ी, नाज़िर बकरी, फ़ैज़ रतलामी और राजेश रेड्डी जैसे शायरों के ग़ज़लों को उन्होंने अपनी आवाज़ दी। जगजीत जी के शुरुआती ग़ज़लें जहाँ हल्के-फुल्के और ख़ुशमिज़ाजी हुआ करते थे, बाद के सालों में उन्होंने संजीदे ग़ज़लें ज़्यादा गाई, शायद अपनी ज़िन्दगी के अनुभवों का यह असर था। ऐसे ऐल्बमों में शामिल थे Face To Face, आईना, Cry For Cry. जगजीत जी के ज़्यादातर ऐल्बमों के नाम अंग्रेज़ी होते रहे, और कईयों में उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ जैसे कि 'सजदा', 'सहर', 'मुन्तज़िर', 'मारासिम' और &

बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए...पारंपरिक बोलों पर जगजीत चित्रा के स्वरों की महक

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 778/2011/218 'ओ ल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों का स्वागत है इस स्तंभ में जारी शृंखला 'जहाँ तुम चले गए' की आठवीं कड़ी में। आपको याद दिला दें कि यह शृंखला समर्पित है ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह को जिनका हाल में निधन हो गया। ७० के दशक में ग़ज़ल गायकी पर जिन कलाकारों का दबदबा था वो थे नूरजहाँ, मल्लिका पुखराज, बेगम अख़्तर, तलत महमूद, और महदी हसन। इन महारथियों के होने के बावजूद जगजीत सिंह नें अपनी पहचान बना ही ली। १९७६ में उनका पहला एल.पी रेकॉर्ड बाज़ार में आया 'The Unforgetables' के शीर्षक से। इस ऐल्बम की ख़ास बात यह थी कि उन दिनों ग़ज़ल गायकी शास्त्रीय संगीत आधारित हुआ करता था, पर जगजीत सिंह नें हल्के-फुल्के अंदाज़ में ग़ज़लों को गाया और बहुत लोकप्रिय हुईं ये ग़ज़लें। ग़ज़ल के रेकॉर्डों की बिक्री के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए उनकी गाई ग़ज़लों नें। १९६७ में जगजीत सिंह की मुलाक़ात चित्रा से हुई थी जो ख़ुद भी एक गायिका थीं। दो साल बाद दोनों नें शादी कर ली और उनकी यह जोड़ी पहली पति-पत्नी की जोड़ी थी जो गायक-गायिका के रूप में साथ में पर्फ़ॉर्म किया करते। ग़ज़ल जगत को समृद्ध करने

इश्क़ से गहरा कोई न दरिया....सुदर्शन फाकिर और जगजीत का मेल

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 777/2011/217 'ज हाँ तुम चले गए' - इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप यह लघु शृंखला। कल हमारी बात आकर रुकी थी जगजीत जी के नामकरण पर। आइए आज उनके संगीत की कुछ बातें बताई जाएं। बचपन से ही जगजीत का संगीत से नाता रहा है। श्रीगंगानगर में उन्होंने पण्डित शगनलाल शर्मा से दो साल संगीत सीखा, और उसके बाद छह साल शास्त्रीय संगीत के तीन विधा - ख़याल, ठुमरी और ध्रुपद की शिक्षा ग्रहण की। इसमें उनके गुरु थे उस्ताद जमाल ख़ाँ जो सैनिआ घराने से ताल्लुख़ रखते थे। ख़ाँ साहब महदी हसन के दूर के रिश्तेदार भी थे। पंजाब यूनिवर्सिटी और कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के वाइस चान्सलर स्व: प्रोफ़ सूरज भान नें जगजीत सिंह को संगीत की तरफ़ प्रोत्साहित किया। १९६१ में जगजीत बम्बई आए एक संगीतकार और गायक के रूप में क़िस्मत आज़माने। उस समय एक से एक बड़े संगीतकार और गायक फ़िल्म इंडस्ट्री पर राज कर रहे थे। ऐसे में किसी भी नए गायक को अपनी जगह बनाना आसान काम नहीं था। जगजीत सिंह को भी इन्तज़ार करना पड़ा। वो एक पेयिंग् गेस्ट बन कर रहा करते थे और शुरुआती दिनों में

ये जो घर आँगन है...जगजीत व्यावसायिक सिनेमा के दांव पेचों में कुछ मधुरता तलाश लेते थे

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 776/2011/216 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस नए सप्ताह में आप सभी का एक बार फिर से मैं, सुजॉय चटर्जी, साथी सजीव सारथी के साथ स्वागत करता हूँ। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह पर केन्द्रित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। इस शृंखला में हमारी कोशिश यही है कि जगजीत जी की आवाज़ के साथ साथ ज़्यादातर उन फ़िल्मों के गीत शामिल किए जाएँ जिनका संगीत भी उन्होंने ही तैयार किया है। पाँच गीत आपनें सुनें जो लिए गए थे 'अर्थ', 'कानून की आवाज़', 'राही', 'प्रेम गीत' और 'आज' फ़िल्मों से। आज के अंक के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'बिल्लू बादशाह' का। यह १९८९ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण सुरेश सिंहा नें किया था और निर्देशक थे शिशिर मिश्र। शीर्षक चरित्र में थे गोविंदा, और साथ में थे शत्रुघ्न सिंहा, अनीता राज, नीलम और कादर ख़ान। जगजीत सिंह फ़िल्म के संगीतकार थे और गीत लिखे निदा फ़ाज़ली और मनोज दर्पण नें। इस फ़िल्म में गोविंदा का ही गाया "जवाँ जवाँ" गीत ख़ूब मशहूर हुआ था जो हसन जहांगीर के ग़ैर फ़िल्मी ग

नज़रे करम फरमाओ...जगजीत सिंह के बेमिसाल मगर कमचर्चित शास्त्रीय गायन की एक झलक

सुर संगम- 41 – गायक जगजीत सिंह की संगीत-साधना को नमन ‘ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी गीत-संगीत प्रेमियों का, मैं कृष्णमोहन मिश्र आज ‘सुर संगम’ के नए अंक में स्वागत करता हूँ। पिछले दिनों १० अक्तूबर को विख्यात गीत, ग़ज़ल, भजन और लोक संगीत के गायक और साधक जगजीत सिंह के मखमली स्वर मौन हो गए। सुगम संगीत के इन सभी क्षेत्रों में जगजीत सिंह न केवल भारतीय उपमहाद्वीप में बल्कि पूरे विश्व में लोकप्रिय थे। ‘सुर संगम’ के आज के अंक में हम भारतीय संगीत में उनके प्रयोगधर्मी कार्यों पर चर्चा करेंगे। जगजीत सिंह का जन्म ८ फरवरी, १९४१ को राजस्थान के गंगानगर में हुआ था। पिता सरदार अमर सिंह धमानी सरकारी कर्मचारी थे। जगजीत सिंह का परिवार मूलतः पंजाब के रोपड़ ज़िले के दल्ला गाँव का रहने वाला है। उनकी प्रारम्म्भिक शिक्षा गंगानगर के खालसा स्कूल में हुई और बाद में माध्यमिक शिक्षा के लिए जालन्धर आ गए। डी.ए.वी. कॉलेज से स्नातक की और इसके बाद कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की। जगजीत सिंह को बचपन मे अपने पिता से संगीत विरासत में मिला था। गंगानगर मे ही पण्डित छगनलाल शर्मा से दो साल

जाँनिसार अख्तर की पोयट्री में क्लास्सिकल ब्यूटी और मॉडर्ण सेंसब्लिटी का संतुलन था - विजय अकेला की पुस्तक से

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 65 गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-१ ) 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' के साथ मैं एक बार फिर हाज़िर हूँ। दोस्तों, आपनें इस दौर के गीतकार विजय अकेला का नाम तो सुना ही होगा। जी हाँ, वो ही विजय अकेला जिन्होंने 'कहो ना प्यार है' फ़िल्म के वो दो सुपर-डुपर हिट गीत लिखे थे, "एक पल का जीना, फिर तो है जाना" और "क्यों चलती है पवन... न तुम जानो न हम"; और फिर फ़िल्म 'क्रिश' का "दिल ना लिया, दिल ना दिया" गीत भी तो उन्होंने ही लिखा था। उन्हीं विजय अकेला नें भले ही फ़िल्मों में ज़्यादा गीत न लिखे हों, पर उन्होंने एक अन्य रूप में भी फ़िल्म-संगीत जगत को अपना अमूल्य योगदान दिया है। गीतकार आनन्द बक्शी के गीतों का संकलन प्रकाशित करने के बाद हाल ही में उन्होंने गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों का संकलन प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'निगाहों के साये'

रिश्ता ये कैसा है....जिस रिश्ते से बंधे हैं जगजीत और उनके चाहने वाले

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 775/2011/215 न मस्कार! 'जहाँ तुम चले गए', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है गायक और संगीतकार जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप यह लघु शृंखला में जिसमें हम उनके गाये और स्वरबद्ध गीत सुन रहे हैं। अब तक हमने इस शृंखला में चार गीत सुनें जगजीत जी द्वारा स्वरबद्ध किए हुए, जिनमें से दो उन्हीं के गाये हुए थे, तथा एक एक गीत लता जी और आशा जी की आवाज़ में थे। आज जो गीत हम लेकर आये हैं, उसे भी जगजीत जी नें ही कम्पोज़ किया है, पर गाया है उनकी पत्नी और गायिका चित्रा सिंह नें। यह गीत है फ़िल्म 'आज' का "रिश्ता ये कैसा है, नाता ये कैसा है"। यह १९९० की फ़िल्म थी महेश भट्ट द्वारा निर्देशित। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज किरण, कुमार गौरव, अनामिका पाल, स्मिता पाटिल और मार्क ज़ुबेर। फ़िल्म के तमाम गीत जगजीत और चित्रा सिंह नें गाये। फ़िल्म का शीर्षक गीत जगजीत जी का गाया हुआ था। फ़िल्म 'राही' के उसी गीत की तरह यह भी एक आशावादी दार्शनिक गीत था "फिर आज मुझे रुमको बस इतना बताना है, हँसना ही जीवन है, हँसते ही जाना है"। आज का प्रस्तुत गी

तेरे गीतों की मैं दीवानी ओ दिलबरजानी...फिल्म संगीत की शोखियों से भी वाकिफ़ थे जगजीत

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 774/2011/214 न नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, चारों तरफ़ दीवाली की धूम है, ख़ुशियों भरा आलम है, पर इस बार दीवाली मनाने को जी नहीं करता। ग़ज़लों के शहदाई ग़मगीन हैं ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह के आकस्मिक निधन से। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है स्वर्गीय जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप उन्हें समर्पित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। इसमें हम न केवल उनके गाये फ़िल्मी गीत सुनवा रहे हैं, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश यही है कि उनके द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों के गीत शामिल किए जाएँ। आज हमनें जिस गीत को चुना है, उसे जगजीत सिंह नें स्वरबद्ध किया है और गाया है आशा भोसले नें। गीत के बारे में बताने से पहले ये रहा आशा जी का शोक संदेश - "जगजीत जी की ग़ज़लें मन को शान्ति देती है, उनकी ग़ज़लों को सुनना एक सूदिंग् एक्स्पीरियन्स होता है। अगर किसी को दैनन्दिन तनाव से बाहर निकलना चाहता है तो सबसे अच्छा साधन है जगजीत सिंह का कोई रेकॉर्ड बजाना। मुझे चित्रा के लिए बहुत अफ़सोस है। उन्होंने पहले अपने बेटे को ख

ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो....आशा के स्वर जगजीत के सुरों में

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 773/2011/213 न मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह को, जिनका पिछले १० अक्टूबर को देहावसान हो गया। 'जहाँ तुम चले गए' शृंखला की कल की कड़ी में हमने लता जी का शोक-संदेश आप तक पहुंचाया था, आइए आज कुछ और शोक-संदेश पढ़ें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नें कहा कि जगजीत सिंह अपने गोल्डन वायस के लिए हमेशा याद किए जायेंगे। उनके शब्दों में - " by making ghazals accessible to everyone, he gave joy and pleasure to millions of music lovers in India and abroad....he was blessed with a golden voice. The ghazal maestro’s music legacy will continue to “enchant and entertain” the people. " गीतकार जावेद अख़्तर बताते हैं, " जगजीत सिंह की मृत्यु नें हिन्दी फ़िल्म और म्युज़िक इंडस्ट्री को कभी न पूरी होने वाले क्षति पहुँचाई है। मैंने उनको पहली बार स्कूल में रहते हुए सुना था जब मैं IIT Kanpur के एक कार्यक्रम में गया था, वह था 'Music Night by Jagjit Singh and Chitra'। " शास्त्रीय गायिका शुभा

सिंदूर की होय लम्बी उमरिया...जगजीत और लता जी की पहली भेंट

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 772/2011/212 न नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है मशहूर ग़ज़ल गायक व संगीतकार स्वर्गीय जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप हमारी ख़ास शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। उनका जाना ग़ज़ल-जगत के लिए एक विराट क्षति है जिसकी कभी भरपाई नहीं हो सकती। स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर नें अपने शोक संदेश में एक निजी न्यूज़ चैनल को बताया, "इस बात का मुझे बहुत दुख है, बहुत ही ज़्यादा दुख है कि जगजीत जी आज हमारे बीच नहीं रहे। मैंने उनके साथ काम किया है, और एक ही रेकॉर्ड किया था, और वो उस वक़्त बहुत चला था। और मुझे वो सब बातें याद आती हैं कि कैसे उन्होंने वह गाना रेकॉर्ड किया था, कैसे वो मुझे सिखाते थे, क्या क्या बातें होती थीं, सब। पहले तो वो मुझे गानें पढ़ के सुनाये, ग़ज़लें जो थीं, फिर कहा कि जो पसन्द नहीं आती हैं, वो मत गाइए। मैंने कहा कि नहीं ऐसी बात नहीं है, सभी ग़ज़लें अच्छी हैं। और जब उन्होंने रिहर्सल्स शुरु किए तो एक चीज़ वो बताते थे कि ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए, इस तरह से नहीं इस तरह से गाना चाहिए, मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं एक नई सिंगर आई हू

तुम इतना जो मुस्कुरा रही हो....जब कैफी के सवालों को स्वरों में साकार किया जगजीत ने

ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 770/2011/210 न मस्कार! श्रोता-मित्रों, गत १० अक्टूबर को काल के क्रूर हाथों नें हमसे छीन लिया एक बेमिसाल फ़नकार को। ये वो फ़नकार रहे जिनकी मख़मली आवाज़ नें ग़ज़ल गायकी को न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि छोटे, बड़े, बूढ़े, हर पीढ़ी के चहेते ग़ज़ल गायक बन कर उभरे। ग़ज़ल-सम्राट जगजीत सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। ब्रेन-हैमरेज की वजह से उन्हें २३ सितम्बर को मुंबई के लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया था। १८ दिनों तक ज़िन्दगी और मौत के बीच लड़ाई चली और आख़िर में मौत हावी हो गया, और १० अक्टूबर सुबह ८:१० बजे जगजीत जी इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह गए। ऐसा लगा जैसे उन्हीं का गाया वह गीत उन पर लागू हो गया कि "चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वह कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए"। पर जीवितावस्था में जगजीत जी जो काम कर गए हैं, वो उन्हें अमर बना दिया है। जब जब ग़ज़ल गायकी की बात चलेगी, जब जब ग़ज़लों का ज़िक्र छिड़ेगा, तब तब जगजीत सिंह का नाम सम्मान से लिया जाएगा। स्वर्गीय जगजीत सिंह को 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से श्रद्धांजली स्वरूप आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल

‘जिनके दुश्मन सुख मा सोवें उनके जीवन को धिक्कार...’ वीर रस की लोक-काव्य-धारा : आल्हा

सुर संगम- 40 – आल्हा-ऊदल चरित्रों की ऐतिहासिकता ( पहला भाग ) सुर संगम’ के गत सप्ताह के अंक में हमने बुन्देलखण्ड की वीर-भूमि में उपजी और और समूचे उत्तर भारत में लोकप्रिय लोक-गायन शैली ‘आल्हा’ पर चर्चा आरम्भ की थी। आज के अंक में हम इस लोकगाथा के दो वीर चरित्रों- आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता पर चर्चा करेंगे। बारहवीं शताब्दी में उपजी लोक संगीत की यह विधा अनेक शताब्दियों तक श्रुति परम्परा के रूप जीवित रही। परिमाल राजा के भाट जगनिक ने इस लोकगाथा को गाया और संरक्षित किया। आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता के विषय में पिछले दिनों हमने बुन्देलखण्ड की लोक-कलाओं और लोक-साहित्य के शोधकर्त्ता, उरई निवासी श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ से चर्चा की थी। बारहवीं शताब्दी के इतिहास में आल्हा और ऊदल का उल्लेख उस रूप में नहीं मिलता, जिस रूप में ‘आल्ह खण्ड’ में किया गया है, इस प्रश्न पर श्री कुमुद का कहना है कि इतिहास केवल राजाओं को महत्त्व देता है, सामान्य सैनिकों को नहीं,चाहे वे कितने भी वीर क्यों न हों। गायक जगनिक ने पहली बार सेना के सामान्य सरदारों और सैनिकों को अपनी गाथा में शामिल कर उनका यशोगान किया। उसने

ऑडियो: मुंशी प्रेमचन्द की निर्वासन

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में घुघूतीबासूती के व्यंग्य ओह! का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं मुंशी प्रेमचंद की हृदयविदारक कहानी "निर्वासन" , जिसको स्वर दिया है अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा ने। कहानी का कुल प्रसारण समय 14 मिनट 20 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। इस कथा का टेक्स्ट सत्यार्थमित्र ब्लॉग पर उपलब्ध है। यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें। मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी "तुम इतने दिनों कहाँ रहीं, किसके साथ रहीं, किस तरह रहीं और फिर यहाँ किसके साथ आयीं?"  ( प्रेमचंद की "निर्वासन" से एक अंश ) न